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वर्ष २, किरण ५ ]
गोत्र कर्म पर शास्त्रीजीका उत्तर लेख
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व्यर्थकी अप्रिय चर्चाको आगे बढ़ाना उचित मालूम वाक्य से प्रकट है:नहीं होता। अतः उज्र-माज़रत, सफ़ाई-सचाई तथा आर्यखण्डोद्भवा आर्या म्लेच्छाः केचिच्छकादयः। व्यक्तिगत आक्षेप और कटुक अालोचनाकी बातोंको म्लेच्छखण्डोद्भवा म्लेच्छा अन्तरद्वीपजा अपि ॥ छोड़कर, जो बातें गोत्रकर्मकी प्रस्तुत चर्चासे खास
-तत्त्वार्थसार मम्बंध रखनी हैं उन्हीं पर यहां सविशेषरूपसे विचार अर्थात्-अार्यखण्डमें उत्पन्न होनेवाले मनुष्य किये जानकी ज़रूरत है। विचार के लिये वे विवादापन्न प्रायः करके तो 'आर्य' हैं परन्तु कुछ शकादिक 'म्लेच्छ' यात संक्षेप में इस प्रकार हैं:
भी है। बाकी म्लेच्छखण्डों तथा अन्तरद्वीपोंमें (१) म्लेच्छोंके मूल भेद कितने हैं ! और शक, उत्पन्न होनेवाले सब मनुष्य म्लेच्छ' हैं। यवन, शवर तथा पुलिन्दादिक म्लेच्छ अार्यवएडोद्भव पं० कैलाशचन्द्र जी शास्त्री म्लेच्छोंके म्लेच्छखण्डो है या म्लेच्छखण्डोद्भव ?
द्भव और अन्तरद्वीप न ऐसे दो भेद ही करते हैं और (२) शक, यवन, शबर और पुलिन्दादिक म्लेच्छ शक-यवनादिकको म्लेच्छरखण्डोंसे पाकर आर्यखण्डमें मकलमंयमके पात्र हैं या कि नहीं ?
बसनेवाले म्लेच्छ बतलाते हैं ! साथही, यह भी लिखते हैं (३) वर्तमान जानी हुई दुनिया के सब मनुष्य कि अार्यखण्डोद्भय कोई म्लेच्छ होतं ही नहीं, आर्य उच्चगोत्री हैं या कि नहीं?
खण्डमें उत्पन्न होनेवाले सब श्रार्य ही होते हैं, यहां (४) श्री जयधवल और लब्धिसार-जैसे सिद्धान्त- तक कि म्लेच्छखण्टांस अाकर यार्यखण्डमें बसनेवालों अन्योंके अनुगार म्लेच्छ खण्डोंके सब मनुष्य सकल- की संतान भी अार्य होती है, शकादिकको किसी मंयमक पात्र एवं उच्चगोत्री हैं या कि नहीं? भी प्राचार्यने अार्यखण्ड में उत्पन्न होने वाले
इन सब बातोंका ही नीचे क्रमशः विचार किया नहीं लिग्या, विद्यानन्दाचार्यने भी यवनादिकको जाता है, जिनमें शास्त्री जीकी तद्विषयक चर्चाकी म्लेच्छखण्डो भव म्लेच्छ बतलाया है। परन्तु अालोचना भी संगी। इससे पाटकोंके मामने कितनी इनसे कोई भी बात उनकी टीक नहीं है । ही नई नई बात प्रकाशमं श्राएँगी और वे मब उनकी विद्यानन्दाचार्यने यवनादिकको म्लेच्छग्वण्डोद्भव नहीं जानवृद्धि तथा वस्तुतत्त्व के यथार्थ निर्णयमें सहायक बतलाया और न म्लेच्छोंके अन्तरद्वीपज तथा म्लेच्छ होगी:
खण्डोदभव ऐसे दो भेद ही किये हैं, बल्कि अन्तरद्वीपज (१) मलेच्छोंके मल भेद दो अथवा नीन है--- और कर्मभूमि ऐम दो भेद किये हैं, जैसा कि उनके १ कर्मभमिज र अन्तरद्वीपज रूपसे दो भेद और ग्रार्य- श्लोकवार्तिक के निम्न वाक्यांस प्रकट हैखण्डोद्भव, २ म्लेच्छग्वण्डाद्भव तथा ३ अन्तरद्वीपज "तथा तरद्वीपजाम्लेच्छाः परे स्युः कर्मभमिजाः ।... रूपसे तीन भेद हैं । शक-यवन-शवरादिक आर्यग्वण्डोद्भव "कर्मभमिभवा म्लेच्छाः प्रसिद्धा यवनादयः । म्लेच्छ हैं—ार्यखण्ड में उत्पन्न होते हैं, म्लेच्छग्वण्डों- रयुः परे च तंदाचारपालनाबहुधा जनाः ॥" में उत्पन्न होनेवाले अथवा वहां के विनिवामी (कदीमी श्रीपज्यपाद और अकलंकदेवने भी ये ही दो भेद बाशिन्दे) नहीं है, जैसा कि श्रीअमृतचन्द्राचार्यके निम्न किये हैं और शक यवनादिकको म्लेच्छवराष्टोद्भव नहीं