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अनेकान्त
"इन बेचारे छुल्लकका क्या दोष है ? जब तुम्हारे जैसे श्री संघके अग्रणी भी स्वोदर पोषक हो गए । आचार्य महाराजके इन वचनोंका सुनकर चाणक्य अत्यन्त नम्रता पूर्वक हाथ जोड़कर सविनय निवेदन किया "भगवान ! आपने मुझ प्रमादोकी भले प्रकार शिक्षादी है। आज से जिस किसी भी साधुको अशन-पानादिकी आवश्यकता हा मेरे घर आएँ और आहार ग्रहण करें" । इस प्रकार का अभिग्रह करके तथा आचार्य महाराज की भक्ति पूर्वक नमस्कार करके 'चाणक्य' अपने गृह-वास में चले गए।"
इस प्रसंग परसे पाठक भली भाँति समझ जायेंगे कि चाणक्यकी जैनधर्मके प्रति कितना भक्ति प्रेम, एवं श्रद्धा थी । चाणक्य ने राजा को भी जैनधर्मका उपासक एवं श्रद्धालु जैन श्रावक बनाने में भरसक प्रयत्न कियाथा। उसी समयक विद्यमान अनेक दर्शनों के प्राचार्यों तथा साधुओं से चन्द्रगुप्तको परिचय कराया था। चन्द्रगुप्तन अन्य धर्मावलंबी साधुओं को अपने दरबार में निमंत्रण भी दिया था । चाणक्यने उन साधुश्र की असच्चरित्रता दिखाकर राजाको कहा, अब आप जैन श्रमण निर्मन्थोंक दर्शन करें। चाणक्यके
मह से राजाने जैन मुनियोंको निमंत्रण दिया । जैन साधु अपने आचार के मुताबिक इर्षा समिति की संशोधन करते हुए शान्तमुद्रासे आकर अपने आसनों पर बैठ गये । राजा और मंत्रीने आकर देखा कि मुनिमहाराज अपने आसनों पर शांति
[ वर्ष २, किरण १
से बैठे हुए हैं। उसी समय साधुओं की प्रशंसा करते हुए कहा कि - "जैन महात्मा बड़े जितेंद्रिय और अपने समयको व्यर्थ नष्ट नहीं करने वाले होते हैं" जैन साधुओंन राजाकी प्रतिबोध देकर, - धर्मतत्व सुनाकर और खामकर साधुधर्म पर प्रकाश डालते हुए समिति शांधते हुए अपने
स्थान पर चले आए। तब चन्द्रगुप्तको चाणक्य ने कहा " देख बेटा ! धर्म-गुरु ऐसे होते हैं । इन महात्माओंका आना और जाना किस प्रकारका होता है ? और जब तक अपन लोग वहां पर नहीं आए तब तक किस प्रकार उन्होंने अपने समयको निकाला ? ये महात्मा अपने आसनको छोड़कर कहीं भी इधर उधर नहीं भटकते । क्योंकि
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| महात्मा यहाँ पर इधर उधर फिरते ती, अवश्यमेव इस चिकनी और कोमल गिट्टीमें इनकी पदपंक्ति + भी प्रतिविम्बित होजाती । इसप्रकार जैन महात्माओं की सुशीलता और जितेन्द्रियता देखकर चन्द्रगुप्तका जैन साधुओं पर श्रद्धा होई और दूसरे पाखण्डी साधुओं से विरक्ति होगई जैसे योगियोंकी विषयांसे होती है ।"
* दुष्काल भोर साधुओं के इस वर्णनके मूल श्लोक लेखके 'परिशिष्टमें दिये है; वहाँ देखो, श्लोक नं० ३७७ से ४१३ तक ।
आचार्य श्री हेमचन्द्रजीने मंत्रीश्वर चाणक्य की जैनधर्मका परम उपासक लिखा है । और
+ भजैन साधुओंकी परीक्षाभी उसी तरहसे कीगई थी । भजैन साधु जब तक राजा नहीं भाए थे तब तक इधर उधर
घूमते रहे थे और ठेठ अन्तःपुर तक देखने लगे थे। जब कि जैन साधुओं की परीक्षा के लिए सूक्ष्म चिकनी मिट्टी बिछाई गई थी लेकिन जैन साधु तो इधर उधर भटके बिना अपने स्थान पर बैठे रहे और जब राजा और मंत्री आए तब धर्म-तश्व सुनाकर
अपने स्थान पर गए।
* मूत श्लोकोंके लिये देखो, लेखका 'परिशिष्ट' श्लोक ४३० से ४३५ तक ।