Book Title: Dhyan Kalptaru
Author(s): Amolakrushi Maharaj
Publisher: Kundanmal Ghummarmal Seth
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपरममस्माय नमः श्री ध्यानकल्पतरू RADISE OF MEDITATION ___ by SHRI AMOLAKH RISHIJEE - अनेक सूत्रों व ग्रन्थों का दोहन कर मुमुक्ष जनोंकी इच्छा पूर्ण करने के लिये लब्रह्मचारी मुनी श्री अमोलख ऋषिजीने बनाया और सेठ कुंदनमल घुमरमल्ल बापणने (घोडनदी पुणे) रेसिडेन्सी बाजार दक्षिण हैद्राबादमें काटक आणि कंपनी के छा• छपाके प्रसिद्ध किया त २५°मुल्य शुद्ध प्रवृति सर्व प्रत १२५० Page #2 --------------------------------------------------------------------------  Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥प्रस्तावना ॥ मोक्ष कर्म क्षया देव, स सम्यग्ज्ञानतः समृत्तः ॥ ध्यान साध्यं मतं तद्धि, तस्मात द्धित मात्मनः ॥ इस जगत् वासी सर्व जीव एकान्त सुखके अभिलाषी हैं; वो एकान्त सुख मोक्ष स्थानमें है; इसी सबसे सर्व धर्मावलम्बियों अपनी धर्म करणीका फलमोक्षकी प्राप्ती बतलाते हैं. और अलग २ मोक्षके ना मकी स्थापना कर, उसकी प्राप्ती के लिये क्षप करते हैं. जो सर्व दुःखसे रहित, एकान्त सुखस्थान मय माक्ष है, वो सर्व कर्मोंके क्षयसे होता है. कर्म क्षय करनेका उ पाय दर्शाने वाला सम्यक (समकित युक्त ) ज्ञान है; वो सम्यक ज्ञान ध्यानसे होता है, योग वशिष्ट प्रन्थमें कहा है कि "विचारं परमं ज्ञानं" विचार-ध्यान है सोही परमोत्कृष्ट ज्ञान है. इस लिये ध्यानही एकान्त सुख प्राप्त करनेका मुख्य हेतू है. परम सुखार्थी जनोको ध्यान स्वरूपको जाननें की विशेष आवश्यकता स मझ, यह " ध्यानकल्पतरू" ग्रन्थ रचा गया है. इसमें शुभाशुभ, और शुद्धाशुद्ध ध्यान का स्वरूप समझाअशुद्ध और अशुभसे बच. शुभ और शुद्ध ध्यान कर. Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नेकी रीति सरलतासे दरशाई गइ है. जिससे इसे पठन मनन कर मुमुक्षु जन अपना इष्टार्थ सिद्ध करने का उपाय जान सकेंगे. “जयतीत जैन” जैन शब्द जिनसे हवा है, जिन शब्दकी धातू 'जय' है, जय शब्दका अर्थ जीत ना, पराजय करना या ताबेमें-काबूमें करना ऐसा हो ता है. जीत शत्रूकी की जाती है. अपने सच्चे कट्टे औ र जालिम शत्रू राग द्वेष को जीते व कमी करे, वोही सच्चे जैनी व जैन धर्मी हैं. राग द्वेष न होय ऐसे पवि न धर्ममें मतभेद पडना, या क्लेश होना असंभव है, क्यों कि पानीसे वस्त्र जलता नहीं है. यह जैन धर्मका सत्य प्रभाव फक्त दो हजारही बर्ष पहले इस आर्य भूमीमे प्रत्यक्ष द्रष्टी आताथा; हजारों साधू. साध्वियों और लाखो श्रावक, श्राविकाओं तथा असंख्य सम्यक द्रष्टी जीव सब एक जिनेश्वर देवकेही अनुयायी थे. इस सम्पके परम प्रभाव से, या रागद्वेष रहित वीतरागी प्रवृतीके.प्रभाव से, यह 'जैन धर्म' सर्व धर्मों से उच्च अद्वितीय पदका धारक था, बडे सुरेन्द्र नरेन्द्र इसे मान्य करते थे; अपार ऋद्धि सिद्धीयों का त्याग कर जैन भि क्षुक (साधू) बनते थे, और वीतराग प्रव्रती से आत्मसाधन कर सर्व इष्ट कार्य सिद्ध करतेथे, मोक्ष प्राप्त कर Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ते थे. जिसका मुख्य हेतू यह ही दिखता है, कि वो महात्मा सूत्र में कहे मुजब ज्ञान ध्यान में विशेष काल व्यतीत करते थे. श्री उत्तराध्ययनजी सूत्रके २६ में अध्ययनमें साधूके दिन कृत्य और रात्री कृत्य का बयान है, वहां फरमाया हैकि पढम पोरसी सज्झायं, बीयं झाण झियायइ।। तइयाए भिक्खायरि,चउत्थीभुजो विसज्झाय॥१२॥ अर्थात-दिनके पहिले पहरमें सज्झाय (मूल सू संका पठन) दूसरे पहरमें ध्यान (सत्रके अर्थका विचार) तीसरे पहरमें भिक्षाचरी (भिक्षावृतीसे निर्दोष अहार प्रमुख ग्रहणकर भोगवे)और चौथे पहरमें पुनः सज्झाय; यह दिनकृत्य. और रात्रीके पहले पहरमें सज्झाय, दूसरे में ध्यान, और "तइया निंदा मोक्खंतु” अथात् तीसरी पहरमें निद्रा से मुक्त होने, और चौथे में पुनः सज्झाय करे! यों दिन रात्रीके ६ पहर ज्ञान ध्यान में व्यतीत करते थे!! तैसेही श्रावकों के लिये भी इसी सूत्र के ५ में अध्ययन में फरमाया हैकि आगारी यं सामाइ यंगाइ, सट्ठी काएण फासइ॥ पोसह दूहउ पक्खं, एगराइ न हावए ॥२३॥ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थात्-ग्रस्था वास में रहा हुवा श्रावक त्रिका ल सामायिक वृतः शुद्ध श्रद्धा युक्त स्फर्ये (करे) और अष्टमी चतुर्दशी दोनो पक्ष(पक्खी) के पोषध वृत करे, ऐसा सदाधर्म ध्यान करता रहे, परन्तुधर्म करणी में एक रत्तिकी भी हानी नहीं करे, काळ व्यर्थ नहीं गमावे. ___ गतकालमें श्रावकोंकोभी एक दिनमें कमसेकम एक प्रहर और महनिमें छे दिन पुर्ण धर्म ध्यानमें गुजारतेथे, आरै धर्म ध्यान ध्यानेमें ऐसे मशगुल बन जातेथे कि उनके वस्त्र भूषण और प्राण तक भी कोइ हरण करलेता तो उन्हे भान नहीं रहताथा! देखिये! कुंड कोलीयाजी, कामदेवजी वगैरा श्रावकोंको. श्रावकही ऐसे थेतो फिर मुनीराजोंकी तो कहना ही क्या! जब वे ध्यान से निवृत हो अन्य कार्य मे लगते थे, तोभी ध्यान में किया हवा निश्चय उनके अतःकरणमें रमण करता था, जिससे अन्य स्वभाव-राग-द्वेष-विषय कषाय आदी दुर्गुणों को उनके हृदय में प्रवेश करने + समभावमे प्रवृती करनेका वृत सामायिक वृत त्रिकाल करतेथे और *ज्ञानादि गुणोंको पोषणका पोषध वृत्त एक मही नेने छे करतेथे. - Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का अवकाशही नहीं मिलताथा, अपने कार्यसे निवृत अन्य के छिद्र दर्गुण वगैरा गवेक्षण करने का परपंच वी कथा वगैरा में व्यर्थ काल गमाने की फुरसत ही नहीं पा ते थे, ज्ञान ध्यान सुकृत्यों में निरंतर मग्न रहतेथे, जिप्स से जिन्ह का चित सदा शांत और स्थिर रहताथा. जैन जैसे निर्दोष और र्पूण पवित्र धर्म को पूर्ण प्रकाश मयबनारक्खाथा! और उनके लिये मोक्षद्वार हमेशा खुला था.अब देखीये अभीके जैन साधू श्रावकों की तर्फ बहू तसे तो ध्यानमें समझतेही नहीं हैं. कितनेक ध्यान और काऊत्सर्गको एक ही कहते हैं, परंतु जो एक होता तो बारह प्रकारके तपमें अलग २ क्यो कहा? काउत्सर्ग तो काया को उत्सर्ग (उपसर्ग) के सन्मुख करनेका और ध्यान विचार करनेका नाम है. - ध्यान के गुण पूरे नहीं जाणने से इस वक्त प्रा यः ध्यान नष्ट जैसाही होरहाहै. जिससे वृत धारीयों को फुरसत मिली, स्वछन्द वृतीहो विकथादि अनेक परपंचमें फसे, बैरागी के सरागी बने और धर्म के नाम से अनेक झगडे खडेकर मन मुखतियार बन बठे अपना २ पक्ष बान्ध लिया, यह मेरा अच्छा और वह तेरा बुरा, मोक्ष का इजारा हमारे पन्थ बाले को ही है, अन्य सब मिथ्यात्वी हैं, हमारे को छोड अन्य को अ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हार आदी देने, में तथा नमस्कार सन्मान करने सम्य क्त्व का नाश होता है! अनंत संसार की वृधी होती है!! -वगैरा उपदेश कर बाडे बान्ध लिये? देखिये बन्धूओं ! राग द्वेष जीतने बाले जिन देवके अनुयायियों का उपदेश ? ऐसी २ विपरीत परूपणासे इस शुद्ध जैन मतके अनेक मतांतर होगये हैं, और एकेक की कटनी-प्सत्यानाशी का उपाय का विचार ध्यानमें करने में ही परम धर्म समझने लगे, जो कुयु क्तियों कर विवाद में जीते उसेही सच्चा धर्मी जान ने लगे, जो जरा संस्कृतादि भाषा बोलने लगे और कहानीयों रागणीयों कर प्रषदा को हँसादे वोही पण्डित राज कहलाये, जो तरतम योग से साधू बने वोही चौ थे आरेकी बानगी बजे, जो ज्यूनी मुहपति पूजणी र क्खी या टीले टमके किये वोही श्रावकजी कहलाये, और विषय कषाय के पोषणेमे ही धर्म माना ! इत्यादी प्रत्यक्ष प्रवृतती हुइ इन क्षुलक बातों परसे हीविचारी ये कि जैनी इन को कहना क्या ? लाला रण जीत सिंहजीने कहाहै जैन धर्म शुद्ध पाय के, वरते विषय कषाय।। यह अंचभाहो रहा, जलमें लागी लाय॥१ उज्जैन की सिप्रा नदीके पाणी में भैंसे(पाडे)जल Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (बल) मरे? ऐसा आचय जनक बनाव बन ने का सबब भैंसे की पीठ पर लदेहुवे चूनेही का था !! तैसे ही जैन धर्म में रहे हुये जीव नित्य हीन दिशा को प्राप्त होते हैं, इसका सबब उनके हृदय में रहा हुवा विषय कषाय इर्षा रूप क्षार ही है !! सखेदाश्चर्य है की जैन धर्म जैसा सुधा सिन्धू में गोता खा कर ही, विषय कषाय इर्ष रूप लाय (आग) शांत नहुइ ! हा इति खेद ! विषय कषाय राग द्वेष इर्ष रूप लाय बुजणे का शांत करने का उपाय ध्यानही है, कि जिसका प्रभाव प्राचीन कालमें प्रत्यक्ष था उसे लुप्त जैसा हुवा देख, ध्यानका स्वरूप सरलता से समझा ने वाला एक ग्रन्थ अलगही होने की आवश्कता जान यह ध्यानकल्पतरू नामक ग्रन्थ श्री उववाइ जी सूत्र, श्री उत्तराज्येनजी" सूत्र,श्रीसुयडांग जी सूत्र श्री आचाराङ्गजी सूत्र और ज्ञानार्णव, द्रव्यसं ग्रह, ग्रन्थ तथा किनेक थोकडों के आधासे स्व-मत्या नुसार बनाके श्री जैन धर्मानुयायी यों को समर्पणकरता हूँ और चहाताहूँकि ध्यानकल्पतरू की शीतल छांय में रमण कर, अशुभ और अशुद्ध ध्यान से निवृत शुभ और शुद्ध ध्यान में प्रवृत न कर. सच्चे जैनी बन जैन धर्म का पुनरोद्धार करोगे! और इष्ठितार्थ सि द्ध करने समर्थ बनोगे-विज्ञेषु किंमधिकं. धर्मो नती कांक्षी-अमोल ऋषि. Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "आवश्यकीय सुचना" ध्यान नाम विचार का है, विचार अनेक तरह के होते हैं उन सब विचारों का संग्रह कर श्री सर्वज्ञने चार के हिस्से किये है, उसके बाहिर एकभी विचार नहीं है. येही युक्ती शास्त्रानुसार व कुछ प्रज्ञानुसार इस "ध्यान कल्पतरु” ग्रन्थमें वापरी है. अधमसे अधम विचरनिगोदमे ले जाने वाला और उच्चसे उच्च ध्यानमोक्षमें ले जानेवाला सर्वका संग्रह इसमें आगयाहै, सं सारमे ऐसा कोइभी कार्य नहीं है किजो बीन विचार (बिन ध्यान) होवे अर्थात् सर्व कार्यके अब्बल विचारही है,बिन विचार किसीभी कार्यका होना असंभव है. कोइक अकस्मात् होजाय उसकी बात अलग. संसारके शुभा शुभ सर्व विचार का चित्र दर्श ना येही इस ग्रन्थ का मुख्य प्रयोजन है, इस लिये आर्त और रौद्र ध्यान के पेटेभसंसारसे वर्तमान वरती हुई बहूतसी बातों का समावेश हुवाहै, जिसे पढ़ कर पाठक गणों को ऐसा विचार नहीं करना कि ग्रन्थक र्ता ने सर्व संसार कार्य की उथापना करदी. मेरेउा पन करने से कुछ संसार कार्य बन्ध पडता नहीं है. यह तो अनादी सिलसिला महान सर्वज्ञ उपदेश जो उप शाखा मे शुभ और शुद्ध ध्यान चार ध्यानसे अलग लिये हैं, परन्तु उनका भी धर्म और सुक्ल ध्यान में समवेश होजाता हैं. Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ही नहीं अटका सके तो मैं बिचारा कौनसी गिनतीमें, परन्तु जो कार्यारंभ किया उसका यथातथ्य स्वरूप यथा बुधि दर्शानायह ग्रन्थ कारकका मुख्य प्रयोजनहै, इसी सबब संसारमें प्रवृतती हुई बातोंका चित्रइसमें आया है. ___ यहतो निश्चय समाझयेकि अब्बलके दोनो ध्यान एकांत निषेधकही हैं, वो छूटने सेही आत्मा सु खानुभव कर शक्तीहै. परन्तु ऐसा नहीं समझियोक खोटेध्यानी सर्व संसारी जन हैं सो सबकी कुगती होगी हां! यहतो निश्चय है कि खोटे ध्यानसे कुगती हीहो ती है. परन्तु ऐसा नहींहै की सर्व संसारीयो एकान्त कु-ध्यान केही ध्याने वाले है, क्योंकी बहुतसे संसा री वक्तसर धर्म ध्यानभी ध्याते हैं और अच्छे धर्म कृ सभी करते है. जिससे शुभाशुभ फलकी मिश्रता होने से. उनको सुखमिश्र देव गतीकी प्राप्ती होतीहै, वहां भी धर्म ध्यान ध्यानसे पुनःउच्च मनुष्य गतीको प्राप्त हो फिर शूभ ध्यानकी विषेशता होनेसे शुद्ध ध्यानको प्राप्त कर मोक्ष प्राप्त कर सकेंगे. अमोलख ऋषि. Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थ कर्ताका संक्षिप्त जीवन चरित्र वगैरा. मालव देशके भोपाल शेहरमें औसबाल बडे साथ काँसटीया गोत्रकेसेठ केवलचंदजी रहतेथे, उनकी परनी हुलासा बाइके कुंखसे सवंत १९३३ के भाद्रव वद्य ४ को पुत्र हुवा उसका 'अमोलख' नाम दिया. और एक पुत्र हुये बाद हुलासा बाइका देहान्त होगया. फिर केवलचन्दजीने सं.१९४३ के चेतमे दिक्षा धारण कर पुज्य श्री काहानजी ऋषिजी महाराजके सम्प्रदाय के महंत मुनी श्री खूबाऋषिजी महाराजके शिष्य हु ये. औरज्ञानाभ्यास कर एक उपवाससे एक्कीस उपवास तकलड बन्ध और ३०-३१-४१-५१-६१-६३-७१ ८१-८३-९१-१०१-१११-और १२१ यहतपस्यातो छाछके आगरसे, और छे महीनेतक एकांतर उपवास वगैरे बहोतसीकरीहै तथ पूर्व, पंजाब, मालवा, गुजरात, मेवाड, माखाड दक्षिण वगैरा बहुत देश स्फश्यें हैं. सं०१९४४ के फागनमें महात्मा श्री तिलोका ऋषीजि महाराजके पाटवी शिष्य श्री रत्न ऋषिजी महाराजके साथ श्रीकेवल ऋषिजी. इच्छा वर (भोपाल) पधारे उसवक्त वहांसे दो कोश खेडी ग्राममें अमालख चंद अपने मामाके पासथे, मुनीआगम सुन दर्शनार्थ गये Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और रोगी पिता को देख वैरागी बने. और तुर्त फा ल्गुन वद्य २को दिक्षा धारन कर पिताके साथ हुये, पुज्य श्री खुब ऋषिजी महाराजके पास लाये. तपस्वीजी श्री केवल ऋषिजीने संसार सम्बन्धके कारणसे श्री अमोल ख ऋषिजीको अपने शिष्य बनानेकी नाखुशी दरशाइ,त वपुज्य श्रीके जेष्ट शिष्य आर्यमुनी श्री चेनाऋषिजीमहा राजके शिष्य अमोलख ऋषिको बनाये, थोडेहीकाल पा दश्री चेना ऋषिजी और पुज्य श्री खुबाऋषिजी का स्वर्ग वास हुवा और फिर थोडे ही काल बाद तपस्वी जीश्री केवल ऋषिजी एकले विहारी हुवे. तब नजीकमें वि चरते श्री भेरूऋषी जी के साथ श्री अमोलखऋषिविचरे, उसवक्त (१९४८ फालगुनमें) औस बाल ज्ञाती के एक पन्नालालजी ग्रस्थने १८ वर्ष की वयमे दिक्षा धारन करश्रीअमोलख ऋषिजीके शिष्य बनेथे. उनकोसाथ ले जावरे आये, वहां श्री- कृपा रामजी महारा ज के शिष्य श्री रूपचंदजी महाराज गुरू वियोग सेदुःखी हो रहेथे उनको संतोष ने श्री अमोलख ऋषि जी ने अपने शिष्य पन्ना ऋषिजी को समरपण किये देखीये एक येह भी उदारता ? फिर दो बर्ष बाद दि क्षा दाता श्री रत्न ऋषिजी महाराज का मुकाबला होते श्री अमोलख ऋषिजी उनके साथ विचरने लगे Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ " इन महा पुरुषाने श्री अमोलख ऋषिजी को जैनमार्ग दीपाने लायक जान तहामनसे ज्ञानका अभ्यास कराया सूत्रों की रहस्य समझाइ, जिस प्रसाद से अमोलख ऋषिजीने गद्य पद्य में अनेक ग्रन्थ बनाये, और बना रहे हैं, और अनेक स्वमति परमति को समझाये और - समझा रहे हैं श्री अमोलख ऋषिजीके सवंत १९५६ के फागुन में आसवालसंचेतीज्ञात्ती के मोती ऋषिजी नामके शिष्य हुवेथे. सं१९६०का चतुरमास श्री अमोलख ऋषिजीका घोड नदीथा ( तब जैन तत्व प्रकाश नामे बडा ग्रन्थ शिर्फ ३ महीने में रचाथा) उसवक्त तपस्वी जी श्री केवल ऋषिजीका चतुर्मास अहमदनगरथा. चौ मासे उतरे वाद समागम हुवा. तब तपस्वीजी कहने लगेकी मेरी बृद्ध अवस्था हुइहै, मुजे संयमका सहाय देना तेराकृतव्य है. तब अमोलख ऋषिजी श्वशिष्य सहित श्री तपस्वी जी के साथ विचरने लगे. सं१९६१ का चतुर्मास श्री सिंघ के अग्रह से बंबइ हनुमान गली) में किया यहां जैन स्थानक वासी रत्न चिन्ता मणी मित्रमं डलकी स्थापना हुई, और इस मंडलकी तर्पसे महाराज श्री अमोल ऋषिजी की बनाइ हुइ "जैनामुल्य सुधा" नाम छोटासी पुस्तक प्रसिद्ध हुई. यहां मोती ऋषिजी स्वर्गस्थ हुये. उस वक्त हमारे पिताजी श्री पन्नालालजी Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीमती कार्यार्थ बबई गयेथे, वहां महाराज श्री जीके दर्शन कर वीनंती करी के दक्षिण हैद्राबाद में जैनीयों के घर तो बहूत है, परन्तु मुनीराज का आगम बिलकुल नहीं है, जो आप पधारोगे तो बडा उपकार होगा. यह बात महाराज श्रीको पसंद आइ. चर्तुमास बाद बबइ से विहार कर. इगत पुरी पधारे, चर्तुमास किया, और यहां के श्रावक मूल चंदजी टॉटयिा वगैरे ने महाराज श्री की बनाइ 'धर्म तत्व संग्रह' नामे ग्रन्थ की १५०० प्रतों छपवा के अमुल्य भेटदी. वहां से विहार कर वे जापुर(औरंगाबाद)आये यहां के श्रावक भीखम चंदजी संचेती ने "धर्म तत्व संग्रह" की गुजरातीमें १२०० प्र. तो छपवाके अमुल्यभेट दी. वहां से जालणे पधारे औ र आगे विहार करने लगे तव सब श्रावकों ने मना कि या की इधर आगे कोइ साधु गये नयींहै, आप पधा रोगे तो बडी तकलीप पावोगे. परन्तु श्री वीर परमा स्मा के वीर मुनीवरो आगे के आगे बढतेही गये औ र क्षुधा त्रषादी अनेक आति कठिण पीरसह सहन क रते, अनेको को नवे भेषसे अश्चर्य उपज्याते अपुर्व धर्म का सत्य स्वरूप बतातेसं. १९६३जेष्ट सुदी१२ शनीवार को चार कमान पावन करी. लाला नेतरामजी राम नारायणजीके दिये मकानमे चतर्मास किया. चौमामे Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ श्री सुखा ऋषिजी बीमार पडके फाल्गुन मांसमे स्वर्ग स्थ हुवे. आगे उष्ण ऋतू और बीकट मार्गके सवबसे श्रा वको ने विहार नहीं करने दिया. दूसरे चातुर्माससे श्री केवल ऋषिजी महाराज उपरा उपरी बिमारीयों भोगवनेसे और बृध अवस्थाके कारण से विहार न होता देख,श्रावकोनस्थिर वास रहनेकी विनंती करी हमारे सुभग्योदयसे महाराजजी श्री ठाणे २ सातामें विराजमान हैं. महाराज श्रीके सरल जमाने अनुसार चारों अनुयोगरूप सहौध श्रवणसे यहां धार्मिक और व्यवहा रिकअनेक सुधारे हुवे है और हो रहे हैं. यहां के लाला नेतरामजी रामनारायणजी ने " जैनतत्व प्रकाश” हजार पृष्टके बडे ग्रंथकी १२५० प्रत छपवाके अमुल्य भेट दी. नित्य स्मरणकी छोटी पुस्तककी ५०० प्रत अमुल्य भेट दी. तैसे पन्नालालजी जमनालालजीरामलाल कीमतीने तत्वनिर्णय'की २००० प्रत और जैन 'सुबोधहीरावली'की १००० प्रत छापवा के अमुल्य भेट दी. तैलेही हैद्राबाद ज्ञानवृद्धिक खाते की तर्फसे 'केवलानंद छन्दावली' की तीन अवृत्तीकी ३५०० प्रत अमुल्य भेट दी. तैसेही उक्त लालाजो कीमतीजी और यादगीरी (हैद्राबाद) वाले सेठ नवल मलजी सुरजमलजी तथा सोरापुर बेन्डरवाले चोथम Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लजी सुलतानमलजीने 'भीमसेण हरीसेणकी' ढालकी १००० प्रत छपवाके अमुल्य भेट दी. तैसेही हैद्राबाद ज्ञान वृद्धिक खाताकी तर्फसे भक्तामरस्तोत्रकी १२०० प्रत छपवाके अमुल्य भेट दी. तैसेही सिकंदराबाद(हैद्राबाद) गुलाबचंदजी गणेशमलजी समदरीया तर्फसे श्री गणेशबौधकी १००० प्रत तथारामलाल पनालाल कीमतीजीकी तर्फसे२५० प्रत यों१२५०प्रत छपवाकेअ मुल्य भेट दी.