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हिन्दी-जैन-साहित्य और हमारा कर्तव्य
[ले०--श्री० अगरचन्द नाहटा ]
जन-साहित्य-सागर अगाध और अनुपम है, पर अपनी अकर्मण्यताको सर्वथा एवं सर्वदाके लिये तिला
हम उसके प्रति इतने उदासीन हैं कि चाहे सारा अलि देकर कर्तव्य पथ पर आरूढ़ होंगे। संसार जाग उठे पर हमारी निद्रा भंग नहीं होने की । हम हिन्दी-साहित्यके जो पांच-चार इतिहास प्रकाशित अपनेको इतना कृत्य-कृत्य मान चुके हैं कि हमारे पूर्वजों हए हैं, उनको उठाकर देखिए, कि उनमें कितने जैनने बहुत किया अब हमें कुछ करनेकी आवश्यकता कवियोंको स्थान मिला है ? बाबू श्यामसुन्दग्दासजी के ही प्रतीत नहीं होती । अपने घर में निधिको बन्द करके हिन्दी भाषा और साहित्यमें तो यथाम्मरण एकभी जैनन तो हम स्वयंही उससे लाभ उठाते हैं और न औरोंको का उल्लेख नहीं है । रामचन्द्रजी शुक्ल के हिन्दीही उठाने देते हैं । अपने मुँह मियां मिटू बन बैठे हैं
साहित्यके इतिहास में हिन्दी जैन-कवियों में केवल बनारसीऔर मनही मन फूले नहीं समाते । कहते हैं----हमारा
दामजीका ही संक्षिप्त उल्लेख है, उनके आत्मचरित्रादि जैनधर्म सब धर्मोंसे श्रेष्ठ हैं, हमारा साहित्य विश्व-माहित्य विशिष्ठ एवं हिन्दी-साहित्यमें अजोड़ रचनाके विषयमें में अजोड़ है; पर यह बात भला दूसरे लोग कब मानेंगे? कोईभी खास बात नहीं कही गई है। वक्तव्यमें तो जैन जब तक कि वे उसके प्रत्यक्ष प्रमाण उदाहरण नहीं
अपभश एवं हिन्दी-रचना साहित्यकी कोटिमें आने देख पायेंगे । किन्तु हमें इसकी कोई पर्वाहही नहीं है ? योग्य कोई है ही नहीं ऐसे भाव इन शब्दोंमें व्यक्त किये जगत के सामने अपनी बातोंको सिद्ध कर बताने के लिये हैं."अपभशकी पुस्तकोंमें कईतो जैनोंके धर्मतत्वहमारे पास समयही कहां है ? हमें तो अपनी ही डफली निरूपण सम्बन्धी हैं, जो साहित्य कोटि में नहीं सकतीं बजानेकी धुन लगी हुई है। समय क्या कह रहा है ? दुनिया और जिनका उल्लेख केवल यह दिखानेके लिये ही क्या कहरही है ? हमारे आलापितरागको सुन वह मुँह क्यों किया गया है कि अपभश भाषाका व्यवहार कबसे हो सिकोड़ रही है ? इत्यादि बातोंकी और हमारा ध्यानही रहा था।” ( वक्तव्य पृ० ४) नहीं है । हमेंतो अपने मुँह बड़ा होने में ही सन्तोष है ॥ सारांश यह कि विश्वकी दृष्टि में हम क्या है ? कहां खड़े
"नं० २ (वृद्ध नवकार ), नं० ७ ( जम्बू स्वामीहैं ? अन्य समाजोंके सामने हमारा क्या स्थान है ? इन रास), नं० ९ (नेमिनाथ चौ०) और नं० १० सब बातोंकी और हमारा तनिकभी लक्ष्य नहीं है। (उपएसमाल ) जैनधर्मके तत्व निरूपण पर हैं और ___इसका एक ताज़ा और ज्वलन्त उदाहरण मैं आप
साहित्य कोटि में नहीं सकतीं।" ( वक्तव्य पृ० ६) के सामने रखना चाहता हूं । आशा है इसे पढ़कर शुक्लजीने जम्बूरास, नेमिनाथ चौपई जैसे चरित्र