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अनेकान्त
[ फाल्गुण, वीर-निर्वाण सं० २४:५
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अथर्व०, तथा साम की तरह उनके प्रथमानुयोग, चरणा- तक हिन्दू-धर्मकी भी वही अवस्था है जो जैन धर्म की । नुयोग, करणानुयोग द्रव्यानुयोगके ग्रन्थों में वह वाणी इसका कारण है साहित्यिक अज्ञानता। जिसके निमित्त संकलित कही जाती है । मोक्ष तथा निर्वाणकी प्राप्ति कारण हैं बहुत दूरतक जैनी ही, जो अपने बहुतसे अमूल्य कर्मोका क्षय होजाने पर बौद्ध तथा जैन दोनों धर्म ग्रन्थों को अबतक भी समाजके सामने नहीं रख सके । मानते हैं । बुद्ध भगवान्ने चारित्र के सम्बन्धमें बहुत एक समय था जब पाश्चात्य विद्वान लेविज ( Leth ज़्यादा ज़ोर दिया है । जैन-धर्म सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, Bridge. ) तथा एलफिन्सटन ( Elpliinstone) सम्यक्चारित्र इन तीनोंपर एकसा ज़ोर देता है, जिसे जैसे विद्वान जैनधर्मको छटवीं शताब्दी में पैदा हुआ रत्नत्रय कहा जाता है। धर्म, बुद्ध तथा संघको यही स्थान बतलाते थे, विलसन (Wilson) लासेन (Lilssen) बौद्ध-धर्ममें प्राप्त है । हिन्दू-धर्ममें तो किसी एकके द्वारा वार्थ ( Burth ) वेवर ( Welhi ) आदिने तो जैनभी मोक्ष प्राप्त हो सकता है-चाहे वह केवल ज्ञान धर्मको बौद्ध धर्मकी शाखा ही बता दिया था। डा० बुहहो, चाहे केवल कर्म या केवल वैराग्य या केवल लर और हालही में स्वर्गस्थ होने वाले जर्मन विद्वान भक्ति हो ।
जैन-दर्शन-दिवाकर डाक्टर हरमन जैकोबीने कमसे हिन्दुओंके धर्मशास्त्र केवल संस्कृत भाषामें वा कम २३ वें तीर्थकर पार्श्वनाथ तक जैनियोंका ऐतिहा. बादको हिंदी में भी तैयार किये गये; किन्तु जैनधर्मके सिक काल स्वीकृत किया है । यदि हम खोज करते तो प्राचीन ग्रन्थ अर्धमागधी प्राकृत भाषामें और बादको हम भी उसी निष्कर्षको पहुँचते, पर हमारा दुर्भाग्य है संस्कृत तथा हिन्दी-भाषामें भी रचे गये, जैन तथा बौद्ध कि हम अपना महत्व पश्चिमकी रञ्जित अांखों द्वारा ही दोनों धर्मोका यह उद्देश्य था कि धार्मिक विचारोंका देखते हैं। उनके निष्कर्ष के बाद हम भी उनके पद चिन्हों प्रचार जनताकी बोलचालकी भापामें ही होना चाहिये पर चलनेको तैयार हो जाते हैं।
और इसलिये जैन-लेखकोंने प्राकृत तथा अन्य प्रान्तीय खेद है कि हम भारतवासियोंने भी यहाँके जन्म भाषाओंको साहित्यिक-दृष्टि से बहुत मूल्यवान बना दिया। लेनेव ले जैन और बौद्ध धर्मको अच्छी तरह समझनेका दक्षिण भारतकी तामिल,कनाड़ी आदि बहुत सी भाषाओंके यत्न नहीं किया और न हम पुरानी कुभावनाओं से भादि ग्रन्थ तो जैनाचार्योंके ही लिखे हुए हैं । बौद्धोंने अपनेको ऊपर ही उठा सके । हमने जहाँ क्षपणकको पाली भाषाको अपनाकर उसे ही उच्च-शखरपर पहुँचाया। देखा कि कुण्डलकी चोरी या ऐसा ही कोई और प्रणितभक्तिकालीन भारतमें तथा बाद के कालमें बना- कार्य उसके पीछे लगा दिया। हम तो "न पठेत् यामनी रसीदास आदि जैसे कवियोंने हिन्दी-साहित्यके प्रति भाषां प्राणैः कण्ठ गतैरपि, हस्तिना ताड्यमानोऽपि न बड़ा उपकार किया है। आजकलके तो प्रायः सभी गच्छेज्जैन मन्दिरम्' का पाठ लिये हुए अपने दृष्टि-कोणलेखक जैन तथा बौद्ध साहित्य हिन्दी-भाषामें लिख रहे को पहिलेसे ही दूपित किये हुए बैठे थे । यद्यपि हमारे है । जैनियोंके आजकल के हिसाबसे माने हुए इतिहास शास्त्रों में जैन और बौद्धोंसे बढ़कर चार्वाक आदि जैसे कालके पूर्वके महापुरुषों तथा उनकी कृतियोंको इतिहास घोर तथा वास्तविक नास्तिक पहलेसे ही थे, फिर यदि प्रबतक माननेको तैयार नहीं। इस संबन्ध में कुछ हद- जैन और बौदोंने भी इसी तरहसे कुछ अनर्गल अथवा