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अनकान्त
कातिक, वोर-निर्वाण मं० २४६५
संस्कृत
“विकारहेतौ सति विक्रियन्त येषां न चेतांसि त एवधीराः।" मामपश्यनयं लोको न मे शत्रुर्न च प्रियः ।
-कालिदास । मा प्रपश्यमयं लोको न मे शयन च प्रियः ॥ 'विकार का कारण उपस्थित होने पर, जिनके
-पूज्यपादाचार्य । चित्तों में विकार नहीं आता-जो राग, द्वप, 'यह अज्ञ जगन जी मुझे-मर शुद्ध म्वरुप मोह और शोकादिकं वशीभूत नहीं होते को-देखता जानता ही नहीं, मंरा शत्र नहीं है ही वास्तव में धीर-वीर हैं।
और न मित्र है-अपरिचित व्यक्ति के साथ विहाय कामान्यः सर्वान्युमांश्च रनि निःस्पृहः । शत्रुता-मित्रता बन नहीं मकती। और यह ज्ञानी निर्ममो निरहङ्कारः स शान्तिमधिगच्छति ॥ लोक जो मुझे-मग आत्मस्वरूप को-भले प्रकार
-भगवद्गीता। देखता-जानता है, मग शत्र नहीं है और न मित्र 'जो मनुष्य सर्व कामनाओं का परित्याग कर है-हो नहीं सकता क्योंकि आत्मा का दर्शन निःस्पृह-निरिच्छ होकर रहता है और अहंकार होने पर राग द्वेपादिका नाश होजाता है और ममकार जिसके पास नहीं फटकते, वही सुखराग द्वे पादिक अभाव में शत्रता-मित्रता बनती शान्तिको प्राप्त करता है-शेप सब अशान्तिकं नहीं । इस तरह न मैं किसीका शत्र-मित्र है ही शिकार बने रहते हैं।' और न मेरा कोई शत्रु-मित्र है।
हयोपादेयविज्ञानं नोचेद् व्यर्थः श्रमः श्रुतौ । कियतो मारयिष्यामि दुर्जनान् गगनोपमान् ।
-वादीभसिंहाचार्य। मारित क्रोधचित्ते तु मारिताः सर्वशत्रवः ॥ _ 'यदि शास्त्रों को पढ़कर हेयोपादेय का
-बोधिचर्यावतार । विज्ञान प्राप्त नहीं हुआ यह भने प्रकार समझ 'अपकार करनेवाले कितने दुर्जनाको मैं नहीं पड़ा कि किममें आत्माका हित है और मार सकूँगा १ दुर्जन तो अनन्त आकाशकी तरह किसमें अहित है तो उस मार ही मुताभ्यास सर्वत्र व्यान हो रहे हैं । हाँ. यदि मैं अपने चित्त के परिश्रमको व्यर्थ समझना चाहिये ।' की क्रोध परिणतिको मार डालू -क्रोध शत्रु पर कोऽन्धी योऽकायरतःको वधिरो यः शृणोति न हितानि । विजय प्राप्त करलूँ-ती सारे शत्रु म्वयमेव ही को मूको यः काले प्रियाणि वक्त न जानानि ॥ मर जायेंगे- क्योंकि उनके अपकारको गणना
-अमोघवर्ष। न करते हुये क्षमा धारण करने से बैर असंभव
_ 'अन्धा कौन है ? जो न करने योग्य बुरे
कामों के करनमें लीन रहता है । बहरा कौन हो जायगा, बैर के असम्भव हो जाने से शत्रुता है? जो हितकी बातें नहीं सुनता । और गूगा नहीं रहेगी और शत्रुता का न रहना ही शत्रुओं कौन है ? जो समय पर मधुर भाषण करनाका मरण है।'
प्रिय वचन बोलना-नहीं जानता।'