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वर्ष २ किरण ४]
सकाम धर्मसाधन
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है, जिसका दूसरा नाम साम्यभाव है और जो मोह- का नाम है ? सांसारिक विषय-सौख्यकी तृष्णा अथवा क्षोभ अथवा मिथ्यात्व-राग द्वष तथा काम-क्रोधादिरूप तीब कपायके वशीभूत होकर जो पुण्य-कर्म करना विभावपरिणतिसे रहित आत्माका निज परिणाम चाहता है वह वास्तव में पुण्यकर्मका सम्पादन कर होता है।
सकता है या कि नहीं ? और ऐसी इच्छा धर्मकी वास्तवमें यह विवेक ही उस भावका जनक होता माधक है या बाधक ? वह खूब समझता है कि सकाम है जो धर्माचरण का प्राण कहा गया है। बिना भावके धर्मसाधन मोह-क्षीभादिसे घिरा रहने के कारण धर्मकी तो क्रियाएं फलदायक होती ही नहीं। कहा भी है - कोटिम निकल जाता है; धर्म वस्तुका स्वभाव होता है
“यस्मात् कियाः प्रतिफलन्ति न भावश याः। और इसन्निये कोई भी विभावपरिणति धर्मका स्थान तदनुरूप भाव के बिना पूजनादिककी, तप-दान-जपा- नहीं ले सकती । इसीसे वह अपनी धार्मिक क्रियाओं में दिक की और यहां तक कि दीक्षाग्रहणादिक की सब तद्रूपभावकी योजना द्वारा प्राणका संचार करके उन्हें क्रियाएं भी ऐसी ही निरर्थक है जैसे कि यकर्गक गले के मार्थक और सफल बनाता है। ऐसे ही विवेकी जनोंके स्तन ( थन ) । अर्थात् जिस प्रकार बकरी के गले द्वारा अनुष्ठित धर्मको सब-सुम्वका कारण बतलाया है। में लटकत हुए स्तन देखने में स्तनाकार होते हैं, परन्तु विवेककी पुट बिना अथवा उसके सहयोग के अभाव में वे स्तनोंका कुछ भी काम नहीं देत-उनसे दध नहीं मात्र कुछ क्रियाओं के अनुष्ठानका नाम ही धर्म नहीं है। निकलता-उसी प्रकार बिना तदनकल भाव के पूजा- ऐसी क्रियाएँ तो जड मशीनें भी कर सकती हैं और तप-दान-जपादिक की उक्त सब क्रियाएँ भी देखने की हा कुछ करती हुई देखी भी जाती हैं-फोनोग्राफके क्रियाएँ होती है, पृजादिकः का वास्तविक फल उनमे कितनेही रिकार्ड ग्वच भक्ति-रसके भरे हुए गाने तथा कुछ भी प्राप्त नहीं हो सकता ।।
भजन गाते हैं और शास्त्र पढ़ते हुए भी देखने में आते
हैं । और भी जडमशीनोम भाप जो चाहें धर्मकी बाह्य ___ ज्ञानी विवेकी मनुष्य ही यह ठीक जानता है कि
क्रियाएँ करा सकते हैं। इन सब क्रियाओंको करके पुण्य किसे कहते हैं और पाप किम? किन भावाम
जडमान जिस प्रकार धर्मात्मा नहीं बन सकीं और पुण्य बँधता है, किनसे पाप और किनमें दोनोंका बन्ध नहीं होता ? स्वच्छ, शुभ तथा शुद्ध भाव किसे
न धर्मकै फलको ही पासकती हैं, उसी प्रकार अविवेककहते हैं ? और अम्वच्छ, अशुद्ध तथा अशुभ भाव किस
पूर्वक अथवा सम्यग्ज्ञान के बिना धर्मकी कुछ क्रियाएँ
कर लेने मात्र ही कोई धर्मात्मा नहीं बन जाता और न *चारित्तं खलु धम्मो धम्मा जो सा ममोत्ति रिणदिठो। धर्मके फलको ही पासकता है। ऐसे अविवेकी मनुष्यों मोहक्खोह विहीणो परिणामो अप्पणो हु समाः।। ७॥ और जडमशीनों में कोई विशेष अन्तर नहीं होता-उन ४ देखो, कल्याणमन्दिर स्तोत्रका 'आकर्णितोऽपि' की क्रियाओं को सम्यक्चापि न कह कर यांत्रिक श्रादि पद्य।
चारित्र' कहना चाहिये । हां, जड़मशीनोंकी अपेक्षा ऐसे भावहीनस्य पूजादि-तपादान-जपादिकम । मनुष्योम मिथ्या ज्ञान तथा मोहकी विशेषता होनेके व्यर्थ दीक्षादिकं च स्यादजाकराठे स्तनाविव ।" कारण व उसके द्वारा पाप-बन्ध करके अपना अहित