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पृष्ट १८६ का शेष
और दी है और राजधातिक अन्त का अर्थ 'सेव्यन्ते' भी दिया है । यद्यपि यह आर्य शब्दकी निमक्ति है-लक्षण नहीं। फिर भी इसके द्वारा इतना प्रकट किया गया है कि जो गुणोंक द्वारा तथा गुग्गियोंक द्वारा सेवा किये जाएं प्राप्त हो वा अपनाए जाने के सब 'आर्य' हैं। और इस तरह गुणीजन तथा सुजन जिन्हें अपना वे अगुणी भी सब आर्य ठहरते हैं । शकयनादि काफी गुणीजन होते हैं—बड़े बड़े विद्वान राजा तथा राजसत्ता चलाने वाले मंत्री श्रादिक भी होते हैं ये सब सार्य ठहरेंगे। और जिन गुणहीनों तथा अनक्षर म्लेच्छोको आदिपुराणके निम्न वाक्यानुसार कुल शुद्धि व्यादिके द्वारा आर्य लोग
भी
NAGAR
अनेकान
[दीप, बीर-निर्माणसं० २४६५
अपना लेंगे, वे भी आर्य होजायेंगस्वदेशेऽनक्षरम्लेच्छान प्रजावाधाविधायिनः । कुलशुद्धिप्रदानायैः स्वसात्कुर्यादुपक्रमैः ॥
इससे आर्य-लेकी समस्या सुलझने के बजाय और भी ज्यादा उलझ जाती है। अतः विद्वानों निवेदन है कि वे इस समस्याको हल करने का पूरा प्रयत्न करें-- इस बातको खोज निकालें कि वास्तव में 'आर्य' किसे कहते हैं और
किसे ? दोनोंका व्यावर्तक लक्षण क्या है ? जिससे सब गड़बड़ मिटकर महज में ही सबको आर्य और म्लेच्छका परिज्ञान होसके ।
वीर सेवा मन्दिर सरमात्रा. ता० १७-१२-१६३८
कमनीय कामना
[ ० उपाध्याय कविरत्न श्री अमरचन्द्र जी ] [शार्दूलविक्रीडित] पापाचार न एक भी जगत में,
होवे कहीं भी कभी ;
बडे, बाल, युवा तथा अति हो,
धर्मक प्रेमी सभी ।
पृथ्वी का हर एक मर्त्य पशु से
पात्रे पामर
साक्षात् बने देवता;
पापमूर्ति जगती,
स्वर्लोक से श्रेष्ठता ।