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वर्ष २, किरण ४]
धार्मिक-वार्तालाप
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उत्तमचन्द ( जैनी ) यह आपने क्या कहा कि, चौथे, श्रीप्रकलङ्कदेवने राजवार्तिकमें भी ऐसा ही उपवासके दिन श्रावकको नहाना भी नहीं चाहिये १ वर्णन किया हैस्नान नहीं करेगा तो पूजन, स्वाध्याय, ध्यान, सामायिक स्वशरीर संस्कार संस्करण स्नानआदि धर्म-साधन कैसे होगा ?
___ गंध मात्या भरणादि विरहतः... ज्योतिप्रसाद-शास्त्रों में तो उपवासीके वास्ते स्नान
-तत्वार्थ सूत्र अध्याय ७ सूत्र २१ का भाप्य करना मना ही लिखा है। देखिये प्रथम तो रत्न-करंड
पांचवें श्रीविद्यान्दाचार्यजीने अपने प्रसिद्ध ग्रन्ध श्रावकाचारके निम्न श्लोक में ही श्री समन्तभद्रवामी
श्लोकवार्तिकमें भी उल्लेख किया हैने साफ़ लिखा है कि, उपवासके दिन पांचों पापोंका,
__कः पुनः प्रोपधोपवासो यथा विधीत्यु
च्यते स्नान गंध माल्यादि विरहितोः... शृंगार, आरंभ, गंध, पुष्प, स्नान, अंजन और नस्यका
...-तत्वार्थ सूत्र अध्याय ७ सूत्र २१ का भाष्य त्याग करना चाहिये..
इस प्रकार उपवास के दिन स्नान न करनेकी सब पञ्चानां पापानामलंक्रियारम्भ गन्ध पुप्पाणाम् ।
ही महान् श्राचार्योंकी स्पष्ट आज्ञा होने पर, मेरी बात स्नानाञ्जननस्या ना मुपवासे परिदृति कुर्यात् ।।१०१।।
पर सन्देह करनेकी तो कोई वजह नहीं होसकती है; हां दूसरे स्वामि कार्तिके यानुप्रेक्षाकी गाथा ३५८,
उल्टा मैं यह सन्देह अवश्य कर सकता हूँ कि पूजा, ३५९ में लिखा है कि "जो ज्ञानी श्रावक दोनों पोंमें
स्वाध्याय, ध्यान: सामायिक आदि धर्म कर्मों के करने में स्नान-विलेपन, आभूषण, स्त्रीसंसर्ग, गंध, धूप, दीप
स्नानका किया जाना क्यों ज़रूरी समझा जावे ? स्नान आदिका त्याग करता है, वैराग्यसे ही अपनेको आभूषित
तो उस शरीर को साफ करनेके वास्ते है, जो ऐसा महान् करके, उपवास, एक गर भोजन अथवा नीरस आहार
अपवित्र और अशुद्ध है कि किसी बड़े भारी समुद्र का करता है; उसके प्रोषध उपवास होता है, यथा -
सारा पानी भी उसके धोने में लगा दिया जावे, तो भी रहाण विलवणभृसण इत्थी संसग्गगंधधूवदीवादि। पवित्र न हो, और यदि पवित्र हो भी जाय तो उसकी जो परिहरेदिणाणी वरग्गाभरणाभूसणं किच्चा ।३५८ पवित्रतासे धर्मका क्या सम्बन्ध ? स्वाध्याय, पूजा, ध्यान, दोसुवि पव्यैस समा उववासं एय भत्तणिवियडी। सामायिक, स्तुति, भजन आदि जो कुछ भी हैं वे तो एक जो कणइ एव माई तस्य वयं पोसहं विदियं ।।३५६॥ मात्र आत्माकी शुद्धि, विषय-कपाय तथा राग-द्वेष मोहक
तीसरे, श्री पूज्यपाद स्वामीने सर्वार्थसिद्धि नामक दर करनेस ही होती है, न कि हाड मांस अथवा चर्ममहामान्य ग्रन्थमें प्रोषधोपवासी के लिये लिखा है कि, वह को धोनेसे । तब शरीर शुद्धिके विदून आत्मशुद्धि स्नान, गंध, माला, आभरणादि जो भी शरीर के शृंगार से हो सकती; ऐसा क्यों माना जावे ? मुनि बिना स्नान हैं उन सबसे रहित होवे
किये ही रात दिन धर्म-साधनमें लगे रहते हैं, नहाना तो प्रोषधोपवासः स्वशरीरसंस्कारकारण, दूर रहा वे तो टट्टी जानेके बात गुदाको कमण्डलुके पानी स्नान-गंध-माल्याभरणादि विरहितः। से धोकर हाथोंको भी नहीं मटियाते हैं और न किसी
-तत्वार्थसूत्र अध्याय ७ सूत्र २१ का भाष्य दूसरे शुद्ध पानीसे ही धोते हैं । उस कमण्डलुको जिसके