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वर्ष २ किरण ३]
जाति-मद सम्यक्त्वका बाधक है
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इसके बादका निम्न श्लोक नं० २८ भी इसी दो मदोंने गारत किया है। ब्राह्मणोंका प्राबल्य बानको पुष्ट करनेके लिए लिखा गया है और उसमें होने पर कुल और जातिका घमण्ड करनेकी यह यह स्पष्ट बतलाया गया है कि चाण्डालका पुत्र भी बीमारी सबसे पहले वेदानुयायी हिन्दुत्रोंमें फूटी। यदि सम्यग्दर्शन ग्रहण करले-धर्म पर आचरण उस समय एकमात्र ब्राह्मण ही सब धर्म-कर्मके करने लगे--तो कुलादि सम्पत्तिसे अत्यन्त गिरा ठेकेदार बन बैठे. क्षत्रिय और वैश्यके वास्ते भी हुश्रा होने पर भी पूज्य पुरुषोंने उसको 'देव' वे ही पूजन-पाट और जप-तप करने के अधिकारी अर्थात आराध्य बतलाया है-तिरस्कारका पात्र नहीं; रह गए; शूद न तो स्वयं ही कुछ धर्म कर सके क्योंकि वह उस अंगारके सदृश होता है जो बाह्य- और न ब्राह्मण ही उनके वास्ते कुछ करने पावे, में राखसे ढका हुआ होने पर भी अन्तरंगमें तेज ऐसे आदेश निकलं; शूद्रोंकी छायासे भी दूर रहने तथा प्रकाशको लिए हुए है और इसलिए कदापि की श्राज्ञाएँ जारी हुई। अचानक भी यदि कोई उपेक्षणीय नहीं होता --
वेदका वचन शूद्रके कानमें पड़ जाय तो उसका सम्यग्दर्शनसम्पन्नमपि मातङ्गदेहजम् । कान फोड़ दिया जाय और यदि कोई धर्मकी बात देवा देवं विदुर्भस्मगूढाङ्गारान्तरोजसम् ॥
उसके मुखसं निकल जाय तो उसकी जीभ काट
. ली जाय, ऐसे विधान भी बने। प्रत्युत इसके, फिर इसीको अधिक स्पष्ट करते हुए श्लोक नं० २६ ।
। ब्राह्मण चाहे कुछ धर्म कर्म जानना हो या न जानता में लिखते हैं कि 'धर्म धारण करनेसे तो कुत्ता भी हो
हो और चाहे वह कैसा ही नीच कर्म करता हो, तो देव हो जाता है और अधर्मके कारण-पापाचरण
__ भी वह पूज्य माना जावे । ऐसा होने पर एकमात्र करनेसे–देव भी कुत्ता बन जाता है। तब ऐसी
हाड़मांसकी ही छुटाई-बड़ाई रह गई ! किसीका कौनसी सम्पत्ति है जो धर्मधारीको प्राप्त न हो
हाड़मांस पूज्य और किमीका तिरस्कृत ममझा मके।' ऐसी हालतमें धर्मधारी कुत्तेको क्यों नीचा
गया !! समझा जाय और अधर्मी देवको तथा अन्य किसी
फल इसका यह हुआ कि धर्म कर्म सब लुप्त ऊँचे वर्ण वा जातिवाले धर्महीनको क्यों ऊँचा
हो गया। क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र तो धर्म-ज्ञानसे माना जाय ? वह श्लोक इस प्रकार है
वंचित कर ही दिये गए थे; किन्तु ब्राह्मणोंको भी श्वापि देवोऽपि देवः श्वा जायते धर्मकिल्विषा। अपनी जातिके घमण्डमें आकर ज्ञानप्राप्ति और कापि नाम भवदेन्या सम्पद्धर्माच्छरीरिणाम् ॥ किसी प्रकारके धर्माचरणकी जरूरत न रही। ___ इस प्रकार आठों प्रकारके मदोंका वर्णन इस कारण वे भी निरक्षर-भट्टाचार्य तथा कोरे करते हुए श्री समन्तभद्र स्वामीने जाति और कुल- बुधू रहकर प्रायः शूद्रोंके समान बन गए और के मदका विशेष रूपसे उल्लेख करके इन दोनों अन्तको रोटी बनाना, पानी पिलाना, बोझा ढोना मदोंके छुड़ाने पर अधिक जोर दिया है। कारण आदि शूद्रोंकी वृत्ति तक धारण करने के लिए इसका यही है कि हिन्दुस्तानको एक मात्र इन्हीं उन्हें वाधित होना पड़ा।