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अनेकान्त
[पौष, वीर-निर्वाण सं० २४६५
संक्रामक रोगकी तरह यह बीमारी जैनियोंमें स्वामी कुन्दकुन्दाचार्य भी अपने दर्शनपाहुडम भी फैलनी शुरू हुई, जिससे बचानेके लिए ही लिखते हैंआचार्योंको यह सत्य सिद्धान्त खोलकर समझाना ण वि देहो वन्दिाइ पड़ा कि जो कोई अपनी जाति व कुल आदिका णविय कुलोण विय जाइ संजुत्तो । घमण्ड करके किसी नीचातिनीच यहाँ तक कि चाण्डालके रज-वीर्यसे पैदा हए चाण्डाल-पत्रको का वादम गुणहाणा भी, जिसने सम्यग्दर्शनादिके रूपमें धर्म धारण ण हु सवणो णेय सावओहोई ॥२७।। कर लिया है, नीचा समझता है तो वह वास्तव में अर्थात-न तो देहको बन्दना की जाती है, उस चाण्डालका अपमान नहीं करता है किन्तु न कुलका और न जाति-सम्पन्नको। गुणहीन अपने जैन-धर्मका ही अपमान करता है-उसके कोई भी बन्दना किये जाने के योग्य नहीं; जो हृदयमें धर्मका श्रद्धान रंचमात्र भी नहीं है। धर्म- कि न तो श्रावक ही होता है और न मुनि ही । का श्रद्धान होता तो जैन-धर्मधारी चांडालको क्यों भावार्थ-वन्दना अर्थात पूजा-प्रतिमा के योग्य या नीचा समझता ? धर्म धारण करनेसे तो वह तो श्रावक होता है और या मुनि; क्योंकि ये दोनों चाण्डाल बहुत ऊँचा उठ गया है; तब वह नीचा ही धर्म-गुणसं विशिष्ट होते हैं। धर्म-गुण-विहीन क्यों समझा जाय ? कोई जातिसे चाण्डाल हो कोई भी कुलवान तथा ऊँची जातिवाला अथवा वा अन्य किसी बातमें हीन हो, यदि उसने जैन- उसकी हाडमांस भरी देह पूजा प्रतिछाके योग्य धर्म धारण कर लिया है तो वह बहुत कुछ नहीं है। ऊँचा तथा सम्माननीय हो गया है। सम्यग्दर्शनकं श्रीशुभचन्द्राचार्यने भी ज्ञानार्णवक अध्याय २१ वात्सल्य अङ्ग-द्वारा उसको अपना साधर्मी भाई श्कोक नं० ४८ में लिखा है कि:समझना, प्यार करना, लौकिक कठिनाइये दूर
। कुलजातीश्वरत्वादिमद-विध्वस्तबुद्धिभिः । करके सहायता पहुँचाना और धर्म-साधनमें सर्व प्रकारकी सहूलियतें देना यह सब सो श्रद्धानीका सद्यः संचीयते कर्म नीचर्गतिनिबन्धनम् ।। मुख्य कर्तव्य है। जो ऐसा नहीं करता उसमें धर्म- अर्थात-कुलमद, जातिमद, ऐश्वर्यमद आदि का भाव नहीं, धर्मकी सच्ची श्रद्धा नहीं और न मदों से जिनकी बुद्धि नष्ट हो गई है ऐसे लोग धर्मसे प्रेम ही कहा जा सकता है। धर्मसे प्रेम बिना किसी विलम्बके शीघ्र ही उम पापकर्मका होनेका चिन्ह ही धर्मात्माके साथ प्रेम तथा संचय करते हैं जो नीच गतिका कारण हैवात्सल्य भावका होना है। सभे धर्म-प्रेमीको यह नरक-तिर्यचादि अनेक कुगतियों और कुयोनियों में देखनेकी जरूरत ही नहीं होती कि अमुक धर्मात्मा- भ्रमण कराने वाला है। का हाड़मांस किस रजवीर्यसे बना है-बाह्मणसे इन्हीं शुभचन्द्राचार्यने मानार्णवके । वे अध्यायबना है वा चाण्डाल से।
के श्लोक नं० ३० में यह भी प्रकट किया है कि जो