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अनेकान्त
[पौष, वीर-निर्वाण सं० २४६५
ऐसा बुद्धिमान है जो जिनेन्द्रदेवकी शरणमें भर जाय और वे धर्मप्रचारके लिए अपने प्राप्त न होवे अर्थात् उनका बताया हुआ धर्ममार्ग पूर्वजोंका अनुकरण करने लगे, तो दुनिया भरक ग्रहण न करे ? सभी जैनधर्मकी शरणमें आकर लोग आज भी इस सच्चे धर्मकी शरणमें आने अपनी इहलौकिक तथा पारलौकिक हित साधन के लिए उत्सुक हो सकते हैं । पर यह तभी हो कर सकेंगे।
सकता है जब इस समय जो लोग जेनी कहलाते यो लोके त्वानतः सोऽनिहीनोऽप्यतिगर्यतः हैं और जैनधर्मके ठेकेदार बनते हैं, उनको धर्म बालोऽपि त्वा श्रितं नौतिकोनोनीतिपरकता का सच्चा श्रद्धान हो, प्राचार्योक वाक्यांका उनके ___ श्रीसमन्तभद्र आदि महान् प्राचार्योंके समय
हृदयमें पूरा पूरा मान हो, धर्मके मुक़ाबिलेमें में ऐसा ही होता था। सभी प्रकारके मनुष्य जैन
लौकिक रीति-रिवाजोंका जिन्हें कुछ नयाल न धर्म ग्रहण करके ऊँचे बन जाते थे माननीय हा, कुल और जाति का झूठा घमण्ड जिनके पास प्रतिष्ठित हो जाते थे। तब ही तो इन महान
न हो और अपना तथा जीवमात्रका कल्याण प्राचार्योने हिंसामय यज्ञोंको भारतसे दूर भगाया
करना ही जिनका एकमात्र ध्येय हो। आशा है और अहिंसामय धर्मका झण्डा फहराया। अब
धर्मप्रेमी वन्धु इन सब बातों पर विचार कर भी यदि ऐसा ही होने लगे, जैनियोंका हृदय जाति
अपने कर्तव्य-पथ पर अग्रसर होंगे। कुलादिके मदसे शुन्य होकर धर्मकी भावनासे वीर सेवा मन्दिर सरसावा ।
कीया ग़रूर गुल ने जब रंगो-रूप बू का । मारे हवा ने झोके, शबनम ने मुंह में थूका ॥
-अज्ञात् । 'महान् कार्योंके सम्पादन करनेकी आकांक्षाको ही लोग महत्वके नामसे पुकारते हैं और अोछापन उस भावनाका नाम है जो कहती है कि मैं उसके बिना ही रहूंगी।'
'महत्ता सर्वदा ही विनयशील होती है और दिखावा पसन्द नहीं करती मगर घद्रता सारे संसारमें अपने गुणोंका ढिंढोरा पीटती फिरती है।'
-तिरुवल्लुबर।