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अनेकान्त
[वष २, किरण १
मंत्रीश्वर चाणक्य अनशन लेकर ध्यानगं बैठे करके देव-गनिको प्राप्त किया ?" हुए हैं, जीवनके अन्तिम क्षण व्यतीत हो रहे हैं। यह प्रसंग बहुतही करुण है। जिसका क्रोध उस समय भी दुष्ट सुबन्धु अपनी दुष्टता नहीं माम्राज्यको नष्ट करने में भी नहीं हिचकताथा । वही छोड़ता है । उमने सोचा कि राजा मंत्राश्वर पुरुष जैनधर्म के प्रनापमं कितना शान्त, कितना चाणक्यक पाम होकर आए है, और मेरे सारे गम्भीर, कितना सहनशील और कितना क्षमावान षड्यन्त्रका भंडाफोड़ होचुका है, अब गजा मुझे एवं उदार बना, इसका यह एक आदर्श नमूना है। दंड देंगे। अतः वह रामके पास आया और जिमने शत्रु-सैन्यके सामने युद्धस्थल पर भयङ्कर अपने षड्यन्त्रकी क्षमा-याचना करने लगा तथा रण-गर्जना की थी और जिसकी गर्जनाको सुन कहने लगा कि मैं अब उन मंत्रीजीस भी जाकर कर विदेशी आक्रमणकारियोंके सर चक्कर खाने क्षमा याचना करता हूँ। इसके बाद वह चाणक्य लगने थे, वही पुरुष मृत्युक समय कितना शान्त के पास जाकर मायाचार पूर्वक अपने अपराधों एवं गम्भीर होता है, शत्रुओं के प्रति कितनी की क्षमा-याचना करने लगा । ऐमा करते हुए उदारता तथा महानुभूनिका परिचय देना है और उमे विचार पाया कि कहीं यह नगरको वापिस न कितने प्रानन्दसे अपने आपको काल के गाल में चला श्रावे, और इम कुविकल्पमें पड़कर उमन डाल देना है ! यह दृश्य सचमुच ही श्रानुपम और उनकी विधिपूर्वक पूजाके लिये गजाम अनुमनि अभूतपूर्व है । "मृत्युरपि महोत्सवायन" इमीका मांगी जो मिनगई। इ के बाद श्री हेमचन्द्राचार्य नाम है । जैन ग्रन्थों के अतिरिक्त किमी अन्य सुबन्धुको दुष्टनाका निम्न प्रकारसे वर्णन करते ग्रन्थकाग्ने मोर्यमाम्राज्यके महान निर्माता मन्त्रीहैं-राजाकी आज्ञा पाकर सुबन्धुने चाणक्यकी श्वर चाणक्यको मृत्युकं समयका किश्चितभी ठीक पूजाका बड़ा ही सुन्दर मालूम देने वाला ढोंग वृत्तान्त नहीं दिया है । मालूम होता है इसमें रचा और उस तरह पूजोपचार करते हुए उमने जरूर कुछ न कुछ रहस्य छुपा हुआ है। चुपकेसे सूखे धूपाग्निकी एक चिंगारी उस आरनों अनशन स्वीकार करकं स्वच्छासे और सहर्ष ( उपला ) के ढेर पर गिगदी, जिसपर चाणक्य मृत्यु प्राप्त करने। जैनधर्म बहु । महत्व मानता है। ध्यानारूढ़ थे। इसमें अग्ने ( उपलों) का वह ढेर मन्त्राश्वर चाणक्य सामान्य जैन नहीं, अपितु एक श्रानुकूल पयन की पाकर एकदम दहक उठा, और महान आहेतापासक एवं श्रमणांपासक थे। मृत्यु उमग चाणक्य काठकी तरह जलने लगे!! चाणक्य के समय वीतरागदवका ध्यान करना, अपने तो पहलेसे ही चतुविध आहार का त्यागकर अन- जीवन के किए हुए पागकी आलोचना करना, शन करके बैठे थे, अतएव उन्होंने निष्पकंप होकर शत्रुओंके प्रति भी ममानभाव तथा क्षमाभाव उस दहकती हुई ज्वालामें अपने प्राणों की समपण रग्वना, मन-वचन-कायसं शुद्ध बनकर संसारसे
• चाणक्यक मनशनादि मृत्यु पर्यन्त वर्णनके मूल इलोकों के लिये देखो. लेखका परिशिष्ट' श्लोक न. ४५७ से ४६९ ।