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वर्ष २, किरण ५]
परिवर्तन
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बिखरा हुआ था। लगता था-बनस्पति-बाला रूप- कर खेल रहे थे। वह अपने 'आप' को भूले जारहे थे। प्रतियोगिताके लिये साज-श्रृंगार युक्त खड़ी है!
---- और आगे बढ़ गए। __ रंग-बिरंगे फूलों, हरी हरी दूब और कुहु-बादिनी- .. हँय ! यह पापाण-स्तम्भ नहीं' पाषाण-बत, कोयलों; शुकों द्वारा वह पार्वतीय-उपवन रमणीकता- स्थिर, कायोत्सर्ग-धारी ऋषिराज हैं!-- सहसा कमारकी सीमा बनाया था ! धवलित-निझरोका निनाद, के मुखसे प्रकट हुआ। वह समीपमें उनके सन्मुख विचित्र प्रकारके संगीतका सुजन कर रहा था! खड़े हो, दर्शन करने लगे ! मनकी विचार-धारा दूसरी सौरभित-मलय-समीर सरस-हृदयोंमें मादकता का दिशाकी ओर बहने लगी!उत्पादन कर रही थी!...चराचर, जसे सभी सौन्दर्य
'धन्य ! योगीश्वर ! निस्पृही, मोक्षाभिलाषी ! मदिरा पी, उन्मत्त हो रहे थे !
...कितना पवित्र, कितना प्रादर्श, और कितना मनुऔर तभी-...
करणीय जीवन है-इनका ! इन्हींका जीवन, जीवन उपवन के प्रबल-आकर्षणने पथ पर जाते हुए कहलानेका अधिकारी हो सकता है। बामना रहित, युवकोंका ध्यान अपनी ओर खींचा। वह रुक गये।... राग-दंश वर्जित परोपकार और प्रात्म-माराधना पर्ण! उतरे।
यथार्थ सुख पथके पथिक ! मुक्ति-मन्दिर के निकट ! 'इतनी रमणीक यह कौन-सी जगह है ?'- बज्र- इन्द्रिय-विकार विजयी !..." बाहुने उपवन को भर नज़र देखते हुए कहा!
'उह ! कितना सौम्य है मुख मण्डल, क्षीग शरीर 'बसन्त-गिरि-शल !' उदयसुन्दरने उत्तर दिया। होने पर भी तपोबलकी कैमी प्रग्बर-दीप्ति विराज रही
'कुछ देर यहाँ विश्राम किया जाए तो क्या है? जैसे शशि बिम्बसे सौम्य, सम्वद कति ! कैसी हानि ?-राजकुमारके सरस-मनसे निकला।
अलौकिक अजेय शक्ति उपार्जन की है--कि 'वसन्त' कुछ नहीं !'...-और तभी उदय सुन्दर भगिनी- की मधुर बेला भी परास्त हो रही है ! वही नासाग्र भाग मनोदयाके बैठने के लिये स्थानकी व्यवस्थामं लगा। पर दृष्टि ! वही अचल वैराग्य पूर्ण, दिगम्बर पवित्र
राजकुमार–बज्रबाहु लता-मण्डपोंकी शोभा निर- वेष!...) खते, आगे बढ़े !
यज्रवाहुकी सरस दृष्टिमें परिवर्तनका नाट्य हृदय आनन्दसे उन्मत्त हो रहा था।
आरम्भ हुआ। वह निनिमेप देखते-भर रह गये! अहो ! कितने मुहावने वह आम्र-बृक्ष .... यह हृदय में महत्भावनाएं तरगित होने लगी। कर्णिकार--जातिके, और यह...?--अग्निकी तरह यदि मैं इस वेषको स्वीकार कर लं...?-क्या दहकते हुए कुसुम वाले--रौद्र जाति के वृक्ष ? ' 'वाह विषयान्वित हृदय पवित्र न बन जाएगा ?..'अवश्य ! कितने प्रकार के पादप समुदाय मण्डित है-यह उद्यान अफ ! मैंने जीवन के इतने अमूल्य दिन व्यर्थ गँवा कैसी मनोहारी शोभा है-यहां शरीरको कैसी आनन्द- दिये ! धिक मेरी दषित बद्धिको! पर अब भी मैं वर्धक वायु लगती है-जैसे विरहीको प्रिया-मिलन ! ।
बरहाका प्रिया-मिलन अपनी दुखद भूलको, आत्म-चिन्तन के मार्ग पर लगा .. 'कोकिलोका मधुर-रव कैसा प्रिय मालुम देता है कर सुधार सकता हैं।..जो हमा, वह हमा!.... जैसे समरांगण में विजय-सन्देश!
__ कुमारकी चञ्चल दृष्ठि जैसे कील दी गई हो। वह -और वह ..? - वह क्या है, भग्न द्रुम या मंत्र मुग्धकी तरह ज्यों के त्यों खड़े देखते रहे । हृदयपाषाण-स्तम्भ ?.. उस लता मण्डपके उधर !... में विचारोंके ज्वार भाटे पा रहे थे। लेकिन वह
कुमारका हृदय हर्षसे प्लावित हो रहा था! क्षणिक न थे, स्थायित्व उनके साथ था । वह सोचने कल्पना-प्रांगण में कौतुहल, जिज्ञासा, और प्रमोद मिल लगे