Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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भगवतीसूत्रे
पाप्तिर्येभ्यस्ते उपाध्यायाः। अथवा-उपनीय-स्वसमीपमानीय शिष्यान् अध्यापयन्ति ये ते उपाध्यायाः। अथवा-आधयः-मानसपीडाः, 'पुस्याधिर्मानसी व्यथा' इत्यमरात् , तासां मानसपीडानाम् आयागमनं पृथग्भवनं, स उपगतः= प्राप्तो येभ्यस्ते उपाध्यायाः। अथवा कुत्सितार्थको नज, कुत्सितो ध्यायश्चिन्ता अध्यायः संसारपरिभ्रमणविषयकं मानसचिन्तनम्, स उपहतो विनष्टो येभ्यस्ते यह अर्थ निकलता है कि जिनके समीप जीवादिपदार्थविषयक चिन्तन सर्व प्रकारसे हो जाता है वे उपाध्याय हैं। अथवा "उप" और "अधि” उपसर्ग पूर्वक "आय" शब्दसे भी उपाध्याय शब्द सिद्ध होता है, जिसका अर्थ होता है कि-जिनके समीपमें इष्ट फलकी प्राप्ति अधिकरूपसे शिष्यजनोंको होती है वे उपाध्याय हैं । अथवा-"उपनीय-स्वसमीपम् आनीय शिष्यान् अध्यापयन्ति ये ते उपाध्यायाः" जो अपने पास लाकर शिष्योंको पढ़ाते हैं वे उपाध्याय हैं । अथवा-"पुंस्याधिर्मानसी व्यथा” इस अमरकोषके कथनानुसार आधिनाम मानसिक पीडाका है। इन मानसिक पीड़ाओंका आय-गमन-पृथग्भवन-अलग होना जिनसे प्राप्त हो वे उपाध्याय हैं। अथवा-"उप अध्याय" इन दोके सम्बन्धसे भी उपाध्याय शब्द बनता है अध्यायमें जो नत्रर्थक "अ" है वह कुत्सित अर्थमें हुआ जानना चाहिये, इससे "कुत्सितः ध्यायश्चिन्ता-अध्यायः” कुत्सित ध्यानका नाम अध्याय है, और उप शब्दका अर्थ उपहत-बिनष्ट है। इससे यह अर्थ निकलता है कि संसारमें परिभ्रमणका कारणभूत मानस चिन्तन તેને આ અર્થ થાય છે–જેની પાસે જીવાદિ પદાર્થ સંબંધી ચિન્તન સર્વ પ્રકારે थायछ, ते पाध्याय उपाय छे. मथवा 'उप' भने 'अधि' 64सग पूरी 'आय' शपथी उपाध्याय ५४ मन छ, तेनी मथ मा प्रमाणे छ-मनी સમીપે શિષ્યને ઈષ્ટ ફળની પ્રાપ્તિ અધિક રૂપે થાય છે તેમને ઉપાધ્યાય કહે છે. मथा- “ उपनीय स्वसभीपं आनीय शिष्यान् अध्यापयन्ति ते उपाध्यायाः" જેઓ પિતાની પાસે લાવીને શિષ્યોને ભણાવે છે તેઓ ઉપાધ્યાય છે. અથવા– "पुस्याधिर्मानसी व्यथा" मम।पन। २॥ ४थन प्रमाणे मारने! म थायछे'आधि= मानसिपी, आय = गमन-मसा थ. मानसिपी मन। द्वारा २ थाय तेमनु नाम उपाध्याय छे. २५थवा उपा अध्याय भनीन उपाध्याय शम् मन छ- 'अध्याय'मा ना२ वाय 'अ' उपसा छेते हुत्सित अभा १५रायो छ. "कुत्सितः ध्यायश्चिन्ता-अध्याय." इत्सितध्यान ने अध्याय ॐई छ. sm” એટલે ઉપહત-વિનષ્ટ. સંસારમાં પરિભ્રમણના કારણરૂપ માનસ ચિન્તન
શ્રી ભગવતી સૂત્ર: ૧