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अनेकान्त
[पौष, वीर नि० सं० २४६५
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दर्शनम्, इति न 'बाघार्थगतसामान्यग्रहणं दर्श- अनुमान दिया है। उसको निर्दोष सिद्ध करते हुए नम्' इति आशंकानीयम् , तस्यावस्तुनः कर्म- उन्होंने लिखा है-“साध्यसाधनविकल मुदाहरणम् स्वाभावात् ।" इसमें बतलाया है कि-बाह्यमर्थकी इति च न शकुनीयम् , पद्ममध्यगतस्य भृङ्गस्य विशेषता न करके जी ( स्वरूपका ) ग्रहण होता तगन्धलोभकषायहेतुकत्वेन तत्संकोचकाले पारहै उसे दर्शन कहते हैं। अतः 'बाय अर्थक सामान्य तंत्र्यानपेक्षिणः प्रसिद्धत्वात'। इस लेखमें प्रन्थकार
आकारके प्रहण करनेको दर्शन कहते हैं। ऐमी ने बतलाया है कि क्यों उनका उदारण साध्यविकल शङ्का नहीं करनी चाहिये, क्योंकि (केवल) सामान्य और साधनविकल नहीं है। यहां परभी 'उदाहरण अवस्तु है अत: वह ज्ञान का विषय नहीं हो साध्य और साधनस विकल है, ऐसी शङ्का न सकता। यहां पर 'बाह्य अर्थ के सामान्य आकारके करनी चाहिये' का अर्थ यदि लेखकमहोदयके मता. प्रहण करनको दर्शन कहते हैं, ऐसी शङ्का न करनी नुसार किया जाय तो कहना होगा कि-'उदाहरण चाहिय' इस वाक्यका अर्थ यदि लेखकजीके साध्य और साधनसे विकल है. इस बातमें कोई मतानुसार किया जाय तो वह इस प्रकार होगा- शङ्का नहीं करनी चाहिये, अर्थात उदाहरण साध्यसे 'इस वाक्यमें श्री प्राचार्य महाराजने यह बात भी शून्य है और साधनसे भी, और यह बात उठाई है कि 'बाह्य अर्थके सामान्य आकारके इतनी सुनिश्चित है ? कि उसमें किसी सन्देहको भी प्रहण करनेको दर्शन कहते हैं। इस सिद्धान्तमें स्थान नहीं है। क्या खूब रही, बेचारे विद्यानन्दजी किसीको भी शङ्का नहीं कहनी चाहिये, अर्थात का अपने ही अनुमानको समर्थन करनेका प्रयास बाह्य अर्थ के सामान्य आकारके ग्रहण करनेको ही उसका घातक बन बैठा। इस ही कहते हैं अपने दर्शन कहते हैं। बेचारे प्रन्थकार दर्शनके जिस हाथों अपना घातक । अस्तु। प्रचलित अर्थका निराकरण करना चाहते थे, वही लेखकमहोदयका कहना है कि-'अपने इस उनका सिद्धान्त बना जाता है । अस्तु; दूसरा सिद्धान्तको पाठकों के हृदय में बिठानेके वास्ते उन्होंने उदाहरण यहाँ यद्यपि तत्त्वार्थ-श्लोकवार्तिकसं दो दृष्टान्त दिये हैं। । किन्तु उनका यह कथन भी दिया जाता है, किन्तु वह इतना प्रचलित है कि बिल्कुन्त असङ्गत है; क्योंकि जिन दो प्रकारों दर्शन और न्यायका शायद ही कोई प्रन्थ ऐसा (तरीकों) के द्वारा प्रन्थकारने म्लेच्छ जीवोंमें हो जिसमें वह वर्तमान न हो । सूत्र ६-४, की सकलसंयम होसकनेका निर्देश किया है, वे दोनों व्याख्यामें भी विद्यानन्दने संसारी जीवकी पर. प्रकार उदाहरणरूपमें नहीं हैं। शिक्षित पाठकोंसे तन्त्रताको कषायहेतुक सिद्ध करनेके लिये एक यह बात अज्ञात नहीं है कि संस्कृतमें उदाहरण
* खेद कि लेखकजीने जयपवला के उस मूल तुलना-वाक्यमें प्रयुक्त हुए 'जा एवं कुदो तस्थ' जैसे शब्दों के बायको छिपाकर खुद ही तो भी विद्यानन्दजी के वाक्यको गलत रूपमें जयपवला के वाक्यके साथ तुलनाके लिये प्रस्तुत किया और फिर
खुद ही ऐसी सदोष तुलनाके माधार पर विद्यानन्दजीका मखौल उड़ाने बैठ गये ! यह उचित नहीं है। इसी प्रकारका भनौचित्य पिछले तथा भगले उदाहरणके प्रयोगमै भी पाया जाता है। -सम्पादक