________________
अनेकान्त [कार्तिक, वीर-निर्वाण सं० २४६५ तथा वैश्य और शूद्रकी कन्यासे विवाह कर इसप्रकार जाति और वर्णकी कल्पनाको सकता है और ब्राह्मण अपने वर्णकी तथा शेष महत्व न देकर जैनाचार्योंने आचरण पर जोर तीन वर्षों की कन्याओंसे भी विवाह कर सकता है। दिया है।
इतना स्पष्ट कथन होते हुए भी जो लोग जैनशास्त्रों, कथा-ग्रंथों या प्रथमानुयोगको कल्पित उपजातियोंमें (अन्तर्जातीय ) विवाह उठाकर देखनेपर, उनमें पद-पद पर वैवाहिक करनेमें धर्म-कर्मकी हानि समझते हैं उनके लिये उदारता नज़र आएगी। पहले स्वयंवर प्रथा चालू क्या कहा जाय? जैनग्रंथोंने तो जाति कल्पनाकी थी, उसमें जाति या कुलकी परवाह न करके धज्जियाँ उड़ादी हैं । यथा
गुणका ही ध्यान रखा जाता था। जो कन्या अनादाविह संसारे दुर्वारे मकरध्वजे। किसीभी छोटे या बड़े कुलवालेको गुण पर कुलेच कामनीमूले का जातिपरिकल्पना॥ मुग्ध होकर विवाह लेती थी उसे कोई बुरा नहीं
अर्थात-इस अनादि संसारमें कामदेव कहता था । हरिवंश-पुराणमें इस सम्बन्धमें स्पष्ट सदासे दुर्निवार चला आरहा है। तथा कुलका
लिखा है किमूल कामनी है । तब इसके आधार पर जाति कन्या वृणीते रुचिरं स्वयंवरगता वरं । कल्पना करना कहाँ तक ठीक है ? तात्पर्य यह कुलीनमकुलीनं वा क्रमो नास्ति स्वयंवरे ॥ है कि न जाने कब कौन किस प्रकार से कामदेव की चपेट में आगया होगा । तब जाति या उसकी
अर्थात-स्वयंवरगत कन्या अपने पसन्द उच्चता नीचताका अभिमान करना व्यर्थ है। यही
वरको स्वीकार करती है, चाहे वह कुलीन हो या बात गुणभद्राचार्यने उत्तरपुराणके पर्व ७४ में और
- अकुलीन । कारण कि स्वयंवरमें कुलीनता अकुलीभी स्पष्ट शब्दोंमें इस प्रकार कही है
नताका कोई नियम नहीं होता है । जैनशास्त्रों में वर्णाकृत्यादिभेदानां देहेऽस्मिन्न च दर्शनात् । विजातीय विवाहके अनेक उदाहरण पाये जाते हैं। ब्राह्मण्यादिषु शूद्रौद्यर्गर्भाधानप्रवर्तनान्॥४१॥ नमूनेके तौरपर कुछका उल्लेख इस प्रकार है
अर्थात-इस शरीरमें वर्ण या आकारसं कुछ १-राजा श्रेणिक (क्षत्रिय)ने ब्राह्मण-कन्या भेद दिखाई नहीं देता है। तथा ब्राह्मण क्षत्रिय नन्दश्रीसे विवाह किया था और उससे अभयवैश्योंमें शूद्रोंके द्वाराभी गर्भाधानकी प्रवृति देखी कुमार पुत्र उत्पन्न हुआ था। (भवतो विप्रकन्यां जाती है। तब कोई भी व्यक्ति अपने उत्तम सुतोऽभूदभयालयः) बादमें विजातीय माता-पिता या उच्च वर्णका अभिमान कैसे कर सकता है? से उत्पन्न अभयकुमार मोक्ष गया । (उत्तरपुराण तात्पर्य यह है कि जो वर्तमानमें सदाचारी है पर्व ७४ श्लोक ४२३ से २६ तक) वह उच्च है और जो दुराचारी है वह नीच है। २-राजा श्रेणिक (क्षत्रिय) ने अपनी पुत्री