तैसेही जैन शिशु बौधनीकी ५०० प्रत ज्ञान वृधिक खातेका तर्फसे. तैसेही लालजी कीमती जी और घोड नदी (पुन) वाले कुंदन मलजी घुमर मलजी बापणा और सिकद्राबाद के गुलाबचंदजी गणेशमलजी समदरीकी तर्फ से यह ध्यानकल्पतरू"ग्र न्थ की१२५०प्रतो अमुल्य भेट दीजातीहै. योआजतक सुम्मार छोटीबडी १२५०० पुस्तकों तो अमुल्य भेटदी गइ हैं. और सिकद्राबादके सेठ सागर मलजी गिरधारीलालजी तथा सहसमलजी जुगराजजी की तर्फ से "जैन तत्वप्रकाश” की दूसरी आवृती की१०००प्रत और अन्य२ग्रन्थों की तर्फ से १००० प्रतयों जैन त. त्व प्रकाशकी २०००प्रतो (छपरही है) और सिकंद्रा बाद के शिवराजजी रूगनाथ मलजी की तर्फसे मदन चरित्र ५७ खंड (१०८ ढाल) की १०००प्रते; और Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिर्थंकर सह श्री (९०९ तिर्थंकरोके नाम की जिनवं दना) की १००० प्रतों, कीमती जी की तफंसे और बारकस (हैद्राबाद) वाले बुद्धमलजी जवारमलजी मा नमलजी दुगडकी तफंसे और यादगिर (हैद्राबाद)वाले नवलमलजी सुरजमलजी तर्फसे जिनदास सुगणी चरित्र ४ खंड ४० ढाल १००० प्रतोऔर सिंहलकुंवरकी ढाल तथा भुवन सुन्दरीकी ढाल (दोनोकी १ पुस्तक) की १००० प्रतो यों सर्व ६००० पुस्तको छपवाके अ मुल्य भेट देने का विचार हुवा हैं. यह सब प्रसाद महाराज श्री काही है. ग्रन्थ कर्ता को तो कोट्यान धन्यवाद हे ही; परंतु जो सन्मार्ग में द्रव्य व्यय कर सु ज्ञान का लाभ अमुल्य अपणे स्वधर्मी यों को देते हैं उन्हे भी धन्यवाद हैं. यह अनुकरण सब साधूजी श्रा वकजी करेंगे ऐसी नमृ अर्ज कर प्रस्तावनाकी समापप्ती करता हूं. गुणानुरागी-रामलाल पन्नालाल कीमती. Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्ध । सुकं | हृदय बहुतही , सुख प्राप्त स्वभा दर्शन १५१८ मत्र भाँग ध्यानकल्पतरूका शुद्धीपत्र. पृष्ट ओली अशुद्ध शुद्ध - पृष्ट ओली अशुद्ध १ ८ सुकं |, १३ बहुनहीं २ १ सुक्क प्राप्त | १/सह स्वमा ४१९ जिसके इसके दर्शन वदन्ती , ११] उपयता १३ नोट वत , १५ उपयागी , १२ जग्रत १६/११ भाको माइको ५५ १ पमी २३. ९ पदयों पदार्थों ५७१ श्रेणी | तधा तथा , नोट प्रन्थ २. ६ आत २५१० शाख १४१६/ योडी ६५११ यव ४१ ५ पत्रारी चत्तारी १७ ३ बऊल बहूल , ९/पटी ४० २ कन्ता कान्ता १७ नोट भाव हृदय १८ ९ कर ५० ५ डसके उसके सर्प १९१८ कानष्ट ५१ ९ उदा बहुदा | ७११४ रासायन ५१२९ सोसा सोसो ७२ ६ खत्री "नोट स ली | साफ खाली | " नोट अमन उसने ७६ नाटसमाधी ५११२ अश्रवआभव । उपजता उपयोगी जाग्रत | ५ मी श्रेणी ग्रन्थ सत्य साग थोडी व २ पाखंडी भफोष करना वर्जित है कनिष्ट रसायन खत्तो अपन | समाध[भा. गे विस्तार Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुज सिवाय ष्टप् ओली अशुद्ध शुद्ध पृष्ट आली अशुद्ध शुद्ध ७७ नाट दय | दहा १३९.१६ इत्न | इतना ८५.१२ तज्ञान प्रतिज्ञान , २१ पये पाये ,, १७ बच्चरकं पच्चकावं १४०१२ तमश तामश प्रति ११११९ सुजे ८८१० पातल पाताल १४३ ६ मंत्र | मंत्रि ८९ ७सिनाय १४४ २ कुब्ज कब्ज ९१ २ कापू कापूत १४५१२ वक वक्त ९२२० अपज्ञा अपक्षा १४७२० लवेगे लेयेंगे ९७११ अशुवि अशुची १४८ २ असुरत्र | असुरत्त ९९/११४७३ | ३४३ १५०११ भोग भोगवने , १८ बचार बेचारे १.३ १२,स्परझेंद्री स्पश्यन्द्री १५१ ७ आपय | अपाय । ० ११३/१९ पुस्तक पुस्तक ८ उपद्रब उपद्रव १५४ ९ नामवे नमावे २०९ नाटे माहे मोह , २ मुख मुखसे ३५ सत्य (सा- सच्चा भी नही१५६, ७ हिंश हिंशा . चाभी नहीं, झुटाभी नहीं)१५७ नोट भवती भक्ती झुटाभा नहीं) पूमत्य भाण १५८ ५ आपमें आपसमें १२३ ११ पक | पक्का १५९ ४ सम्य सम्प १२७१सविस्तर सविस्तार १६० । निदा निन्दा अङ्गा , ५ दनि १३.११ कलंद कलेश १६२ १८ और ,, ११पर्षादा प्रषदा १६४ बहुत जगह १३५/ ५/गति गति रूप ४ उत्तरका अक्ष | वह र नहीं है. १३६२ - दो शब्दो १६५, ७ जुमलीवा जुगलीया १३८ २ लीजो लीजाय १६६ ५ (मिथ्य | (मिथ्या) ,, ११ मोहके माह के तर्फ १६८ ५ मूलता मूलका १३९ ६ स्थपन्न स्थापन १६९/ ४ देवो देव Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाइ पथरी ओली अशुद्ध ___शुद्ध पृष्ट आली अशुद्ध शुद्ध ५६९।१६ आजीका आजीवका २२१/ २९ । १७२/ २ शास्र शास्त्र २२२/ ४ बृद्धी बुद्धि १७२/१७वच - वचन २२४/ १ उसे उस १७३१८'मानने मानववालहावे २२६/ यह नोट १७३/१६ गषाइ २२७में पष्ट १७४१२ चितक्या चितक्यों १७६/ ९पितका पिताका २२७/ यह नोट. १७६१ ८ फत्रशीं २२६ में पुष्ट १७७ २ गालज गलित १८१/ ४और १८१७ १८५१८६२२६ नोट निद दिन प्र. भेल है. २३४ १६ मुबल १८३, २ शक २३५ ८ वित पिता . १८४१७नल नाल २४१ १३ अश्रय आश्रय १८५,१६ जोज जोजन २४ ११८ दानो दोनो २४२ १ जैस जैसे १८६ १७क्षक्षमें संक्षेपमें २४४१ नशमे नशेमें १८९१६ विचर विचार २४४ ६ अज्ञा अज्ञान १९० ६ अज्ञ | आज्ञा २४६ ६ अन्यजमें अन्य जन्ममें १९१ ७ ., २४६८ नशमें नशेमें १९४२ कृय कृत २४६/११ वैसही वैसेही २०२१४|माइकाती माइखंती २ ४८१६ सत्या सत्य २०७ ६ सत्रा सत्र मिथ्या २०८ ७दखये देखिये क्षत्र क्षेत्र - १०३/पापी पापीकी २५४.६ आकले अक्काले सात २ २१२, १|पश्च काल २१२ नोट अग्नी ७ लक्ष अग्नी नोट सुक्र २११/१० कादपी कदापी २५ भिष्टा २२० ६ मोरक माक्ख सक्ता १८६११ , | ३ मिध २५६ २ साटर पश्चा २७. १) सत्त Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्ध आनन्द मान जाय लिये चारित्र पाये इरीयावही वाह्यमें पलटा विमल له سس سر पृष्ट ओली अशुद्ध शुद्ध पृष्ट ओली अशुद्ध २७२/नाटा डसन उसन १३१४ ९/अनन्द २७३/१६ निशुद्ध विशुद्ध ३१५/१०, २७४२१ खेषत क्षपति ३१६ ८ मय । २७८१७विभमेर्क विभर्ममें३१८/१४ जया २७९/नोट पागला तथा पिगला ३२. ५ कीथे २८०१६ विमर्मभिर्म ३२६ ४ चरित्र २८३/७त्यान | त्याग ३२६ ९ पयः २८६ ७'चरूप ३२६ नाटे इरिवही २८७१ सोलडढ साल ऽठ ३२८६ वह्यमें २९० मिमल ३२८ २. पटला ६ पिणउ पिण्ड २९२/ सरीमे सरीरमें ३२९१२ पटना २९२ ९पिण्ड पिण्ड ३३०१७ मिथ्य २९६ नोंट अट आठ ३३१ ५ प्रवतमें २९६ कादंड दंडाकार ३३२ ७ क्रिय २९८ १ करनेका करनेकाउपाय ३३५१२ वह्म २९९/१४ अवलोकन अवलोकन ३३५ २ सधन ३.० नोट हहसस्व सो स्वभाव है,३३७१० किसा | १भव भाव और भव ३३७ ३ डेड ८आस्ति आस्ती ३३८१० जरामी ४ अवक्र अवक्तव्य ३४. ९ स्वभासे स्यात २०३१८ प्राप प्राप्त और ३०६, ३महङ्गल महभाङ्गल । आत्म ३४७ ९ परतणी ३४७१४ ठांक १० नोट लोकालोक लोकाकाश ३४७११ नेभा ३१३ २ कसयल कसायले ३९०१ अपया س س س سس पलटा मिथ्या प्रवृतते क्रिया वाह्य साधन किसी उदेडे जराभी मेरपशूके स्वभावस क्षमाका द्वारा आपही प्रणती ३३८३ परपशुक ३४ १ २७ क्षमका ३४२ ७ भपही ३०६१ - अत्म ३.७ नजो سلسل तजो ढांक प्रक्षा |अपाया Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आनन्द उत्पत्र पदार्थों ___पृष्ट ओटी अशुद्ध शुद्ध पृष्ट ओली अशुद्ध ३६१ २, १३५५, ७अनन्द ३५२ ६अशवण आश्रव ३५५ ७ उन्पन्न ३५२ ९क्षयिक क्षायिक ३५७१६ समग्री सामग्री ३५२ १०कार्म | कर्म ३५८ ५पदार्था ३५८ ९बनाता बनता है ३५३, इन्द्र इन्द्री । २ उत्यत्र उत्पन्न ३५३ ९मसन्दूत असभ्दूत्त । ___ इन सिवाय और भी हस्व, दी, पद वाक्य, विन्दू, अक्षर. और वि. रमो (चिन्हो) की भी बहुत सी खोटों रहगइ है, तैसेही भाषाकी भी गडबड होगइ है, इस लिये पाठक गणों से नम्र विज्ञप्ती-विनती हैं कि रद्ध करके पढीये, और 3. शुद्धता की तर्फ रक्ष न देते, अ शय पे लक्ष दार्ज ये और गुणही गुणको ग्रहण काज,ये. तो अवस्यही लाभ प्राप्त करागे. विज्ञेबु-कमधिकं अमोल खऋषि Page #24 --------------------------------------------------------------------------  Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानकल्पतरूकी अनुक्रमणिका विषय ___ पृष्ट | विषय मङ्गला चरणम् .... .... रौद्रध्यानके पुष्प और फल.... ४९ भूमिका .... .... . ... २ उपशाखा-शुभध्यान.... .... स्कन्ध और शाखा .... .... ३ प्रथमशाखा ध्यान मूल .... ५३ अशुभ ध्यान .... .... ४ पंचलब्धी काश्वरूप.... ... प्रथम शाखा आर्तध्यान.... ....५ द्वितीय उपशाखा-शुभ ध्यानविधी प्रथम प्रतिशाखा आतध्यान केभेद....५ प्रथम पत्र क्षेत्र........ .... प्रथम पत्र-अनिष्ट संयोग.... ....६ द्वितीय पत्र द्रव्य .... .... द्वितीयपत्र-इष्ट संयोग..... .... ७ तृतिय पत्र-काल .... .... तृतीय पत्र -रोगोदय.... .... ९चतुर्थ पत्र-भाव ४.... .... चतुर्थ - पत्र मोगिच्छा.... ..."११ शुभ ध्यानस्य फल.... द्वितीय शाखा आर्तध्यानके लक्षण१३ तातिय शाखा धर्मध्यान प्रथम पत्र-कंदणया.... .... १४ प्रथम प्रतिशाखा धर्मध्यानके पाये द्वितीय- पत्र-सोयणया.... ....१४ प्रथमपत्र आज्ञाविचय तृतीय- पत्र-तिप्पणया .... ....३५ सुत्रार्थ .... .... ... चतर्थ पत्र-विळवणया.... ....१५ मार्गणा .... .... आतध्यानके पुष्पफल.... ....१६ ५महा व्रत ... द्वितीय शाखा-रौद्रध्यान.... ....२१ १२भावना प्रथम प्रतिशाखा रौद्रध्यानके भेद२१ पंचइन्द्रीयोपशमता.... .... प्रथमपत्र- हिंशान बन्ध .... २२ दयाद्रभाव.... .... द्वितिय पत्र-मृषानुबन्ध .... ३० बन्ध - .... तृतिय पत्र तस्करानुबन्ध ... ३५ मोक्षगमन.... .... चतुर्थपत्र-मरक्षण .... .... ३९ गतिगमन.... .... .... ११७ द्वितीय प्रतिशाखा-रौद्रध्यानींके लक्षण४३ ५७हेतू.... .... .... ११८ प्रथम पत्र-उपण दोष .... ४४५ प्रमाद .... .... १२८ द्वितीय-पत्र बहुल दोष .... ४६ द्वितीय पत्र-अपाय विचय चैतन्य और तृतिय पत्र अज्ञान दोष .... ४७ कर्मका युद्ध.... .... ....१३३ चतुर्थ पत्र-अमरणांत दोष .... ४८तृतीय पत्र विपाक विचय१८१कर्म ....... Murr o rrrr Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ له م ३३१ ..... .... ३३२ س विषय पृष्ट विषय विपाकके बोल प्रश्नोत्र .... १५१ द्वितीयपत्र-पिण्डस्थध्यान .... चतुर्थ पत्र संस्थान विचय लोंक श्वरूप तृतियपत्रा-रूपस्थध्यान .... .... .... १८१ चतुर्थपत्र रूपातीत ध्यान.... ३०९ द्वितीय प्रतिशाखा-धर्म ध्यानीके लक्षण अष्टऋद्धि के १४ भेद .... ३२१ .... १९१ चतुर्थशाखा-शुक्ल ध्यान.... ३२३ प्रथमपत्र आज्ञारुची .... १९१ शुक्लध्यानाके गुण .... ३२३ द्वितीयपन-निसग्गरूची.... १९३ प्रयमप्रतिशाखा शुक्लध्यानकेपाये ३२७ तृतियपत्र उपदेशरुची.... ....१९४ प्रथमपता-पृथक्त्ववितर्क.... ३२३ चतुर्थपत्र-सूत्ररूची.... .... १९६ द्वितीपत्र-एकत्व वितर्क.... ३२९ तृतिय प्रतिशाखा-धर्मध्यानीके। तृतीयपत्र-सुक्ष्मक्रिया .... आलम्बन .... १९७ चतुर्थपत्र-समुछिन्नक्रिया.... ३३२ प्रथमपत्र-वायणा .... १२८ द्वितीयप्रती शाखा शुक्लध्यानकेद्वितीयपत्र-पुच्छणा.... .... २०५ लक्षण तृतियपत्र-परियट्टणा .... गिटा २०६ २.६ प्रथमपत्र-विबक्त.... .... चतुर्थपत्र-धर्मकथा .... २०८ द्वितीयपत्र विउत्सर्ग .. ३३५ चतुर्थप्रीतशाखा धर्मध्यानस्य अन् तृतीयपत्र-भवस्थित.... .... ३३६ प्रेक्षा.... .... .... २२० चतुर्थपत्र-अमोह.... .... प्रथमपत्र अनित्वानुप्रेक्षा.... २२१ तृतीयप्रतिशाखा शुक्लथ्यानके द्वितीयपत्र असरणाणु प्रेक्षा.... २३३ लक्षण.... . .... ३४१ तृतीयपत्र-एकत्चानुप्रेक्षा .... २४१ प्रथमपत्र-क्षमा.... ....३४१ चतुर्थपत्र संसारानुप्रेक्षा... २४८ द्वितीयपत्र-नि.भ.... ....३४४ धर्मध्यानस्य पुष्प फल .... २६४ तृतीयपत्र आर्यव.... .... १४७ उपशाखा शुद्ध ध्यान .... २६७ चतुर्थपत्र मार्दव.... .... ३४८ प्रथम प्रतिशाखा आत्मा.... २७१ चतुर्थशाखा-शुक्लध्यानीकी अनुप्रेक्षा३५० प्रथमपत्र बाहिर आत्मा.... २७२ प्रथमपत्र-अपायानुप्रेक्षा.... ३५१ द्वितीयपत्र अंतर.आत्मा .... २७५ द्वितीयपत्र अशुभानुप्रेक्षा.... ५५२ तृतियपत्र-परमात्मा २८५ तृतीयपत्र-अनंतवृतीयानुप्रेक्षा ३५५ पुष्प फलम्.... २८५ चतुर्थपत्र-विप्रमाणानु प्रेक्षा ... ३५८ द्वितीयशाखा-उपध्यानचार.... शुक्लध्यानक पुष्प फरम् प्रथमपत्र पदस्थध्यान .... समाप्ती 300rpur Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PRRORS805892MMON CANDIDOXIDESI SAROTERRAO श्री जिनवरेंद्राय नमः ध्यानकल्पतरु मङ्गलाचरणम्. FFERER अणुतरं धम्म-मुईरइत्ता, अणुत्तरं झाणवरं झियाइं; सु सुक्क सुकं अपगंड सुक्कं, संखिंदु वेगं तव दान मुक्कं ॥१॥ अणुत्तरंग्गं परमं महेसी, असेस कम्मं स विसोह इत्ता सिद्धि गइ साइ मणेत पत्ते, नणेण सीलण य दंसणेणं ॥२॥ सुयगडांगसूत्र श्रमण भगवंत श्री महावीर वृधमान स्वामी, प्रधान-श्रेष्ट धर्मके प्रकाशक, सर्वोत्तम उज्वलसे अती उज्वल, दोष-मल रहित, ध्यान को ध्याया. कैसा उज्वल ध्यान ध्याया, तो के यथा द्रष्टांत-जैसा अर्जुन सुवर्ण उज्वल होता है, पाणी के फेण उ- ज्वल होते हैं, संख और चंद्रमाके कीर्ण उज्वल होतें हैं. ऐसा बल्के इससे भी अधिक उज्वल. सर्व ध्यानो Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानकल्पतरू. में श्रेष्ट, ऐसा सुक्कभ्यान ध्याया. उस ध्यानके प्रशा दसे; महा ऋषिस्वर, समस्त कर्मोका नाश-क्षय कर निर्मळे हुये, जिससे अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत चारित्र, अनंत वीर्य, यह अनंत चतुष्टयकों प्राप्त कर; जो आदि सहित और अंतरहित, ऐसी सिद्ध गती, मोक्षगती, लोकके उपर, अग्रभागमें हैं; उसको प्रप्त करी. ऐसे श्रीमहावीर वृधमान स्वामी जीकों मेरा त्रिकर्ण विशुद्ध त्रिकाल नमस्कार होवो! भूमिका. SATTA ध्याताध्यानं तथा ध्येयं, फलं चेति चतुष्टयम. श्लोक इति सूत्र समा सेन, सविकल्पं निग्रह्यते. 119.929 696969603 अर्थ-ध्याता कहीये ध्यान करनेवाले. ध्यान कहीये ध्यान अवस्था धारण कर स्थिर बेठना, ध्येय कहीये किसी प्रकारका मनमें विचार करना; और फलं कहीये, उस विचारका उस (ध्याता) को क्या फल मिलेगा; इन चारोंही बाबतोंका, यथा बुद्धि इस ग्रंथमें दर्शानेका पर्यन्त करूंगा. उसे पाठक गणों, दत्त चितसे पढके. अशुभसेंबच, शुभमें प्रवेशकर, इष्टार्थ सिद्ध करने स्मर्थ बनेंगे. Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानकल्पतरू. स्कन्ध. ध्यान शब्दकी धातू "ध्ये” हैं, ध्यैका अर्थअंतःकरणमें विचार करना- सोचना ऐसा होताहै. ध्यानके भेद शास्त्रमें इस प्रकार किये हैं. शाखा. सूत्र से कितं झाणे, झाणे चउविहे पन्नते तंज्जहा,अट्टे झाणे, रुद्दे ज्ञाणे, धम्मे झाणे, सुक्के झाणे. उववाह सूत्र. अर्थ-शिष्य सविनय प्रश्न करता है, कीगुरु महाराज, ध्यानके भेद किने हैं ? गुरु-है शिष्य, ध्यानके चार भेद भगवंतने फरमाये हैं, वैसेही में तेरेसे अनुक्रमें कहताहूं. १ आर्त ध्यान, २ रुद्र ध्यान, ३ धर्म ध्यान; और. ४ सुक्ल ध्यान. अंतःकरणमें विचार दो तरहका होता हैं. १ कभी अशुभ अर्थात् बुरा. और कभी शुभ अर्थात् अच्छा. अशुभ विचारकों अशुभ ध्यान, और शुभ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ∞ ध्यानकल्पतरू. या शुद्ध विचारको शुभ या शुद्ध ध्यान कहतें हैं. उपर कहे सूत्र में अशुभ ध्यानके दो भेद किये हैं, आर्त ध्यान और रुद्र ध्यान. तैसे शुभ ध्यानकेभी दो भेद किये हैं- धर्म ध्यान, और सुक्ल ध्यान. इन चाहीका सविस्तर वर्णव, आगे अलग २ शाखाओंमें किया जायगा. 66 अशुभ ध्यान. उपर कहै चार ध्यानोंमेंसे, अव्वल अशुभध्यानका वर्ण करता हूं, क्योंकि मोक्षार्थी, अशुभ ध्यान का स्वरुप समजेंगे, तो उससे बचके, शुभमें प्रवेश करनेको प्रयत्न वंत हो सकेंगे. 55 प्रथम शाखा "आर्तध्यान" इस जगत निवासी, सकर्मी जीवोंकों, शुभाशुभ कर्मोंके संयोगले, इष्ट ( अच्छे ) का संयोग ( मिलाप ), और अनिष्ट (बुरे) का वियोग (नाश ) तथा अनिष्टका संयोग, और इष्टका वियोग, अनादिसे होताही आया हैं; उसमें जो मनमें सकल्प विकल्प उत्पन्न होता हैं; उसेही 'आर्त ध्यान' समजना. जिनेश्वर भगवाननें, जिसके मुख्य चार प्रकार कहे हैं. Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमशाखा-आर्तध्यान. 5 . प्रथम प्रतिशाखा 'आर्त ध्यानके भेद' सूत्र अढे झाणे चउ विह, पण्णंते, तंज्जहा, र अमणुग संप उग संपउत्ते, तस्स विप्प उगसति, समणा एगययावी भवात्त. मणुण संपउत्ते, तस्स अवीप्प उग सति समणा गएया अभवत्ति, आयक संप उग संपउत्ते. तस्सविप्पउंग सत्ती समणे गएया वीभवत्ति. परिझुसीया काम भोग संपउत्ते, तस्सअविप्पउग सत्ति, समणे एगया भवात्त. उववाइ सूत्र. अर्थ-आर्त ध्यान चार प्रकारसे, भगवंतने फरमाया, सो कहतेहैं. १ अमन्योंग (खराब) शब्दादिक का संयोग होनेसे, विचार होवे की- इनका वियोग (नाश) कब होगा; इसकों अनिष्ट संयोग नामें आर्त ध्यान कहना. २ मन्योग (अच्छे) शब्दादिकका, संयोग (प्राप्ती) होनेसें, विचार होवें की- इनका वियोग कदापी न होवो; इसे इष्ट संयोग आर्त ध्यान कहना. ३ ज्वर, कुष्टादि अनेक प्रकारके रोगोंकी प्राप्ती होनेते, विचार होवे कीइनका शिघ्र नाश होवो. इसे रोगोदय आर्तध्यान कहना. ४ इच्छित काम भोग की प्राप्ती होनेसे Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानकल्पतरू. विचार होवे की- इनका वियोग कदापी न होवो. इसे भोगीच्छा आर्त धान कहना. प्रथम पत्र-“अनिष्ट संयोग”. १ “अनिष्ट संयोग नामें आर्त ध्यान,” सोजीवनें अपने सरीरकों, स्वजन स्नेहीयादि कुटम्ब कों, सुवर्णादि धन्नकों, गोधुमादि (गहूआदि) धान्य (अनाज) गवादि (गायादि) पशु,और घरादिकों अपने सुख दाता मानलिये हैं. इनके नाश करनेवाले, सिंह-सर्प-बिच्छू-षटमल-ज्यूकादि जानवर, शत्रू चोर- नृपादि मनुष्य, नदी-समुद्रादि जलस्थान, अग्नी, वच्छनाग-अफीमादि विष, तीर-तरवारादि शस्त्र, गीरी-कंदरादि, मृतिकास्थान; तथा भूतादि व्यंतर देव; इत्यादि भयंकर वस्तुके नाम श्रवणकर, स्वरूप अवलोकन (देख) कर, या स्मरण होनेसे, तथा प्राप्त होनेसे. मनको सकल्प विकल्प (घबरावट) होवे. तब इनके वियोगकी इच्छा करे की, ये मेरा जीव लेने क्यों मेरे पीछे लगे हैं; मुजे क्यों सतारहे हैं, हे भगवान! इनका शिघ्र नाश होवे तो बहुतही अच्छा; ऐसा चिंतवन करे उसे तत्वज्ञ पुरु Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SOSOOSSSSS प्रथमशाखा-आर्तध्यान. श्लोक 6 षोंने, आर्त ध्यानका प्रथम भेद कहा हैं. द्वितीय पत्र " इष्ट संयोग". २ "इष्ट संयोग नामें आर्त ध्यान" सो. राज्योप भोग शयना सन वाहनेषु, स्त्रीगंध माल्य वर रत्न विभूषणेषु; अत्याभिलाष मतिमात मुपैती मोहाद, घ्यानं तदार्तामीति तत्प्रवदन्नि तज्ञः सागर धर्ममृत इष्टकारी, प्रियकारी, राज्येश्वर्यता, चक्रवृत, बलदेव, मांडलिक राज, तथा सामान्य राजकी ऋद्वी. भोग भूमी ( जुगलीया) के अखंड सौभाग्य सुख, मंत्रीश्वर (प्रधान) श्रेष्ट शैन्यापतीयोंके विलास, नव यौवना ( मनुष्य देव संबंधी) स्त्रीयोके संग काम भोगकी, प्रयंका ( पलंगा ) दी शैय्या, अश्व, गज, रथादि वाहनों (सवारी ) की, चुवा, चंदन, पुष्प अतरादि सुभगध पदार्थोंके सेवनकी, रत्ना रजत (चांदी) सुवर्णादी अनेक प्रकारके भुषण (गृहणेंदागीने). व रेशमी, जरी जरतारके वस्त्रोंसे सरीरकों Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ V ध्यानकल्पतरू. अलंकृत, सुशोभित कर, मनहर रूप बणानेकी. इत्यादि तरह २ के काम भोगों भोगवने की. जो मोह कर्मके उदयसे अभिलाषा होतीहैं. तथा वरोक्त पदार्थोंकी प्राप्ती हुइ हैं. उसका उप भोग लेते, जो अंतः करणमें, सुख, अहलाद उत्पन्न होता है; की मैं कैसे इच्छित सुखका भुक्ता हूं. या उनकी वारम्वार अनुमोदन करने से, अहा ! वगैरे स्वभाविक उद्गार निकलते, अंतःकरणमें आनंद का अनुभव करते, जो विचार होताहैं, उसे तत्वज्ञनें आर्त ध्यानका दूसरा प्रकार कहाहैं. ॥ पाठांतर || किल्लेक आर्त ध्यानका दूसरा प्रकार " इष्ट वियोग ” कहतेहैं, अर्थात् कालज्ञानादी ग्रंथमें, बताये हुये, स्वरादी लक्षणोंसे; या जोतिबादी विद्याके प्रभावले सरीरका वियोग स्वल्प ( थोडे ) कालमें होता जाण, विचार उत्पन्न होय, की - हायरे अब में ये सुंदर शरीर, प्यारे कुटुंब स्नेहीयों, और कष्टसे उपार्जन की हुइ लक्ष्मीका, त्याग कर चले जाऊंगा ! तथा अपने सहाय्यक स्वजन, मित्रोंके वियोग से मूर्छित होगिर पडे. Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमशाखा-आर्तध्यान. विलापात, आत्मप्रहार' या मृत्युका चितवन करे, ग्रह (घर) संपतका किसीने हरण किया, अग्नी से जल (बल) गया, पाणीमें वहगया.-या डूब गया, पृथ्वी गत निधान (धन) विद्रुप होके निकला. राजा पंचने हरण किया. व्योपारदीमें टोटा पड़गया. या नामूनके लिये मदमें छकाहुवा, लग्नादी कार्यमें अधिक व्यय करनेते, अशक्तता दारिद्रतादी दुःख प्राप्त होनेसे, पश्चाताप करे; की हाय ! हाय!! अब में क्या करूं वगैरे. इत्यादि अंतःकरणका विचारभी दूसरा आर्त ध्यान हैं. और इन्द्रियोंकों पोषणे, अनेक बाजिंत्र- वारंगणा (नाटकणी) पुष्प वटिका' अतर,-अबीरादी, षडरस भोजन, वस्त्र, भुषण, सयनाशन, वगैरे, विनाश हुये पदार्थों का संयोग मिलाने, अनेक पापारंभ कार्यका चिंतवन करे, सोभी आर्त ध्यान.. तृतीय पत्र-“रोगोदय.” ३ “रोगोदय आर्त ध्यान सो”-(१)सब जीव सिर छातीयादी कूटना. *गडा हुवा धन्न कोयले पाणी वगैरे द्रष्टी आता हैं. नाचनेवाली. बगीचा. Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानकल्पतरू. आरोग्य-सुखके इच्छक हैं. परन्तु अशुभवेदनी कर्मोदयसे, जो जो रोग-असाताका उदय होताहैं, उसे भोगवे विन छूटका नहीं. श्रीउत्तराध्ययनजी सुत्रमें फरमायहै की “कड्डाण कम्मानमोख्ख अत्थी" अर्थात् कृत्य कर्मके फल भुक्ते विनछूटका नहीं. मनुष्यके सरीरपर, साडे तीन करोड रोम गिने जाते हैं; और एकेक रोम (रुम-बाल) के स्थानमें पोणे दो दो रोग कहते हैं. तो विचारीये यह शरीर कित्ने रोगोंका घर हैं. जहांलग सातावे दनिय कर्मका. जोर हैं, वहांतक सबरोग दबे (ढके) हुयेहैं. और पापोदय होतें, कुष्ट (कोड), भगंदर, जलंधर, अतीसार, श्वाश, खास, ज्वरादि, अनेक उद्रवीकार रुद्रवीकार से भयंकर रोग उप्तन्न हो, पीडा (दुःख) देते हैं; तब चित आकुल व्याकुल हो, अनेक प्रकारके सकल्प वि कृतकर्मो क्षयो नास्ती, कल्प कोटी शतैर्पि; अवश्य मेव भुक्तव्यं, कृत्कर्म सुमासुभं. ४३२.०००००० इत्ने वर्षों का एक कल्प किया जाता हैं. ऐसे कोडों कल्पमेंही किये हुये कर्मका फल भोगवें विन छुटका नहीं झेता है !! Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमशाखा-आर्तध्यान. ११ कल्प उप्तन्न होते हैं. सो तीसरा आर्तध्यान. ( २ ) और उन रोगोंका निवारण करने, अनेक औषधोपचार के लिये; अनंत काय, एकेंद्रीसे लगा पचेंद्रीय तक जीवोंका, अनेक तरह, आरंभ, सभारंभ, छेदन भेदन, पचन पाचनादि, क्रिया करनेका, अंतःकरण में विचार होवे; शिघ्रतासे उनका नाश करने चटपटी लगे; उनकी हानी वृधीसें हर्ष शोक होय, है प्रभु ! स्वपनांतर में भी ऐसा दुःख मत होवो. इत्यादि अभीलाषा होवे, सो तीसरा आर्त ध्यान. चतुर्थ पत्र - "भोगिच्छा.” ४ “भोगिच्छा आर्तध्यान" सो - १ पांच इन्द्रिय सम्बंधी काम भोग भोगवणे की इच्छा होय; अर्थात् श्रवणेंद्री (कान) से, राग रागणी, किन्नरीयोंके गायन, और बाजिंत्रोंका मंज्जुल राग, सुननेमें, चक्षूरेंद्री (आँख) सेनृत्य ( नाच ) षोडश पांच इंद्रियोंमें, कान और आँख यह दो इंद्रियकाभी हैं अर्थात् शब्द सुनना और रूप देखना यह दो काम देती हैं. और, घ्राण, रस, स्फये ये तीन भोगी हैं अर्थात्, गंध, स्वाद, और स्त्रीयादिका उप भोग लेती हैं Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ ध्यानकल्पतरू. श्रंगारसे विभुषित स्त्री पुरुष, वगीचे, आतसबाजी (दास) के ख्याल, मेहल मंडपोंकी सजाइ, रोशनाइ, वगैरेको देखने में, घ्राणेंद्री (नाक) से, अतर पुष्पादी सुगंधमें, रसेंद्री (जिभ्या) सें, षट रस भोजन, अभक्ष भक्षणमें. और शयनासन, वस्त्र भुषण, स्त्रीयादिके विलास भोगमें, आनंद मानना, इनका संयोग सदा ऐसाही बनारहो. तथा में बड़ा भाग्यशाली हूं, के मुजे इछित सुखमय, सर्व सामग्री प्राप्त हुइहैं, वगैरे खुशी माननी. सो भोगिच्छा आर्त ध्यान.(२)औरभोगांतराय कर्मोदयसे, इच्छित सुख दाता सुसामग्रीयोंकी प्राप्ती नहीं हुइ; अन्य राजे श्वर्य, या इन्द्रादिकको, ऋधी सुखका भोग लेते देख, तथा शास्त्र ग्रन्थ द्वरा श्रवण कर, आपकों प्राप्त होनेकी अंतःकरण मे अभीलाषा करे, की है प्रभू! एकादा राज्य मुजे मिल जाय, या कोइ देव मेरे स्वाधीन (वस) हो जाय, तो में भी ऐसी मोज मजा मुक्त के मेरा जन्म सफल करूं. जहां तक ऐसे सुख मुजे न मिलें, वहां तक में अधन्य हूं. अपुन्यहूं.वगैरे विचार करे,(३)और तप, संयम,प्रत्याख्यान (पच्चखाणा) दी करणी कर, नियाणा (नि Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमशाखा-आर्तध्यान. श्वयात्मक वांछा) करे, की मेरी करणी के फलसे मुजे राज्य और इन्द्रादिक के वैभव (सुख) की प्राप्ती होवो,(४)और अपणी करणीके प्रभावसे आशीर्वाद दे, अन्य स्वजन मित्रादि कों, धनेश्वरी सुखी करनेकी अभीलाषा करे,(५)और अपने वजन मित्र या पडोसी को सुखी देख, आपके मनमें झूरणा करे, की सबके बीच मेंही एक दरिद्री कैसे रहगया! वगैरे. इत्यादी विचार अंतःकरण में प्रवृते सो आर्त ध्यानका चौथा प्रकार जाणना. द्वितीय प्रतिशाखा.'आर्तध्यानके लक्षण.' - -0000--- सुत्र अट्ट स्सणं झाणस्स, चत्तारि लख्खणा, पन्नंता तंज्जहा, कंदणया, सोयणया, तिप्पणया, विलवणया. उइवाइ सूत्र. अस्यार्थः-"आर्त-व्यानीके चार लक्षण” सो 'दशा पत्स्कंध सुत्र में, नियाणे दो प्रकारके फरमाये हैं१ भवप्रतेक सो, संपूर्ण भवतक चले एसा निदान करे, जैसे नारायण, वासुदेव पदके नियाणसे होतहैं, उनकों वत प्रत्या Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ ध्यानकल्पतरू. १ अक्रांद रुदन करे. २ शोक (चिंता) करे. ३ आ खोंसे आंथ डाले. ४ विलापात करे. आर्त ध्यान ध्याता को बाह्य चिन्होसें, पहछाननेके लिये, भगवानने सूत्रमें, ४ लक्षण फरमा ये हैं; सो अनिष्टका संयोग, इष्टका वियोग, रोगादी दुःखकी प्राप्ती, और भोगादी सुखकी अप्राप्ती; यह चार प्रकारके कारण निपजनेसे, सकर्मी जीवों कों कर्मोकी प्रबलता से स्वभाविकही चार काम होते हैं. प्रथम पत्र “कंदणया” १ कंदणया अक्रांद रुदन करे. की हायरे मेरे सुसंयोगका नाश हो, ऐसेकू संयोगकी प्राप्ती क्यों होती हैं? हा देव ! हा प्रभू !! इत्यादि विचार उद्भवनेसे, अरडाट शब्दसे रुदन करे. द्वितीय पत्र “सोयणया” . २ सोयणया-सोच चिंता करे, कपालपे हाथ ख्यान संयम न होवे. और २ वस्तु प्रतेक सो किसी वस्तुका प्राप्तीका निदान करे, जैसे द्रोपदीजी, उन्हे वस्तु न मिले वहां वक सम्यक्तव प्राप्त न होवे. Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमशाखा-आर्तध्यान. धरे, नीची द्रष्टीकर सुन्नमुन्न हो बेठे, पृथवी खने (खोदे) त्रण तोडे, बावला जैसा बने, तथा मुर्छित हो पड़ा रहै. तृतिय पत्र “तिप्पणया” ३ तिप्पणया-*आँखोंसे आश्रपात करे, बातर में उस वस्तुका स्मरण होतेही रो देवे. उंड़े निश्वास डाले. चतुर्थ पत्र “विलवणया” ४ विलवणया-विलापात करे. अंग पछाडे. हदयपे, सिरपे, प्रहार करे; बाल तोडे, हाय ओय जुलूम हुवा, गजब हवा, बडा जबर अनर्थ हुवा, वगैरे भयंकर शब्दोचार करे, और क्लेश टंटे, झगडे, करे, तथा दीन दयामणे शब्दोचार करे. वगैरे सब आर्त ध्यानीके लक्षण जाणना. श्लेष्माश्रबाध वैमुक्त, प्रेतोभुक्तं यतोऽवशः अतो नरो दितव्यंहि, क्रियाः कार्याः स्वशक्तिः. मरने वालेके पीछे उसके स्वजन स्नेही रुदन करके, अश्रु और श्लेषम डालते हैं. उसे वो मरने वाले खाते हैं, ऐसा मिताक्षर ग्रंथमें कहा हैं. Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ ध्यानकल्पतरू. आतध्यानके “पुष्प और फल” . आर्त ध्यानीकों अप्राप्त वस्तुको प्राप्त करने की अत्यंत उत्कंठा (आशा वांच्छा) रहती हैं. अहोनिश उधरही लक्ष लगा रहता है. जिससे अन्य कामका अनेक तरहसे बीगाडा होता है, हरकत पडती है. धर्म करणी संयम तपादी कर केभी *कुंडरिक की तरह यथा तथ्य लाभ प्राप्त कर सक्ते नहीं हैं. *जंबू द्विपके पुर्व महाविदेहकी, पुष्कलावति विजयकी, पुंडरी राजध्यानीके, पद्मनाभ राजाके. कुंडरिक कुवरने दिक्षा धारण करी. पुडरीक कुंवरको राज प्राप्त हुवा. भइको राज्य सूख भागवते देख कुंडरिक का मन ललचाया. और गुरुका संग छोड मेहलके पीछेकी आशोक वाडीमें गुप्त आके बेठे. मालीसे खबर मिलतेही पुंडरिक राजा तुर्त भाइके दर्शन करने आये. और मुनीका चित उदास देख पुछनेसे उनने राज वैभवकी परसंस्या करी, मुनीका मन चलित देख, राजा अपने वस्त्र भूषण उतार मुनीकों दिय और मुनीका उतारा हुवा वेश राजा धारण कर गुरुजीके दर्शन करने चल. तीन दिन उपवाससे गुरुजीको भेट, लुक्खम, सुक्खम शुद्ध अहार भोगवनेसें, अत्यंत पीडा (दुःख) हुवा और आयुष पूर्ण कर स्वार्थ सिद्ध विमानमें देवता हुये. पीछेसें कुंडरिक राज वेश धारण कर राज्य सुख भोगनेमें अत्यंत लुब्ध हुये. ताकदबडनके लिये मांस मदिरादि अभक्षका भक्षण करनेसें, अत्यंत असाह्य वेदना उप्तन्न हुइ. तीन दिनमें. आयुष्य पूर्णकर भोग बिन भोगवेही मरके सातमी नर्क गये. Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमशाखा-आर्तध्यान. १७ अखंड पुरे पुंन्य पोते हुये विन तो. इष्ट वस्तु की प्राप्ती होना; और स्थिर रहना होही नहीं सक्ता हैं; जो अप्राप्ती से, या प्राप्त हो के नाश होनेसे, उस वस्तुके लिये झुर २ के मरते हैं; उनका कुच्छभी कार्य न होता हैं. उलटे, नमीराज ऋषिके फरमाये प्रमाणें “कामे पत्थ व माणा, अकामा जंति दुग्गई” अर्थात् अप्राप्त हुयेअनमिले कामभोगोंकी प्रार्थना (वांच्छा) करता हुवा, कामभोग विन भोगवेइ, वो मरके दुर्गती ( खराब गति नर्क तिर्यांचा दी ) में जाता हैं. और कदी किंचित् पुन्योदयसे मनुष्य गति पाया तो दुःखी, दरिद्री, हीन, दीन होवे; और जो कदापी, देवता हो जाय तो * अभोगीया, देव हो सदा स्वामीके हुकमाधीन रहके अनेक कष्ट भो गते हैं. मालककी खुशी में अपनी खुशी मना नी पडती हैं. भोगांतराय कर्मोदय, प्राप्त हुये पदार्थोंका भी भोग न ले सक्ता हैं; अन्यके भोग *नोकर देव श्वामीके लिये विमाण बणावें, या उठावें, शंन्याके देवअश्वादि पसूका रूप बनाके खारी देवें सो अभोगीया देव. Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानकल्पतरू. सुख देख झुरना पडता है. आर्त ध्यान ऐसी पकी मोहब्बत करता है, की भवांतरोकी श्रेणियों (भव-भ्रमण) में साथही बना रहता है; प्रीती नहीं तोडता है,(२)और आर्त ध्यानी प्राप्त हुये भोग सुखपे अत्यंत लुब्ध (अधी) होता है. (देवादिक के सुख अनंत वक्त भुक्त के भी ऐसा समजता हैं) जाणें ऐसी वस्तु मुजे कहींभी न मिली थी, ऐसा जाण, उसको क्षिणमात्रभी अलग नहीं करता है. ऐसी अत्यंत अशक्तताके योगसे, इस भवमें सूल सुजाक, गर्मी, चितभ्रमादि अनेक रोगोंसे पीडित हो, औषध पथ्यादीमें संलग्न हो, प्राप्त हुये पदार्थ भोगव नहीं शक्ता है. घरमें रही हुइ सामुग्रीयोंकों देख २ झुरताही रहता है. इस रोगसें कब छुटूं, और इनका भोग लेवू. !! (३)औरभी आर्तध्यानीकों, जो वस्तु प्राप्त हुइ है, उससे दूसरी वस्तु अधिक श्रवण कर, या देख, उसे प्राप्त करनेकी अभीलाषा होती हैं; यों उत्रोत्र वस्तुओं भोगवनेकी अभीलाषही अभीलाषा में, उसका जन्म पूरा हो जाता है; वृधवस्था Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमशाखा-आर्तध्यान. १९ प्राप्र हो जाती है, तो भी इच्छा-त्रष्णा त्रप्त नहीं होती है. भृतृही ने कहा है की-"स्तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णा" अर्थात् वय जीर्ण [बध] होगइ परंतु तृष्णा-वांच्छा जीर्ण न हुइ. क्यों कि इस श्रेष्टी में, एकेक से अधिक २ पदार्थ पडे हैं, वो सब एकही जीवकों एकही वक्तमें तो प्राप्त होही नहीं शक्ते हैं. प्राप्त हुये विन, तृष्णावंतकी तृष्णा भी शांत नहीं होतीहै. और तृष्णा शांत हुये विन दुःख नहीं मिटता हैं. इस विचार से निश्चय होता है की, आर्त ध्यान सदा एकांत दुःखही का कारण हैं. जैसा यह इस भवमें दुःख दाता है; इससेभी अधिक परभव में दुःखप्रद समजीये. क्यों कि जो प्राप्त वस्तुपे अत्यंत लुब्धता रखता है, जिससे उसके बज्र (चीकणे) कर्म बंधते हैं. वो कर्म फिर दुर्गतीयों में, ऐसे दुःख दाता होयंगे की, रोते २ भी नहीं छूटेंगे. ऐसा विचार, सम्यक द्रष्टी श्रावक साधू इस आर्तध्यानका त्याग कर, सुखी होनेका उपाय करे. ___यह आर्तध्यान सकी जीवोंके साथ अनादी Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० ध्यानकल्पतरू. कालसे लगा है, यह विना संस्कार स्वभाव सेही उत्पन्न होता है. इस ध्यानमें मरणेवालेकी विशेष कर तिर्यंच गतीही होती है. यह ध्यान 'हेय' अर्थात छोडने योग्य है. परम पूज्य श्री कहानजी ऋषिजी महाराजके सम्प्रदायके बाल ब्रह्मचारी मुनी श्री अमोलख ऋषिजी रचित ध्यानकल्पतरू ग्रन्थ की प्रथमशाखा आर्तध्यान नामे समाप्त. Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयशाखा-रौद्रध्यान. G. २१ . द्वितीय शाखा "रौद्रध्यान" WALOM 76 . 1-: रोहे झाणे चविह पन्नंते तज्जहा, हिंसाणुबंधी, मोसाणुबंधी, तेणाणुबंधी, सार ख्खणाणुबंधी... .. अस्यार्थ-रौद्र (भयंकर) ध्यानके चार प्रकार भगवंतने फरमाये, सो कहता हूं. १ हिशानुबंध-हिशक कर्मोंका अनुमोदन (परसंस्था) करे, २ मृषानुबंध-मिथ्या(झूटे)कर्मोका अनुमोदन करे.३ तस्करानुबंध-चोरीके कर्मोंका अनुमोदन करे.४ संरक्षणानुबंध-सुख रक्षणके कामोंका अनुमोदन करे. प्रथम प्रतिशाखा “रोद्रध्यानके भेद." जैसे मदिरा पान करनेसे, मनुष्यकी बुद्धि विकल होजाती हैं, और वो विशेषत्व. क्रुर कर्मोमेंही आनंद मानता है, तैसेही जीव अनादी कालसे, कर्म रूप मदिराके नशेमें, मतबाले हुये हुवे. कूक Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानकल्पतरू. र्मोमेंही आनंद (मजा) मानते हैं. उन कूकर्मोके आनंदसें, जो अंतःकरणमें विचार होता है, उसे तत्वज्ञ पुरुषोंने रौद्र-भयानक ध्यान फरमाया हैं. इसके मुख्य चार प्रकार करे हैं. प्रथम पत्र-“ हिंशानुबंध.” १ "हिंशानुबंध रौद्र ध्यान” सोसंछेदनैर्दमनै ताड़न तापनैश्च, बन्ध प्रहार दमनैश्च विकृन्तनैश्व; यस्येह राग मुपयाति नचानु कम्पा, ध्यानंतु रौद्र भिती तत्प्रवदन्ति तज्ञः, सागर धर्मामृत. अस्यार्थम्-छेदन, भेदन, ताडन, तापन,करना. बन्धन बांधना, प्रहार मारना, दमन करना कूरूप करना, इत्यादि कर्मों में जिसका अनुराग (प्रेम) होवे, और यह कर्म देख जिसकों दया नहीं आवे, सो हिंशानुबन्धी रौद्र ध्यान. . (१) 'दुःख किसकों भी प्रिय नहीं हैं' बेचारे जीव कर्माधिनतासे, पराधीनता, निराधारता, अ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयशाखा-रौद्रध्यान. २३ स्मर्थता पाये हैं; होन, दीन, दुःखी हुये हैं. एकेद्रीयादी अवस्था प्राप्त हुई हैं, अहो निश सुखके इच्छक हैं; और यथा शक्त सुख प्राप्तीका उपाय करने खपते हैं, उन बेचारे जीवोंकों, अर्थे (मतलबसें) अनर्थे (विना कारन) दुःख देना, सताना, या उनकों दुःखसे पीडाते हुये देख हर्ष मानना, सो रौद्र ध्यान, एकेन्द्रीयसे लगा पचेन्द्रीय जीव पर्यंत कीसीभी जीवोंको, या जीव युक्त किसीभी पदाथोंको, स्वयं अपने हाथसें, तथा पर दूसरेके हाथसे, प्राण रहित करते देख, टुकडे २ करते देख, लोहकी श्रांखल बेडीमें बन्धनमें डालते देख, रस्सी सूत शणादिक से बांधते देख, कोटडी भूबारे (तल घर) करागृह (केदी खाने) में, कब्ज किये देख, करण, नाशीका, पूंछ, सींग, हाथ पांव, चमडी, नख, वगैरे किसीभी अंगोपांग काछेदन भेदन करते देख, कत्तल खानेमें बेचारे जीवोंका, बध करते समय, उनका अक्रांद श्रवण कर, उनके अंगके टुकडे तडफडते देख, वगैरे अनेक तरह, जीवोंको दुःख देते, या बध करते देख, आ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ ध्यानकल्पतरू. नंद माने, की बहुत अच्छा हुवा, यह ऐसाहीथा. इसे मारनाही चाहिये; बंधनमें डालनाही चाहिये; फांसी, सूली, देनाही चाहिये; बडा जुलमी था. बचता तो गजब कर डालता, पाप कटा, मरगया, पृथ्वीका भार हलका हुवा ! वगैरे २ शब्दोचार करे, आनंद माने, सो हिशानुबन्ध आर्त ध्यान. (२) औरभी हाहा ! यह महल, मंदिर, बंगला, हाट - दुकान, हवेली, कोट, किल्ला, खाइ, बुरजों, तीरस्थंभ, या मृतिका पाषाणादिकके खिलोणे, मूरती, भंडोपकरण (वरतन ) वगैरे, बहुत अच्छे बने, अच्छा रंग, कोरणीयादि कर, सुशोभित किया; शाबास कारीगरकों पूरा शिल्पबेताथा, की जिसने ऐसी मनहर वस्तु बणाइ. ऐसेही कूप बावडी, नल, तलाव, होद, कुंड, झरणा, झारी, लोटा, गिलाश, कळशा, वगैरे बहुतही अच्छे मनहर बने हैं. क्या स्वादिष्ट शीतल सुगंधी पाणी हैं. कैसा उमदा फुवारा छूटता है. कैसा उमंदा छिडकाव हुवा हैं. चूला, भट्टी, अंजन, मील, दीवा, पिलशोद. हंडी गिलास. झुमर. चीमनी वगैरे Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयशाखा-रौद्रध्यान. २५ बहुतही अच्छे सुशोभित हैं, क्या उमदा झगमग रोशनी होरही हैं, क्या रंगी बेरंगी आतशवाजी (दारुके ख्याल) छूट रहे हैं, क्या धूपकी सुगंधी मघमघा रही हैं. क्या शीतल सुगंधी हवा आती है. क्या उमदा पंखा पंखी चल रहे हैं. कैसा झूला घूमता है, क्या मज्जुल बाजित्रोंका नाद है. क्या उंचे२ विचित्राकार वृक्षोंका समाह सोभ रहा है. यह झाडों काटके प्रशाद, स्थंभ, पाट, वगैरे बनाने योग्य है, यह फल बड़े मिष्ट है, भक्षण करने योग्य हैं गुण करता हैं; शाख बडा स्वादिष्ट बना. क्या लीली २ हरीयाली छा रही हैं, इसे देखनेंसें बड़ा आनंद होता है. क्या मनहर हार तुर्रे बनाये, औषधियां कंद मुलादिक पोष्टिक स्वादिक कैसे अच्छे हैं. यह कीडे, खटमल, डंस, मच्छर, परले के जीव हैं, इनकों जरूरही मारना. जलचर मच्छादि भूचर गवादि, वनचर शुकरादी, खेचर, पक्षी आदी, पचनादी कर भक्षणे योग्य हैं. यह अश्व गजादी की कैली सजाइ सजी हैं. शैन्य श त्रका कट्टा करने जैसी हैं, बहुत अच्छे चित्र विचित्र पक्षीयोंको पीजरमें रखे हैं. अजायब घरकी, Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ ध्यानकल्पतरू अजब छटा है. . * मुशेसे रोगोत्पती होती है. यह मारने योग्य हैं. सर्प बिच्छ्रवादि विषारी जीवोंको अवश्य मारना, बडा पुन्य होगा, सिंहकी शिकार क्षत्रीयोकों अवस्य करना चाहीये. केसा सूर सुभट हैं, एक पलक में हजारोंका संहार करता है. इत्यादी विचारको हिंसानुबन्ध रौद्रध्यान कहना. औरभी अश्वमेध यज्ञ, घोडेको अग्निमें होमनेसे; गौमेधयज्ञ गौका, अजामेध बकरेका, और नरमेध मनुष्य का, अनिमें होम करने ( जलाने) से, बडा धर्म होता है, स्वर्ग मिलता है. यह विचारभी रौद्रध्यानका हैं. कित्येक पापशास्त्रके अभ्यासी किल्नेक जानवरोंके अंगोपांग मांस, रक्त, हड्डी, चर्म इत्यादी सेवनेसे रोग नास्ती मानते हैं. कित्नेक क्रिडा निमित्त कुत्तेआदी शिकारी जानवरोंसे बेचारे गरीब पशु पक्षीयोंको पकडाके मजा मानतें हैं. कित्नक बंदर रींछ आदी जीवोंके पास नृत्य गायनादीके * प्लेग रोगके प्रगट होने पहले घर में मूशे ( चुवे-उंदिर ) मरके घर के मालिक को चेताते हैं रोगसे बचाने उपकार करते हैं. उसे भूलके उसे मारते हैं यह बडी अज्ञान दशा है. Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयशाखा-रौद्रध्यान. २७ ख्याल तमाशादेखनेमें मजा मानते हैं. कुर्कट, भेसें, मेंढे या मनुष्यादि की लडाइ देख मजा मानते हैं. सो भी हिंशानुबन्ध नामे रौद्रध्यान है. . किनक जीवोंके संहार के लिये, सत्यनी, (तोप) बंदूक, धनुश्य-बाण, खड्ग, कटार, छुरी, चत आदीका संग्रह करते हैं; या शस्त्र देख, जीवों के संहारकी इच्छा करते हैं. कित्नेक' घट्टा, घट्टी, हल्ल,बखर, कुदाली, पावडी ऊखल,मुशल, सरोता, दांतरडा, कातर, वगैरेका संग्रह करते हैं. तथा इन को देख संहारकी इच्छा करते हैं. हाथ में आये चलाने की इच्छा करते हैं. खाली चलाके देखते हैं, सो भी हिंशानुबन्ध रौद्रध्यान. . औरभी किसीका बुरा चिंतना, अपनसे अधिक रूपवान, धनेश्वरी, गुणीजन, पुण्यप्रतापी, बहुल परवारी, सुखी देखके ईर्षा करे, उनको दुःख होनेका विचार करे, की इस के पीछे मुजे कोइ नहीं पूछता है, यह मेरे सुखमें या लाभमें हरकत कर्ता है. मुजे हरवक्त दबाता है सताता है, यह कब मरे और पाप कटे, वगैरे विचार करे सो भी Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ ध्यानकल्पतरू. हिंशानुवन्ध रौद्रध्यान. ___ और पृथव्यादि छेही काय के जीवोंकी हिंशा होवे, ऐसा यज्ञ, होम, पूजा, वगैरेका उपदेश दे, या ग्रन्थ रचे, तैसेही औषधीयों के शास्त्र रचते, दुष्ट (घातक) मंत्रका साधन करते, बिभत्स कथा कादम्बरी वगैरे रचते व पढते वक्त, हिंशक, चोर, जार, दुष्ट, दुर्व्यनीकी संगतमें रहते, और निर्दयी क्रोधी, अभीमानी, दगाबाज, लोभी, नास्तिक, इनके मनमें हिंशानुबन्ध रौद्रध्यानका विशेष वास होता है. तैसेही हिंशाले निपजती हुइ वस्तु, जैसे१गिरनी पीशा आटा, २चीनी सकर, ३हड्डी या हाथी दांत के चडे, वगैरे, ४कचकडेकी बनी वस्तु, ५पांखाकी टोपीयो वगैरे, ६चमडेके पूढे वगैरे, ... १ गिरनीके आटेकों बरोबर जमाके उपर सकर भुरभुग देखने मे हलते चलते बहूत जीव दिखते हैं. २चीनी सकरमें हड्डीयोंका बूग विशेष होता है, और गायके रक्तसे शुद्ध करते हैं. ३हाथी दातके लिये ७०००० हाथी फ्रान्म देश में दरसाल मारे जाते हैं. ४काछवेको गरम पानी में डुबाके मारके उसके चमडेकी जो वस्तु बनाते है उस कचकडेको कहते है. जीवने पक्षीयोंकी पांखो झडपसे उखाड लेते है, वो टोपी वगरेपे लगाते हैं. ६ जीवने पशूका चमडा निकाल ते हैं किनक स्थान चमड़ेके लियही विषादी प्रयोगसे पशूको मार उसके वहीयोंके पूठे, नोवत नगारे, वगैरे वनते हैं. Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयशाखा-रौद्रध्यान. ७अंग्रेजी दवाइयों, ८ साबन मेणवत्ती, ९रेशमी कपडे, १०खराब केशर, ११चरबीका घृत (घी) वगैरे हिंशक वस्तुका भोगोप भोग करते मनमें जो मजा . मानते हैं, वोभी हिंशानुबन्ध रौद्रध्यान गिना जाता है. ___ ऐसेही बोर, मूले प्रमुखकी भाजी, जुवार बाजरीके भुट्टे, सुला अनाज व औषधी, विना देखे कोईभी सजीव वस्तु भोगवते मजा माननेसे भी, हिंशानुबन्ध रौद्रध्यान गिना जाता हैं, क्यों कि इनमें त्रस जीवोंका विशेष संभव हैं. महाभारत संग्रामोंके इतीहास कथा पढते सुनते जो उसकी मनमें अनुमोदन होवे, सो भी हिंशानुबन्ध रौद्रध्यान. ७अंग्रेजी दवाइयोंमे जानवरोके मांसका अर्क व दारूका भेल होता है काडलीवर आइल यह मच्छीका तेल होता है, ऐसी वहुतमी है. (साबू मेणवत्तीय चरवीका भेल होता है ९किन्नेक केशरमें मांस के छोते होते है. 1. रेशमी कीडेको गरम पासे मार रेशम लेते हैं. ११कित्नेक घी (घृत ) में भी चरबी का भेल आता है. ऐसी अखवारोंमें बहुदा खबरें प्रगट हूइ है, और उसे पढके वरोक्त वस्तु छोडते नहीं हैं उन्हे आयकेसे कहना. Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानकल्पतरू. इत्यादि हिंशानुबन्ध रौद्रध्यानका बहुत बयान हैं, सबका मतलब इनाही है की, किप्तीकों भी दुःख देनेका विचार होवे या दूसरे के बधसे वस्तु बनी उसकी अनुमोदना करे वोही हिंशानुबन्ध रौद्रध्यान. द्वितीय पत्र-"मृषानुबन्ध.” २ "मृषानुबन्ध रौद्रध्यानः" असत्य चातुर्य बलेन लोकाद्वितं ग्रहीष्यामि SE बहु प्रकारं; तथा स्वमता पुराकराणि, कं न्यादि रत्नानीच बन्धुराणी ॥ १॥ असत्य वागवंचनाया निजानंत प्रवर्त्तय त्यत्र जनं वराकम्, सद्धर्म मार्ग दत्तिवर्तनेन मदोद्वतोयः सहि रौद्रधामा ॥२॥ ज्ञानार्णव. अर्थ-विचार करे कि में असत्यतासे चतुर्ता करके, मेरे कर्मोंको प्रगट न होने देते, अनेक प्रकारसें लोकोंकों ठग कर, मेरा मतलब पूरा करूं Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयशाखा-रौद्रध्यान. मन कल्पित, अनेक शास्त्र दया रहित रचकर, मन माना मत चलावू , लोकोकों वाक्य चातुरीसे मोहित कर, उनके पाससे सुन्दर, कन्या, रत्न, धन, धान्य गृह, (घर) ग्रहण करूं, और मेरा जीवन सुखे चलावू. इत्यादि असत्य विचार, जिसके अंतः करणमें होवे, उसे मदोद्वत मृषानुबन्ध रौद्रध्यानका मंदिर (घर) समजना चाहिये. __ मृषा नही रक्खा, अर्थात 'झूटेने, जक्तमें बुरा पदार्थ कुछ बाकी रक्खा नहीं,' सब उसनेही ग्रहण कर लिया. ऐसा खराब झुटा पना हैं, और छोटे, बडे, सब झूटकों खराब समजते है, क्यों कि झूटा 'कहनेसे, सब चिडते हैं; तो भी आश्चर्य है की फिर उसे नहीं छोडते हैं, देखिये इस ध्यानकी सत्ता कैसी प्रबल हैं, की खराब काममेही आनंद मानाता हैं. किनेक अपनी चातुरी बताते हैं, की, हम कैसे विद्वान है. कैसा परपंच रचा, की-अंग हीन, रुपहीन, इन्द्रियहीन, औरगुणहीन कंन्याको भी कैसे बडे स्थान दिलादी; और नगदी इल्ने रुपे दिला दिये. बुढेका, रोगिष्टका, नपुंशकका कै Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानकल्पतरू. सी युक्तीसे लग्न करादिया, अब वो दोनो भलाइ ताबे उम्मर रोवो. अपना तो मतलब हो गया. ऐसेही गाय अश्वादी पशूवोंकों, तोता मैनादी पक्षीकी, खेत, बाग, बावडीयादीकी, झूटी परसंस्या कर, प्रपंच रच, रुपका प्रावृत (पलटा)कर. बुरेके अच्छे बनाकर, ज्यादा कीमत उपजावे, और खुशी होवे, तैसे पुराने वस्त्रोंको, रंगादी प्रयोगसे नवे बना, खोटे भुषणोंको सच्चे बना, या अच्छा माल बताके खोटा दे, हर्ष मानें, कोइ विश्वाससे अपने स्वजन मित्रको गुप्त धन भूषण थापन रख गया होय, उसे दबा रक्खे मालकको न दे. ऐसेही झूटी गवाइयों खडीकर झूटे खत (रुके) बनाके गृह धनादिकका हरण कर खुशी होवें. ऐसे अनेक वेपारके कामोमें, दगाबाजी करे, परपंच रचके दूसरेको छलनेका विचार करे सो मृषानुवन्ध रौद्रध्यान. अपना मन माना मिथ्या पंथ चलाने वितराग कथित शास्त्रको छोड. अनेक कल्पित (झूटे) ग्रन्थ, चरित्र. वगैरे बलाके; विचारे भोले जीवोंकों Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयशाखा-रौद्रध्यान. भरममें डाले, हिंशामार्ग बता; शुद्ध दया मार्ग छोडा, मनमें आनंद माने, की- मेंने इत्ने ग्राम, इत्ने मनुष्य, मेरे बनाये. ऐसेही, ज्ञानवंत, आचारवंत, शुद्व जिनेश्वरके मार्गके परुपक, क्षमासील, ब्रम्हचारी वगैरे धर्म दीपकोंकी, महीमां सुणके इर्षा लावे; और उनका अपमान करनें, उनके सिर झूटा कलंक चडावे, निंदाकरे; और अपनी झूटी बातको दूसरे मान्य करते देख हर्ष मानें. कन्यादान, ऋतुदान, ठेहराके कुलीन स्त्रीयोंको भृष्ट करे. धर्म निमित हिंशामें दोष नहीं ऐसा ठहरावे. ब्रम्हचारी नाम धरा, बिभचार सेवन करे, और महातमा वगैरे नामसे बोलाते आनंद माने, सो भी मृषानुबन्ध रौद्रध्यान. मनहरः-सजनको देखकर दुर्जन करत कोप, ब्रम्हचारी देखकामी कोप करे मनमें. निशके जगैया ताको देख कोप करे चोर, धर्मवंत देख पापी झाल उठे तनमें; सुरवीर देखकर, कायरकरत कोप; कवीयोंको देख मुढ हांसी करे जनमें. धनके धनीकों देख निर्धन कोप करे, विनाही निमित खाक डारेतिहूं पनमें: Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानकल्पतरू. बधीर (बैरे) अन्धे, लंगडे, आदी अपंगको; कुष्टादी रोगिको, निर्बंधी, इत्यादिकी हांसी करे, इन्हे चिडावे, चिडते देख मजा माने. जुवा तास (पत्ते). शतरंज, वगैरे ख्यालोंमें, सहजही झट बोलाता हैं. निकम्में विवादमें, प्रवादीयोंको दगासे छलनेमें, झूटे पेंच रचने में, हस्त चालाकीसे,या इन्द्रजालसें, अनेक कौतुक बतानेमें, मंत्र जंत्रादीका आडंबर बडा, आपनी प्रतिष्टा (महिमा)सुण खुश होवे. शास्त्रार्थ करते (वाख्यान देते) अपने मरम (हर्ज) की बातकों छिपावे, अर्थको फिरावें, अनर्थ करे. झूटे गप्पेसें प्रपदाकों रीजाके, आनंद माने. दया, सत्य, सीलादी गुण रहित शास्त्र हैं, जिनमें फक्त संग्राम झगडे,या लीला, कि तुहल, की कथा होवें, उन्हे श्रवण कर आनंद माने. इत्यादि सर्व मृषानुबन्ध रौद्रध्यान समजना. मृषानुबन्धका अर्थ तो बहुतही होता हैं; परंतु सागंस इनाही है की झूटे काममे अनंद माने उसहीका नाम मृषानुबन्ध रौद्रध्यान जाणता. - सो रंज करनेवाली. Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 39SON द्वितीयशाखा-रौद्रध्यान. ३५ तृतीय पत्र-“तस्करानुबन्ध”. ३ “तस्करानुबन्ध रौद्रध्यान” सोSH यच्चौर्याय शरीरिणा महरहश्चिन्ता समुत्पद्यते, कृत्वा चौर्यमपिप्रमोदमतुलं कुर्वन्तियत्संततम्; चौर्येणापि हतेपरैः परधने यज्जायते संभ्रमस्तच्चौर्यप्रभवंवदन्ति निपुणा रौद्रंसुनिन्दास्पदम् ज्ञानार्णव. अर्थ-चोरी करनेकी सदा चिन्ता रहे; चोरी करके अति हर्ष माने; अन्यके पास चोरी करा, लाभकी प्राप्ती हुइ देख, खुशी होवे; चोरी कर्ममें, कला कौशल्यता बतानेवालेकी प्रसंस्या करे; इत्यादि विचार करे सो तस्करानुबन्ध रौद्रध्यान अति निंदनिय हैं. ___ जीव तृष्णा रूप विक्राल जालमें फसे हुये, सर्व जगतकी अन्न, धन्न, लक्ष्मी, कुटंब की ऐश्वर्यता (मालकी) किये चहाते हैं, परंतु इत्ने पुंन्य करके नहीं लाये की, सर्वाधीपती बने? और अमादी (आलसी) ओंसे मेहनत करके, द्रव्योपारजन करना तो बने नहीं, तब सीधा द्रव्य मिलाके इच्छा त्रप्त करने, पापोदय से उनकों चोरी सिवाय, दूसरा उपायही कोनसा दिखे, इस हेतूसे, वो चौरीयानुबन्ध रौद्र ध्यानमें चडते हैं, Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानकल्पतरू. विचार करते हैं की घटासे अच्छादित अभ्रयुक्त अन्धारी रात्रीमें, ऋष्ण वस्त्र धारण कर, गुप्तपने जा, क्षात्रदे, द्रव्य लादूंगा. क्या मगदूरहै कोइ सामने आय, मैं शस्त्र कलामें ऐसा प्रवीन हूं की-एक झटकेमें, बहुतोंके बटके (टुकडे).ऐसा सटकु की किसकी माने दूध पिलाया हैं, जो मुजे पकडे. में अनेक विद्याका जानहूं, सबको निद्रा ग्रस्त कर सक्ता हूं. बडे २ जंजीर और तालोंको एक कंकरीसे तोड सक्ता हूं. शैन्यको स्थंभन कर सक्ता हूं. अंजन सिद्विसे पाताल का निध्यान,गुप्तद्रव्य, और अंधकारने प्रकाश तुल्य देख सक्ताहूं- इत्यादि अनेक कलाका धरनहार में हूं. क्या मगदूर कोइ मेंरी बरोबरी कर सके. हजारों सुभट मेरे हुकममें हैं, वो भी मेरे जैसे कलामें पूर, और सूर वीर हैं. मेने बडे २ नरेंद्रोको धुजादीये हैं. अब मे थोडेही कालमें, इश्वरो (मालकों) का संहार कर, सर्व ऋधिसिद्धीका श्वामी बन, निश्चित मजा भोगदूंगा. अमुक स्त्री महा रुपवंत हैं, उसकाभी हरण कर. अमुक भूषण, वस्त्र, पाल, पशु. मनुष्य, इन सर्व उत्तम पदार्थोंको, मेरे स्वाधीन कर, उनके उपभोगसे मेरी आत्मा त्रप्त करूं, इत्यादि विचार अंतःकरणमें होवे सो तस्करनुबन्ध Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयशाखा-रौद्रध्यान. . ३७ रौद्रध्यान. ऐसेही किनेक नामधारी साहुकार, लोकोकों सेठाइ बताने, उत्तम २ वस्त्र, भूषण, तिलक-छापे, माला, कंठी, से शरीर विभुषित कर, माला फिराते, बड़े धर्मात्मा बन, ऊंची २ गादी तकीयोंके टेके, दुकान पे विराजमान होते हैं. शीकार आइ के माला हलाते, भगवानका नाम उच्चार ते, मीठे २ बोल. उस भोलेकों, पान बीडी आंदी के लालच से भरमा के, ऐसी हुस्यारी से ठगाइ चलाते हैं, की क्या मगदूर कोइ समझतो जाय, मोलमें, बोलमें, तोलमें, मापमें, छापमें, जवावमें ठगाइ चला, वस पहोंचे वहां तक उसे लूटनेमें कसर नहीं रखते हैं. और विश्वास उपजानें गायकी, बच्चेकी तथा भगवानकी, दमडी २ के वास्ते कसम (सोगन) खाजाते हैं, इच्छित लाभ हुये बड़े खुशी होते हैं. अच्छा माल बता खोटा देते हैं, अच्छा बुरा भेला कर देते हैं, हिसाबमें, व्याजमें, उनका घर डुबो देते हैं. ऐसे २ अनेक चोरी कर्म भर बजार में कर साहुकार कहलातें हैं. अपनें चालाकीको हुस्यारी समज बडा हर्ष मानते हैं, सोभी चोरीयानुबन्ध रौद्रध्यान. Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान कल्पतरू ऐसेही किनेक साधूओंका, शरीर दुर्बल देख कोइ पूछे महाराज आप तपस्वी हो, तब तपस्वी न होने परही कहे की हां! साधू तो सदा तपस्वी होतें हैं, सो तपका चोर. ऐसेही शुद्धाचारविन, मलीन, वस्त्रादी धारण कर, आचार वंत बजे, श्वेत बाल होनेसे स्थैवर (बुध) बजे, रूपवंत हो राजऋधी त्यागनेवाला बजे, क्रूर प्रणामी होके, दांभिक पणेसे, वैरागी बजे वगैरे धर्म ठगाइ कर, आनंद माने सोभी तस्करानुबन्ध रौद्रध्यान. ३८ किसीके मकान, बगीचा, धर्मशाला, वस्त्र, भू षण, बरतन, भोजन, पाणी, अन्न, फल पुष्पादी, त्रण कंकर जैसा निर्माल्य पदार्थ भी उसके मालककी आज्ञा विन, देखके, स्पर्शके, या भोगवके, आनंद माने सोभी चौर्यानुबन्ध रौद्रध्यान.: जो जो अन्य पदार्थ सुणने में, देखनेमें, व जानें में आवे, उनको ग्रहण करनेंकी, अपनें ताबें करनें 1 : • तव तेणे वय तेणे, रुवे तेणेय जे नरा; आयार भाव तेणेय, कुत्र देवेइ किंविसा १ अर्थ आचारका, वृतका, रूपका, तपका, भाव का चीर, मरके, किलविषी (देवमें चंडाल जैसे) देव होतें है. Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयशाखा-रौद्रध्यान. की भोगवणे की अभीलाषा होवे, वोही तस्करानुबन्ध तीसरा रौद्रध्यान. - चोर चोरी करके वस्तु लाया, उसको सस्ते भावमें लेके मजा माने, चोर को साहाय देवे. खान पान वस्त्रादी से साता उपजा, उनके पास चोरी करावे, और माल आप लेके आनंद माने, राजका दाण (हांसल) चोरा के खुशी होवे, जिस वस्तु बेंचनें की, अपनें राज में राजाने मनाकी होय, उसे गुप्त लाके बेंचे, और खुश होवे, इत्यादी तस्करानुबन्ध रौद्रध्यान के, अनेक भेद है.सबका मतलब इनाही है के मालककी रजा(आज्ञा) विन, या उसके मन बिन, जब्बर दस्तीकर जो वस्तू पे अपनी मालकी जमाके आनंद माने; सोही तस्करानुबन्ध रौद्रध्यान. चतुर्थ पत्र “संरक्षण” ... .. ४ “विषय संरक्षण रौद्रध्यान-इस् जगत्में सब जीव पापीही पापी है, ऐसाभी नही. समजनाः तथा सब पुन्यात्मा हैं, ऐसा भी नही समजना. सर्व संसारी जीवोंके पुण्य ओर पाप दोनों आनादी से लगे हैं. पापकी वृधी होनेसे, दुःख की विशेषता, और पुण्यकी. वृधी होनेसे, सुखकी विशेषता होती हैं; ज्यादा होता Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानकल्पतरू. हैं सोही दृष्टी आता हैं; तो भी उसका प्रतिपक्षी गुप्त वनाही रहता हैं. जिनके पुण्यकी अधिकता होतीहै, उनको सुख दाइ मनयोग, सामग्रीयोंका संयोग मिलता है;वों उसका वियोग कदापी नहीं चहातें है. (यह वर्णव आर्त ध्यानके दूसरे भेदमें हो गया है) परंतु वस्तुका खभावही “अध्रुव असा सयंमी” अर्थात् अध्रुव, अशाश्वतः क्षिण-भांगूर हैं. “समय ३ अनंत हानी" भगवंतने फरमाइ, सो सत्य हैं. वस्तुका स्वभाव क्षिण २में पलटता २, किसी वक्त वो सर्व वस्तु नष्ट होजाती हैं; उसे नष्ट न होने देने-अर्थात् बचानेके जो उपाय कियाजाय, उसीका नाम विषय संरक्षण रौद्रध्यान हैं. राज लक्ष्मी प्राप्त होनेसे, विचार होयकी रखे मेरे राज्यको, कोइ परचक्रीयादी हरण करे. इस लिये अव्वलही बंदोबस्त करे, चतुरगणी शैन्य (हाथी, घोडे, रथ, पायदल) उमदा २ प्राक्रमीयोंका संग्रह करूं, धोकेके स्थान छावणी डालू, उद्धतोके संहारका उपाय चिंतवे, शाके राजमें मनुष्य रख खबर लेता रहूं. उमरावादी को इनाम इकरामसे संतुष्ठ रखू की वक्त में जान झोंकदे. पुक्त, पुस्ती, उंडी,खाई,शत्पनीयादी Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयशाखा - रौद्रध्यान. शस्त्र युक्त उंच बुरजो, पक्का किल्ला बनावूं. धनुष्य बाण खड्गादी, अनेक शस्त्र, वक्तरोंका, संग्रह कर रख्खू, धनुवेदादी शिक्षा ग्रहण कर, ग्राम विद्यामें प्रवीन बनूकसरत, और औषधीयादीके सेवनसे, सरीरको पुष्ट महनती रखूं की, वक्तपे हारूं नही. इत्यादि उपायोंसे राज्य रक्षणकी चिंतवणा करे, सो भी विषय संरक्षण रौद्रध्यान. ४१ द्रव्यको जर्मनीयादीकी तीजोरीयोंमे रक्खू, जिस्से अग्नी, चोरादिकका उपद्रव न पहोंचे. मेला गेहला रहूं, की जिससे कुटंब चोरादी धन हरने पीछे न लगे, किसीके साथ मोहब्बत न करूं की, बक्तपें किसीकी प्रार्थनाका भंग करना नही पडे, संकोचसे थोडेही खरच में गुजरान चलावू. हलकी वस्तु वापरुं, इत्यादि उपायसे द्रव्यका रक्षण करूं, और स्त्रीयोंको पडदेमें रखूं, खो जाओंका प्रहरा, खान पान वस्त्र भुषणकी मर्यादा, कमी भाषण, और अपनी तर्फसे उन्हे संतोष उपजाके रखू. की - जिससे वो अन्यकी इच्छा न करे, स्वजन मिलोंको खान, पान, वस्त्र, भुषण, स्थान, सन्मानसे संतोखूं की, जिससे वो वक्त पूरा काम देवे, मकानको सुधराइ सफाइसे रखूं की पडे नही. इत्यादी प्रका Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानकल्पतरू. रसे संपती संततीके रक्षणका विचार करे, सो भी विषय संरक्षण रौद्रध्यान. ऐसेही येह मेरा सरीर, रत्नोंके करंडीये से भी अधिक प्रियकारी है, इसको. शीत उष्ण वर्षातुमें, यथा योग्य वस्त्र, आहार, पाणी, मकान, से सुख देवू, दंश, मच्छर, वगैरे क्षुद्र प्राणीयोंके भक्षणसे बचावू शत्रओंसे रक्षण करने, शस्त्र सुभटोका बंदोबस्त करूं क्षुद्याको इच्छित भोजनसे, त्रषाको शीतोदकसे, वात, पितादी रोगको औषधोपचारसे, मंत्रादीसें- विलादीके उपसर्गसे रक्षण कर, इस सरीरको अखंड सुखी रखू. ऐसा विचार करे.तथा अपना गौरवर्ण-स्तेज (दमकदार) पुष्ट शरीर देख, खुशी होवे; और अभक्षादीसे पोषण करनेकी इच्छा करे.