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कार्तिक, वीर निर्वाण सं० २४६४] चाणक्य और उसका धर्म
निस्पृहता प्राप्त करना सांसारिक सभी कार्योंका त्याग करना एवं अशनपानादि त्याग करके समभावपूर्वक मृत्युकी गादगे सोना इसीका नाम है, अनशन पूर्वक समाधिमरण इसमें क्रोधका, दीनता का, अनाथताका भाव नहीं होता। ऐसा महान् वीर मरण संप्राप्त करके मंत्रीश्वरने सद्गतिका मार्ग पकड़ा है। जैन-दर्शनने इसका नाम “पंडित मरण" रक्खा है। धन्य है ऐसे वीर पुरुषों की जिन्होंने अपना जीवन भारतमाताकी सेवामें लगाया, • पापियों का नाशकर धर्मका राज्य चलाया और अन्त में श्री जिनेन्द्रदेवकी शरण स्वीकार कर आत्म-कल्याण किया ।
दिगम्बर प्रन्थकाराने भी मन्त्रीश्वर चाणक्य के विषय में खूब ही लिखा है। भगवती आराधना पुण्याश्रव कथाकोष और आराधना कथाकीप इनका उल्लेख मिलता है ।
(६) भगवती आराधना में, जोकि बहुत प्राचीन ग्रन्थ है, एक गाथा निम्नप्रकारसे पाई जाती है
"गोट्ठे पान वगदी सुबंधुणा गोब्बरे पलियदम्भि | डज्मन्तो चाणको पडिवगणां उत्तमं श्रम् || १५५६ ।।
इसमें यह स्पष्ट उल्लेख है कि- गोवाडाक स्थान पर चाणक्य प्रायोपगमन संन्यास लिए हुए बैठा था, सुबन्धुने उपलोंके ढेर में आग लगाकर उसे जलाया और वह जलता हुआ ( समभाव के कारण) उत्तमार्थका अपने अभिमतसमाधिमरणुकी प्राप्त हुआ। इस कथन के द्वारा सूत्ररूपसं चाणक्य के जैन विधिसे अनशन लेने आदिकी वह सब सूचना कीगई है जिसका ऊपर उल्लेख किया गया है ।
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(७) पुण्याश्रव कथाकोष में ( नन्दिमित्रकी कथा के अन्तर्गत ) नन्दराज द्वारा चाणक्य के वृत्तवर्णन करनेके अनन्तर लिखा है :
"अब चाणक्यको क्रोध आया और वह नगरसे निकलकर बाहर जाने लगा | मार्ग चाणक्यने चिल्लाकर कहा "जो कोई मेरे परम शत्रु राजा नन्दका राज्य लेना चाहता हो, वह मेरे पीछे पीछे चला आवे" । चाणक्यकं ऐसे वाक्य सुनकर एक चन्द्रगुप्त नामका क्षत्रिय, जांकि अत्यन्त निर्धन था यह विचार कर कि इसमें मेरा क्या बिगड़ता है ? चाणक्यके पीछे हालिया । चाणक्य चन्द्रगुप्त को लेकर नन्दके किसी प्रचल शत्रुसे जा मिला और किसी उपाय नन्दका सकुटुम्ब नाश करके उसने चन्द्रगुप्तको वहाँका राजा बनाया । चन्द्रगुमने बहुत कालतक राज्य करके अपने पुत्र विन्दुसारको राज्य दे, चाणक्य के साथ जिनदीक्षा ग्रहण की। (पृष्ठ १९५७)
(2) आराधना कथाकषिके तृतीय भाग, जांकि जैनगित्रके १७वं वर्ष के उपहाररूप प्रकट हुआ था, चाणक्य के विनाका नाम कपिल पुरोहित माताका नाम देविला दिया है और लिखा है कि उस समय पाटलीपुत्र के नन्दराज्यके तीन मन्त्री थे -कावि, सुबन्धु और शकटाल । शेष चाणक्य की जी कथा दी है उसका संक्षिप्रसार इम प्रकार है
"कावित्रीने एक समय शत्रु राजाकी राजा नन्दके कहने में धन देकर वापिस लौटा दिया था। पीछे से धन कमती होजानेसे राजाने कावि मन्त्रीको उनके कुटुम्ब 'सहित जेल में डाल दिया ।