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अनेकान्त
पोप, वीर-निर्वाण सं० २४६५
अपर्याप्तक देव हैं क्योंकि उक्त पंक्तिका सम्बन्ध म्लेच्छ होते हैं । तत्त्वार्थ सूत्रकी टीकाओंमें* श्रार्य देवगतिस है-उनके श्रीपमिक सम्यक्त्व होने के पाँच भेद किए हैं--क्षेत्रार्य, जात्यार्य, कर्माय. कोई शङ्खा नहीं करनी चाहिए, सभी अपर्याप्तकों चारित्रार्य और दर्शनार्य । जो काशी, कोशल आदि के औपशामक मम्यक्त्व हो सकता है। और अपने आर्यदेशोंमें उत्पन्न हुए हैं, वे क्षेत्र आर्य हैं। जो इम सिद्वान्तको पाठकोंक हृदय बिठाने के लिए इक्ष्वाकु आदि श्रार्यवंशमें उत्पन्न हुए हैं वे जाति उन्होंने दृष्टान्तम्पमें कहा है कि जैसे चारित्रमोह- आर्य है। जो असि, मास, कृपि, विद्या, शिल्प नीय कर्मका उपशम करके मरणको प्राप्त होनेवाले और वाणिज्यके कार्योको करते हैं तथा जो यजन. जीवोंके औपशभिक मम्यक्त्व होनमें कोई विरोध अश्वताम्बरसम्मत उमास्वातिके भाज्यमें आयपुरुपांक नहीं है अर्थात जिम प्रकार उन जीवकि औप- ६ भेद बतलाए हैं-होत्रार्य, जात्याय, कुलाय, कमार्य मिक सम्यक्त्व माना जाना है, उसी प्रकार सभी शिल्यार्य और भापार्य । १५ कर्मभूमियोंमें, उनमें भी अपर्याप्तकोंके औपशामक सम्यक्त्व हो सकता है।' भरत और ऐरावत क्षेत्रके साड़े पञ्चीस साड़े पच्चीस इम आशयस सार्थसिद्धिकारक मतका तो कचूमर आयदेशीम और विदेहक्षेत्रके १६० विजयों में निकल ही जाता है, माथ ही साथ जैनसिद्धान्तकी (पिछली बात 'श्राया म्लेच्छाश्च' सूत्र के कई मान्यताओंकी भी लगे हाथों हत्या हो जाती उक्त भाज्यमें तो नहीं पाई जाती.-सम्पादक ) है। अतः इस प्रकार के प्राशयको दुगशय कहना ही जो मनुष्य पैदा होते हैं व नवार्य हैं। प्रशापनामत्रमें उपयुक्त होगा। और दुगरायसे जो निष्कर्ष निकाला भरतनं बके साढ़े पश्चीम देशों के नाम इस प्रकार गिनाए जाना है वह कभी भी तात्त्विक नहीं हो सकता। है-मगध, अङ्ग, बङ्ग, कलिङ्ग, काशी, कोसल, कुरु. अतः सिद्धान्त-प्रन्थोंके आधार पर तो यह बात कुशावर्त, पाञ्चाल. जङ्गल. मुराष्ट्र, विदेह. वत्स साबित नहीं होती कि सभी मनुष्य उच्चगोत्री हैं। (कौशाम्बी) शाण्डिल्य, मलय, वत्स (वैराट पुर). वरण. तथा श्रीविद्यानन्द स्वामीके मतसं भी यह बात दर्शाण, चेदि. सिंधु-सौवीर, शूरसेन, भग, पुरिवर्ता, प्रमाणित नहीं होती।
कुणाल, लाट, और प्राधा केकय । जो इक्ष्वाकु, विदेह
हरि, ज्ञात, कुरु, उग्र आदि वंशों में पैदा हुए हैं. वे लेखक महोदयने श्रीविद्यानन्द स्वामीके मतसे जात्यार्य है। कुलकर. चक्रवती, बलदेव, वासुदेव, तथा भी यह सिद्ध करनेकी चेष्टा की है कि सभी मनुष्य अन्य जो विशुद्ध कुलमें जन्म लेते हैं वे कुलार्य है। उचगोत्री हैं। स्वामी विद्यानन्दने अपने श्लोकवार्तिक यजन, याजन, पठन, पाठन, कृषि, लिपि, वाणिज्य, (अ०३मू०३७)में आर्य और म्लेच्छकी परिभाषा करते आदिसे आजीविका करने वाले कर्म-आर्य है । बुनकर, हए लिम्बा है-उबैत्रिोदयादेगर्याः, नीचैर्गोत्रोद- नाई, कुम्हार वगैरह जो अल्प आरम्भवाले और यादेश्च म्लेच्छाः ।" अर्थात उच्चत्रिके उदयके साथ अगर्हित आजीविकासे जीवन पालन करते हैं, वे साथ अन्य कारणोंके मिलनेसे आर्य और नीच शिल्पाय हैं। जो शिष्ट पुरुषोंके योग्य भाषामें योनगोत्रके उदयके साथ अन्य कारणोंके मिलनेसे चाल श्रादि व्यवहार करते हैं, वे भाषार्य है । ले०