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तत्वचची
धार्मिक-वार्तालाप
[ले० -श्री बाबू सूरजभानुजी वकील ]
मथुराप्रसाद ....कहिये बाबू ज्योतिप्रसादजी, खुल्लक आदि अतिथिको भी देवें, ऐसी शास्त्रकी सुना है आपके साधु आये हैं, जिनके भोजन के वास्ते आशा है । जो गृहस्थ इसके विरुद्ध आचारण करते हैं, घर-घर में बड़ी भारी तय्यारियां हो रही हैं, पर आपके अर्थात् मुनि विशेष के निमित्त भोजनका प्रारम्भ कर के यहाँ तो वैमा कोई विशेष प्रारम्भ होता दिखाई नहीं उस बातको छिपाते हुए उन्हें भोजन कराते हैं वे देता है !
स्वयं अपराधके भागी होते हैं। ___ ज्योतिप्रसाद-जैन-धर्म के अनुसार तो, जो मथुराप्रसाद---आपके साधु नग्न रहते हैं, यदि वे भोजन किसी साधु महाराजको खिलाये जाने के उद्देश्य लँगोटी लगा लिया करें तो क्या कुछ हरज हो ? से बनाया जाता है, उनके निमित्तसे ही भोजनका ज्योतिप्रसाद --- एल्लक, क्षल्लक हमारे यहां लंगोटी प्रारम्भ किया जाता है-वह भोजन उनके ग्रहण करने बांधते हैं वा एक खंड वस्त्र रखते हैं: परन्तु मुनि वा के योग्य नहीं होता वे तो उदिष्ट भोजन अर्थात् अपने साधुका दर्जा बहुत ऊँचा है। उनको अपनी देहसे निमित्त बनाये गये भोजनके त्यागी होते हैं। कुछ भी ममत्व नहीं होता है, क्रोध-मान-माया-लोभ जैनधर्मके साधुओंका तो बहुत ही उच्च स्थान है, आदि विषयों और मोहका वे अच्छा दमन किये रहते उदिष्ट भोजनका त्याग तो तुल्लक और ऐल्लक के भी हैं; कामवासना उनके पास तक भी फटकने नहीं गती, होता है, जो साधु-मुनि नहीं कहलाते हैं, किन्तु गृह-त्यागी एक मात्र आत्म शुद्धि ही में उनका समय व्यतीत होता अवश्य होते हैं। वास्तव में सच्चे श्रावकोंके यहां तो है, और संसारकी कोई लजा-कजा उन्हें पथ भूष्ट नित्य ही प्रासुक भोजन बनता है । जो भोजन वह नित्य नहीं कर सकती। कोई बुरा कह वा भला, स्तुति करै वा अपने लिये बनाते हैं उसी मेंसे कुछ मुनियों का, ऐल्लक, निन्दा, आदर सत्कार करे या तिरस्कार गाली दे, पूजा