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वर्ष
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किरण ४ ]
धार्मिक- वार्त्तालाप
उत्तमचन्द - उपवासके दिन कोई भी गृहस्थका कार्य न किया जाए, मुनि होकर बैठ जावे, ऐसा तो किसी से भी नहीं हो सकता है।
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ज्योतिप्रसाद - शास्त्रोंमें तो ऐसा ही लिखा है और भी देखिये -
कषाय विषयाहार त्यागो यत्र विधीयते । उपवासः स विज्ञेयः शेषं लंघनकं विदुः ॥ --स्वामिकार्तिकेय टीका
अर्थात् - - कषाय, विषय और आहार इन तीनों का जहां त्याग होता है वहीं उपवास बनता है, नहीं तो शेष सब लंघन है।
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उत्तमचन्द - हम तो एक बात जानते हैं कि जिस दिन हम बिना स्नान किये ही सामायिक करने बैठ जाते हैं तो चित्त कुछ व्याकुल ही सा रहता है। ऐसा शुद्ध और शान्त नहीं रहता जैसा कि स्नान करके सामायिक करने में रहता है।
ज्योतीप्रसाद - हम जैसे मोही जीवोंकी ऐसी ही हालत है। यदि किसी दिन हमारे मकानमें झाड़ न लगे तो उस मकान में बैठनेको जी नहीं चाहता है, बैठते हैं तो चित्त कुछ व्याकुल मा ही रहता है। ऐसा साफ शुद्ध और प्रसन्न नहीं रहता जैसा कि झाड़ू बुहारू दिये साफ और सुथरे मकान में रहता है। झाड़ने बुहारने के बाद भी यदि मकानकी सब चीजें अटकल पच्चू बेतरतीब ही पड़ी हों; सुव्यवस्थित रूपसे यथास्थान न रक्खी हुई हों, तो भी उस मकान में बैठकर काम करने को जी नहीं चाहता है। कारण कि हमारा मोही मन सुन्दरता और सफ़ाई चाहता है, ऐसा ही बिना स्नान किये अर्थात् शरीर को साफ और सुन्दर बनाये बिदून सांसारिक वा धार्मिक किसी भी काममें हमारा जी नहीं लगता है । यह सब मोहकी हो महिमा है। जब तक मोह है तब तक तो मोहकी गुलामी करनी ही पड़ेगी, इस कारण किसी भी सांसारिक वा धार्मिक कार्य प्रारम्भ करनेसे पहले यदि हमारा मन स्नान करना चाहे तो अवश्य कर लेना चाहिये । वैसे भी शरीरकी रक्षा के
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वास्ते स्नान करना ज़रूरी है, परन्तु स्नान करनेको धर्मका अंग मानना वा स्नान किये विदून धर्म-साधनका निषेध करना अत्यन्त धर्म विरुद्ध और मिध्यात्व है ।
उत्तमचन्द आप तो निश्चय सी बातें करते हैं, परन्तु हम जैसे गृहस्थियों से तो निश्चय का पालन नहीं हो सकता है । व्यवहार धर्म ही सध जाय तो बहुत हे 1 इसका भी लोप हो गया तो कुछ भी न रहेगा । ज्योतिप्रसाद - मैं भी व्यवहार धर्मकी ही बात कहता हूँ । जीवका जो वास्तविक परम वीतराग रूप ज्ञानानन्द स्वरूप है अर्थात् श्रर्हतो और सिद्धोंका जो स्वरूप है वह ही जीवका निश्चय धर्म है, उस असली रूप तक पहुँचने के जो साधन हैं, वह सब व्यवहार धर्म हैं; 'जो सत्यारथ रूप सो निश्चय, कारण सो व्यवहारो ।' ऐसा छह ढाला में तो कहा है । परन्तु इसके लिए श्री कुन्दकुन्दाचार्य आदिके निम्न वाक्य ख़ासतौर से ध्यान देने योग्य हैं-
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धम्मादी सद्दणं सम्मत्तं गाणमंग पुत्र गदं चिट्ठा तवंहि चरिया ववहारो मोवख मग्गोति । १६० । पंचास्तिकाये, कुन्दकुन्द ० धर्मादि द्रव्योंका श्रद्धान करना व्यवहार १२ अंग १४ पूर्व जिन-वाणीका ज्ञान
होना व्यवहार सम्यग्ज्ञान है; तप आदिक में लगना तथा १३ प्रकार के चारित्रका अनुष्ठान व्यवहार चरित्र हैं; और यह सब व्यवहार मोक्ष मार्ग है।
अर्थात् मम्यग्दर्शन
सुहादो विणिवित्ती सुहे पांवत्तीय जाण चारितं । वदसमिदिगुत्तिरूवं ववहार यादु जिरा भणियम् ॥ -- द्रव्यसंग्रह, नेमिचन्द्र
अर्थात् अशुभसे बचना और शुभमें लगना यह व्यवहार चारित्र है। व्रत, समिति गुतिरूप चारित्र धर्म व्यवहार नयसे ही जिनेन्द्र भगवान् ने कहा है ।
इस प्रकार जो भी साधन आत्म-कल्याणके वास्ते होता है वह सब व्यवहार-धर्म है, और ज साधन विषय कषायोंकी पूर्तिके वास्ते होता है, वह लौकिक व्यवहार हैं । गृहस्थीको दोनों ही प्रकार के साधन करने पड़ते हैं,