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अनेकान्त
[मार्गशिर, वीर-निर्वाण सं० २४६५
के आभूषण पहिने हुए, वहाँकी राख बदनसे मले और चाहे जिसको नहीं। ऐसे सब लोगोंको खूब हुए, तथा मृगछाला ओढ़े, चमड़ेके वस्त्र पहिने याद रखना चाहिये कि दूसरोंके धर्म-साधनमें विघ्न
और चमड़ेकी मालाएँ हाथमें लिये हुए भी करना-बाधक होना-उनका मंदिर जाना बंद जैनमंदिरमें जासकते थे, और न केवल जाही करके उन्हें देवदर्शन आदिस विनुख रखना, और सकते थे बल्कि अपनी शक्ति और भक्तिके इस तरह पर उनकी श्रात्मोन्नतिके कार्यमें रुकावट अनुसार पूजा करने के बाद उनके वहाँ बैठनेके डालना बहुत बड़ा भारी पाप है। अंजना सुंदरीन लिए स्थान भी नियत था, जिससे उनका जैन- अपने पूर्व जन्ममें थोड़ेही कालके लिये, जिनप्रतिमा मंदिरमें जानेका और भी ज्यादा नियत अधिकार को छिपाकर, अपनी सोतनके दर्शनपूजनमें पाया जाता है । जान पड़ता है उस समय अन्तराय डाला था। जिसका परिणाम यहाँ तक 'सिद्ध कूट जिनालय' में प्रतिमागृहके सामने एक कटुक हुआ कि उसको अपने इस जन्ममें २२ वर्ष बहुत बड़ा विशाल मंडप होगा और उसमें स्तंभों तक पतिका दुःसह वियोग सहना पड़ा और अनेक के विभागसे सभी आर्य जातियोंकि लोगोंके बैठने संकट तथा आपदाओंका सामना करना पड़ा, के लिये जुदाजुदा स्थान नियत कर रक्खे होंगे। जिनका पूर्ण विवरण श्रीरविषेणाचार्यकृत 'पद्म आजकल जैनियों में उक्त सिद्धकूट जिनायलके ढंग- पुराण' के देखनेसे मालूम हो सकता है। श्रीकुन्दका-उसकी नीतिका अनुसरण करनेवाला- कुन्दाचार्यने, अपने 'रयणसार' ग्रन्थमें यह स्पष्ट एकभी जैनमंदिर नहीं है। लोगोंने बहुधा जैन बतलाया है कि 'दूसरोंके पूजन और दानकार्यमें मंदिरोंको देवसम्पत्ति न समझकर अपनी घरू अन्तराय (विघ्न) करनेसे जन्मजन्मान्तरमें क्षय, सम्पत्ति समझ रक्खा है, उन्हें अपनी ही चहल- कुष्ट, शूल, रक्तविकार, भगंदर, जलोदर, नेत्रपीड़ा, पहल तथा आमोद-प्रमोदादिके एक प्रकारके साधन शिरोवेदना आदिक रोग तथा शीत उष्ण (सग्दी बना रक्खा है, वे प्रायः उन महोदार्य-सम्पन्न गरमी) के अाताप और (कुयोनियोंमें) परिभ्रमण लोकपिता वीतराग भगवान्के मंदिर नहीं जान आदि अनेक दुःखोंकी प्राप्ति होती हैं।' यथापड़ते जिनके समवशरणमें पशुतक भी जाकर बैठतेथे, और न वहाँ, मूर्तिको छोड़कर, उन पूज्य खयकुमूलमूलो लोयभगंदरजलोदरक्खिसिरोपिताके वैराग्य, औदार्य तथा साम्यभावादि गुणों मोदण्डबहराई पजादाणंतरायकम्मफलं ॥३३॥ का कहीं कोई आदर्श ही नजर आता है। इसीसे सादुलपणापा वे लोग उनमें चाहे जिस जैनीको आने देते हैं इसलिए जो कोई जाति-बिरादरी अथवा
श्री जिनसेनाचार्यने, ९ वीं शताब्दीके वातावरण पंचायत किसी जैनीको जैनमन्दिरमें न जाने के अनुसार भी, ऐसे लोगोंका जैनमंदिर में जाना आदि अथवा जिनपूजादि धर्मकार्योंसे वंचित रखनेका आपत्तिके योग्य नहीं ठहराया और न उससे मंदिरके दण्ड देती है वह अपने अधिकारका अतिक्रमण अपवित्र होजानेको ही सूचितकिया । इससे क्या यह
और उल्लंघन ही नहीं करती बल्कि घोर पापका
अनुष्ठान करके स्वयं अपराधिनी बनती है।" प्रष्ट न समझ लिया जाय कि उन्होंने ऐसी प्रवृत्तिका 39.38 अभिनंदन किया है अथवा उसे बुरा नहीं समझा !
-क्रमशः