ओर शरीरके, स्वजन संम्बन्धीयोंके संपतीके नाश करनेवाले जो हैं, उनपे द्रुष्ट प्रणाम लावे, उन्हे-देख क्रोधातूर हो जावें, उनके नाशके लिये अ. नेक उपायोंकी योजना (विचारना) करे. और अपना शरीर धन वगैरे दूसरेके ताबेमें होय, उनको स्वतंत्र. करने अनेक कूयुक्तीयोंका जो विचार होवे. ये सब, विषय संरक्षण नामे रौद्रध्यान समजना. ऐसे इस ध्यानके अनेक भेद हैं. परंतु सबका Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयशाखा-रौद्रध्यान. ४३ तात्पर्य यह है की इस ध्यानमें विशेष कर. अपणा स्वरक्षण और अन्यको परिताप उपजानेका विचार बनारहै. इसलिये इसे रौद्र (भयंकर) ध्यान कहा हैं. द्वितीय प्रतिशाखा-“रौद्रध्यानीके लक्षण" Serecess रोदस्सणं झाणस्स चत्रारि लरकणा पन्नं * ता तंज्जहा, उसणदोसे, बहुलदोसे, अ णाणदोसे, अमरणांतदोसे. अर्थम्-रौद्रध्यानीके ४ लक्षण, १हिंशादी पापोंका विचार करे, २विशेष (अखंड) विचार करे. ३अज्ञमनीयोंके शास्त्रका अभ्यास करे. ४मृत्यू होवे वहां लग पापका पश्चाताप करे नहीं. - सैद्र-भयंकरही जिस ध्यानका नाम, उसका विचार, कृतव्य, और स्वरुप भयंकर होवे, यह तो स्वभाविक हैं. विचार मगजमें रमण कर अकृती धारण कर, उसही कार्यमें प्रवृतने शरीरकी प्रेरना करताहैं. रौद्र ध्यान (विचार) होनेसे, रौद्र कार्यके विषयमें जो प्रवृती होती हैं. उसके मुख्य चार भेद भगवानने फरमायें हैं. Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ - ध्यानकल्पतरू. प्रथम पत्र-“उषण दोष.” १उषण दोष, सो हिंशा, झूट, चोरी, और विषय संरक्षण, इन ४हीकी पोषणताके लिये, जो जो काम करे सो उषण दोष. जैसें-हिंशाकी पोषणता (वृधी) करने. अनेक, पावडे, कोदली, खुर, वगैरे पृथवीको खोदने फोडनेके शास्त्रका संयोग मिलावे. अधूरे होय तो हाथालगा, धार सुधरा पूरे करावें, और पृथ्वी छेदन भेदनके आरंभमें उन्हे लगावे. एही पाणीके आरंभकी बृधीके लिये चडस, रहेंट, मशक या घडा, क लशा, वगैरे वृतनो. कूवा,वावडी,तलाव,नल,फुवारे,होद, आदी स्थान बणवाके पाणीका आरंभ करे करावे, अग्नीके लिये चूले, भट्टी, दीवे, चिलमो, आतसबाजी, वगैरे करावे औरको उस काममें लगावे. हवाके आरंभके लिये, पंखी, पंखा, बाजिंत्र, वगैरे. हरीके आरंभकेलिये बाग, बगीचे, वाडी, इत्यादि लगावे. या पत्र पुष्प फल, त्रणादीका छेदन, भेदन, पचन, पाचन. भक्षण, करे करावे, त्रसके आरंभकेलिये धूम्रदिक प्रयोगसे मच्छर डांस,षटमल आदीकोमारे जाल फासासे जलचर,वनचर, खेचर आदीको कब्जे करे. तरवार भालादी शस्त्रसे छेदन भेदन ताडन तर्जन करे. मनुष्य पस्यूको कठिण Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयशाखा-रौद्रध्यान. ४५ (घाव पडजाय) ऐसे बंधनसे बांधे, कठोर प्रहार करे अहार पाणीकी अंतराय देवे. अंगोपांग छेदन भेदन करे. सत्ता उप्रांत काम लेवे. मेहनत करावे. सदा निर्दय होके, अयत्नासे एकांत स्वार्थ साधने, या विना, कारण अन्यकों संताप उपजाने, वरोक्तादी जो जो कृतव्य करे, उसे रौद्र ध्यानी समजणा ऐसेही-झूटका पोषण करने अनेक पाप शास्त्रकाम शास्त्र, कांदम्बरी, पठन करे; झूटे झगडे जीतने अनेक चालाकोंकी संगत, व कायदे-कानूनोंका अभ्यास, करे, झूटे ख्याल कविता बनावे, चकार, मकारादी गालीका उच्चार करे; विभत्स (अयोग्य) शब्द बोले, निडर, निर्लज होके प्रवृते. ऐसेही चोरीकी पुष्टीके, लिये, चोरोंके शस्त्र; कोश, कुदाल, गुप्ती, वगैरे संग्रह करे, चोरी कलाका अभ्यास करे. गोआदि जानवर पाले, चोरोंकी संगतमें रहै, धाडापाडे, चालाकीसे अन्यका माल हरण करे, और विषय संरक्षणके पोषणकेलिये, श्रोतेंद्रीके पोषणके लिये मृदंगादी बणाने जीवते पशूवोंका चर्म (चमडा) निकलावे. सारंगीयादी बनाने. गवादीकी आंतो (नशो) तोडावे, चक्षू इंद्रीके पोषण को अंगार, समुग्री, सजाने, सुवर्ण रत्नोंके अनेक Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ ध्यानकल्पतरू. आगरों (खदानो) मोतीयोंके लिये, बेंद्री सीपोंको चिरावे, सण, कापासादी, पिलाये, कतावे, गिरनीयादी द्वारा वस्त्रादी बनवावे, अनेक श्रंगारसजे, या स्त्रीयादी को श्रंगारके उनके नाटक ख्यालादी देखे. बगीचादी लगावें. घणेंद्रीके पोषणे, यंत्रादी प्रयोगसे अत्रादी निकला वे पुष्पादी सुगंधी द्रव्यका सेवन करे, पुष्पवटिकादी बनाके उपभोगलेवे, रसेंद्री पोषणे, मंदिरा, मंस, भोगवें. कंद, मूल, आदी अभक्ष खावे, पोष्टिक उन्मादिक वस्तुका सेवन करे, रसायन भस्मादी सेवन करे, वंदेजकी गुटिकादी सेवन कर महा कामी बने, स्पर्शादी के पोषणे, अनेक पुष्पादी सेजका सयन, उत्तम वस्त्र भुषणोसे शृंगार सज, हार, तुर्ररे, अंतर, पुष्पादीसे सरीर सज, चंचूं करती पगरखीयों पहर, अकड मकड चले, वैस्यादी नृत्यमें अगवानी भागले. गान तानमें गुलतान बन तान तोडे. मशगुल बन जावे, कामके चौरासी असनोकी तसवीरों का वारंवार अवलोकन करे, इत्यादि तरह पचेंद्रीके पोषणके लिये जो उपायोंकी योजना करे, उसे उसन दोष नामें रौद्रध्यानी समजना. द्वितीय पत्र- "बहुल दोष.” " बहुल दोष" सो. वरोक्त इन्ही कामोंको Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयशाखा-रौद्रध्यान ४७ विशेष करे अर्थात ज्यों ज्यों करे त्यों त्यों ज्यादा २ इच्छा बडती जाय. और इच्छा को त्रप्त करन अधिक २कर्ताजाय, परंतु प्रती आय ही नहीं, उसे बऊल दोष कहना. तृतीय पत्र-“अज्ञान दोष.” .. __ ३ “अणाण दोष” सो- रौद्रध्यानका खभावहीं है, के वो उत्पन्न होता तर्त सज्ञानका नाशकर, जीवको अज्ञानी मुढबना देता हैं. सूकार्यसे प्रिती उतार, कुकार्यमें संलग्न कर (जोड) देता हैं. सत्सान श्रवण, सत्संगमें अप्रिती अरुची होती है, और २९ पाप सूत्रोंके अभ्यासमें प्रिती होवें. विषयमें प्रवृति करावे, ऐसी कवीता, कल्पित ग्रंथो, कोकशास्त्र, वगैरे पढे सुणे, और कूशास्त्रकी, जिसमें हिशा झूट, चोरी, मैथुन, वगैरे पाप सेवनमें निर्दोषता बताइ होय; उनका तथा वसीकरण,उचाटन,अकर्षण,स्थंभनादी विद्याका अभ्यास करे गालीयों गावे, ठठा, मस्करी करे. पुरुषोंको स्त्रीयोंके वस्त्र भुषण पेहरायके,नृत्य,गान,कुचेष्टा करावे; दयामय उत्तम * २९ पापसूत्र-१मूमीकंप, २ उत्पात, ३स्वपन, ४अंगफरकनेका, १ उलका पातका, ७पक्षीयोंके श्वरका [कोक] ७व्यंजन तिलमसका, (लक्षणासामुद्रिक, इन र के अर्थ-पाट, और कथायों ८:=२४ और २५ कामकथा, २६ विद्या रोहणायादी २७मंत्र, २८तंत्र, २९अन्यमतीके आचारके. Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ . ध्यानकल्पतरू. " धर्मको त्याग,हिंशाधर्ममें राचे,कामी,कपटी,लोभी,कन्क कन्ता धारी, स्त्रीके भोगी, धूप पुष्प अतर अबीरादी की सुगंधमें मस्त रहने वाले, सचित अहारी या मांस मदीरा भोगवने वाले, रंगीबेरंगी वस्त्रो और भूषणासे सरीरको अंगारने वाले, रुष्ट हुये नाश करे, और तुष्ट हुये इच्छा पुरे, ऐसे राग द्वेषसे भरे हुये; इत्यादी अनेक दुर्गुण धारीको देव गुरु जानकै माने पूजे, भक्ती करे. त्यागी, वैरागी, शांत, दांत, वितरागी देव गुरुका त्याग करे. अपमान करे, इन्द्रीयों और कषायकी पोषणतामें धर्म और आत्माका कल्याण समजे, सच्चे कामोपर अरुची, और कूकामो पर रुची जगे, ये सब अणाण दोष (अज्ञान दोष) नामे रौद्रध्यानीके लक्षण जाणना. चतुर्थ पत्र “अमरणांत दोष” ४ “ अमरणांत दोष सो"-रौद्रध्यानीका वज़ जैसा कठिण हृदय होता है, दुसरेके सुख दुःखकी उसे बिलकुलही दरकार नहीं रहती है, वो फक्त आपनाही सुख चहाता है; अपनेंसे अधिक दूसरेको देख दुःखी. होवे, और उसके यश सुख का नाश करने अनेक उपाय करे. निर्दयता कर प्रणामसे त्रस थावरका वध (घात) Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयशाखा-रौद्रध्यान. ४९ करे. उनको त्रासते तडफते देख खुशी होवे.. ज्यादा २ संताप उपजावे. निडर नियूर, पाप-अकार्य करता बिलकूल अवकाय नहीं, झूट बोलता डरे नहीं, चोरीसे हटे नहीं. भैथुन क्रियामें अती आशक्त (लुब्ध) परिग्रहकी अत्यंत मुर्छा, क्रोध, मान, माया लोभ, की अति प्रबलता. राग द्वेषका घर. महा क्लेशी, चुगलखोर, गुणीके गुणका ढांकनेवाला. उनके सिर खोटा आल (बज्जा) देनेवाला, अपनी वस्तुपे अत्यंत प्रेमी दूसरेकी वस्तुका अत्यंत द्वेषी, दगाबाज, उपर मीठा और मनमें चीठा. कुगुरु, कुदेव, कुधर्मपे श्रधा, प्रतीत, आसता रखनेवाला; इत्यादि अष्टादश (१८) पापमें, अनुरक्त, धर्मका नाम मात्र अच्छा नहींलगे, मृत्युके बीछोनेपे पडा (मृत्यु नजीक आयेपर) भी, अपने किये हुये कर्मका बिलकुलही पश्चाताप नहीं होवे, ऐसा कठोर, घर कुटंबमेंही अत्यंत लुब्ध, ऐलेभावसहीत प्राण छोड (मरके) अन्यगतीमें सिधावे सो अमरणांत दोष नामे लक्षण जाणने. - "रौद्रध्यानके पुष्प और फल" रौद्रध्यानीके सदा कर प्रणाम रहते हैं. मद, मत्सरसे पूर्ण हय भरा होता हैं. अहो निश पापिष्ट . Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० ध्यानकल्पतरू. विचारही मनमें रमण करता हैं, जिससे बज्र कर्मोंका बंध सदा होताही रहता हैं. इसकी आतमासें धर्म कर्म बिलकुल नहीं बनता है. जो देखा देख किया भी तो, कर प्रकृतीके सबबसे उसका अच्छा फल नष्ट होजाता हैं. हाथमें कुछ नहीं आता हैं, अर्थात् डसके विचारसे कुछ होता नहीं हैं. होण हार होतब तो हुबाही रहता है. परंतु उसके मलीन प्रणामसे उसके कर्मों का बन्ध अवस्य पडता है. और उन कनिष्ट कर्मोंका बदला देने, रौद्रध्यानीकी नर्क गती होती हैं. वहां यहां के किये हुये कर्मोंके फल भुक्तता हैं ! परमाधामी (यम) देव, हिंशा करनेवालेकों, जैसी तरह उसने हिंशा करी होय, वैसेही वो मारते हैं. अर्थात् काटनेवाले को काटते हैं. छेदनेवालेका छेदन भेदन करते हैं. सी कारीका तीरोसे सरीर भेदते हैं. सिंह सर्पा, बिच्छू, कीड़े, मच्छर मच्छर वगैर जीवोंके घातकका, क्षूद्र जी. वोंके जैसा रूप धारण कर, उसे चीर फाड खाते हैं. मांस भक्षीको उसका मांस तोडके खिलाते हैं. मंदिरा पानीको, उकलता २ सीसा, तरूवा, तांबा पिलाते हैं. विषय लुब्धीको, अन मय लोह पुतलीके साथ संभोग कराते हैं. रागीणीयोंके रसयिके कान, रुप लुब्धकी आंख गंध निकासीका का जिया कोळपी की जीभ्याका क्षूद्र Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयशाखा-रौद्रध्यान ५१ छेदन भेदन करते हैं. ताते खारे पाणीसें भरी हुइ बेतरणी' नदीमे न्हलाते हैं. तरवारकी धारसेभी अती तिक्षण पत्र बाले सामली वृक्ष, तले बेठाके हवा चलाते हैं. कुंभी पाकमें पचाते हैं. कसाइयोंकी तरह सरीरके तिल २ जिले टूकडे करते हैं. इत्यादि कर्म उदय आते है. तब सागरो बंध तक रो २ के दुःख भोगवते है. छूटने मुशकल होजाते है. ऐसा ये रोद्रध्यान दोनो भवमें रौद्र (भयंकर) दुःख दाता जाणना. रौद्रध्यनीके बऊदा कृष्ण लेस्या मय प्रणाम रहते है. ये हिंशा, झूट, चोरी; मैथुन, परिग्रह ये पंच आश्रव. तथा मिथ्यात्व, अवृत, प्रमाद, कषाय, असुभ जोग ये पंच अश्रव, का सेवने वाला, ज्यूंने कर्मके फल भोगवता अशुद्ध प्रणामके योग्य से पीछा वैसेही कर्मोका बंध करता है. यों भवांतरकी श्रेणी में परिभ्रमण कि. याही करता है. रौद्रध्यानीका संसारसे छुटका होना बहुतही मुशकिल है. अनंत संसार रुलता है. इस लिये ये रौद्रध्यान 'हेय' त्यागने योग्य हैं. * चार कोशका उंडा और चौरस कुबमै, देव कुरुक्षेत्रके जु. गलीयोंके बाल अंसमे डालनही खटके ऐगे, वारीक करके ठसो उस भरे और सोसो वर्षमे एक रज निकालते वो सारे चाली होजावे, उसे वर्षका एक पल्योपम होता है. और दशकोडा कोडीकुवे खाली हावे. उवर्षका एक सणरोपम होता, Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ ध्यानकल्पतरू. 66 'दोनो समुचय यह आते और रौद्रध्यान, अष्टादश पापसे भरे हुर्वे, महा मलीन, सतपुरुषोंके निंदनिय ग्रहनिय, अनाचरणिय है. यह दोनो ध्यान बिना अभ्यास पूर्व कमौदयसे स्वभाविकही उत्पन्न होते हैं; और कर्मोकी प्रबलता रहती है वहांतक, निरंत्र हृदय में रमण करते रहते हैं. उच्चस्थान प्राप्त हुये बडे २ ज्ञानी ध्यानी, तपी, संयमी, मुनीको यह प्राप्त होके, एक क्षिणमें पाताल गामी बणादेते हैं. ऐसे ये प्रबल है; मोक्षमार्ग मे आर्गल ( भागल) समान आडे आके अटकाने वाले है, सद्वर्तीका नाश करनेवाले है. कलंक जैसे काले, काम जैसे विषारी, पापवृक्षके बीज है. अन्य द्रव्यादिकका छोडना सहज है, परंतु इनसे बचना बहुनही मु शकील है. इनका प्राजय (नाश) तो एक प्रबल प्रतापी महा मुनीराज करके, अनंत अक्षय अ-याबाध मोक्षके मुख प्राप्त करते हैं. י, "" परम पुज्य श्री कहानजी ऋषिजी महाराजके सम्प्रदायके बाल ब्रह्मचारी मुनी श्री अमोलख ऋषिजी रचित "ध्यान कल्पतरू १. ग्रंथका द्वितीयशाखा रौद्रध्यान नामे समाप्तं. Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपशाखा-शुभध्यान TANDIAN . Time . . ००० उपशाखा-शुभध्यान. -- --- मोक्ष कर्म क्षया देव, ससम्यग्ज्ञानतः स्मृतः ध्यान साध्यं मतं तद्धि, तस्मात द्वितमात्मनः अस्यर्थम्-मोक्ष कर्भके क्षय होनेसे होता है. कर्मक्षय सम्यक ज्ञानसे होते हैं, और सम्यक ज्ञान शुभ ध्यानसे होता है; सइ लिये मुमक्षुओंको ध्यानही आत्म कल्याणका हेतू हैं. . प्रथम शाखा-"ध्यानमूल.” .. .. इस जगत्में दो बातों अनादीसें चली आती है; १अच्छी, और दूसरी उसके प्रतिपक्षकी बुरी (खराब) एकेकसे एकेककी पहचान होती है. जैसे रात्रीसे दिनकी, और दिनसे रात्रीकी; शीतसे उष्णकी और उष्णसे शीतकी; आचारीसे बिभचारीकी, और बिभ. चारीसे आचारीकी इत्यादी. सर्व पदार्थों के गुणकी परिक्षा कर, दशवैकालिकजी सूत्रके फरमाणे मुजब Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ marwa ५४ ध्यानकल्पतरू. अच्छा मालम पडे उसेही अङ्गीकार करे, स्विकारे. अशुभ ध्यानमें प्रवृती तो बिना प्रयास स्वमाविक रीतसेही होती हैं. क्यों कि उसका अनादी सम्बंध है. परंतु शुभध्यानमें प्रवृती होनी बहुतही मुशकिल हैं. क्यों कि कोइभी शुभ कार्य सहजमें नहीं बनता हैं, शुभ ध्यानके लिये अब्बल सम्यक्त्वकी जरूर है, क्यों कि सम्यक्त्वी ही शुभ ध्यानमें प्रवेश क. रने स्मर्थ होते हैं. इस लिये अव्वल ह्यां सम्क्त्वकी दुर्लभता बतातें हैं. सम्यग दर्शन उपजता हैं सो, अनादी वासादी मिथ्यात्वीके उपयता है. परन्तु सज्ञी-पर्याप्ता-मंदकषाइ भव्य-गुण दोषके विचारयुक्त सकार उपयोगी (ज्ञानी) और जग्रत अवस्था बाला; इन गुणयुक्तको सम्यक दर्शनकी प्राप्ती होती हैं; परं इनसे उल्ट, असज्ञी अप्रर्याता तीब्रकषायी अभव्य दर्शना उपयोगी, मोह निद्रासे अचेत और समुर्छिम, इनकों नहीं उपजता हैं; और पंचमी करण लब्धी भी जो उत्कृष्ट करण लब्धी अनिवृती करण, उसके अंत समयमें प्रथम उपशम सम्यम्य प्रगट होता हैं. Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - उपशाखा-शुभ-यान. "पंचलाधी" १क्षयोपशमलब्धी, २ विशुद्धलब्धी, ३ देशना लब्धी, ४प्रयोग लब्धी, और पमी करण लब्धी, इन पंच लब्धीयोंकी यथाक्रम प्राप्ती होणेंसेही, सम्यक दर्शनकी प्राप्ती होती हैं. चार लब्धी तो कदाचित भव्य तथा अभव्य के भी होती हैं. परन्तु करण लब्धी तो जो सम्यक्त्व और चारित्र को अवस्य प्राप्त होने वाले हैं उन्हेही होवेंगा. . अब "पंचलब्धीका स्वरूप” बतातें हैं १ जिस वक्त ऐसा जोग बनें की, जो ज्ञानावर्णियादिक अष्ट कर्मकी सर्व अप्रसस्त प्रकृतीकी शक्तीका जो अनुभाग, सो समय २ प्रते अनंत गुण कमी होता, अनुक्रमें उदय आवे; तब क्षयोपशम लब्धीकी प्राती होवे. २क्षयोपशम लब्धीके प्रभाव से जीवके साता वेदनिय आदी, शुभ-प्रक्रतीके बन्धका कारण, धर्मानुराग रूप, शुभ प्रणामकी प्राप्ती होय, सो दूसरी विशुद्ध लब्धी.* ३ छे द्रव्य नव पदार्थका श्वरूप, आचादिकके उपदेश से पेछाणे, सो देशना लब्धी.' * अशुभ कर्मोंका रमोदय बटन में क्लश प्रणाप की हानी होवे, तब विशुद्ध प्रणाम की वृद्धी स्वभावरी होती हैं. ___ + नर्कादी म्थानमें उपदेशक नहीं हैं वहां, पूर्व जन्मक धारे arबके संस्कार में मम्यम्त होता है. Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानकल्पतरू. यह तीन लब्धी कर संयुक्त जीव, समय २ विशुद्धता की वृधी कर, आयू विन सात कर्मकी, अंतः कोटा कोटी सागर मात्र स्थिती रहे; उस वक्त जो पूर्व स्थि ती थी, उसे एक कांडक घात (छेद) कर उस कांडके द्रव्यकी, शेष रही हुइ स्थिती, विशेष निक्षेपण करे, और घातिक कर्मका, अनुभाग (रस) सो काष्ट तथा लता रूप रहै, परं शैल (प्रवत) स्थिती रूप नहीं. औ र अघाती कर्मका अनुभाग, नींब या काँजी रूप रहे. परं हलाहल विष रूप नहीं. पूर्वे जो अनुभाग था उसे अनंत का भाग दे, बहुत भाग अनुभागका छेद, शेष रहा अनुभाग विषय प्राप्ती करें हैं. उस कार्य करनेकी योग्यताकी प्राप्ती, सो “प्रयोगता लब्धी* और भी संक्लेश प्रणाम, सज्ञी पन्द्रि पर्याप्ताके जो संभवै, ऐसे उत्कृष्ट स्थिती बन्ध, और उत्कृष्ट स्थिती अनुभाग का सत्व होतें, जीव के प्रथम उपसम सम्यक्त्व नहीं ग्रहण होवे हैं. तथा विशुद्ध क्षपक श्रेणी विषे संभव ते, ऐसा जघन्य स्थिती बन्ध, और जघन्य स्थिती अ. नुभाग प्रदेशका सत्व होतें भी सम्यक्त्व की प्राप्ती नही होवें, प्रथम उपशम सम्यक्त्व के सन्मुख हुवा जो * यह प्रयोगता लब्धी भव्य अभव्यके सामान्य होवे है. Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपशाखा-शुभध्यान ५७ मिथ्या द्रष्टी, सो विशुद्धताकी बृधी कर, वधता हुवा प्रयोग लब्धीके प्रथम समयसें लगाके, पूर्व स्थिती के संख्यातवे भाग मात्र, अंतः (एक) कोटा कोटी सागर प्रमाण, आयुष्य विन सात कर्मका स्थिती बन्ध करे है, उस अंतः कोटा कोटी सागर स्थिती बन्धके, पल्य के संख्यात वा भाग मात्र कमी होता, स्थिती बन्ध अंतर्मुहूर्त प्रयंत सामान्यता केलिये करे हैं। ऐसे क्रमसे संख्यात स्थिती बंधश्रेणि करप्रथक (७०० तथा ८००) सागर कम होवें हैं, तब दूसरा प्रकृती बन्धाय श्रेणिस्थान होवें, ऐसेही क्रमसें इत्ना स्थिती वन्ध कमी करते, एकेक स्थान होए. यों बन्धके ३४ *श्रेणी स्थान होते हैं. इससे लगाके प्रथम उपशम सम्यक्त्व तक बंध नहीं होवें, (ह्यांतक चौथी लब्धी) ५पांचमी करणलब्धी सो भव्य जीवकेही होती हैं, इसके ३ भेद-१ अधःकरण, २अपूर्व करण, ३अ निवृती करण'. इनमें अल्प अंतर महुर्त प्रमाणे काल तो, अनिवृतीकरण का है, इससे संख्यात गुणाकाल, अपूर्व करणका; और इससे संख्यात गुणाकाल, अधःप्रवृती करणका होता है, * इसका विशेष खुलासा लब्धी सार प्रन्यों है. + वरण कषाय की मंदता को कहते हैं. Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ ५८ उपशाखा-शुभध्यान. सो भी अंतर महुर्त प्रमाणे ही हैं. और भी इस अधः प्रवृती करण कालके विषय, अतीतादी त्रिकाल वृती अनेक जीव समंधी, इस करणकी विशुद्धतारूप प्रणाम असंख्यात लोक प्रमाणे हैं, वो प्रणाम अधः प्रवृती करणके, जित्ने समय हैं. उत्नेमें सामान बृधी लिये, समय २ में बृधी होते हैं, इससे इस करणके नीचेके समयके प्रणामकी संख्या और विशुद्धता, उप र के समय वर्ती किसी जीवके प्रणाम से मिलें हैं, इससे इसका नाम अधःप्रवृतीक है. इस अधः प्रवृति करण के चार आवश्यक-१समय २ प्रते अनंतगुण विशुद्धता की बृधी. २ स्थिती बन्ध श्रेणी, अर्थात् पहले जित्ने प्रमाण लिये कर्मका स्थिती बन्ध होताथा, उसे घटाय २ स्थिती बंध करे. ३ साता वेद निय आदी दे प्रसस्त कर्म प्रकृतीका समय २ अनंतगुण वृद्धी पाते; गुड, सक्कर, मिश्री और अमृत, समान चतुस्थान लिये अनुभाग वन्ध है. ५असाता वेदनीआदी अ. प्रसस्त कर्म प्रकृती, समय २ अनंतगुण कमी होती नीं ब, कांजी, समान द्धि स्थान लिये, अनुभाग बंध होता है, परन्तु हलाहल जैसा नहीं. यह ४ आवश्यक जाणनें. ..