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अनेकान्त
[ माघ, वीर-निर्वाण सं० २४६५६
होकर भी फल न देना और किसीका उदय न होकर भी (१५) ब्रह्मचारीजीका एक वाक्य इस प्रकार फल प्रदान करना ! यह सिद्धान्त कौनसे ग्रन्थके आधार है-"इन चार वर्णधारियों में जो प्रशंसनीय आचारके पर निश्चित किया गया है वह लेखपरसे कुछ मालूम नहीं धारी हैं वे ही नीचगोत्री से सद् शूद्र याने लोक-पूज्य होता ! ब्रह्मचारीजीको उसे सिद्धान्तग्रन्यांक आधार पर आचरणका धारी शूद्र जैनसाधु होसकता है व स्पष्ट करके बतलाना चाहिए। साथ ही यह भी बतलाना सुआचरणी म्लेच्छ भी मुनि होसकता है ।" इस वाक्य, चाहिए कि इस सिद्धान्तकी मान्यता पर ख़ानदानी बीजका की बैठक पर से उसका पूरा आशय व्यक्त नहीं होता। असर जीवमें बना रहना जो आपने प्रतिपादन किया है हां, इतना तो समझमें अगया कि इसके द्वारा वह कहाँ बना रहेगा ? और पूर्व गोत्रके उदयानुसार जिस ब्रह्मचारीजी सत् शूद्रों तथा सुआचरणी म्लेच्छोंके लिये उच्च या नीच शरीर पुग्दलकी सम्प्राप्ति हुई थी वह क्या मुनि होसकने का खुला विधान करते हैं; परन्तु चारों गोत्र परिवर्तन पर विघट जायगा अथवा उसका उपयोग वर्गों के मनुष्योंमें जो प्रशंसनीय आचारके धारी हैं वे ही नहीं रहेगा? क्योंकि ऊँच और नीच दोनों गोत्रोंका नीच गोत्री, ऐसा क्यों ? यह कुछ समझ नहीं आया !! उदय अथवा फलभोग एक साथ नहीं होता। खुलासा होना चाहिये । साथही, यह भी स्पष्ट होना चाहिये
(१३) आगे ब्रह्मचारीजी लिखते हैं-"गोत्र कि “जहां आचरण लोक-मान्य है वहीं उच्चगोत्रका परिवर्तन न हो तो कर्मभूमिके मानवोंके अवसर्पिणी उदय है ।” ऐसा लिखकर ब्रह्मचारीजीने जो आगे काल में भोगभूमिकी संतान होनेसे सबके उच्चगोत्र- लोकमान्य अथवा लोकपूज्य आचरणका यह लक्षण का ही उदय ही सो ऐसा नहीं माना जासकता, कर्म दिया है कि "जिम प्रांत या देशकी जनता जिस आचकाण्डकी गाथाओंसे ।" परन्तु कर्मकाण्ड की वे गाथाएँ रणको अच्छा मानती है वह लोकमान्य हैं ।" इस कौनसी हैं, यह प्रगट नहीं किया ! यदि पूर्वोल्लिखित के अनुसार पार्यखण्डान्तर्गत किसी ऐसे म्लेच्छदेशका गाथाओंसे ही अभिप्राय है तो उनसे उक्त अमान्यता कोई म्लेच्छ या सत् शूद्र जहां मांस-भक्षण अच्छा व्यक्त नहीं होती; जैसा कि शुरूके नम्बरों में की गई माना जाता है और इसलिये लोकमान्य आचरण है, उनकी चर्चा से प्रकट है । यदि उच्चगोत्री भोग भूमि- अपने उस आचरण को कायम रखता हुआ मुनि हो याओंकी संतान उच्चगोत्री न हो तो जिसके उदय से सकता है या कि नहीं" और लक्षणानुमार ऐसे पूज्य लोक पूजित कुलोंमें जन्म होता है उसे उच्चगोत्र कहते आचरणी मांसाहारियोंके यहां भोजन कर सकता है है, यह सिद्धान्त ही बाधित होजायगा और ब्रह्मचारीजीकी या कि नहीं ? 'खानदानी बीजका असर जीवमें बना रहने वाली बात, (१७) अन्तम ब्रह्मचारीजीने "नीच-ऊँचकी भी फिर बनी नहीं रहेगी ! अस्तु; उक्त वाक्यके अनन्तर कल्पना सर्व देशोंमें रहती है । स्वाभाविक है, इत्यादि अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी के कुछ कालोंमें ऊंच रूपसे जो कुछ लिखा है वह सब लोकव्यवहार तथा नीच गोत्रका जो नियम दिया है उसके लिये स्पष्ट की ऊँच-नीचताका द्योतक है--विचारके लिए उपरूपसे किसी मान्य ग्रंथका प्रमाण प्रकट होनेकी ज़रूरत स्थित 'गोत्र कर्माश्रित ऊँच-नीचता, के साथ उसका है। वह यों ही निराधार रूपसे नहीं माना जा सकता। कोई खास सम्बन्ध स्थापित नहीं होता। ऐसी ऊंच