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वर्ष २ किरण ३]
जाति-मद सम्यक्त्वका बाधक है
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लोग विकलाङ्गी हों.- खण्डित देह हो, विरूप हों . किसी समय जैनी थीं परन्तु अब उनको जैनधर्म बदसूरत हों, दरिद्री हों, रोगो हों और कुलजाति से कुछ भी वास्ता नहीं है। और यह तो स्पष्ट ही
आदिसे हीन हों वे सब शोभासम्पन्न हैं, यदि है कि जहाँ इस भारतवर्ष में किसी समय जैनी मत्य सम्यक्त से विभूषित हैं'। अर्थात धर्मात्मा अधिक और अन्यमती कम थे वहाँ अब पैंतीस पुरुष कुन जाति आदिसे होन होने पर भी किरही करोड़ मनुष्यों में कुल ग्यारह लाख ही जैनी रह प्रकार तिरस्कारके योग्य नहीं होते। जो जाति गये हैं और उनको भी अनेक प्रकार के अनुचित
आदिके मदमें आकर उनका तिरस्कार करता है दण्ड-विधानों आदिक द्वारा घटानेकी कोशिश की वह पूर्वोक्त श्लोकातुमार अपनको नीच गतिका पात्र जा रही है। बनाता है । यथा:---
घटे या बड़े जिनको धर्मस प्रेम नहीं है, ग्वंडितानां विरूपाणां दर्विधानां च गेगिणाम जिनको धर्मकी सभी श्रद्धा नहीं है और जो
मम्यक्त्वकं स्थितिकरण तथा वात्सल्य अङ्गोंक कुलजात्यादिहीनानां सत्यमेकं विभूषणम्
पास तक नहीं फटकतं उन्हें ऐसी बातोंकी क्या
चिन्ता और उनसे क्या मतलब ! हाँ, जो सच्चे स्वामिकार्तिकेयानु प्रेक्षाकी ४३० वीं गाथामें
श्रद्धानी हैं, धर्म से जिनको सच्चा प्रेम है वे जरूर भी लिखा है कि उत्तम धर्मधारी तिर्यच-पशु भी
मनुष्यमात्रमें उम मचे जैनधर्मको फैलानेकी उत्तम देव हो जाता है तथा उत्तम धर्म के प्रसादम
न कोशिश करेंगे जिम पर उनकी दृढ़ श्रद्धा है। चाँडाल भी देवीका देव सुरेन्द्र बन जाता है।
अर्थात कोई छुन हो वा अछूत, ऊँच ही वा नीच
. मभीको वे धर्म सिखाएंगे, मबहीको जैनी उत्तमधम्मेणजुदो होदि तिरबग्यो वि उनमोदेवो
बनाएँगे और जो जैनधर्म धारण कर लेगा उसके चंडालो वि मुरिंदो उत्तम धम्मेण संभवदि
__ माथ वात्मल्यभाव रग्बकर हृदयम प्रेम भी ___ आचार्यों की ऐसी स्पष्ट आज्ञाओक होने पर करेंगे, उमकी प्रतिया भी करेंगे और उसे धर्म भी, अफसोस के साथ कहना पड़ता है कि कुल माधनकी मब प्रकारकी महलियने भी प्रदान और जातिके घमंडका यह महारोग जैनियों में करेंगे तथा दृमगम भी प्राप्त कगाएँगे। उनके भी जोर-शोरके साथ घुस गया, जिसका फल यह लिए स्वामी ममन्नभद्रका निम्न वाक्य बड़ा ही हुआ कि नवीन जैनी बनते रहना तो दूर रहा. लाखों पथ-प्रदर्दक होगा, जिसमें म्पाट लिम्बा है कि जो करोड़ों मनुष्य, जिनको इन महान प्राचयाने बड़ी श्री जिनेन्द्रदेवका नत मम्तक होता है. उनकी कोशिशसे जैनो बनाया था, उन कुल का घमंड शरण में आता है--अर्थात जैनधर्म का प्रहण रखने वाले जैनियों में प्रतिषा न पानेके कारण करता है वह चाहं कैमा ही नीचानिनीच क्यों न जैनधर्मको छोड़ बैठे ! इसके सबूतके तौर पर ही, इसी लोक में-इम ही जन्ममे--अनि ऊँचा हो अब भी अनेक जातियां ऐसी मिलनी हैं जो जाता है: नव फिर कौन मा मुख है अथवा कौन
यथा