+ अंता पर्त के भेट असंख्य हैं. Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानकल्पतरू. ५९ ___२ अधः पृवृती करणका अंतर मुहुर्त काल व्य. तीत भये, दूसरा अपूर्व करण होता हैं. अधः करणके प्रणाम सें, अपूर्व करणके परिणाम असंख्यात लोक गुणें हैं, सो बहुत जीवोंकी अपेक्षा सें; परन्तु एक जी व की अपेक्षासें तो एक समय में एकही परिणाम होते है; और एक जीवकी अपेक्षालें तो, जित्ने अंतर महुर्त के समय है, उलेही होते हैं. ऐसेही अधःकरण के भी एक समय में एक परिणाम होवें है. और बहोत जीवकी अपेक्षासें असंख्य परिणाम जाणनें. अपूर्वकरणकभी परिणाम समय रसदश कर बृधमान होते हैं. इस अपूर्वकरणके परिणाममैं नीचे के समयके परिणाम तुल्य, उपरके समयके प्रणाम नहीं हैं. प्रथम समयकी उत्कृष्ट शुद्धतासे, द्वितीय समयकी जघन्य शुद्धता अनंत गुणी हैं. ऐसे परिणामका अपुर्व पणा हैं. इसलिये इसका अपूर्व करण नाम है. अपूर्व करणके पहले समय से लगाके अंतःसमय तक अपने जघन्यसे अपना उत्कृष्ट, और पूर्व सम यके उत्कृष्टसें उत्तर समय के जघन्य, यों कर्मके परिणाम अनंतगुणीविशुद्ध लिये, सर्पकी चालवत् जाणना. ह्यां अनुत्कृष्टी नहीं हैं. अपूर्व करणके पहले समयसे गाले नाaa ममा- कोळी 7 कोटी मा Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० ध्यानकल्पतरू : पूर्ण काल जो जिस कालमें गुण संक्रमण कर, मिथ्याव को सम्यक्त्व मोहनी, मिश्र मोहनी, रूप प्रगमावें, उस कालके अंत समय पर्यंत. १ गुणश्रेणी, २गुणसंक्रमण, ३स्थिती खंड, ४ और अनुभाग खंडन, यह चार आवश्यक हो. और भी स्थिती बंध श्रेणी है सो अधः करण के प्रथम समय से लगा. गुण संक्रमण पूर्ण होनेके कालपर्यंत होवें हैं. यद्यपी प्रयोग लब्धीसे ही स्थिती बन्धाके श्रेणी होती है, तथापी प्रयोग लब्धीसे सम्यक्त्व होनेका अनवस्थित पना है, यह नियम नहीं; इसलिये ग्रहण नहीं किया. और भी स्थिती बन्ध - णीका काल, और स्थिती कांड कान्डोत्करणका काल यह दोनी सामान अंतर मुहुर्त मात्र हैं. वहां पूर्व बंधाथा ऐसा सत्ता में कर्म परमाणु रूप द्रव्य उसमेसें निकाले, जो द्रव्य गुण श्रेणीमें दीये, उस गुप्ज़ श्रेणीके कालमें समय २ में असंख्यात गुणा अनुक्रम लिये पंक्ती बंध जो निर्जरा का होना, सो गुण श्रेणी निर्जरा हैं. २ और भी समय २ प्रते गुणाकारका अनुक्रम ते विविक्षित प्रकृती के प्रमाणु पलट कर, अन्य प्रकृती रूप होकै प्रणमें सो गुण संक्रमण. ३ पूर्व बन्धीथी वो सत्ता में रही कर्म प्रकृतीकी स्थितीका घटाना सो स्थि श्री है और पर्व बन्धे थे. ऐसे सत्तामें रहा Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपशाखा-शुभध्यान हुवा अशुभ प्रकृतीका अनुभाग घटाना, सो अनुभाग खन्डन. ऐसे चार कार्य अपूर्वकरणमें अवश्य होतेहैं. अपूर्व करणके प्रधम समय सम्बन्धी, प्रसस्त अप्रसस्त प्रकृतीका जो अनुभाग सत्व हैं, उससे उसके अंत समय विषे, प्रसस्त प्रकृतीका अनंतगुण बृधी होता, और अप्रसस्त प्रकृतीका अनंतगुण कमी होता, अनुभाग सत्य होते हैं; सो समय २ प्रती अ. नंतगुण विशुद्धता होनेसे, प्रसस्त प्रकृतीका अनंत गुणा अनुभाग कान्डका महातम कर, अप्रसस्त प्रकृतीके अनंतमें भाग अंत समयमें संभवता है.* . ऐसे अपूर्व कर्ण विषय कहे, जो स्थिती कान्डादी कार्य, सो विशेष तो तीसरे अनिवृती करण विषय जाणना. विशेष इत्ना, ह्यां समान समय वर्ती अनेक जीवके सदृस प्रणामही हैं. इस लिये जित्ने अनिबृती करणके अंतर महुर्तके समय हैं, उत्नेही अनिवृती करणके प्रणाम हैं. इससे समय २ प्रते, एकेकही प्रणाम हैं, और जो ह्यां स्थिती खन्डन, अनुभाग खन्डादीकका प्रारंभ औरही प्रमाणे लिया होता हैं, सो अपूर्व करण सम्बंधी जो स्थिती खंडादिक उ * इन स्थिती खन्डादी होनका विशेष अधीकारभी है परंतु Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ उपशाखा-शुभध्यान. सके अंतः समयही समाप्त पना हुवा.* यहां यह प्रयोजन है की जो अनिवृती करणके अंत समय विषे, दर्शन मोहनी और अन्तान बन्धी चतुष्क, इनकी प्रकृती स्थिती,प्रदेश,अनुभाग, का समस्त पने उदय होनेंकी. अयोग्यता रुप उपसम होनेते, तत्वार्थकी श्रधान रुप सम्यक्त्व होता है वो. ही उपशभिक सम्यक्त्व है. यह भाव चौथे गुणस्थान वर्ति जीवके जाणना, यों आगे अप्रत्याख्यानी चतुष्टकका उपशम होनेसे, इच्छा निरूंधन, अल्पारंभ, अल्प परिग्रह, शुद्धवती, संवेगी, कल्प उग्रह विहारी, उदासीनतादी गुणोंकी अधिकता होती हैं, आगे प्रत्याख्यानीके चतुष्टकका उपशम होनेसे, साधुत्व, संयमत्व, तपती, समिती गुप्ती, परम वैराग्यतादी गुणोंकी वृधी होते, शुभ ध्यान करनेकी योग्यताको प्राप्त होता हैं. अन्तान बन्धीके उपशमसे अप्रत्याख्यानीवाले, अप्रत्याख्यानीके उपशमसे प्रत्याख्यानीवाले,प्रत्याख्यानीके उपशमसे संज्वल कषायके चतुक उपशमवाले. और इन अकषाइध्यानके मार्गमें अधिक २विशुद्धता सरलता, प्राप्त करते आगे बढ़े हैं. Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानकल्पतरू. यह सम्यक्त्वी, देशबृती, और सर्ववृर्ती, कर्मोंके उपशम क्षयोपशम, व क्षायकताके योग्यसे निश्चय में प्रबृती करसक्ते हैं. और इन सिवाय ज्ञानारणव . ग्रन्थमें ध्यानीके ८ लक्षण कहे हैं--- FREE मुमुक्षर्जन्म निर्विणः शान्तचितोवशीस्थिर; " जिताक्ष संवृतोधीरो, ध्याता शास्त्रेप्रशस्यते. ___अर्थ १ मुमुक्षु आर्थत् मोक्ष जाने की जिसे अभीलाषा होवेंगा वोही ध्यानका कष्ट सहेगा; आत्म निग्रह करेगा. २ विरक्त-जिनका पुग्दल प्रणित सुखोंसे बृती निवृती है. उन्हीके प्रणाम ध्यानमें स्थिरता करेंगे, ३ शांतवृती-जो परिसह उपसर्ग उपनेशांत प्रणाम रखेंगे, वोही ध्यानका यथातथ्य फल प्राप्त कर सकेंगे, ४ स्थिरस्वभावी जो मनादी योगोका कुमार्ग से निग्रह कर, ध्यानमें वृतीको स्थिर करेंगे, वोही ध्यानी हो सकेंगे, ५ स्थिरासनी जिसस्थान ध्यानस्थ हो, वहांसे चल विचल न करे; व ध्यानके कालतक आसन बदलें नहीं; वोही सिद्धासनी कहै जाते है.जितेंद्रिय श्रोतादी पंच इंद्रिययोंको, शब्दादी पंचविषयसें, रागद्वेषकी निर्वृती कर, धर्म मार्गमें संलग्न करेंगे, वोही ध्यान सिद्धीको प्राप्त होवेंगे ७ संवतातमा जिन्नने mh oar शामको मंजत कर. हिंशादी पंचाश्रा Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ ध्यानकल्पतरू. वसे निर्वारी, अहिंशादी पंचमहावृत स्विकार किये, तथा अनादी प्रणति रूप संसर्ग कर, जो अंतःकरणकी वृतीकों विकार मार्गमें प्रावृती कराती हैं, उन वृतीयोंको अंतरिक ज्ञान, आत्माकी प्रबल प्रेरणा कर निबंताइ, खान पानकी लोलुपता त्यागी, वोही ध्यान सिद्धी कर सकेंगे. ८ धीर होय-अर्थात् ध्यानस्त हुये फिर, कैसाभी कठिण परिसह उपसर्ग आनेसे, विलकुल प्रणामोंको चल विचल नहीं करे. क्यों की ध्यानमें परवेश करते पहले "अप्पाणं बोसी रानी” अर्थात में इस सरीरकों वोसीराता हूं. इसकी ममत्व छोडता हूं. यह सरीर मेरा नहीं, में इसका नहीं, ऐसा कहके बेठते हैं; तो जब यह सरीर अपनाही नहीं, तो फिर इसका भक्षण करो, दहन करो, या छेदन भेदन करो, कुछभी करो, अपनको क्या फिकर. ऐसा निश्चय होय, तबही ध्यानकी सिद्धीको प्राप्त हो सकता * एकदम लुलुप्त घटनी मुशकिल है, इस लिये योडी लुलुप्ता घटानेका सदा अभ्यास रखना चाहीये, जैमे यह वस्तु नहीं खाइतो क्या वह वस्त्र नही पहरा तो क्या यह काम अबल तो भुशकिल लगेगा परंतु फिर से हज होजायगा यो सर्व वस्तु उपर से लुलुप्ता घटानेकी यह बहुत सहजकी रीती हैं. यों करनेसे कोइ वक्त निर्ममत्वताको प्राप्त होशक्तें है Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपशाखा-शुभध्यान ६५ . है. ध्यान किया सो कर्मका क्षय करने किया,और कर्मका क्षयतो विना उपसर्ग, विना दुःख देखे नहीं होता है. जो परिसह उपसर्ग पडेहै, वो, कर्मका क्षय करनेही पडे है. ऐसे कर्ज चुकाती वक्त, पीछा नहींजहटना. ऐसा द्रढ निश्चयसें धैर्य धारणसेही ध्यान सिद्ध होता हैं. इन आठगुणोंके धारण हारही ध्यान सिद्धीको प्राप्त होते हैं, एसा जाण शुभध्यान करनेवाले मुमुक्षु जनोकों पहले अष्टगुण क्रमसे अभ्याससे प्राप्त करने चाहीये. द्वितीय उपशाखा-"शुभध्यान विधी." क्षेत्र द्रव्य काल भाव यह, शुभाशुभ यवसु जान; अशुभ तजी शुभ आचरी, ध्या ध्याता धर्म ध्यान. १ क्षेत्र, २ द्रव्य, ३ काल, और ४ भाव, यह ४ शुभ अच्छे; और ४ अशुद्ध, खोटे. यों ८ भेद होते हैं. जिसमेंसे ४ अशुद्धको त्याग कर, शुद्धका जोग मिलाके. हैं! ध्यान ध्याताओं शुद्ध-धर्मध्यान ध्यावो. कोदभी काम यथाविधी करनेसे इष्टितार्थ को Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानकल्पतरू. घ्र सिद्ध करता हैं. इस लिये ह्यां मोक्ष प्राप्त रूप कायकी सिद्ध करनेवाला ध्यान है. उसके करनेकी विधीका वर्णव करते हैं. ध्यानमें मनको स्थिर करने क्षेत्र. द्रव्य. काल. भावकी शुद्धीकी बहुतही जरूर हैं. अव्वल क्षेत्रकी शुद्धाशुद्धी बताते हैं. प्रथम पत्र क्षेत्र" १ 'अशुद्ध क्षेत्र'-दुष्टराजाकी मालकीका क्षेत्र, अधर्मी, पखंडी, म्लेछ, कुलिंगी रहते होये; ऐसे क्षेत्रमें रहनेसे उपसर्ग उपजनेका संभव हैं. जहां पुष्प, फल, पत्र, धूप, दीप. या मदिरा, मांस, ऐसे स्थानमें मन चंचल होनेका संभव हैं. जहां विभचारी स्त्री पुरुष क्रिडा करें, चित्राम किये होवें. काम क्रिडाके शास्त्रों का पठन होता होय. नृत्य, गायन, होते होय. बाजिं. त्र बजते होय. ऐसे स्थानमें, बीकार उत्पन्न होनेका संभव हैं. जहां युद्ध-मल कुस्तीयां लडाइ झगडे होते होय. झगडेके शास्त्र पडते होय. पंचायती करतें होय, वहां विखवाद होनेका संभव हैं. जहां अन्यके प्रवेश करनेकी मालिकादिकने मना करी होय, वहां रहनेंसे पीग और निशाना बना Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Aur उपशाखा-शुभध्यान. ६७ जुवा खेलते होय, कैदी रहते होय, मद्य मांस (दारू) विकता होय, पारधी रहता होय, सिल्पिक (कारीगर चमार, सोनार, लोहार, रंगारे, इत्यादी) रहते होय. वहां चितविग्रह होनेका संभव है. जहां नपुशक. पशु (तिर्यंच) कुलंछनी, भांड, नट, खट, इत्यादि अयोग्य रहते होय. वहां, अप्रतीत होनेका संभव हैं. इत्यादि अयोग्य स्थान बर्जके ध्यान करे. २ 'शुभ क्षेत्र' निर्जन स्थान-जहां विशेष मनुप्यादीकी वस्तीया, आवा गमन न होय. समुद्रके, तथा नदीके तट (किनारे) पर, बृक्षोके समोहमें, बेलीके मंडपोमें, प्रवतोकी गुफामें, स्मशाणोंकी छत्रीयोंमें, सखे झाडकी कोचरमें, शुन्य ग्राम या शुन्य गृह (घर) में, वरोक्त ( जो अशुद्ध क्षेत्रमें कही उन) बावतोंसे वर्जित, देवालयमें. इत्यादि स्थान फ्रासुक (निर्जीव) होय, वहां ध्यान करने योग्य स्थान हैं. चितमें समाधी (शांती) रहती हैं. द्वितीय पत्र-“द्रव्य.” ३'अशुभ द्रव्य'-जहां अस्थि, मांस, रक्त, चर्म' ॐ अफोव मंडवमि. झायइ झोवियासवे-उत्तराध्येयन१८ अर्थ-अफाव (नागरवेल) के मंडपमें ध्यान ध्याते है. आश्रवको Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ ध्यानकल्पतरू. मेंद, चरवी, और मृत्यूक जानवरोंके कलेवर, खान, पान, पक्कान, तंबोल, औषधीयों, अतरादी तेल, शैय्या (प. लंगादी),आसन,स्त्री-पुरुषके शृंगारके वस्त्र, भुषण. का. मासन, स्त्रीयादीके चित्र, इत्यादी द्रव्य होय, वहां ध्यानीयोंका चित स्थिर रहना, मनका निग्रह (वस) होना मुशकिल हैं. __४'शुभद्रव्य-शुद्ध' निर्जिव पृथवी-शिल्लापटपेकाष्टासन-पाट बजोट (चौकी) पें. पारलके आसनपे उन, सूत, आदी शुद्ध वस्त्र ध्यानस्त होनेसे प्रणाम स्थिर रहनेका संभव है. ध्यान इच्छककों अहार थोडाकर सो भी हलका [तांदुलादी] विशेष घृत माशालेसे वनार्जित, शीतादी कालमें, प्रकृतीयोंको अनुकुल [सुखदाता] वक्तके, और बजनके, प्रमाणयुक्त; निर्जिव, और निर्दोष, शुद्ध, करनेसे चितको स्थिर रख शक्ते हैं. • ध्यान इच्छकको-आसन; मुख्यतो पद्मासन [पालखी घाल दोनो सायलोंपें दोनों पग चडा दोनों हाथ एकस्थान विकसे कमलके समकर, पेटके पास नीचे रखके स्थिर होय] पांकासन [पालखी घाल बेठे] दंडासन [खडेरहे] ये तीन हैं.और तो वीरासन, लगडासन, अम्बखुजासन, गौदूआसन, वगैरेसे इस व Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपशाखा-शुभध्यान तीन अंगलीयों [तर्जनी, मध्यमा, अनामिक ] के नबू बेड़े (सन्धीरेखा) को बारे क्क गिणनेले. १२.९१०६ एकसो आठ होते हैं. सोही उत्तम है. और माला तो मध्यम तथा कनिष्ट गिनते हैं. ध्यानीको ध्यान में स्थिर होते, नशाग्रद्रष्टी खान मेख स्थिर कर. चित्रकी मू के जैसा स्थिर हों, निश्चल हो. मुख फाडको ढीली छोड, चितको सर्व व्याधी सर्व विकल्पसे मुक्त कर बेठनसे, ध्यानकी सिद्धी शुल्लभतासे होनेका संभव हैं. तृतिय पत्र-“काल.” __ ५ 'अशुभ काल'- पहला, दूसरा, और तीसरा आरा, माठेरा, (कुछकमी) तथा छट्टा आरा, इन में धर्मीजनोंके अभावसे ध्यान होनेका कम संभव हैं. और भी अती उष्ण काल, अती शीत काल. अती जीवोत्पतीका काल. दुकाल. विमह काल. रोगग्रस्त काल, इत्यादी काल ध्यानमें विग्रह करनेवाले गिणे जाते हैं. .. ६ 'शुभ काल’--ध्यानके लिये सर्वोत्तम काल * कनिष्टा ( छोठी अंगुली ) और अंगुष्ट छोडके. * इसेही नोकरवाली कहते हैं. नकी सूतादीको. .... + ये तीन आरा ध्यान साधनेके लिये ही अशुद्ध है, और Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानकल्पतरू. तो चौथा आरा गिणा जाता है. क्यो की उसमें वज्र बृषभनाराचादी संघेन और ध्यान करनेके अनुकुल जो गवाइयोंकी विशेषता थी. जिससे महान (मरणांतिक) संकट सहन करभी, अडोल (स्थिर) रहतेथें. इस पं. चम कालमें संघेणादिककी नुन्यतासे, उस मुजब ध्यान हो नहीं सक्ता हैं. तो भी सर्वथा नास्ती नही समजना, क्यों कि गुण कारक वस्तु तो हमेशा गुणही कर. . ती हैं; चौथे आरेमें सकरमें ज्यादा मिठास होगा, और अब्बी काल प्रभावसे कमी पडगया होगा. तो भी सकर तो नीठीही लगेगी. ऐसेही इस कालमें भी यथा विधी किया हुवा ध्यान, गुणकर्ताही होगा. और भी ध्यान कर्ता पुरुष शीत उष्णादी कालमें अपनी प्रक्रतीके अनुकुल समय विचारे. श्री उत्तराध्येयजी सूत्रमें तो “बीयं ध्यान धीया इह" ऐसा फरमाया हैं, अर्थात् दिनकी और रात्रीकी दूसरी पोरसी (प्रहर) मैं ध्यान धरे, और किनेक ग्रन्थों में पिछली रात्री (रात्रीका चौथा प्रहर.) ध्यानके लिये उत्तम लिखा हैं. ___ यह द्रव्य क्षेत्र और कालके विधी विवक्षा अर्थात् शुभ शुभका विचार, फक्त, अपूर्ण ज्ञानी और अस्थिर चितवालोंके लिये हैं. पूर्ण ज्ञानी और अडोल Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपशाखा - शुभध्यान. ७१ उन्हे तो सर्व क्षेत्र - द्रव्य-काल अनुकूलही होता हैं. चतुर्थ पत्र - "भाव " ७ 'अशुद्ध भाव' अशुभ या अशुद्ध भावका वरणव, आर्त और रौद्रध्यान में बताया वोही समजना विषय, कषाय, आश्रव, अशुभयोग, असमाधी, चपलता, विकलता, अधैर्यता, नास्तिकता, कठोरता, राग द्वेष रूप प्रणति. बगैरे सर्व अशुभ जोग गिणे गये हैं. इन से भावोंकी मलीनता होती हैं. ८ शुभ, भाव, ४ प्रकारके हैं. सो— मैत्री प्रमोदकारूण्य, मध्यस्थानि नियोजयेत् धर्मध्याने सुपरकर्ते, तद्वितस्यरसायनं १ अर्थ - १ 'मैत्री भाव' २ प्रमोदभाव, ३ करुणा भाव, ४ और मध्यस्तभाव, इन चारोंही भाव संयुक्त होनेसें, धर्म ध्यानकी रासायन ( हूबहू - स्वाद) पैदा होती हैं. १ मैत्री भाव - “मिति में सव्व भूएसु, वेर मझं न केणइ” अर्थात् सर्व जीव मेरे मित्र (दोस्त) हैं, सूत्र- - मैत्री करूणा मुदितो पेक्षाणां सुख दुःख पुण्यापुण्य विषयाणां भावना तश्वित प्रसादनम. ३३ योगदर्शन. अर्थ- सुख। प्राणीयोंमे मित्रता, दुःखीमे दया. धर्मात्मा हर्ष, और पायोंपे मध्यस्त वती. इस तरें व्रतनेसे चित प्रसन्न रहता हैं. Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानकल्पतरू. इस लिये मेरा किसीके साथ भी किंचित मात्र वैर विरोध नहीं हैं. इस जगत् वासी सब जीवोंके साथ अपने जीवने. माता-पिता-स्त्री-पुत्र-बन्ध-भग्नीयादि जितने सम्बंध हैं. वो सब एकेक जीवके साथ अनंत २ वक्त कर आया हैं. श्री भगवतीजी तथा जंबूद्विप प्रज्ञाप्तीमे, फरमाया हैं-की- “अगंत खुत्रो"अर्थात संसारमें इस जीवने, अनंत जन्म रमण कर, सर्व जगत् फरसा है. इस अनुसारसे, जगत् वासी सब जीव अपणे मित्र हैं; इसलिये जैसे इस भवके कुटुम्बपे प्रेम रहता हैं, वैसाही सब जीवोंके साथ रक्खे, सुक्ष्म (द्रष्टी न आवे सो) बादर (दिखेसो) त्रस (हले चले सो) स्थावर (स्थिर रहे सो) इन सब प्रकारके जीवोंकों अपणीआत्मा समान जाणे.* सबको सुखी चहावे सो मैत्रीभाव. २ प्रमोद भाव इस जगतमें अनेक सत्पुरुष अनेक २ गुणके धरने वाले हैं. कित्नेक ज्ञानके सागर हैं. बहोत सूत्रोंके पाठी (पढे हुये) सद्वादशैली कर, जिनागम की रेष श्रोता गणो के हहयमें छ्यथा आत्मान प्रियप्राण, तथा तस्यापी देहीनां इति मत्वन कृतव्यं, घोर प्राणी बधौ बुद्धः अर्य--जैसे अपने प्राण अमनको प्रिय है वैसेही सवही के Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपशाखा - शुभध्यान ७३ ठसानें वाले, सिधान्तकी सन्धी मिलाने वाले, तर्क वितर्क कर गहन विषयको सरल कर, बताने वा ले, नय निक्षेपे प्रमाणादी न्यायके पारगामी, कुतaria शांतपणे समाधान करने वाले. असर कारक सौधसे, धर्मकी उन्नतीके कर्ता, चमत्कारिक कवीत्व शक्ती, व वकृत्व शक्तीके धारक, ऐसे २ अनेक ज्ञान गुणके धारक हैं. कित्नेक, शांत, दांत, स्वभावी; आत्मध्यानी, गुणग्राही, अल्पभाषी, स्थिरासनी, गुणानुरागी, सदा धर्म रूप आराम (बाग) में, अपणी आत्माके रमाने वाले हैं; किनेक महान तपस्वी, मासक्ष मनादी जब्बर २ तपके करनेवाले, उपवास आयंविलादी करनेवाले, षडुरसके, विगयके, त्यागी, एक दो द्रव्यपेही निर्वाह करनेवाले. शीत, ताप, लोच, आदीकाया क्लेस तप करनेवाले हैं. कित्नेककी ज्ञानाभ्यास की और तचर्या करनेकी शक्ती नहीं हैं तो, स्वधर्मीयोंकी भक्ती करते हैं. अहार, वस्त्र, शैयासन, आदी प्रतीलाभ साता उपजाते हैं, कित्नेक ग्रस्थ तन मन धनसे चारही तीर्थकी भक्ती करनेवाले, धर्मकी उन्नतीके करने वाले, प्राप्त हुये पदार्थ को लेखे लगानेवाले है. ऐसे उतमोत्तम अनेक गुणज्ञोके दर्शन कर, परसंस्था श्रवण Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ ध्यानकल्पतरू. नर रत्न उत्पन्न हो धर्मदीपाते हैं. यह महा पुरूषों सदा जयवंत रहो. ऐसा विचार, उन्का सत्कार स. न्मान करे. साता उपजावें. दूसरे को उनकी भक्ती करते देख, हर्ष पावे; सो प्रमोद भावना.. ३ करूणा भाव'- जगत्वासी जीव कर्माधीन हो अनेक कष्ट पाते हैं. कित्येक अंतराय कर्मकी प्रबलतासे, हीन, दीन, दुःखी होरहें हैं. खान, पान, वस्त्र, गृह, करके रहित हो रहे हैं, किनेक वेदनी कर्मकी बृधी होनेसे, कुष्टादि अनेक रोगों करके पिडित हो रहे हैं. कित्नेक काष्ट-खोडा बेंडी आदी बंधनमें पडे हैं, किल्नेके शत्रुओंके ताबेमें पडे हैं, किनेक शीत, ताप, क्षुद्या. वषादी अनेक विपति भोगवते हैं. किल्लेक अ. न्धे, लूले, लंगडे,बधीर, मुक्के, मुंगे, आदीअंगोपांग रहित हो रहे हैं, कित्नेक पशू, पक्षी, जलचर, बनचर, हो प्राधीनता भोगवते हैं; बध, बंधन, ताडन, तर्जना स. हन करते है, हिंशकोंके हाथ कटते है. इत्यादि अनेक जीव, अनेक तरहकी विपति (दुःख) भोगवते हुये;सु खके लिये तरसते हैं. हमें कोई सुखी करो! जीवत्व दान देवो! दुःख, संकटसे उगारो! वगैरे दीन दयामणी प्रार्थना करते हैं. उन्हेदेख दुःखीहोय, करुणा लावे Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपशाखा-शुभध्यान. योग्य प्रयल उपाय करे, उन्हे सुखी; करे सो करुणा भावना. ४ 'मध्यस्त भाव-इश विश्वमें कित्नेक भारी कमै पापिष्ट जीव सद्गुण, सद्कर्मको त्याग, खोटेको विकार करते हैं. सदा क्रोधमें संत्त, मानमें अकडे हुये, मायासे भरे हुये, लोभमें तत्पर रहतें हैं. निर्दयतासे, अनाथ प्राणीयोंका कट्टा करते हैं. मदिरा, मांस कंदमूलआदी अभक्षका भक्षण करते हैं.