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अनेकान्त
तया उक्त श्रनुयोगद्वारका विषय है। इस अनुयोगद्वार में श्रार्यखंडके मनुष्योंकी तरह म्लेच्छखंडोंके मनुष्योंको भी सकलसंयमका पात्र बतलाया है और उनके विशुद्धि स्थानोंका श्रल्पबहुत्वरूपसे उल्लेख किया है; जैसा कि उसके निम्न वाक्योंसे प्रकट है:
“अकम्मभूमियस्स पडिवज्जमाण्यस्स जहण्यं संजमद्वारामांतगुणं (चणि सूत्र ) [कुदो? ] पुच्चिल्लादो असंखेयलोगमेत्तछट्टाणाणि उवरि गंतेदस्स समुप्प - त्तीए । को अकम्मभूमिश्रो णाम ? भर हैण्वयविदेहेसु विणीतसण्णिदमज्झिमखंडं मोत्तणं सेसपंचखंडविणिवासी म एत्थ 'कम्मभूमिश्र'त्ति विवक्खिश्रो। तेसु धम्मकम्मपवुत्तीए असंभवेण तब्भावोववत्तीदो
जइ एवं कुदो तत्थ संजमग्गहणसंभवो ? तिनासंक अिं । दिसाविजयचिक्कवटिखंधावारेण सह मज्झिमखण्डमागयाणं मिलेच्छ्रण्याणं तत्थ चक्कवहिदीहि सह जादवेवाहियसंबंधाणं संजमपडिवत्तीए विरोहाभावादो ।
अहवा तत्तत्कन्यकार्ना चक्रवर्त्यादिपरिणीतानां गर्भेषुत्पन्ना मातृपक्षापेक्षया स्वयमकर्मभूमिजा इतीह विवक्षिताः । ततो न किंचिद्विप्रतिषिद्धं । तथा जातीयarat दीक्षार्हत्वं प्रतिषेधाभावादिति ।
तस्सेवकस्यं पडिवजमाणस्स संजमट्टाणमरांतगुणं (चर्णिसूत्र ) । कुदो ? ......
ये वाक्य उन दोनों वाक्य समूहोंके मध्य में स्थित
[फाल्गुण, वीर- निर्वाण सं० २४६५
हैं जो ऊपर नं० २ में श्रार्यखंडके मनुष्योंके सकलसंयमकी पात्रता बतलानेके लिये उद्धृत किये जा चुके हैं। इनका श्राशय क्रमशः इस प्रकार है
इस प्रश्नका उत्तर अपनी कापीमें नोट किया हुआ नहीं है और वह प्रायः पूर्वस्थान से असंख्येय लोकमात्र षट् स्थानोंकी सूचनाको लिये हुए ही जान पड़ता है ।
'सकलसंयमको प्राप्त होनेवाले कर्मभूमिक जघन्य संयम-स्थान- मिथ्यादृष्टिसे सकलसंयमग्रहण के प्रथम समय में वर्तमान जघन्य संयमलब्धिस्थानअनन्तगुणा है । किससे ? पूर्व में कहे हुए श्रार्यखंडज मनुष्य के जघन्य संयमस्थानसे; क्योंकि उससे असंख्येय लोकमात्र घट स्थान ऊपर जाकर इस लब्धिस्थानको उत्पत्ति होती है । 'अकर्मभूमिक' किसे कहते हैं ? भरत, ऐरावत और विदेहक्षेत्रों में 'विनीत' नामके मध्यमखण्ड (आर्यखण्ड) को छोड़कर शेष पाँच खण्डों का विनिवासी (क़दीमी बाशिन्दा) मनुष्य यहाँ 'कर्मभूमिक' इस नाम से विवक्षित है; क्योंकि उन पाँच खंडोंमें धर्मकर्मकी
प्रवृत्तियां असंभव होनेके कारण उस अकर्मभूमिक भावकी उत्पत्ति होती है ।'
'यदि ऐसा है - उन पाँच खण्डों में ( वहाँ के निवासियोंमें) धर्म कर्म की प्रवृत्तियाँ असंभव हैं तो फिर वहां (उन पाँच खंडोंके निवासियोंमें) संयम-ग्रहण कैसे संभव हो सकता है ? इस प्रकारकी शंका नहीं करनी चाहिये; क्योंकि दिग्विजयार्थी चक्रवर्तीकी सेनाके साथ जो म्लेच्छ राजा मध्यमखंड ( श्रार्यखंड ) को आते हैं और वहाँ चक्रवर्ती श्रादिके साथ वैवाहिक सम्बन्धको प्राप्त होते हैं। उनके सकलसंयम-ग्रहण में कोई विरोध नहीं है- अर्थात् जब म्लेच्छखंडोंके ऐसे म्लेच्छोंके सकलसंयम-ग्रहण में किसीको कोई आपत्ति नहीं, वे उसके पात्र समझे जाते है, तब वहाँ के दूसरे सजातीय म्लेच्छों के यहाँ श्राने पर उनके सकल संयम-प्रहरणकी पात्रता में क्या श्रापत्ति हो सकती है ? कुछ भी नहीं, इससे शंका निर्मूल है।