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अनेकान्त
[ माघ, वीर - निर्वाण सं० २४६
समेटा भी नहीं। वह विस्तृत होते चले गए। विस्तृत अर्थात् समभावी ।
हमारा एक से अधिक बार साथ रहनेका मौका आया है । मैंने देखा कि उनमें युबकोचित स्फूर्ति है । कामको वह टालते नहीं; निबटाते जाते हैं। क्या छोटा क्या बड़ा, सब काम उन्हें समान है। इस बारे में झूटी लजा उनमें नहीं है । अपनेको साधारणसे अधिक नहीं गिनते । परिस्थिति के अनकूल अपने को निभा लेते हैं । साज बाज से वह दूर हैं। और जो ऊपरी है, उसमें वह नहीं फँसते । वह विद्वान् हैं, लेकिन सहानुभूति से शून्य नहीं हैं । यह गुण उनमें सामान्य से अधिक है। हृदय उनका कोमल है । इतना कोमल है कि ज़रूरत से ज्यादा । तबियत से वह परिवार के आदमी हैं। सच्चे अर्थों में सद्गृहस्थ | सहानुभूतिको बांटते चलते हैं । अपनेको एकाकी और अलग बताकर बड़े बनने की उनमें स्पर्धा नहीं है । उनकी विशेषता यह है कि वह उपदेशक नहीं हैं । सुहृद हैं । आपको लैक्चर नहीं देते। चुपचाप आपके काम
जाते हैं। आजके प्रचारवादी युग में यह विशेषता दुर्लभ है। हर कोई एक-दूसरेको सीख देने को और सुधारनेको तत्पर दीखता है । काम आने के समय उद्य कम लोग दीखते हैं ।
कसौटी पर कसकर वह उसे नहीं जाँचते हैं। ऐसी कसौटी तो बल्कि सब जगह काम भी नहीं दे सकती । सहज - बुद्धि द्वारा ही वह सत् और असत् में भेद करते हैं। उनकी शिक्षा अधिक नहीं है, लेकिन बुद्धि पैनी है। और बारीकसे बारीक बात में भी वह खोते नहीं हैं। अध्यवसाय उनका अनुपम है । उसीके बल पर प्रेमीजी आज विद्वान ही नहीं हैं, सफल साहित्य-कर्ता हैं और सफल व्यवसायी हैं।
एक बातसे वह बरी हैं। महत्वाकांक्षा उनकी कर्तव्य से आगे नहीं जाती । कल्पनाओं में वह नहीं बहकते । जो करना है, करते हैं। और नामवरी दूसरेके लिए छोड़ सकते हैं। प्रदर्शन का मोह उन्हें नहीं है । और सभा-समाज में आप उन्हें पहचानने में भूलभी कर सकते हैं | अनायास वह आगे नहीं दीखेंगे और पीछे बैठकर भी वह नहीं सोचेंगे कि पीछे बैठे हैं ।
बिना पूँजी बम्बई जैसे शहर में उन्होंने हिन्दी भाषा का प्रकाशन आरम्भ किया और उसे सफल बनाया । यह सब प्रामाणिकता और अध्यवसायके बल पर । अपना व्यवसाय सफल और भी बनाते हैं. लेकिन इसमें वह अपनी दृष्टि को भी परिमित बना लेते हैं। प्रेमीजी का काम निरा धंधा नहीं था। उनमें दृष्टिका विस्तार आवश्यक था। नई से नई प्रगतिका उस पर प्रभाव था । संकीर्णता उस व्यवसाय में निभ नहीं सकती थी । व्यक्ति जागरूक न रहे तो वह तनिक पिछड़ भी जा सकता है। लेकिन प्रेमीजी पिछड़े नहीं । उनके हिन्दी ग्रन्थ- कार्यालय की साहित्यिक दृष्टिसे अब भी सबसे अधिक प्रतिष्ठा है । यह छोटी खूबी नहीं है। प्रेमीजी जैन संस्कारों को लेकर जैनोंके प्रति तनिक भी पराये नहीं हैं। दिगम्बर हैं; लेकिन श्वेताम्बर भी उनके समान निकट हैं। उसी तरह वह जैनेतर समाजके बीच अपना स्वत्व कायम रख सकते हैं। उन्होंने अपनापन नहीं खोया । लेकिन उसे
पर प्रगट में उग्रता नहीं तो भी असली हड़ता तो उनमें है। उनका जैन- हितैपी अब भी जैनियोंको याद है । अग्रगामी सब आन्दोलनोंके वह साथ दीखे | और भरसक सुधार को वह अपने जीवन में उतारते गए । लेकिन वह इस प्रकार कि विरोध के बीज न पड़ें। हृदय के उदार, पर कर्म से उन्होंने अनुदारोंका भी साथ नहीं छोड़ा । सामाजिक भावसे वह हिल मिलकर चले ।
यह हेलमेलकी वृत्ति उनके संस्कारों में गहरी है । वह नेता नहीं है; न क्रांतिकारी हैं। न शास्ता हो सकते