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तत्वचची
ऊँच-गोत्रका व्यवहार कहाँ ?
( धवल सिद्धान्तका एक मनोरञ्जक वर्णन )
[सम्पादकीय ]
षट्खण्डागमके 'वेदना' नामका चतुर्थ खण्ड. पर क्या कुछ आपत्ति की जाती थी ? अपने पाठकों के चौबीस अधिकारोंमें से पाँचवे ‘पयडि' के सामने विचारकी अच्छी सामग्री प्रस्तुत करने (प्रकृति) नामक अधिकारका वर्णन करते हुए, और उनकी विवेकवृद्धि के लिये मैं उसे क्रमशः यहाँ श्रीभतबली प्राचार्यने गोत्रकर्म-विषयक एक सूत्र देना चाहता हूँ। निम्न प्रकार दिया है :
टीकाका प्रारम्भ करते हुए, सबसे पहले यह "गोदस्स कम्मस्स दुवे पयडीओ उच्चा
प्रश्न उठाया गया है कि-"उच्चैगोत्रस्य क्व गोदं चेव णीचागोदं चेव एवदियालो पय
व्यापार: ?"-अर्थात ऊँच गोत्रका व्यापार-व्यवडीओ ॥१२६॥"
हार कहाँ ?-किन्हें उचगोत्री समझा जाय ? श्रीवीरसेनाचार्यने अपनी धवला-टीकामें, इस इसके बाद प्रश्नको स्पष्ट करते हुए और उसके सूत्रपर जो टीका लिखी है वह बड़ी ही मनोरंजक समाधानरूपमें जो जो बातें कही जाती हैं, उन्हें है और उससे अनेक नई नई बात प्रकाशमें आती सदोष बतलाते हुए जो कुछ कहा गया है,वह सब हैं-गोत्रकर्म पर तो अच्छा खासा प्रकाश पड़ता ___ क्रमशः इस प्रकार है :है और यह मालूम होता है कि वीरसेनाचार्यके
(१) "न नावद्राज्यादिलक्षणायां संपदि अस्तित्वसमय अथवा धवलाटीका (धवलसिद्धान्त) के निर्माण-समय (शक सं० ७३८) तक गोत्रकर्म- [व्यापारः], तस्याः सद्वेषतस्समुत्पतेः।"