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अनेकान्त
विशेषण लगाया गया है— उत्तम क्षमा, उत्तम मार्दवादिरूपसे दश धर्मोका निर्देश किया है । यह विशेषण क्यों लगाया गया है ? इसे स्पष्ट करते हुए श्री पूज्यपाद आचार्य अपनी सर्वार्थसिद्धि टीका में लिखते हैं
" दृष्टप्रयोजन परिवर्जनार्थमुत्तमविशेपणम् ।” अर्थात् -- लौकिक प्रयोजनों को टालने के लिए 'उत्तम' विशेषण का प्रयोग किया गया है
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इससे यह विशेषणपद यहां 'सम्यक' शब्दका प्रतिनिधि जान पड़ता है और उसकी उक्त व्याख्या से स्पष्ट है कि किसी लौकिक प्रयोजनको लेकर कोई दुनियावी ग़र्ज़ साधने के लिये – यदि क्षमा मार्दव- श्रर्जव - सत्यशौच संयम तर त्याग आकिंचन्य ब्रह्मचर्य इन दश धमों में से किसी भी धर्मका अनुष्ठान किया जाता है तो वह अनुष्ठान धर्मकी कोटिसे निकल जाता है-ऐसे काम धर्मसाधनको वास्तव में धर्मसाधन ही नहीं कहते । धर्मसाधन तो स्वरूपसिद्धि अथवा आत्मविकास के लिये आत्मीय कर्त्तव्य समझ कर किया जाता है, और इसलिये वह निष्काम धर्मसाधन ही हो सकता है ।
इस प्रकार सकाम धर्मसाधनके निषेध में आगमका स्पष्ट विधान और पूज्य आचार्योंकी खुली आशाए होते हुए भी, खेद है कि हम आज-कल अधिकांश में सकाम धर्मसाधनकी ओर ही प्रवृत्त हो रहे हैं । हमारी पूजा-भक्ति-उपासना, स्तुति-वन्दन- प्रार्थना, जप, तप, दान और संयमादिकका सारा लक्ष लौकिक फलोंकी प्राप्तिकी तरफ ही लगा रहता है कोई उसे करके धन-धान्यकी वृद्धि चाहता है तो कोई पुत्रकी संप्राप्ति, कोई रोग दूर करनेकी इच्छा रखता है तो कोई शरीरमें बल लानेकी, कोई मुकदमे में विजयलाभके लिये उसका अनुष्ठान करता है तो कोई अपने शत्र को परास्त करनेके लिये, कोई उसके द्वारा किसी ऋद्धि-सिद्धिकी साधना में व्यग्र है तो कोई दूसरे लौकिक कार्योंको सफल बनानेकी धुन में मस्त, कोई इस लोकके सुख चाहता है तो कोई परलोक में स्वर्गादिकांके सुखोंकी अभिलाषा रखता है !! और
[ माघ, वीर - निर्वाण सं० २४६५
कोई कोई तो तृष्णा के वशीभूत होकर यहां तक अपना विवेक खो बैठता है कि श्री वीतराग भगवानको भी रिश्वत ( घूम) देने लगता है— उनसे कहने लगता है कि हे भगवान आपकी कृपा से यदि मेरा अमुक कार्य सिद्ध होजायगा तो मैं आपकी पूजा करूँगा, सिद्धचक्रका पाठ थापूंगा, छत्रचंवरादि भेंट करूंगा, रथ-यात्रा निकलवाऊंगा, गजरथ चलवाऊंगा अथवा मन्दिर बनवा दूँगा !! ये सब धर्मकी विडम्बनाए हैं ! इस प्रकार की विडम्बनाओं से अपने को धर्मका कोई लाभ नहीं होता और न आत्म-विकास ही सघ सकता है । जो मनुष्य धर्मकी रक्षा करता है— उसके विषय में विशेष सावधानी रखता है— उसे विडम्बित या कलंकित नहीं होने देता, वही धर्मके वास्तविक फलको पाता हैं । 'धर्मो रक्षति रक्षितः' की नीति के अनुसार रक्षा किया हुआ धर्म ही उसकी रक्षा करता है और उसके पूर्ण विकास को सिद्ध करता है ।
ऐसी हालत में सकाम धर्मसाधनको हटाने और धर्मat fastsो मिटानेके लिये समाजमें पूर्ण आन्दोलन होने की ज़रूरत है । तभी समाज विकसित तथा धर्मके मार्ग पर अग्रसर हो सकेगा, तभी उसकी धार्मिक पोल मिटेगी और तभी वह अपने पूर्व गौरवगरिमाको प्राप्त कर सकेगा । इसके लिये समाज के सदाचारनिष्ठ एवं धर्मपरायण विद्वानोंको आगे आना चाहिये और ऐसे दूषित धर्माचरणोंकी युक्ति-पुरम्सर खरी-खरी आलोचना करके समाजको सजग तथा सावधान करते हुए उसे उसकी भूलोंका परिज्ञान कराना चाहिये तथा भृलोंके सुधारका सातिशय प्रयत्न कराना चाहिये । यह इस समय उनका ख़ास कर्तव्य है। और बड़ा ही पुण्य कार्य है । ऐसे आन्दोलन- द्वारा सन्मार्ग दिखलाने के लिये अनेकान्तका 'सम्यक पथ' नामका स्तम्भ द्वार खुला हुआ है वे इसका यथेष्ट उपयोग कर सकते हैं और उन्हें करना चाहिये ।
वीर सेवामन्दिर, सरसावा, ता० ७-१-१९३९