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अनेकान्त
[ पौष, वीर निर्वाण सं० २४६५
म्लेच्छमात्र करना और 'सकल संयम कैसे हो सकता है ऐसी शंका नहीं करने' का अर्थ 'सकलसंयम होने में कोई शंका न होनी चाहिये' करना, अर्थका अनर्थ करना है। यदि 'ऐसी शंका नहीं करनी चाहिये' ( इति नाशङ्कितव्यम् ) का अर्थ ' इसमें कोई शंका नहीं करनी चाहिये किया जायगा, तो शास्त्रीय जगत् में बड़ा भारी विव पैदा हो जायगा । शास्त्रकार अपने सिद्धान्तको पुष्ट करने के लिये उसमें संभाव्य शंकाओं का स्वयं उल्लेख करके उनका समाधान करते हैं। इस प्रकार उनके द्वारा जो शंकाएँ उठाई जाती है, वे उनका सिद्धान्त नहीं होतीं, किन्तु उनके सिद्धान्त में वे शंकाएँ की जा सकती हैं, इसीलिए उन्हें उनका समाधान करना पड़ता है । अब यदि 'इति I' शब्दका अर्थ 'ऐसी' के स्थान में 'इसमें' किया जाता है तो सिद्धान्तमें उठाई गई 'आशंका' स्वयं सिद्धान्तका रूप धारण कर लेती है, जैसा कि लेखक महोदयने आशंकाको ही सिद्धान्त बना दिया है। आशंका को ही सिद्धान्त मान लेने पर जो विसव
को जो कोई भी समझदार व्यक्ति पढ़ेगा, वह सिरधुने बिना न रहेगा। मुझे आश्चर्य है कि पं० जुगलकिशोरजी मुख्तार जैसे सम्पादककी पैनी दृष्टि से बचकर यह फलितार्थ बिना टीका-टिप्पणीके कैसे प्रकाशित हो गया ? अस्तु लेखक महोदयका कहना है कि- "इन लेखों में आचार्य महाराजने यह बात उठाई है कि म्लेच्छ भूमिमें पैदा हुए जीभी म्लेच्छ हैं उनके सकल-संयम होने में कोई शंका नहीं करना चाहिये, समी म्लेच्छ मुनि हो सकते हैं, और अपने इस सिद्धान्तको पाठकोंके हृदयमें बैठाने के लिये उन्होंने दो दृष्टान्त दिये हैं । " किन्तु उनके भावार्थसे यह आशय नहीं निकलता । भावार्थ में तो 'म्लेच्छ भूमि में उत्पन्न हुए मनुष्यों के सकल-संयम कैसे हो सकता है, ऐसी शंका नहीं करनी चाहिये लिखा है और लेखक महोदय उसका यह आशय निकालते हैं कि म्लेच्छ भूमिमें पैदा हुए जो भी म्लेच्छ हैं उनके सकलसंयम होने में कोई शंका नहीं होनी चाहिये, सभी म्लेच्छ मुनि हो सकते हैं । बहुवचनान्त 'मनुष्यों' का अर्थ
I श्री राजवार्तिक पृ० ४१ पर, सूत्र १- १३ की व्याख्या करते हुए, अकलङ्कदेव ने 'इति' शब्द के हेतु, एवम्, प्रकार, ब्यवस्था, अर्थविपर्यास, समाप्ति और शब्दप्रादुर्भाव, ये अर्थ किये हैं। इनमें 'ऐसा' अर्थका सूचक 'एवम्' शब्द तो वर्तमान है किन्तु 'इसमें ' अर्थका सूचक कोई भी शब्द नहीं है भतः 'इति' का 'इसमें ' भर्थ भ्रान्त है (लेखक) नोट - - बा० सूरजभानजीने 'इति' का साफ एवं स्पष्ट अर्थ 'ऐसी' दिया है, जैसा कि लेखकद्वारा उद्धृत उनके उस 'भावार्थ'' से प्रकट है जिसे लेखक "बिल्कुल जैचा - तुला" माना है। उसे व्यर्थ की खींचतान करके 'इसमें' अर्थ बतलाना लेखकका अनुचित प्रयास है | सम्पादक
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* यह ठीक है कि जो शंका उठाई जाती है वह सिद्धान्त नहीं होती; परन्तु जिस मान्यतामें उठाई जाती है और शंकाका समाधान करके उस मान्यताको दृढ़ करने रूप जो फलितार्थ निकाला जाता है वह सब तो समाधानकारकका सिद्धान्त होता है या इस पर भी कुछ आपत्ति है ? यदि इस पर कुछ आपत्ति नहीं और न हो सकती है, तो हमें सबसे पहले यह देखना चाहिये कि जयधवलामै वि.स मान्यताको सामने रखकर क्या आपत्ति कीगई है ? उसी पर से यह मालूम होसकेगा कि बाबू साहबने भाशंका को ही सिद्धान्त बना दिया है क्या ? लेखमें बाबू साहब द्वारा उद्धृत जयभवलाके "जा एवं कुदो तत्थ " यदि ऐसा है तो वहां अमुक बात कैसे बनती है— ये शब्द भी एक विचारकके लिये इस बातकी ख़ास आवश्यकता उपस्थित करते हैं कि वह पहले 'जह एवं ( यदि ऐसा है ) और 'तस्थ' ( वहाँ ) जैसे शब्दोंके वाक्यको मालूम करे और तब कुछ कहने अथवा लिखनेका साहस करे । अतः जय वला के उस पूर्व प्रकरणको मैं यहाँ उद्धृत कर देना चाहता हूँ। जयथवलके 'संजमलद्धि' नामक अनुयोगद्वार ( अधिकार )