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अनेकान्त
की संख्या में थीं, आज अपना अस्तित्व ग्वां बैठी हैं, कितनी ही जैन समाज से प्रथक हो गई हैं और कितनी ही जातियोंमें केवल दस-दस पाँच-पाँच प्राणी ही बचे रहकर अपने समाजकी इस हीनअवस्था पर आँसू बहा रहे हैं।
भला जिन बच्चों के मुँहका दूध नहीं सूख पाया, दान्त नहीं निकलपाये, तुतलाहट नहीं छूटी, जिन्हें धोती बान्धनेकी तमीज़ नहीं, खड़े होनेका शऊर नहीं और जो यह भी नहीं जानते कि व्याह है क्या बला ? उन अबोध बालक-बालिकाओं को ब हृदय माता-पिताओं क्या सोचकर विवाह बन्धन में जकड़ दिया ? यदि उन्हें समाजके मरने की चिन्ता नहीं थी, तब भी अपने लाडले बच्चोंपर तो तरस खाना था । हा ! जिस समाजने ३६७१७ दुधमुँहे बचियोंको विवाह बन्धनमें बाँध दिया हो, जिस समाजने १८७१४८ स्त्री-पुरुषों को अधिकाँश में बाल-विवाह वृद्ध-विवाह और अनमेल विवाह करके वैधव्य जीवन व्यतीत करने के लिये मजबूर करदिया हो और जिस समाजका एक बहुत बड़ा भाग संकुचित क्षेत्र होनेके कारण अविवाहितही मर रहा हो, उस समाजकी उत्पादन शक्ति कितनी ate दशाको पहुँच सकती है, यह सहजमें ही
[कार्तिक, वीर निर्धारण सं० २४६५
अनुमान लगाया जा सकता है।
उत्पादन-शक्तिका विकास करनेके लिये हमें सबसे प्रथम अनमेल तथा वृद्ध विवाहों को बड़ी सतर्कता से रोकना चाहिये । क्योंकि ऐसे विवाहों द्वारा विवाहित दम्पत्ति प्रथम तो जनन शक्ति रखते हुये भी सन्तान उत्पन्न नहीं कर सकते, दूसरे उनमें से अधिकाँश विववा और विधुर होजानेके कारण भी सन्तान उत्पादन कार्य से वंचित हो जाते हैं। साथ ही कितने ही विववा विधुर बहकाये जानेपर जैन-समाजको छोड़जाते हैं।
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अत: अनमेल और वृद्धविवाहका शीघ्र से शीघ्र जनाजा निकाल देना चाहिये और ऐसे विवाहोंके इच्छुक भले मानसीका तीव्र विरोध करना चाहिये । माथही जैन कुलोत्पन्न अन्तरजातियों में विवाहका प्रचार बड़े वेग से करना चाहिये जिससे विवाह योग्य क्वारे लड़के लड़कियाँ क्वारं न रहने पायें |
जब जैन समाजका बहुभाग विवाहित होकर सन्तान उत्पादन कार्य करेगा और योग्य सम्बन्ध होनेसे युवतियाँ विधवा न होकर प्रसूता होंगी, तब निश्चय ही समाज की जन-संख्या बढ़ेगी ।
-क्रमशः
'सार्वजनिक प्रेम, सलज्जताका भाव, सबके प्रति सद्व्यवहार, दूसरोंके दोषोंकी पर्दादारी और सत्य-प्रियता - ये पाँच स्तम्भ हैं जिनपर शुभ आचरणको इमारतका अस्तित्व होता है ।'
'अनन्त उत्साह-- बस यही तो शक्ति है; जिसमें उत्साह नहीं है, वे और कुछ नहीं, केवल काठ के पुतले हैं । अन्तर केवल इतना ही है कि उनका शरीर मनुष्योंकासा है ।'
- तिरुवल्लुवर