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वर्ष २, किरण ४]
गोत्रकर्म-सम्बन्धी विचार
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निंद्य काम करने वाले मानव थे। उनके नीचगोत्रका साता असाता भेद हैं । जब साताकारी थाहरी निमित्त उदय होगया, जिनके पुरुषों में भोगभूमिमें उच्चगोत्र होता है तब जीवके साताका व जब असाताकारी का उदय था।
निमित्त होता है तब असाताका उदय कहते हैं । जैसे नारक तिर्यंचोंमें सदा नीच व देवों में सदा निश्चय नयसे सर्व ही परवेदना असाता है। देवोंके उच्चका उदय होता है । वैसा मानवोंमें एकसा
उच्चगोत्रके माननेका कारण उनके शरीर पुद्गलकी नियम नहीं है।
उच्चता है। मलमूत्रका न होना, कवलाहारका न गोत्रकर्मका कार्य
होना, रोगादिका न होना । बर्ताव में ऐसा है कि सब गोम्मटमार जीवकाण्ड गाथा ११३-१९७॥ लाख कोड़ देव क्रीड़ा करते हैं। कुलोका वर्णन करती हुई कहती है-"उच्चैर्गोत्र- व्यवहार में कोई परकी देवांगना से भीग नहीं नीचैगोत्रयोः उत्तरोत्तरप्रकृतिविशेशादयैः संजाताः वंशा करता है । मदिरा मांस खाते नहीं हैं। मानव नारक व कुलानि ।"
तिर्यचकी अपेक्षा, पुद्गलोंकी व लौकिक व्यवहारकी भावार्थ-उच्चगोत्र नीचगोत्रकी उत्तरोत्तर अनेक उत्तमता है। उन पर्यायों में पीतादि तीन लेश्याए शुभ प्रकृति विशेष के उदयसे जो उत्पन्न होते हैं वंश होती है । किल्विष जाति के देवोंका व भूतपिशाचोंका उनको कुल कहते हैं । कुलांका कथन ११७ तक हैं। भी शरीर समचतुन संस्थान होता है। यहां वे कामदेव पंडित टोडरमलजी लिग्बते हैं.-जिन पुद्गलोंसे शरीर से भी सुन्दर होते हैं। उच्चगोत्रके तारतम्यसे अनेक निपजे तिनके भेद कुल हैं।
भेद होते हैं । इससे देवों में जातिभेद है। नारकियों १९७।। लाख करोड़ कुल सर्व संसारी जावकि होत का शरीर हुडक, कुत्सित होता है। खराब पुद्गलोंसे हैं । गोत्रकर्मक उतने ही भेद होते हैं । उनसे शरीर बना है । वर्ताव भी कष्टप्रद है। इससं नीच गोत्रका की जड़ बनती है । जैसा बीज होता है वैसा असर उस उदय माना गया है। तिर्यचौका शरीर अनेक प्रकार वीर्य से उत्पन्न शरीरमें व जीवमें बना रहता है । जैस पुदगलोम रचित है । मनुष्यके मुकाबलेमें उनका आनके वृक्ष में व फल में आमके बीजका असर रहता व्यवहार व वर्ताव व रहन-सहन मब निम्न श्रेणीका है। है। गोत्र कर्भ जीव विपाकी है । खानदानी बीजका व घासपर जी सकते हैं, मनुष्य घास पर नहीं जी सकता। असर जीव में बना रहना गोत्रकर्मका कारण है। इत्यादि कारणांस उनके नीचगोत्रका उदय व्यवहार ___ नारकियोंका गोत्रकर्म नारकियोंका आचरण में माना गया है । नरक क्षेत्रके योग्य रखता है । देवांका आचरण गोत्र- मानवोंमें दोनों गोत्रोंका उदय होता है । जिस कर्म देवोंके अनुसार रखता है। तिर्यचौक आचरण देशमें व क्षेत्रमें जो वंश निंद्य आचरण वाले माने तियंचके अनुसार । इन तीन गतिके जितने कुलक्रम जाते हैं उनसे उत्पन्न मानव के जन्म समय नीच गोत्र हैं वे गोत्रकर्मक उदय से होते हैं, उच्चगात्र नीचगोत्र का उदय व जो वंश या कुल अपेक्षासे ऊच माने जाते की संज्ञाए परस्पर सापिक्ष है । व्यवहार नयसे हैं, हैं उनसे उत्पन्न मानवमें जन्म समय उच्चगोत्र का उदय उपचार से हैं । जैसे वेदनीय कर्म एक है, व्यवहारसे माना जायगा । यह सर्व ही आर्यखण्ड व म्लेच्छखण्ड