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वर्ष २ किरण २]
जैन-समाज क्यों मिट रहा है ?
समासेन समाख्याता निकायाः खचरोद्गताः ॥ हड्डियोंके भूषणोंसे भूषित भस्म (राख) की रेणुओं इति भार्योपदेशेन ज्ञानविद्याधरान्तरः ।
से भदमैले और श्मशान [स्तंभ] के सहारे बैठे
हुए ये श्मशान जातिके विद्याधर हैं ।। १६ ।। वैडू. शौरियातो निजं स्थानं खेचराश्च यथायथम ।। र्यमणिके समान नोल नोले वनोंको धारण किये
-२६ वा सर्ग।
पांडुर स्तंभके सहारे बैठे हुये ये पाँडक जातिके -१४, १५, १६, १७, १८, १९, २०, २१, २२,
विद्याधर ॥ १७॥ काले काल मगचौका प्रोटे २३, २४.
काले चमड़ेके वस्त्र और मालाओंको धारे काल इन पद्योंका अनुवाद पं० गजाधरलालजीने. स्तंभका आश्रय ले बैठे हुए ये कालश्वपाकी जासिके अपने भाषा * हरिवंश पुराणमें, निम्न प्रकार
विद्याधर हैं ॥ १८ ॥ पीले वर्णके केशसे भूषित,
नप्त सुवर्णके भूषणोंके धारक श्वपाक विद्याओंके दिया है :--
स्तंभके सहारे बैठने वाले ये श्वपाक [भंगी] जाति ___ “एकदिन समस्त विद्याधर अपनी अपनी स्त्रियों
के विद्याधर हैं ।। १६ ।। वृतोंके पत्तोंके समान हरे के साथ सिद्धकूट चैत्यालयकी वंदनार्थ गये । कुमार
वस्त्रोंके धारण करनेवाले, भाँति भाँतिके मुकुट (वसुदेव) भी प्रियतमा मदनवेगाके साथ चलदिये
और मालाओंके धारक, पर्वतस्तंभका महारा लेकर ॥२॥ सिद्ध कूटपर जाकर चित्र विचित्र वेषोंके
बैठे हुए ये पार्वतेय जातिके विद्याधर हैं ।।२०।। धारण करने वाले विद्याधरांने सानन्द भगवानकी
जिनके भूषण बाँसके पत्तोंके बने हुए हैं जो सब पूजाकी चैत्यालयको नमस्कार किया एवं अपने
ऋतुओंके फलोंकी माला पहिने हुए हैं और अपने स्तंभोंका सहारा ले जुदे २ स्थानों पर बैठ गये ॥३॥ कुमारके श्वसुर विधुढेगने भी अपने
वंशस्तंभक महारे बैठे हुए हैं वे वंशालय जातिके जातिके गौरिक निकायकं विद्याधरोंक माथ भले विद्याधर है ।। २१ ।। महासपक चिहोस युक्त प्रकार भगवानकी पूजाकी और अपनी गौरी- उत्तमोत्तम भूषणोंको धारण करने वाले जमल विद्याओंके स्तंभका महाराले बैठ गये ॥४ा कुमार
नामक विशाल म्भके सहारे बैठे हए ये वार्तमूलक को विद्याधरोंकी जातिके जाननेकी उत्कण्ठा हुई
जातिके विद्याधर हैं।॥ २०॥ इस प्रकार रमणी इसलिये उन्होंने उनके विषयमें प्रियतमा मदन
मदनवेगा द्वारा अपने अपने वेष और चिह्न युक्त वंगास पूछा और मदनवेगा यथायोग्य विद्याधरों.
भूषणोंसे विद्याधरोंका भेद जान कुमार अति प्रसन्न की जातियोंका इसप्रकार वर्णन करने लगी--..
हुए और उसके साथ अपने स्थानको वापिम चले
आये एवं अन्य विद्याधर भी अपने अपने स्थानों"प्रभो ! ये जितने विद्याधर हैं वे सब आर्य
को चले गये ।। २३-२४॥" । जातिकं विद्याधर हैं अब मैं मातंग [अनार्य]
इम उल्लेख परसे इतनाही म्पष्ट मालूम नहीं जातिके विद्याधरोंको बतलाती हैं आप ध्यान
होता कि मातंग जातियोंक चाण्डाल लोग भी पूर्वक सुनें
जैनमंदिरमें जाते और पूजन करते थे बल्कि “नील मेघ समान श्याम नीली माला धारण यहभी मालम हाना है कि मशानभूमिकी हड़ियों किये मातंग [चांडाल स्तंभके महारे बैठे हुए, यं
यहाँ इस उल्लेख परसे किसीको यह ममझनेकी मातंग जानिके विनाधर हैं ॥१४-१५ ।। मुद्रोंकी
भूल न करनी चाहिये कि लेखक आजकल ऐसे * देवो इस हरिवंशपुराणका सन १९१६का छपा अपवित्र वेषम जैन मंदिगम जानकी प्रवृत्ति चलाना हुश्रा संस्करण. पृष्ठ २८४, २८५ ।
चाहना है।