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अनेकान्त
[माघ, वीर-निर्वाण सं० २४६५
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ज़रूर कर लेते हैं जब कि जड़मशीनें वैसा नहीं कर भावसे युक्त हुश्रा विषयसौख्य की तृष्णा से-इन्द्रियसकती । इसी यांत्रिक चारित्रके भुलावेमं पड़कर हम विषय को अधिकाधिक रूपमें प्राप्त करने की तीव्र अक्सर भले रहते हैं और यह समझते रहते हैं कि हमने इच्छा से पुण्य करना चाहता है-पुण्य क्रियाओं के धर्मका अनुष्ठान कर लिया ! इसी तरह करोड़ों जन्म करने में प्रवृत्त होता है-उससे विशुद्धि बहुत दूर निकल जाते हैं और करोड़ों वर्षकी बाल-तपस्या से भी रहती है, और पुण्य-कर्म विशुद्धिमूलक-चित्तकी शुद्धि पर उन कर्मोंका नाश नहीं होपाता, जिन्हें एक ज्ञानी पुरुष प्राधार रखने वाले होते हैं। अतः उनके द्वारा पुण्यका त्रियोगके संसाधन-पूर्वक क्षणमात्रमें नाश कर डालता सम्पादन नहीं होसकता- वे अपनी उन धर्मके नामसे है। अस्तु ।
अभिहित होने वाली क्रियाओंको कर के पुरुष पैदा इस विषयमें स्वामी कार्तिकेयने, अपने अनुप्रेक्षा नहीं कर सकते ।। चंकि पुण्यफलकी इच्छा रखकर धमग्रंथमें, कितना ही प्रकाश डाला है । उनके निम्न वाक्य क्रियाओंके करनेसे- सकाम धर्मसाधनसे- पुण्यकी खास तौरसे ध्यान देने योग्य हैं :
सम्प्राप्ति नहीं होती, बल्कि निष्काम-रूपसे धर्मसाधन करने कम्मं पुराणं पावं हेऊ तेसिं च होंति सच्छिदरा। वालेके ही पुण्यकी संप्राप्ति होतीहै, ऐसा जानकर पुण्यमें मंदकसाया सच्छा तिव्वकसाया असच्छा हु॥ भी भासक्ति नहीं रखनी चाहिये ।। वास्तवमें जो जीव मंद जीवो वि हवइ पावं अइतिव्वकसायपरिणदो णिच्चं । कपायसे परिणत होता है वहीं पुण्य बांधता है, इसलिये जीवी हवेइ पुरणं उवसमभावेण संजुत्तो ॥ मंदकषाय ही पुण्यका हेतु है, विषयवांछा पुण्यका हेतु नहीं जोमहिलसेदि पुराणं सकसाओ विसयसोक्खतराहाए। --विषयवांछा अथवा विषया सक्ति तीवकषायका लक्षण है दूरे तस्स विसोही विसोहिमूलाणि पुराणाणि ॥ और उसका करने वाला पुण्यसे हाथ धो बैठता है । पुण्णासए ण पुराणं जदो गिरीहस्स पुरसंपत्ती। इन वाक्योंसे स्पष्ट है कि जो मनुष्य धर्म-साधनके इय जाणि उरण जइयो पुराणे विम प्रायरं कुणह ॥ द्वारा अपने विषय -कपायोंकी पुष्टि एवं पूर्ति चाहता पुराणं बंधदि जीवो मंदकसाएहि परिणदो संतो। है उसकी कषाय मन्द नहीं होती और न वह धर्मके तम्हा मंदकसाया हेऊ पुराणस्स णहिं बंछा ॥ मार्ग पर स्थिर ही होता है । इसलिए उसके द्वारा
-गाथा नं० ९०, १९०, ४१० से ४१२ वीतराग भगवान्की पूजा-भक्ति-उपासना तथा स्तुतिइन गाथानों में बतलाया है कि-'पुण्य कर्मका पाठ, जप-ध्यान, सामायिक, स्वाध्याय, तप, दान और हेतु स्वच्छ, (शुभ) परिणाम हैं और पाप कर्म का हेतु व्रत-उपवासादिरूपसे जो भी धार्मिक क्रिकाएं बनती अस्वच्छ (अशुभ या अशुद्ध ) परिणाम । मंदकषायरूप हैं वे सब उसके प्रात्मकल्याणके लिए नहीं होतींपरिणामोंको स्वच्छ परिणाम और तीव्र कषायरूप परि. उन्हें एक प्रकारकी सांसारिक दुकानदारी ही समझना णामोंको अस्वच्छ परिणाम कहते हैं । जो जीव चाहिए । ऐसे लोग धार्मिक क्रियाएं करके भी पाप अतितीव्र कषायसे परिणत होता है, वह पापी होता है उपार्जन करते है और मुखके स्थानमें उल्टा दुग्वको
और जो उपशमभाव से-कषाय की मंदता से--युक्त निमन्त्रण देते हैं । ऐसे लोगोंकी इस परिणतिको रहता है वह पुण्यात्मा कहलाता है । जो जीव कषाय- श्रीशुभचन्द्राचार्यने, ज्ञानार्णवग्रन्थके २५वे प्रकरणमें,