________________
सुभाषितमणियाँ
चित्त होकर अनुभव कर - अर्थात् समचित्त होकर विचार करेगा, तो तुझे मालूम पड़ेगा कि शरीर में रहने वाला श्रात्माही शुद्ध निश्चय नयी दृष्टिसे देव है-आराध्य है । और इस तरह कोईभी देहधारी तिरस्कार के योग्य नहीं है।'
सिंगो चैव सदा कसाय सहकेहणं कुणदि भिक्खु । संता ह उदीरति कसाए अग्गीव कहाणि ॥ - शिवार्य ।
Plea
प्राकृत
रतो बंधदि कम्मं मुञ्चदि कम्मेहिं रागरहिदप्पा | एसो बंधसमासो जीवाणं जाण णिच्छ्रयदो ॥
- कुन्दकुन्दाचार्य | 'जो रागी है-- विपयादिक में आसक्त है - वह निश्चय से कर्मका बन्धन करता है, और जो राग रहित -अनासक्त चित्त है-वह कर्मोंके बन्धनसे छूटता है - उसे कर्मका बन्धन नहीं होता तथा पूर्व बँधे कर्मोंकी निर्जरा होजाती है। इस प्रकार जीवोंके बन्ध-मोक्षका यह संक्षेपमं रहस्य है ।'
व तव संजम सील जिय सब्ब जाव ण जाणइ इक्क परु सुद्धउ
भकयस्थु ।
भाउ पन्ति ॥
— योगीन्दु देव |
'व्रत, तप, संयम और शीलका अनुष्ठान उस वक्त तक निरर्थक है जब तक इस जीवको अपने परम पवित्र एक शुद्ध रूपका बांध नहीं होता है।' मूढा देवलि देउ वि णबि सिलि लिप्यह चित्ति । दो-देवक देउ जिणु, सां बुज्झहिं समचिति ॥ - योगीन्दुदेव । 'हे मृह देवालय में देव नहीं, पत्थर - शिला, लेप तथा चित्र में भी देव नहीं है। जिन देवतो देह-देवालय में रहते हैं, इस बातको तू सम
'परिग्रह - रहित माधुही सदा कपायोंके कृश करने में समर्थ होता है-परिग्रही नहीं; क्योंकि परिग्रह ही वास्तव में कपायोको उत्पन्न करने तथा बढ़ाने हैं, जैसे कि सूखी लकड़ियाँ अभिकी उत्पत्ति एवं वृद्धि में सहायक होती हैं।'
जो अहिलमेदि पुण्णं सकसाओ विसय सोकखनहाए । दूरे तस्स विसोही विसोहिमूलाणि पुष्णाणि ॥ - स्वामिकार्तिकेय |
-
'जो मनुष्य कपायवशवर्ती हुआ विषयसौम्य की तृष्णा से - अधिकाधिक विषय - मुख की प्राप्तिके लिये पुण्य कर्म करना चाहता है उसके विशुद्ध-चित्त की शुद्धि नहीं बनती और जब विशुद्धही नहीं बनती तब पुण्य कर्म कहाँ से बन सकता है ? क्योंकि पुण्य कर्मों का मूल ' कारण चित्त शुद्धि है । '