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अनेकान्त
[माघ, वीर-निर्वाण सं० २४६५
वासियोंके होता है । म्लेच्छखण्डोंमें भी खेती, वाणिज्य, वर्तमान जानी हुई दुनियां में सर्व देशों के मानवोंमें राज्यादि व चांडालादि कर्म करनेवाले होते हैं। दोनों गोत्रोंका उदय किसी न किसी मानव के मानना
मनुष्योंमें योग्य आचरणकी मान्यता लोगोंमें होगा। नीच ऊँचकी कल्पना सर्व देशोंमें रहती है। बढ़नेसे वह मानव माननीय होकर नीच गोत्रके उदयको स्वाभाविक है । जैसे शरीरमें उत्तम अंग मस्तक है न भोगकर उच्च गोत्रका उदय भोगता है। जो उच्च नीचा अंग पगथली है । जो दीनहीन सेवक मदिरापायी गोत्री अयोग्य आचरणसे लोकनिंद्य होजाता है वह उच्च आदि हैं वे सब जगह नीच माने जाते हैं। तो भी गोत्रके उदयको बंद करके नीच गोत्रका उदय भोगने कोई नियत आचरण नीच कुलों का स्थापन नहीं किया लगता है । गोत्र परिवर्तन न हो तो कर्मभूमिके मानवों जा सकता है । यह उच्च व नीच आचरणकी मान्यता के अवसर्पिणी कालमें भोगभूमिकी संतान होनेमे सबके उस स्थान के लोगोंकी मान्यतापर है । जैसे कोई ठण्डी उच्च गोत्रका उदय ही हो सो ऐसा नहीं माना जासकता, हवामें साता कोई असाता मान लेता है। कर्मकाण्डकी गाथाओंसे । उत्सर्पिणीमें पहले कालमें व वास्तव में गोत्रकर्म वंशकी परिपाटीकी संतानको अवसर्पिणीके छठे कालमें नीच आचरण होनेसे मानवों व उसके आकारको ही निर्णय करता है। उसका असर में बहुत के नीन गोत्रका उदय होता है, फिर उत्सर्पिणी जीवके वर्तनपर पड़ता हैं । इससे इसको जीवविपाकी के दूसरे तीसरे काल में उनकी संतानोंमें योग्य व लोक- माना गया है। मान्य चारित्र होनेसे उच्च गोत्रका उदय होजाता है।
सम्पादकीय नोटश्री ऋषभदेव द्वारा स्थापित तीन वर्ण लौकिक हैं व काल्पनिक हैं व भरतजी स्थापित ब्राह्मण वर्ण भी
. इस लेखमें मेरे और बाबू सूरजभानजीके ऐसे दो काल्पनिक है । जैसे श्री वीरसेनाचार्य धवलटीकामें लेखाका उल्लेख है और उन्हें गोरस पढ़नका विद्वानालिखते हैं। देखी अने० पृ० १३२ नं० (५) को प्रेरणा भी की गई है; परन्तु विचार उनमेंसे सिर्फ बाबू काल्पनिकानां।
सूरजभानजीके लेख पर ही किया गया है । अच्छा होता इन चार वर्ण धारियोंमें जो प्रशंसनीय प्राचारके यदि ब्रह्मचारीजी मेरे लेख पर भी अपने विचार प्रकट धारी हैं वे नीच गोत्रीसे सद् शूद्र याने लोक पूज्य कर देते । अस्तु । लेखको मैंने दो तीन बार पढ़ा परन्तु आचरणका धारी शूद्र जैन साधु होसकता है व सुश्राच- उस परसे यह पूरी तौर पर स्पष्ट नहीं हो सका कि लेखम रणी म्लेच्छ भी मुनि होसकते हैं । कर्मोंका उदय नोकर्म कौनसी बातको लेकर किन हेतुओंके साथ उसे विचार या बाहरी निमित्तके भाधीन आता है। जहां आचरण के लिये प्रस्तुत किया गया है। हां, कुछ प्रमाण-शून्य लोकमान्य है, वहीं उच्चगोत्रका उदय है। जहां आचरण ऐसी बातें ज़रूर जान पड़ी जो पाठकोंको चक्करमें डाल लोक-निंद्य है वहीं नीच गोत्रका उदय मानना होगा। देती हैं और कुछ भी निर्णय नहीं कर पातीं। नीच जिस प्रांत या देशकी जनता जिस आचरणको बुरा इन्हीं सब बातोंको दिग्दर्शन कराया जाता है:-- मानती है वह लोक निंद्य है । जिसे अच्छा मानती है (१) गोम्मटसार-गाथा नं० २८५ की टीकाओंक वह लोकमान्य है।
आधार पर जो यह प्रतिपादन किया गया है कि 'उच्च