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जीवन के के अनुभव
ले० - अयोध्याप्रसाद गोयलीय
[ इस स्तम्भ में जीवन सम्बन्धी ऐसी घटनाएँ देनेकी इच्छा है जो सत्यके प्रयोग, आत्म-विश्वास, सदाचार, सेवाधर्म, लोकसेवा, दान, तप, संयम, स्वाध्याय, पूजा, उपासना, भक्ति, सामायिक, व्रत, उपवास तथा पूर्वजन्मके फलस्वरूप आदि रूपसे अपने जीवन में अनुभव की हों, या आँखों से प्रतक्ष देखी हों। हमारी समाज में ऊँचे से ऊँचे तपस्वी, त्यागी, धर्मात्मा, ज्ञानी, दानी, विद्यमान हैं। हमारी उनसे विनीत प्रार्थना है कि वे कृपण करके अपने जीवन के ऐसे अनुभव लिखें जो उपयोगी होवें । साथ ही यह भी बतलाएँ कि उन्होंने किस प्रकार साधना की, उनके कार्य में कितनी विघ्न वाधाएँ उपस्थित हुई और फिर किम प्रकार सफलता प्राप्त हुई ? शायद कुछ सज्जन लेखनकला का अभ्यास न होने से लिखने में संकोच करें, किन्तु हमारी उनसे पुनः नम्र प्रार्थना है कि जैसी भी भाषा में लिख सकें या लिखवा सकें अवश्य लिखवाएँ । स्वानुभव की वह टूटी फूटी भाषा ही, अनुभव हीन सँवरे हुए लाखों लेखो से अधिक कल्याणकारी होगी और उससे काफ़ी आत्म-लाभ हो सकेगा । अपने भावों को स्पष्ट करने के लिए यहां कुछ उदाहरण लिख देने का विनम्र प्रयास किया है। इसमें आत्म-विज्ञापनकी गन्ध आए तो मुझे अनधिकारी समझते हुए क्षमा करें। इसके द्वारा आत्मानुभवी अपने लेख लिखने की रूप रेखा बना सकें, इसीलिये अनधिकार चेष्टा करनेकी यह धृष्टता की है। ]
( १ ) सन् १९२५ - २६ ईस्वीकी बात होगी । जाड़ों के दिन थे, मेरे एक मित्र जो देहली में ही रहते थे । उनके यहां कुछ मेहमान आये हुए थे । उन सबकी इच्छा थी कि मैं भी रातकी उन्हींके पास रहूं। अतः घर पर मैं अपनी मां से रातको न आनेके लिए कहकर चला गया और मित्रके यहां जागरण में सम्मलित हो गया; परन्तु रात्रिको दस बजेके करीब घर आनेके लिये एकाएक मन व्याकुल होने लगा । मित्रके यहां मुझे काफ़ी रोका गया और इस तरह मेरा अकस्मात् चल देना उन्हें बहुत बुरा लगने लगा। मैं भी इस तरह एकाएक जानेका कोई कारण न बता सकने की वजहसे अत्यन्त लज्जित हो रहा था, किन्तु उनके बार बार रोकने पर भी मुझे वहां एक मिनट भी रहना दूभर हो गया
और मैं ज़िद करके चला ही आया। घर आकर मां को दरवाज़ा खोलने को आवाज़ दी। दरवाज़ा खुलने पर देखता हूं कि कमरे में धुआं भरा हुआ है और मां के लिहाफ़ में आग सुलग रही है। दौड़कर जैसे तैसे आग बुझाई। पूछने पर मालूम हुआ कि थोड़ी देर पहले लालटेन जलाने को माचिश जलाई थी, वही बिस्तरे पर गिर गई और धीरे-धीरे से सुलगती रही। यदि दो चार मिनट का बिलम्ब और हो जाता तो मां जलकर भस्म हो जाती । साथही मकान में ऊपर तथा बराबर में रहने वालोंकी क्या अवस्था होती, कितनी जन-हत्या होती, कितना धन नष्ट होता, यह सब सोचते ही कलेजा धक-धक करने लगा ! उस समय किस आन्तिरिक शक्तिने मुझे घर आनेके लिये प्रेरित