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वर्ष २ किरण ४ ]
में जो स्थान महाकवि कालिदासका था, और गुणज्ञ राजा हर्षकी राजसभा में जो स्थान गद्य साहित्य के अनु पम कवि बाणभट्टका था; वही स्थान और वैसी ही गौरवपूर्ण प्रतिष्ठा आचार्य हेमचन्द्रको चौलुक्यवंशी गुजरात- नरेश सिद्धराज जयसिंहकी राज्य सभा में था अशोक के समान प्रतिभा सम्पन्न और अमारि-पडह के प्रवर्तक परमार्हत महाराज कुमारपालके तो आचार्य हेमचन्द्र साक्षात् राज-गुरु, धर्म-गुरु और साहित्य- गुरूथे । जीवन-परिचय
आचार्य हेमचन्द्रका जन्म स्थान गुजरात प्रान्तान्तर्गत "धंधुका" नामक नगर है, जो कि आजभी विद्यमान है । " इनकी माताका नाम “वाहिनी देवी" और पिता का नाम "चाच देव" था । ये जाति के "मोढ़ " महाजन थे | कहा जाता है कि जब हेमचन्द्र अपनी माता के गर्भ में आये, तब इनकी माताने यह स्वप्न देखा कि “मैंने एक चिन्तामणि रत्न पाया हैं, और उसे अपने गुरुदेवकी सेवामें भेंट कर दिया है।"
सौभाग्यसे दूसरे दिन उसी नगर में पधारे हुए श्री प्रद्युम्रसूरि के शिष्य आचार्य देवचन्द्रसूरिके स.मने पाहिनीदेवी ने अपने स्वप्नकी बात कही । आचार्य ने यही शुभ फल बतलाया कि तुम्हारे गर्भसे एक अगाध बुद्धि सम्पन्न पुत्र रत्न होगा; जो कि दीक्षित होकर जैनधर्मकी चिन्तामणिरत्न के समान प्रभावना करेगा । यह भविष्यवाणी आगे चलकर अक्षरशः सत्य प्रमाणित हुई ।
गर्भकाल के समाप्त होने पर यथा समय चाचदेव को पुत्र - रत्नकी प्राप्ति हुई। यह सन् १०८८ विक्रम ११४५ कार्तिक पूर्णिमा बुधवारकी बात है । पुत्रका नाम "चंगदेव" रक्खा गया। चंगदेव शरीर और कांति में चन्द्रकला के समान शनैः शनैः बढ़ने लगे । एक दिनकी बात है कि आचार्य देवचन्द्रसूरि ग्रामानु
आचार्य हेमचन्द्र
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ग्राम विहार करते हुए "धंधुका" पधारे और जैन मन्दिर में ठहरे । चंगदेव अपनी माताके साथ उनके दर्शनार्थ आये । आचार्य देवचन्द्रसूरिने चंगदेवकी बालसुलभ चांचल्य और बुद्धिमत्ता देखकर पाहिनी - देवी से कहा कि यह बालक इस कलिकाल में जैनधर्म के लिये भगवान् गौतम जैसा महान् प्रभावक और अत्युच्च कोटिका श्रेष्ठ साहित्यकार होगा तथा सम्पूर्ण गुजरात में "मारि अहिंसा" की विजयघोषणा करेगा । इसलिए मेरी इच्छा है कि इसकी मुझे भेंट करदे |
माता हर्षातिरेक और पुत्र प्रेमसे यांखों में आंसू लाती हुई गद् गद् हो गई और तत्काल ही अपने पति की बिना सन्मति लिये ही पुत्रको गुरुदेव के चरणों में समर्पण कर दिया । यह घटना संवत् १९५० की है। जबकि बालककी आयु केवल पांच वर्षकी थी । श्राचार्य श्री चांगदेवको साथ में लेकर खंभात पधारे। उस समय खंभातका शासक जैन कुलभूषण मन्त्री उदयन था। वहां पर चांगदेवको संवत् ११५० माघ शुक्ला चतुर्दशी शनिवारको दीक्षा दी और " सोम-चन्द्र" नाम - संस्करण किया ।
शिशुमुनि सोमचंद्रने दीक्षा-क्षणमे ही विद्याभ्यास और अन्य गुणार्जन में अपनी संपूर्ण शक्ति लगादी और १६ वर्ष में ही अर्थात् २१ वर्षकी आयु होते ही सोमचंद्र महान् विद्वान् और अनेक गुणसम्पन्न महापुरुष होगये । जैन- शास्त्रों और जैनेतर शास्त्रोंका विशाल मननपूर्वकवाचन, नूतनमार्मिक साहित्य निर्माण करनेकी शक्ति समयज्ञता, दंभरहित भाषामाधुर्यपूर्वक स्वाभाविक व्याख्यान वैभव, प्रखर तेज, प्रचंड वाग्मिन्ता, व्यवहार चतुरता, प्रकर्ष प्रतिभा, मौलिक विद्वत्ता, सामाजिक राजनैतिक और धार्मिक परिस्थितिज्ञता आदि सभी आवश्यक गुण मुनि सोमचंद्र में स्पष्ट रूपसे झलकने लगे।