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अनेकान्त
[पौष, वीर-निर्वाण सं० २४६५
कोई विशद एवं व्यावर्तक लक्षण नहीं दिया। इन देशोंमें कितने ही तो हिन्दुस्तानके भीतरआर्योके तो ऋद्धिप्राप्त, अनद्धिप्राप्त ऐसे दो मूल- के प्रदेश है, कुछ हिमालय आदिके पहाड़ी मुकाम भेद करके ऋद्धिप्राप्तोंके छह भेद किए हैं, अरहंत हैं और कुछ सरहद्दी इलाके हैं। इन देशोंके सभी चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, चारण, विद्याधर । और निवासियोंको म्लेच्छ कहना म्लेच्छत्वका कोई अनृद्धिप्राम आर्योके नवभेद बतलाए हैं, जिनमें ठीक परिचायक नहीं है। क्योंकि इन देशोंमें आर्य छह भेद तो क्षेत्रार्य श्रादि वे ही हैं जो उक्त तत्त्वा- लोग भी बसते हैं--अर्थात ऐसे जन भी निवास र्थाधिगमभाज्यमें दिए हैं, शेष तीन भेद ज्ञानार्य, करते हैं जो क्षेत्र, जाति तथा कुलकी दृष्टिको छोड़ दर्शनार्य, और चारित्रार्य हैं। जिनके कुछ भेद- देने पर भी कर्मकी दृष्टिसे, शिल्पकी दृष्टिसे, भाषाप्रभेदोंका भी कथन किया है। साथही, म्लेच्छु. की दृष्टिसे श्रार्य हैं तथा मतिज्ञान-श्रुतज्ञानकी विषयक प्रश्न (से कि तं मिलिक्व ? ) का उत्तर दृष्टि से और सराग-दर्शनकी दृष्टिसे भी आर्य हैं । देते हुए इतना ही लिखा है--
उदाहरणके लिये मालवा, उड़ीसा, लंका और "मिलम्बू श्रणेगविहा पएणता. तं जहा -सगा काकरण आदि प्रदशाका ल:
कोंकण आदि प्रदेशोंको ले सकते हैं जहाँ उक्त जवणा चिलाया मबर-बन्चर मरुडोह-भडग गिरणग- दृष्टियोंको लिये हए अगणित आर्य बसते हैं। पकणिया कुलस्व-गांड-मिहलपारमग,धा कोच-अम्बह हो सकता है कि किसी समय किसी दृष्टिइदमिल-चिल्लल-पुलिंद-हारोस-दोववोकाणगन्धा हारवा विशेषके कारण इन देशोंके निवासियोंको म्लेच्छ पहिलय-अज्झलरोम- पासपउसा मलया य बंधुया य कहा गया हो; परन्तु ऐसी दृष्टि सदा स्थिर रहने सूर्यल-कोंकण-गमेय-पल्हव-मालव मग्गर श्राभासिधा वाली नहीं होती । अाज तो फिजी जैसे टापुओंके कणवीर-ल्हसिय-ग्वमा खासिय णेदूर-मोद डोंबिन्न निवासी भी, जो बिल्कुल जंगली तथा असभ्य थे गलोस पात्रोस ककेय अक्खाग हणरोमग-हुणरोमग और मनुष्यों तकको मारकर खा जाते थे, आर्यभस्मस्य चिलाय वियवासी य एवमाइ, सेत्त मिलिक्खु ।' पुरुपोंके संसर्ग एवं सत्प्रयत्नके द्वारा अच्छे ___इसमें म्लेच्छ अनेक प्रकार के हैं। ऐसा लिग्व सभ्य, शिक्षित तथा कर्मादिक दृष्टिसे आर्य बन कर शक, यवन, (यूनान) किगत, शबर, बब्बर गये हैं। वहाँ कितने हो स्कूल तथा विद्यालय जारी मुरुण्ड, प्रोड ( उडीमा ), भटक, णिण्णग, हो गये हैं और खेती, दस्तकारी तथा व्यापारादिके पक्कणिय, कुलक्ष, गोंड, सिंहल (लंका), फारस कार्य होने लगे हैं। और इसलिये यह नहीं कहा (ईगन), गोध, कोंच आदि देश-विशेष-निवासियों जा सकता है कि फिजी देशके निवासी म्लेच्छ को म्लेच्छ' बतलाया है। टीकाकार मलयगिरि होते हैं। इसी तरह दूसरे देशके निवासियोंको मुग्नेि भी इनका कोई विशेष परिचय नहीं दिया- भी जिनकी अवस्था आज बदल गई है म्लेच्छ सिर्फ इतना हो लिख दिया है कि म्लेच्छोंकी यह नहीं कहा जा सकता। जो म्लेच्छ हजारों वर्षोंसे अनेकप्रकारता शक-यवन चिलात-शबर-बर्बरादि आर्योंके सम्पर्कमें आरहे हों और पार्योंके कर्म देशभेदके कारण हैं। शकदेश-निवासियोंको 'शक' कर रहे हों उन्हें म्लेच्छ कहना तो आर्योंके उक्त यवनदेश-निवामियोंको 'यवन' समझना, इसी लक्षण अथवा म्वरूपको सदोष बतलाना है। तरह सर्वत्र लगालेना और इन देशोंका परिचय अतः वर्तमानमें उक्त देश-निवासियों तथा उन्हीं लोकसे-लोकशास्त्रों के आधार पर पर्याप्त करना जैसे दूसरे देशनिवासियोंको भी, जिनका उल्लेख
तश्चानेकविधत्वं शक यवन चिलात-शबर-बर्बरा- देशनिवासिनः शका, यवनदेशनिवासिनो यवनाः दिदेशभेदात्, तथा चाह--- जहा सगा. इत्यादि, शक- एवं. नवरममी नानादेशाः लोकतो विज्ञेयाः ।"