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वर्ष २ किरण ३]
प्रभाचन्द्रके समयकी सामग्री
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___ यद्यपि सन्यासियोंकी शिष्य-परम्पराके लिए का वे इस तरह जोर देकर उल्लेख करते हैं, तब प्रत्येक पीढ़ीका समय २५ वर्ष मानना आवश्यक उक्त कल्पनाको स्थान ही नहीं मिलता। नहीं है क्योंकि कभी कभी २० वर्षमें ही शिप्य व्योमवती का अन्तः परीक्षण व्योमवती प्रशिष्यों की परम्परा चल जाती है। फिर भी यदि (पृ० ३०६,३०७,६८० ) में धर्मकीर्तिके प्रमागाप्रत्येक पीढ़ी का समय २५ वर्ष ही माना जाय तो वार्तिक (२.११. १२ तथा १-६८.७२) से कारिकाप भी व्योमशिवकी अधिकसे अधिक उत्तरावधि ई. उद्धृत की गई हैं। इसी तरह व्योमवती (पृ.६१७) सन ६७० से आगे नहीं जा सकती।
में धर्मकीत्तिके हेनुविन्दु प्रथमपरिक "डिगिडक दार्शनिकग्रन्थोंके आधारसं समय-व्योम- रागं परित्यज्य अक्षिणी निमील्य" इम वाक्यका शिव स्वयं ही अपनी व्योमवती टीका (१० ३६२)में प्रयोग पाया जाता है। इसके अतिरिक और भी श्रीहर्षका एक महत्वपूर्ण ढंगसं उल्लेख करते हैं। बहुतसी कारिका प्रमाणवार्तिककी उद्धन देखी
जाती है। यथा
व्योमवती ( पृ. ५६१,५६२ ) में कुमारिलक ___"अतएव मदीयं शरीरमिन्यादि प्रत्यये
मीमांसा श्लोकवार्निकम अनेक कारिकापन प्यान्मानुगगमद्भावेऽपि आत्मनोऽवच्छेद- हैं। व्योमवती ( पृ० १२६ ) में उदोतकरका नाम कत्वम् । श्रहपं देवकुलमिति ज्ञाने श्रीहर्षम्येव लिया है । भतृहरि के शब्दाबैन दर्शनका (पृ०२०च) उभयत्रापि बाधकमद्भाधान, यत्र ह्यनुगग
खण्डन किया है और प्रभाकर के स्मृतिप्रमापवादका
भी ( पृ० ४४० ) ग्वंडन किया है। मद्भावेऽपि विशेपणन्वे बाधकमम्ति नत्रा
इनमें भत हरि धर्मकीनि, कुमारिल तथा वच्छेदत्वमेव कल्प्यते इति । अस्ति च प्रभाकर ये सब प्राय: सममायिक और ईमाकी श्रीहर्षम्य विद्यमानन्वम । अान्मनि कर्न त्व- सातवीं शताब्दिके पूर्वार्द्ध के विद्वान है। उनातकर करणत्वयोगसम्भव इनि बाधकम...।"
छठी शताब्दिक विद्वान हैं। अत: व्याशिवक
द्वारा इन सममामायक एवं किंचित्पूर्ववर्मी विद्वानों यद्यपि इम मन्दर्भ का कुछ पाठ दृटा मालूम
का उल्लेग्ब तथा समालोचनका होना मंगन ही है। होताहै फिरभी'अस्तिच श्रीहर्षस्य विद्यमानत्वम' यह वाक्य म्याम नौरस ध्यान देने योग्य है । इससे
व्योमबती ( पृ० १५ ) में वाणकी कादम्बरीका
उल्लंग्व है । वागण हर्पकी मभाके विद्वान थे, अनः साफमालूम होता है कि श्रीहर्प (05-117A.D. राज्य ) व्योमशिवके समयमें विद्यामान थे। यद्यपि इसका उल्लेग्य भी होना टीक ही है। यहां यह कहा जा सकता है कि व्यामशिव श्रीहर्ष
व्यामवनी टीकाका उल्लेग्य करनेवाले परवर्ती
ग्रन्थकारॉम शान्नचित, विद्यानन्द, वाचस्पनि, के बहुत बाद होकर भी ऐसा उल्लंग्य कर सकते हैं;
प्रभाचन्द्र, श्रीधर. जयंत. उदयन, वादिगज, वादिपरन्तु जब शिलालेखम उनका ममय ई० मन देवमूरि, गुगणरत्न, मिर्पि नथा हेमचंद्र विशेषरूप६७. से आगे नहीं जाता तथा श्रीहर्षकी विद्यमानता सं उल्लेखनीय हैं ।