असत्य, चोरी, मैथुनमें पटूता (चतुरता) बताते हैं. विषय लंपट वैश्या, पर स्त्री गमनमें आनंद मानें, जुगारा (जुवा) दी दुर्व्यसनने लुब्ध अष्ठादश पापोमें अनुरक्त,देव,गुरु, धर्मके, निमित हिंसा करने वाले, हिंशामें धर्म माननेवाले कूदेव, कूगुरु, कूधर्मकी प्रतिष्टा बडाने बाले, अच्छेकी निंदा करनेवाले, अपनी २ परशंस्यामें मग्न. इत्यादी पापी जीवोंकों देख, राग द्वेष रहित, मध्यस्त प्रणामसे विचार करे की, आहा! देखो इन बेचारे जीवोंकी कैती विषम कर्म गती हैं; अत्यंत कष्ट चार गती रूप संसारमें सहन करते २, अनंत कष्टसे मुक्त (छुटका) करनेवाली अनंतानंते पुन्योदयसे, मनुष्य जन्मादी उतमोत्तम सामग्रीयों प्राप्त हुई हैं. इसे, व्यर्थ ममाते हैं कमाते हैं। ----- --- Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानकल्पतरू, र्जन करते हैं. कंकरकी खरीदमें चिंतामणी रन, और विषकी खरीदमें अमृत देते हैं, सुधारके स्थान बीगाडा करते हैं, हे प्रभू ? इन बेचारे अनाथ पामर जीवोंकी इन कुकृतव्यके फल भोगवते, क्या दिशा होयगी? कैसी वीटंबणा पायंगे! तब कैले पश्चाताप करेंगे? परन्तु इन बेचारे जीवोंका क्या दोष हैं, यह तो सब कामअच्छेके लियेही करते हैं, सुखके लियेही खपते हैं, परन्तु इनके अशुभ कर्म इनको सद्बुद्धी उपजने नहीं देते है. जैसा २ जिनका भव्य तव्य (होनहार) होय, वैसा २ही बनाव बनारहताहै.इत्यादी विचार मध्यस्त पणे उपेक्षा-उदासीनतासें करे सो मध्यस्त भावना. . इन चारही भावनाको भावते(विचारते) हुये और इसमें कहे मुजब प्रवृतते हुये जीव, राग, द्वेष, विषय, कषाय, क्लेश, मोहादी शत्रओंका नाश करने सामर्थ (शक्तवंत) होते है. यह भावना भावनेवालके हृदयमें, उक्त शत्रकों प्रवेश करनेका अवकाश (फुरसत) ही नहीं मिलशक्ता है। . * योग दर्शन ग्रन्थमें पतञ्जली ऋषिने योगके — अंग कहे हैं. ' यमनियमासन प्राणायाम प्रत्यहार धारणा ध्यान समाधयो अष्टाचङ्गानि" १ यम, २ नियम, ३ आसन, ४ प्राणायाम, ५ प्र Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपशाखा-शुभध्यान ७७ शमध्यानस्य “फलं.” इस विधीसें किया हुवा ध्यान इस जीवोंको मोक्ष पंथ लगाने वाला है, हृदयके ज्ञान दीपकंकों प्रदिप्त करने वाला हैं, अतिंद्रीय-मोक्षके सुखको प्राप्त करने वाला हैं.यों ध्यानमें प्रवेश करनेसे ही, अध्यात्म. "अहिंसा सत्यास्तेय ब्रम्हचर्या परिग्रहा यमाः अर्य-यप के प्रकार किये हैं. १ अहंसा-सबै प्राणीयोंके साय वैर (शवता) और बध (घात) से निवृते चितसे सर्वकै साय मैत्रीता होवे. (२) 'सत्य' मन और इन्द्रियोंमे जैसा जानने में आवे वैसा वोळे. परंतु दुःखदाई न बोले. जिससे वचन सिद्ध होवें. (३) 'अस्तय'-दूसरेकी वस्तु गिन आज्ञा अनुचित रीतसे गुप्त ग्रहण न करे जिससे सर्व इच्छित मिले. (४) 'ब्रह्मचर्य'कामका उदय न होवें ऐसा आचरण रक्खे जिससे शरीरका और सुदीका बल बढे. (५) 'अपरिग्रह' किसीभी वस्तु राग (प्रेम) . द्वेष न कर, निससे जन्मात्रका जीकालका ज्ञान प्राप्त हो. २ “शौच संतोष तपस्स्वध्यायेश्वर प्रणि धनानि नियमाः" अर्थ-नियमकेभी ५ प्रकार हैं (१) शौच*=बाह्यमें तो सात * श्लोक-सत्य शौचं तप शौच शौचं मिद्री निग्रह, सब प्राण भत दया शौचं जल, शौचंतु पंचमः॥ अर्थ-सत्य बोलनसें, तप करनेसे, इन्द्री निग्रहो, प्राणीयोंकी दय से और नल (पाणी) से सुची होती है. Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ . ध्यानकल्पतरू. दिशा शांतीकी प्राप्ती होती है. इन्द्रीयोंके विषय उसके चितकों अकर्षण कर सक्ते नहीं है. मोह निद्रा स्व. भाव से समय २ नष्ट होती, सर्व क्षय जाती है. और ध्यान निद्रा (समाधी)की प्राप्ती होती है. इस तरेसे दुर्व्यश व अशुची से निवृते, और अभ्यंतर छ रिपुको अलग रक्रेट, जिसस संसर्गी को घृणा न होवें और अभ्यंतर शुचीसे मन निर्मल होः (२) संतोषप्राण रक्षण के लिये अन्न वस्त्रा. दी जो आवश्यक हैं उससे अधिक इच्छा न करें. जिससे निर्दोष सुखी होवे. (३) 'तप'=शुद्या अषा, शीत, उष्णादी सहे धर्मा'चरण सद्गुण आचरण करे, जिससे ऋद्धी सिद्धीकी प्राप्ती होवें. .. (1) 'स्वध्याय शास्त्र पठन या प्रणव (3) का जप करे, जिससे इष्ट देव प्रसन्न हो इच्छित कार्य करें. (५) 'प्रणिधान'-इश्वरमें सब भाव समर्पण करे. जिससे समाधी भावकों प्राप्त होवे. (३) 'स्थिर सुख मान सम्' जिस आसनसे सुख हो व शरीर और मन स्थिर रहे वोही आसन श्रेष्ट है, जिससे चितकी एकाग्रता हो. (४) 'तस्मिन्सति श्वास प्रश्वास योगति विच्छेदः मा णायाम'यस और उश्वास को रोकना सो प्रणायाम, इससे आयुष्यकी वृरी होती है. ज्ञानका अनाण दूर हो, आप जोती श्लोम-अशु वी करुगा हीनं, अशुची नित्य मेथुनं, अशुची परद्रव्ये षू अशुची परनिंदा भवेत. अर्थ-दया रहित, नित्य मैथुन सेवने वाले, चोरी करने वाले, ___ और निंदक सदा अशुद्ध अशुपी है. . .. ६ काम क्रोध मद मोह लोभ मत्सर, इनको हृदयमें प्रवेश नहीं करने दे. Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपशाखा-शुभध्यान. शुद्ध ध्यानमें प्रबृतते जीवकों महा प्राक्रम प्रगटता है. वितराग दिशाकों प्राप्त होता है. उसवक्त ध्याताको मुक्ती सुखका अनुभव ह्यांही (इस, लोकमें) होने लगता हैं. ऐसी प्रबल शक्तीके धारन करने वाला ये विधी युक्त ध्यान हैं. यह क्षेत्रादी ८ प्रकारकें शुद्धाशुद्ध ध्यान साधनोंमेंसे अशुद्धको त्याग शुद्धको ग्रहने वाले ध्यान ध्यानेकी योग्यताको प्राप्त हो सकेंगे. प्रदिप्त होती है. (५) 'स्वा पया sसं प्रयोगे चितस्य स्वरूपानुकार इन्द्रियाणां प्रत्याहार-साधनसे शब्दादी विषयों जो साधारण चितको प्रवृतता है. उसका निरंधन कर ध्येय पदार्थमें स्थिर करे सो प्रत्याहार, इससे मन स्वाधीन स्ववत्र हो जाता है. (६) 'देशबंधश्चितस्य धारणा' फिरते हुये चित ( मन ) को रोक इष्टमें एकाग्रता करे सो धारणा. (७) 'तत्र प्रत्येयैकतानता. ध्यानम' धारणा के पश्चात ध्यान होता है. जिसकी धारणा करी उसमें तन्मय-अभिन्न होवे सो ध्यान (1) 'तदेवार्थ मात्र निभीसं स्वरूप शुन्य मिव ममाधिः ध्यान पीछे समाधी होती है. समाधीमें भान भूल जाते हैं. "यकत्र संयमः यह तीनही एकत्र होनेले संयप होता है। * ध्यानमें जिस वस्तुकी चिंतवन करता है. उसका भान रहता है. समाधीमें भान भल केवल ध्येय दिखता हैं.. Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानकल्पतरू. परम पूज्य श्री कहान जी ऋषिजी महाराजके सम्प्रदायके बालग्राम्हचारी मुनी श्री अमोलख ऋषि . जी रचिन ध्यानकल्पतरू की शुभध्यान नामे उपशाखा समाप्त. HAM TRA Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयशाखा-धर्मध्यान तृतीयशाखा-“धर्मध्यान" धम्मे झाणे चउबिहे चउप्पडयारो पन्नत तंज्जहा. अर्थ-धर्म ध्यानके चार पाये, चार लक्षण, चार आलंबन, और चार र अनुप्रेक्षा, यों १६ भेद श्री भगवंतनें फरमाये हैं, सो जैसे हैं वैसे ह्यां कहते हैं. जैसे पहले अशुभ ध्यानके दो भेद (आर्तध्यान और रौद्रध्यान) किये, तैसे शुभध्यान के भी दोही भेद जाणना. १ धर्मध्यान और २ सुक्लध्यान, इनका वर्णन अब आगे चलेगा. ___ पहले उपशाखामें शुभध्यान करने की विधी बताइ. अब ह्यां ध्यानस्त हुये पीछे, अच्छा जो विचार करना तो कहते है. अच्छे विचार दो तरह से होते है. १ एकांत कर्मोंकी निर्जरा कर, सर्व कर्मकों नष्ट कर, मोक्ष रूप फलका देने वाला, उसे सुक्लध्यान कहते है. Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानकल्पतरू. इसका बयान आगे किया जायगा. और २ जो विशेष अशुभ कर्मका नाश करने वाला तथा किचिंत शुभ कर्म का भी नाश करने वाला. निर्जरा और पुन्य प्रकृतीका उपराजन करे सो धर्म ध्यान, इसका वरणन ह्यां करता हूँ. ८२. प्रथम प्रतिशाखा - धर्मध्यानके 'पाये'' सुत्र आणा विजय, आवाय वीजय, विवाग वीजय, संठाण वीजय. अर्थ-धर्म ध्यान के चार पाये, १ आज्ञा वि, चय, २ अपाय विचय, ३ विपाक विचय, और ४ संठाण विचय. जैसे तरु (वृक्ष) की चिरस्थाई के लिये. पाया (जड़) की मजबुताइ की जरूर हैं. तैसे ही ध्यानको स्थिर करने के लिये, चार प्रकारके विचार करते हैं. १ श्री भगवंत ने इस जीवके उद्वारके लिये, हेय ( छोडने योग्य) ज्ञेय ( जाणने योग्य ) और उपादेय ( आदरने योग्य) क्या क्या हुकम फरमाया; उसका विचार करे सो आज्ञा विचय धर्मध्यान. २ यह जीव अनंत कालसे क्यों दुःखी है, यह दुःख दूर कायसे होते हैं ? ऐसा विचार करता यो विकाश- Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयशाखा-धर्मध्यान. ८३ ध्यान, ३ कर्म क्या हैं कैसे उत्पन्न होते हैं और क्या क्या फल देते हैं ? यह विचार करेसो विपाक विचय धर्म ध्यान. और जिस जगत में, इस जीयको परिभ्रमण करते अनंत काल वितिक्रत होगया, उस जगत का कैसा आकार है. यह विचार करेसो संठाण विचय पर्म ध्यान, इन चारहीका विस्तार से वर्णन आगे कहते है. प्रथम पत्र 'आज्ञा विचय' "आज्ञा विचय” धर्म ध्यानके ध्याता ऐसाध्येय (विचार) करेकी, इस विश्वमें रहे हुये, बहोतसें जीव आत्म कल्याण की इच्छा करते हैं, वो आत्म कल्या. ण एक श्री जिनेश्वर भगवानकी आज्ञामें, प्रवृत ने (चलने) से ही होता हैं. श्री जिनेश्वर भगवानकी आ ज्ञामेंही रहके साधू श्रावक जो करणी करतें है, वो करणी ही आत्म कल्याणकि करने वाली है. आज्ञासें ज्यादा, कमी, और विप्रित श्रधान करे, वोही मिथ्याव की गिनती हैं. इस लिये श्री जिनेश्वर भगवान की आज्ञा क्या है? उसका अव्वल विचार करनेकी, बहुत अवश्यकता (जरूर) है, श्रीजिनेश्वर भगवान, सर्व ज्ञाता ( केवल ज्ञान ) को प्राप्त हो. अधो(नीचा) Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानकल्पतरू. मध्य (बिचला) उर्ध (उंचा) तीनही लोक. भूत(गया) भविष्य (होनेवाला) और वृतमान (बर्ते सो) इन तीनही कालमें, जीव और पुगलकी अनंतानंत पर्यायोंका, जो परावृतन (पलटा) हो रहा है, उनका प्रकाश किया. तबही अपन उनके हुकमसें जगत् के चराचर (चल स्थिर) पदार्थोके कौविद (जाण) हुये हैं. और अगोचर (बिन देखे) पदार्थोंके गुण और पर्याय इले सुक्ष्म-अग्राही है की अपन तो क्या, परन्तु बडे २ चार ज्ञानके धारी, द्वादशांग के पाठी, महा मुनीवरों केही ग्रहाज (लक्ष) में आने मुशकिल होते है. जो पदार्थ अपने समजमें नहीं आते है, तो भी उन्हें अपन शास्त्रादीमें पढके सत्य मानते हैं. यह निश्चय अपनकों श्री तीर्थेश्वर भगवानकी आज्ञाके मानने सेही हुवा है; क्यों कि अपन निश्चयसे समजते हैं कि श्री वितराग देव राग द्वेष रहित हैं, उन्हे किसीकाभी पक्ष नहीं हैं, की वो कधी अन्यथा (झूट) बोले. श्री सर्वज्ञ प्रभूनें कैवल्य ज्ञानमें जैसा देखा वैसा फरमाया, वो सर्व सत्य हैं. श्री जिनेश्रर भगवाननें जो जो फरमाया है उसमेका कुछ आवश्यकिय ज्ञान ह्यां श्लोक करके कहते Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयशाखा - धर्मध्यान. सुत्रार्थ मार्गणा महावृत भावनाच, श्लोक पञ्चेन्द्रियोप शमता ति दयाद्र भावः; बन्ध प्रमोक्ष गमना गति हेतु चिन्ता, ध्यानतु धर्म्य मिति तत्प्रवदन्ति तज्ञः. सागर धर्मामृत. अस्यार्थं - सुत्रोंका अर्थ, जीवोंकी मार्गणा, म हावृत, भावना, पांच इन्द्रियों दमनका विचार, दयाद्रभाव, कर्मसे बन्धनका, और छुटनेके उपाय का वि चार, चार गति और ५७ हेतूकी चिंतवना; इत्यादि विचार करे उसे धर्म ध्यानका ध्याता श्री तत्वज्ञ प्रभूनें फरमाया हैं. ध्यान कर्ताको श्रुतज्ञानकी अव्वल आवश्यकता हैं; इस लिये पहले ह्या श्रुतज्ञान वरणत्र करते हैं. 66 सुत्रार्थ सुदकेबलं च णाणं, दोणी विसरिसा णि होति बोहादो. सुदणाणं तुपरीरकं, वच्चरकं केवल णाणं. गाथा **$6.06.06.6 ८५ "" मोमठसार अर्थ-त ज्ञान और केवलज्ञान दोनों बरोबर हैं. फरक इनाही की श्रुत ज्ञान तो परोक्ष हैं. और केवल ज्ञान प्रतक्ष हैं. क्यों कि केवली भगवानने जो जो भाव केवल ज्ञानमें जाणें हैं, को Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ ध्यानकल्पतरू. सर्व (प्रकाशे उले) श्रत ज्ञान करकेही श्रोता गणको समजा सके हैं, और केवलीके वचनसेही नर्क श्वर्ग जावत् मोक्ष तक की रचना छद्मस्त जाणते हैं, वो भी श्रत ज्ञान ही हैं. “सयंभू रमण ससुद्रसेभी अधिक गंभीर; लोकालोक सेभी बडा. सर्व पदार्थोंके अतिरिक्त कोट्यान सूर्यसेभी अधिक प्रकाश कर्ता श्रत ज्ञान हैं. श्रतज्ञानको छद्वादशांग, और चार अनुयोग करके तथा 'अंग, उपांग, छेद, मूल, और अनेक * आमासंग, सुयगडायंग, ठाणा यंग, समवायंग, भगवती. ज्ञाता, उपशकदशांग, अंतगडदशांग, अणुत्तरोव वाइदशांग, प्रशन्न व्याकरण, विकसूत्र, और द्रष्टीवाद, यह द्वादशांग, + प्रथम चरणानुयोग, जिसमे अचारका कथा जैसे आचारंगादी शास्त्र. द्वितिय गणितानुयोग- गणित (संख्या) के शास्त्र जैसे चंद्रप्रज्ञाप्तीआदि शास्त्र, तृतिय धर्मकथानुयोग सो कथाके शास्त्र जैसे ज्ञाताजी आदि शास्त्र और चथुर्थ द्रव्यानुयोग जो स्ति धर्मआदि षटद्रव्यका विचार तैले सुयगडायंगजी आदी शाह, यह चार अनुयोग. + आचागंग आदी दुवादशोगके नाम कहे उसमें से अची इग कालमें दृष्टीवादांगका अभाव हैं इस लिये ११ हो अंगागणे जाते हैं. ६ उपांग १२, उववाइ, रामप्रसैणी, जीवा ...भिमम पनवणः; जबूदिपप्रज्ञाप्ती. चंद्रप्रज्ञाप्ती सूर्यप्रज्ञाप्ती. निरि या वालिका, कप्पिया. पुफिया, पुप्फचलिया, बन्हिदशां यह १२ उपांग || विवहार. वेदकल्प नशांत. दशश्रुतस्कंध, यह ४ छेद. Lonारिकमायत. नंदी. अनगोंगटार - ५ एल. Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयशाखा-धर्मध्यान प्रकीर्ण ग्रन्थों करके विस्तिरत कियागया हैं: अनेक चमत्कारिक विद्याका सागर हैं. यह शब्दों करके अवर्णिय हैं. बडे २ विद्वान भी इसका पार नहीं पासक्ते हैं. भूत ज्ञानही सच्चा तीर्थ हैं, की जिसमें पापका ले. शभी नहीं है. और इसमें स्नान करनेसे, बडे २ पापा. स्मा पवित्र हो गये है. येही जगत् जंतुओंके उद्धार क रने सामर्थ्य है, योगीयोंका तीसरा नेत्र हैं. इत्यादी अनेक गुणों करके प्रतिपूर्ण भरा हुवा श्रुत ज्ञान हैं. इसको अभ्यास प्राप्त करनेमें धर्माध्यानीको बिलकूल ही प्रमाद नहीं करना चाहिये. गाथा 66 “ मार्गणा.” ८७ गइ इंदीए काए, जोए वेए कसाय नाणेय, संजम दंसण लेसा, भव सम्मे सान्न आहरे. तृतीय कर्म ग्रन्थ. अर्थ- गति, इन्द्री, काया, जोग, वेद, कषाय, ज्ञान, संजम, दर्शण, लेशा, भव्य. सम्यक्त्व, सन्नि असन्नि, अहारिक अनाहारिक. यह १४ मार्गणा. अब आगे जो जो कथन चलता है, वो सब पिछे कहे हुये श्रुत ज्ञान के पेट में समजना, माणका ज्ञान अतीही गहन हैं इसके विषाये जान Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ ध्यानकल्पतरू. में अच्छी स्थिरता रहनेका संभव है. इसलिये ह्यां मार्गणा कहते हैं.. • १ “गति” गति उसे कहते है की जिसमें गतागत (आवागमन) करे, वह गती ४ है. (१) 'नर्कगति' जो अधो (नीचे) लोकमें ७ दुःखमय स्थान है. (२) तिर्यंच गति' जो एकेंद्री सूक्ष्म तो सर्व लोक व्यापी है और बादर एकेंद्री तथा बेन्द्रीसे पचेन्द्रीय प्रयंत पशू (जानवर) जीव है. (३) 'मनुष्य गति' जो तिरछे लोकभे कर्म भूमी अकर्म भूमी मनुष्य जीव है. (४) 'और देव गति' जो पातल (नीचे) लोकवासी भवन पति, बाणव्यंतर, देव, तिग्छे लोकमें चंद्र सूर्यादी जोतषी देव, और उर्द्ध (उचे) लोकवासी, कल्पवासी, १२ स्वर्ग (देवलोक) में रहे वह, कल्पातीत सो ९ ग्री वेग और अनुत्तर विमान वासीदेव. यह चार गति. और पंचमी मोक्षको भी गति कहते हैं परंतु वहां गये पीछे पुनरावृत्ती (आना) नहीं है. . २ "इंद्रिय" इन्द्रिय उसे कहते हैं. जिससे जीवकी जातीकी समज होए. वह इन्द्रिय ५ है (१) 'एकेंद्रीय' जो पृथव्यादिक एक स्पर्म्य इन्द्रियवाले जीव. (२) बेंद्रिय ' जो किटकादिक स्पर्य और _..-- ..- नी (2) दिय' जो यका (ज्यं) Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AMMA तृतीयशाखा-धर्मध्यान ८९ दिक स्पर्त्य रस और घ्राण इन्द्रिय वाले जीव. (४) 'चौरद्रि' जो माक्षिकादिक स्पर्म्य, रस, घाण, और चक्षु इन्द्रिय वाले जीव. (४) और 'पर्चेद्रिय' जो म. च्छादि जलचर, (पाणीमें रहे) पशू (पृथवीपे रहे) गायादी स्थलचर, हंसादी पक्षी खेंचर, (आकाशमें उडे) तथा नरक मनुष्य और देवता स्पर्य, रस, घ्राण, चक्षु और श्रोतेंद्रीवाले जीव. इन सिनाय अनेंद्री जीव केवली भगवानकों और सिद्ध भगवानको कहते हैं.' __ ३“काए" काया, सरीरको कहते हैं, वह जीवयुक्त काया ६ हैं- (१) 'पृथ्वी काय' (मट्टी) (२) 'अपकाय' (पाणी) (३) 'तेउकाय' (अग्नी) 'वाउकाय' (वायूहवा) (४) 'वनास्पति' (सबजी-लीलोत्री) [यह पांच एकेंद्री हैं] और (६) 'त्रसकाय' (हलते चलते बेंद्रीय से लगा पचेंद्रिय पर्यंतके जीव). ४ “जोए” जोग-दूसरेसे सम्बन्ध करे वह जोग ३ हैं. (१) 'मन योग' (अंतःकरणका विचार) (२) व. चन योग' (शब्दउञ्चार)(३) 'कायायोग (प्रतक्षसरीर) ५“ए” वेद विकारका उदय वह वेद ३ * केवल ज्ञानीने अनंत कालके शब्दादी विषयको पहलेही जान रखे हैं इस लिये उनके कर्णादी अव्यय रुप हैं. उनके विषयसे उन्हे कुछ प्रयोजन नहीं है। Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानकल्पतरू. (१) स्त्री, (२) पुरुष, (३) नपुंसक. ६ “कसाय” कषाय संसारका कस्तारस] आके आत्माके प्रदेशषे जसे वह कयाय ४ [१] क्रोध, गुस्सा [२] 'मान' [अभीमान] [३] 'माया' [कपट] [४] 'लोभ' [तृष्णा] . ७“नाणे” ज्ञान-जिनसे पदार्थको जाणे वह ज्ञान ८ हैं. [१] 'मति ज्ञान' [बुद्धी] [२] 'अती ज्ञान [शास्त्रस्मबंधी] [३] 'अवधी ज्ञान' [रुपी सर्व पदार्थ जाणे] [४] 'मन पर्यव ज्ञान' [मनकी बात जाणे] [५] 'केवलज्ञान' [सर्व द्रव्य क्षेत्र काल भाव जाणे] [यह ५ ज्ञान-सम्यक द्रष्टीकों होते हैं.] [६] 'मति अज्ञान' [कुबुद्धी] २ 'श्रुती अज्ञान' कुशास्त्राभ्यास ३ 'विभंग ज्ञान' उलटा जाणे] [यह ३ अज्ञान मित्यात्व द्रष्टीको होते हैं.] ८"संजम” संयम-कोसे आत्मा का निग्रह करना रोकना वह संमय ७ हैं. १ 'अवृति' (जिस सन्यक ब्रटी ने निथ्यात्यले आत्माको वचाइ २ देशवृति श्रावक ३ सामाइक देशलें श्रावकका और जाव जीव साधूकी) ४ छै दोषस्थापनिय दोपलें निवारनेवाला) ५ परिहार 'विशुद्धी' 'शुद्ध चरित्र ६ 'सुक्ष्मसंपराय' (थोडा लोभविगर सब दोष रहित ७पथा Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयशाखा-धर्मध्यान. ९१ । ख्यात सर्वथा दोषरहित ९"दंसण" दर्शन-देखे या दरशे सों दर्शन ४ हैं. १ चक्षू दर्शन, आखोंसे देखे) २ अचक्षुदर्शन आं. खविना चार इन्द्रिसे और मनले दरशे) ३ अवधी दर्शन. (रुपीपदार्थ दुरके देखे और ५ केवल दर्शन सर्व द्रव्य. क्षेत्र, काल भाव देखे दर्श) १०"लेसा” कर्मसे जीवको लेशे (लेप चडावे. वह लेशा ६ हैं. १ 'कृष्ण लेशा' महा पापी २ नील लेशा' अधर्मी ३ 'कापूलेशा' वक्रस्वभावी, धीठ ४'ते. जलेशा न्यायवंत ५ 'पद्मलेशा' धर्मात्मा ६ 'सुक्ललेशा मोक्षार्थी और अलेशी अयोगी केवली व सिद्ध भगवत' ११“भव" संसारमें जीव दो तरहके हैं;१भव्य वह मोक्षगामी. और २'अभव्य' वह कदापि मोक्ष न जाय. (नो भव्यामध्य सिद्ध भगवंत.) १२ “सन्नि” संसारमें जीव दो तरहके १ 'सन्नि वह ज्ञान व मन युक्त; मातापिताके संयोगसे उत्पन्न होये लो, मनुष्य तिर्यंच और देवता ओं तथा नेरिये. और २ 'असन्नी' वह पांच स्थावर, तीन विकलेंद्री और समछिम माता पिता विन हुये मनुष्य, तिर्यंच, पचेंद्री. (नो सन्ना सन्नी सिद्ध भगवंत) . १३ सम्मे' यथार्थ पदार्थ की श्रद्धा वह सम्थ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२ ध्यानकल्पतरू क्व ७ हैं. १ 'मिथ्यात्व' वाह्या श्वरूप मिथ्यात्वका और अन्दर समकित पावे सो. २ 'सास्वादानीय' = लें श मात्र धर्म श्रधके, पडजायसो. ३ 'मिश्र' = श्रधाकी गडवड. ४ ' क्षयोपशमिक = मोह कर्मकी प्रकृती, कुछ क्षयकरी और कुछ उपशमाइ ढांकी) ५ 'औपशमिक मोहकी प्रकृती उपशमाइ. ६ 'वेदिक' प्रकृती वेदे ( यह क्षायिकके पेलह क्षण मात्र होती है) ७ क्षायिक मोहकी प्रकृतियों क्षय करे. १४ " आहारे" आहार करे वह आरिक, और मार्ग वहता ( एक सरीर छोड दूसरे सरीरमें जाता ) तथा मोक्षादिकके जीव अन- आहारिक. यह १४ ही मार्गणा तो अर्थकी सागार हैं, परन्तु ग्रन्थ गौरव के लिये ह्यां संक्षेपमें चेताया हैं. ध्यानी इने विस्तारसें चिंतवन करेंगें. " महावृत्त " महावृत-बडे वृत, जैसे तालाबके नाले रोकनेंसे, तलावमें पाणी आना बंद हो जाता है. वैसेही वृत प्रत्याख्यान ( पञ्चखाण) करनेसे जगतका पाप बंद हो जाता है. श्रावकके व्रतकी अपेज्ञा से बडेसो साधूजी के Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयशाखा - धर्मध्यान. ९३ पंचमहा-वृत, ध्यानी जन बहुत करके महावृती होतें हैं. इस लिये उन्हे अपने वृतोंपें ध्यान देनेकी बहुतही जरूर है. १ " सव्वं पाणाइ वायाउं वेरमणं" = अर्थात त्रस, स्थावर, सुक्षम, बादर, सर्व जीवोंकी हिंशा त्रिविध २* सर्वथा निवृते. ( सर्वथा हिंशा त्यागे). २ " सव्वं मुसं बायार्ड वेरमणं" = अर्थात्-क्रोधसे, लोभसे, हंसिसे, और भयसे, सर्वथा त्रिविधे २ मृषा (झूट ) बोलने से निवृते. ३ " सव्वं अदिनं दाणाउं वेरमण" -अर्थात थो डी, बहुत, हलकी, भारी, सचित (सजीव) और अचित (निर्जीव) इनकी सर्वथा प्रकारे त्रिविध २ चोरीसे निवृते. ४ " सव्यं मेहूणा वेरमणं" - अर्थात देवांगना की मनुष्याणी. और तिर्यंचणी, इत्यादी मैथुन सेवनेसे सर्वथा प्रकारे त्रिविधे २ निवृते. ५ " सव्वं परिगाहाउ वेरमणं” थोडा, बहुत, ह लका, भारी. सचित, और अचित, इत्यादि परिग्रह सें सर्वथा प्रकारे त्रिविध २ निवृते. * . करे नहीं मनसे बचनसे कायासे करावे नहीं मनसे बचन से कायासे, अच्छा जाने नहीं मनसे, वचनसे, कायासे ये ९ कोटी 1 Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानकल्पतरू. [छहा, सव्वं राइ भोयणं वेरमणं” अन्न, पाणी, मेवा मिठाइ, और मुखवास (तंबोलादी) इत्यादी अ हार रात्रीको सर्वथा प्रकारे त्रिविध २ नहीं भोग] ध्यानी इन महावृतोंको इनकी भावना भांगे तणावें सहित चितवन करनेसे अपने कृतव्य प्रायण होंगे. १२ “भावना.” १ “अनित्य भावना”- द्रव्यार्थिक नयसें, अविन्याशी स्वभावका धारक जो आत्मद्रव्य हैं. उससे भिन्न (अलग) रागादी विभाव रुप कर्म हैं. उनके स्वभावसे ग्रहण किये हुये. स्त्री पुत्रादी सचेतनद्रव्य, सु. वर्णादी अचेतन द्रव्य, और इन दोनोंसे मिले हुये मि श्र द्रव्य, जो हैं सो सर्व अनित्य, अध्रव, विनाशिक हैं. ऐसी भावना जिनके हृदयमै रमती हैं, उनका सर्व अन्यद्रव्योंपरसे ममत्वका अभाव होजाता हैं (जैसे वमन किये हुये पैसे ममत्व कमी होता हैं.) वो महात्मा अक्षय, अनंत, सुखका स्थान, जो मोक्ष उसे पाते हैं. . २“असरण भावना"-इस आत्माकों, ज्ञान दर्शन, चारित्र, तथा अरिहंतादी पंच प्रमेष्टी छोड, अन्य टेटि ट स ग म म गा in स. Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयशाखा-धर्मध्यान ९५ तंत्रादि कोइभी, सरण-आश्रय देनेवाले नहीं है. यथा द्रष्टांत-(१) जैसे हिरणके बच्चेको सिंहनें ग्रहण किया. उसे छोडाने सामर्थ दूसरा हिरण नहीं होता. (२) तथा समुद्र में झाजमेंसे पडे हुये मनुष्यको कोइ आश्रयभत नहीं होता हैं; तैसे. ऐसा जाननेवाले परद्रव्यसे ममत्व उतार, एके-निजस्वभाव-निजगुणकाही आलंबन करेगे; वोही निजात्म स्वरूप-सिद्ध अवस्था कों प्राप्त होंगे. . ३“संसार भावना"-इस संसारमें, जिले द्रव्य हैं, उन सबको. ज्ञानावरणियादी अष्ट कर्मके योगसे; तथा शरीर पोषणेके लिये. अहार पाणी यादीसे तथा श्रोतादी इन्द्रियोंसे, अपने जीवने अनंतवार ग्रहण कि ये और छोडे, इसे द्रव्य संसार कहना. तथा (२) असंख्य प्रदेशसें व्याप्त यह लोक हैं, उनमेसें एकेक प्रदेशपे. यह जीव अनंत वक्त जन्मा और मरा, यह क्षे. त्र संसार हैं. (३) तथा सर्पणी और उत्सर्पणी काल २० कोटा-कोटी सागरका हैं, उसके एकेक समयमें इस जीवने जन्म मरण किये, यह काल संसार. (४)और क्रोधादी ४ कषायके मनादी त्रियोगके जो प्रकृत्यादी बन्धके भाव हैं, उन्हे अनंत वक्त ग्रहण कर२ के छोददिये. यह भाव संसार, ऐसे ४ प्रकारके संसारमें Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६ ध्यानकल्पतरू. यह जीव अनादि कालसे परिभ्रमण करता थका नहीं. अब इस भ्रमणसें निर्बत संसारकी घ्रणा लावेगा, वोही मोक्ष पावेंगा. ४ “एकत्व भावना"- इस जीवकों सहजानंद (स्व. भावसे होता) सुखकी सामुग्री देनेवाला. अनंत गुणका धारक कैवल्य ज्ञान हैं. वोही आत्माका स हज सरीर हैं; वोही अवीन्याशी हित कर्ता है. और द्रव्य सजनादी कोइभी हितकर्ता नहीं हैं. क्यों कि अन्यपदार्थ, मनको विकल्प उपजाते है, और अनेक प्रकारका दुःख देते है. ऐसा जान सर्व बाह्यवस्तुओंसे ममत्व उतार, एक आत्मापेही जो द्रष्टी जमावेगा. वोही आत्म तत्वकी खोज कर निजानंद-सहजानंद सुखको प्राप्त होगा. . ५“अन्यत्वे-भावना” जगत्में रहे हुये कि नेक सजीव पदार्थोंको कुटुम्ब समजते हैं. और किनेक अजीवको सहायक मानते हैं. परंतु वो सर्व कर्माधीन और कर्ममय हैं. वो बेचारे आपही सुखी होने सामर्थ्य नहीं हैं, तो अपनेको क्या सुख देगे. वो अपनेही विनाशले बच नहीं सक्ते हैं, तो अपनेको क्या बचायंगे. इत्ने काल जो इस जीवने संसारमें दुःख पाया, वो सब उन्हीका प्रशाद Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयशाखा-धर्मध्यान. ९७ ।। हैं. ऐसा निश्वय करके हे जीव ! अन्य सर्व पदार्थ अलग हैं. और में शुद्ध चैतन्य अलग हुं. यह मेरे नहीं में इनका नहीं. ऐसा विचारता सर्व द्रव्यसे अलग हो, अपने निज स्वरूपको प्राप्त कर सुखी होवे. ६ “अशुची-भावना,” इस सरीरको शुची करने, कित्नेक असंख्य अपकाय(पाणी)के जीवोंका बध करतेहैं, सो भिष्टाके घटको शुची करने जैसा करते हैं. देखीये यह सरीर रुद्र और शुक्रके संयोगसे तो उत्पन्न हुवा हैं. दुग्ध, और भिष्टाके क्षातसे उत्पन्न हुये पदार्थोंके भक्षणसे वृधी पाया, और जिन पदार्थोंकी इस सरीमें वृधी हुइ वोभी अशूची हैं. इस सरीके संयोगसे सु. ची पदार्थ अशूची होतें हैं. सुर्भिगंधी दुर्गंधी होते हैं. परशंसनिय, निंदनिय होतें हैं. मनहर दुगंछनिय होते हैं. बहूत कालसे सेप्रेम संग्रह करके रखे हुये पदार्थ इस सरीरका सम्बध होतेही, उकरडीपे डालने जैसे वन जाते हैं !! और इस सरीरमेंसे निकलते हूये सर्व पदार्थ, घ्रगाको उत्पन्न करते हैं. ऐसे इस सरीरमें प्रेम उत्पन्न करने जैसा कोनसा पदार्थ हैं ? परन्तु मोहमघमें छके हुये जीव अशुचीकोंही प्राण प्यारे बनाते हैं. इससे और ज्यादा अज्ञान दिशा कोनसी? उनकेही सरीरके.. उनको प्यारे लगते पदार्थ, सरीरसे अलग कर Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानकल्पतरू. उनहीके हाथमें देके देखीये. वो कैसा प्यार करते हैं. इत्यादि विचारसे अशुची सरीरपेसें ममत्व त्याग, इस सरीरके अन्दर रहा हुवा जो आत्मा (जीव) परम पवित्र ज्ञानादी रत्नोका धारक हैं. उसे अशुचीमय कराग्रह (केदखाने) से छुडानेके लिये ब्रम्हचायी प. वित्र वृत्तोंको धारण कर, परम पवित्र शिवस्थानका • बासी बनावो. ७"आश्रव-भावना" जैसे सछिद्र नाव पाणीमें डूबती हैं. वैसेही मिथ्यात्व, अवृत, प्रमाद, कयाय,इन पाप रूप पाणी, शुभाशुभ जोग रुप छिद्र करके, आस्मरूप नावमें प्रवेश कर, संसार रुप समुद्रमें आत्माको डुवाता हैं. ऐसा जाण आश्रावको छोडके आत्मा को संसार समसे तारनेका उपाय करे.. ८"संवर-भावना" अश्रव तत्वमें आत्माकों इ. बाने वाले बताये. उनको रोकनेका उपाय, सों संवर सम्यक्त्व, वृत, अप्रमाद, अकषाय, और स्थिरयोग है. इनसे रोक, ज्ञानादी रत्नत्रय रुप अक्षय निधीके साथ संसार समुद्र के किनारे, मोक्ष रुप पट्टन हैं, उसे प्राप्त करे. ९"निर्जरा-भावना" जीवका स्वभाव तो मोक्षमें जानेकाही है; परंतु अनादी सम्बंधी कर्म रुप वजनसे दबकर जा नहीं सक्ता हैं. जैसे तुम्बेका स्वभाव Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयशाखा-धर्मध्यान ९९ तो पाणीके उपरही रहनेका होता है; परन्तु उसपेको इ मट्टीके और सनके ८ लेप लगाके, सुकाके, पाणीमें डाले तो तुर्त पातलमें बेठ जाताहैः फिर पाणीके से योगसे उसके लेप गलने से वो उपर आताहै, तैसेही जीव रुप तुम्बा, अष्ट कर्म रुपये लेपकर, संसारमेंडबरहाहै; उन लेपोंको गलाने, मुमुक्षुजन द्वादश (१२) प्रकार की तपस्या कर, कर्म लेपको गाल, संसारके अग्र भागमें जो अनंत अक्षय सुख मय मोक्ष स्थानहै, उसे प्राप्त करतेहै. १० “लोकभावना" अनंत्तानंत आकाश रुप अलोकके मध्य भागम, ४४३घनाकार राज जिले क्षेत्र में लोक हैं, लोककें मध्यमें १४ राजू लन्बी और राज चौडी त्रस नाल हैं. उसमें त्रस और स्थावर जीव भरे है, और बाकीका सर्व लोक एक स्थावर जीवहीसे भरा हैं. लोक के उपर अग्र भागमें सिद्ध स्थान हैं. जो जीव कर्म से मुक्त होतें (छूटते) है; वो सिद्ध स्थान में विराजमान होते हैं. फिर वहां से कदापी चलाय ___*३,८१,२७,९७. मण लोहके एक गांको एक भार कहते हैं. ऐसे हजार गोलेका एक गोला बना. कोइ देस्ता बहुत उपरसे छोडे, वो १ महान, ६ महर, ६ दिन, ६ घडीमें निना क्षेत्र उही सो एक राज क्षेत्र Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० ध्यानकल्पतरू. मान नहीं होते हैं. सदा निरामय सुखमें लीन रहते हैं. हे आत्मा! उल स्थानको प्राप्त होनेका उपाय कर.. ११“बौध बीज दुर्लभ भावना"-ओर सर्व वस्तु प्राप्त होनी सहज है. परंतु बौध-बीज सम्यक्त्व रत्नकी प्राती होनी बहुतही मुशकिल है; सो विचारीये. बौध बीज की प्राप्ती विशेष कर, मनुष्य जन्ममें ही होती है, "दुल्लाहा खल्लु माणुसा भवे” अर्थात मनुष्य जन्म मि. लना बहुतही मुशकिल हैं. ९८ बोलकी अल्गाबहुतमें पहलेही बोलमे कहा हैं की-“सबसे थोडे गर्भज मन प्य" इस बोलकी सिद्धी करते है-३४३ राजूका संपूर्ण लोक जीवोंसे ठसाठस भरा है, बालाग्र जित्नीभीजगा खाली नहीं हैं. उसमें त्रस जीव फक्त १४ राजमें है. जिसमें ७ राजु नीचे नर्क और७ राजू माठेरा (कुछकम) उपर स्वर्ग जिसके बीच में १८०० जो जनका जाड़ा और १राजू चौडा तिरछा लोक गिना जाता है; जिसमें असंख्य द्विप समुद्र है. उसमें ४५ लाख जोजन मेंही म . नुष्य लोक गिना जाताहै. जिसमे. २० लाख जोजन तो समुद्र ने रोकोह. और कुलाचलों (पर्वतो) ने, नदीयोने बनो ने बहुत ज़गा रोकी, मनुण्यके तो फक्त १०१ क्षेत्रहैं.(इत्ने थोडे मनुष्य हैं)जिसमें फक्त १५क्षेत्र कर्म भूमीके हैं. उसमें. भीआर्य भूमी कम हैं. जैसे भर्त Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयशाखा-धर्मध्यान. १०१ क्षेत्रके३२००० देशमें फक्त २५॥ देश आर्य हैं. ऐसे अन्य क्षेत्रोंमे भी आर्यभूमीकी नुन्यता है. और १५ क्षेत्र में से फक्त ५ महा विदेह क्षेत्रमें तो सदा धर्म करणी का जोग रहता हैं, और भरत ऐरावत १० क्षेत्रोंमें दश क्रोडाकोडी सागर सरपणी कालमें फक्त १ क्रो डाकोडी सागरही धर्म करणीका होता हैं. सो प्राप्त होना बहूत मुशकिक हैं. ये भी मिलगया तो आर्यक्षेत्र, उत्तम-कुल. दीर्घ आयुष्य. पूर्ण-इन्द्रीय. निरोगीसरीर. सुखे उपजीविक, सद्गुरु दर्शन. शास्त्र श्रवण-मनन-निध्यासन. होके भी भव्य पणा. सम्यक द्रष्टिपणा. सुल्लभबौधी, हलूकी. स्वल्प संसारीपणा वगैरे जोग मिले, तव धर्मपर रुची जगे; और बौध बीज सम्यक्त्वकी प्राप्ती होवे. देखा ! कित्ना दुल्लभ बौध बीज मिलता हैं सो, हे भव्य जनो!! अत्यंत पुन्योदयसे अपन बहोत उंचे आये हैं. बौध बीज हाथ लगा हैं (तो अब इसे व्यर्थ न गमाते) आत्म क्षेत्रमें इस बीजको रख, ज्ञान जल (पाणी) से सींचन करो, की जिससे धर्मवृक्षलगे जो मोक्ष पल देवें. १२ “धर्म भावना"-"धारयेति धम्म पडतेजी. वको धर (पकड) रखे सो धर्म. “संसारंभी दुःख पउ रए" संसार सागर महा दःखसे भरा हैं. इसमें पडतें . Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ ध्यानकल्पतरू. जीवको रोकके, मोक्ष स्थान में पहोंचावे सो धर्म कहा जाता हैं. मोक्षार्थीको धर्मकी बहुत अवश्यकता हैं, वो धर्म कौनसा ? जैन कहे - “धम्मो मंगल मुक्कीठं, अहिंसा संजमोतवो" अर्थात मंगलकाकती, सर्वसें उत्कृष्ट धर्म वोही है की जो अहिंशा (दया) संयम (इन्द्रीय दमन) और तप करके संयुक्त होए. वेद कहते है" अहिंशा परमोधर्मः” अर्थात् परमोत्कृष्ट धर्म वोही है की जहां अहिंशा (दया) ने सर्वांग निवास किया हैं. पुराण कहते हैं- “अहिंशा लक्षणो धर्मः अधर्मः प्राणी नां बधः" अर्थात अहिंशा (दया) है सो धर्मका ल क्षण और हिंशा हैसो अधर्म हैं. कुरान कहते हैं. "फला तजअन् कुंम मकावरलहय वनात" अर्थात तूं पशु पक्षीकी कबर तेरे पेटमें मतकर. बाइबल कहते हैं" दाउ शाल्ट नोट कील” (Thou shalt not kill)अतूं हिंशा करे मत. इत्यादि सर्व शास्त्रोंमें धर्मका मूल 'दया' ही फरमाया हैं. दयाके दो भेद, १ परदया तो छे काय जीवकी रक्षा करना, और २ स्वदया सो अ पनी आत्मको अनाचीर्ण (कुकर्मों) से बचाना, की जिससे अपणी आत्मा, आगमिक कालमें, सर्व दुःखसे छूट मोक्षके अनंत अक्षय सुखकी प्राप्ता करे. यह १२ ही भावना, मुमुक्षु प्राणीयोंकों मोक्ष Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयशाखा-धर्मध्यान १०३ । गमन करते हुये पंक्तीये निसरणी रुप हैं. . “पञ्चेन्द्री योपशमता.” १ श्रोतेंद्री='कानका स्वभव जीव, अजीव, औ र मिश्रके शब्द ग्रहण करने का हैं, इसके वशमें पड मृगपशु मारा जाता हैं. २ 'चक्षु इन्द्री'=अँखका स्वभाव काला-हरा-लाल-पीला और श्वेत, रुपको ग्रहण करनेका हैं, इसके वशमें पडके पतंग मारा जाता हैं. ३ 'घणेन्द्री' नाकका स्वभाव सुर्मिगंध और दुर्भिगंध कों ग्रहण करनेका हैं. इसके वशमें पड भ्रम्रपक्षी मारा जाता हैं. ४ 'रसेंन्द्री' जिव्हाका स्वभाव-खट्टा-मीडा-तीखा-कड-कषायला, रसकों ग्रहण करनेका हैं. इसके वशमें पड़ मच्छी मारी जाती हैं. ५ 'स्परझेंद्री'= कायाका स्वभाव हलका-भारी-ठन्डा-उन्हा-लुक्खा-चि. कना-कोमल-खरदरा स्पॉकों ग्रहण करनेका हैं. इ. सके वशमें पडके हाथी माराजाता है. अब जरा सोचीए, एकेक इन्द्रिके वश्यमें पडे, उनकी अकाल मृत्यू हुइ; तो जो पांचही इन्द्रिके वशमें पडे हैं. उनका क्या हाल होगा? कृतकर्मका बदला दुर्गतिमें जाके अवश्यही भोगवेंगे. . अज्ञानसें जीव दुःखरूप इन्द्रियोंके विषयमें सुख मा Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानकल्पतरू. नते है. यह अश्चर्य (तमाशा) भी तो जरा देखीये! [१] जो शब्द सुननेंसे सुखही होयतो गाली सुन संतस क्यों होते हैं, क्योंकि उत्पती और ग्रहण करनेका स्थान तो एकही है, और जो गालीयोको दुःख रूप मानते है वो स्नेही स्त्रीयोंकी गाली सुन खुशी क्यों होते है. [२] रूप देखके प्रसन्न होते हैं तो अशुची देख क्यों घ्रणा (दुगंच्छा) करते है. क्योंकि वोभी कोइ वक्त में चित को हरण करने वाला पदार्थ था! तथा आगमिक गालमें रूपान्त्र पाके मजा देनेवाला होजाता है. और सच्चीही अशुचीसे नाखुष होवे तोस्त्री सम्बन्ध अशुची के मथनमे क्यों मजा मानतें है. [३] दुगंध आ नेसे नाक क्यों फिराना, क्योंकि बोभी एक तरहकी गंध है. रूपांत्र हो मनहर हो जाती हैं. और जो सच्चेही दुगंध से नाराज होते हो तो मृत्यु लोककी ५०० जोजन उपर दुगंध जातीहै, उसमें क्यों राचे है. [४] मन्योग-मधुर रस सेही जो सुख पाते है वो तो फिर हकीमसे क्यों कहे के शकर खाइ जिससे बुखार आगया, और घृत खाया जिससे खांसी होगइ. जो घृत शक्कर जैसे पदार्थ ही दुःख दाता हैं. तो फिर अन्यका क्या कहे. वैदक करता है जम्मापी ते गाणी" अर्थात रसका Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयशाखा-धर्मध्यान. १०५ भोग रोगकाही कारण हैं. फिर इसमें सुख कैसे गाने? ५ चित मुनीने ब्रम्हदत्त चक्रवृतसे कहा है-“कब्ज आभरण भारा, सव्व काम दुहा वहा" अर्थात सर्व भूषण (गहणे) भार भूत हैं, और सर्व भोग दुःख दा ता हैं, सो सञ्चहीं हैं. जैसे सुवर्ण धातू हैं वैसा लोहा भी धातू हैं. राजाकी तर्फसे सुवर्णकी बेडीकी बक्षील हुइ तो खुश होवे, हमें पांवमें पेहरने सोनामिला. औ र लोहेकी बेडीकी बक्षीस होनेसें रुदन करते हैं. इस विचारसे जाना जाता है, की भूषणमें सुख दुःख नहीं, माननेमेंही है! ऐसेही सर्व काम भोग दुःखदाता है, उनका नामही विषय भोग है; अर्थात जेहर खाना परन्तु; जैसे विष (जेहर) और विशेष 'य' प्रत्यय हैतो यह जेहरसेभी अधिक घाती है. भगवंतने फरमाया है कि “कामभोगाणुरयणं अनंत संसार” बढणं, अर्थात्काम भोगमें रक्त रहनेसे, अनंत संसार बढता है. म. तलवकी-विषत्तो एकही भवमें मारता है; और विषय भोग अनंत भवतक मारतें है, बडे २ विद्वानोंकों और महा ऋषियोंको बावला बनादेता है. ऐसा दुरुधर जेहर है. विषय सुखकी इच्छा कर, भोगवते है, परन्तु क्या २ हानी होती है सो देखो, शक्ती, बुद्धी, तेज; स्तव.इनको नष्ट कर. अत्यंत लब्धतासे. सुजाक आदी.. Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ ध्यानकल्पतरू. रोगोंसें, सड, कीडेपड, मरके नर्कमें पोलादकी गर्मागर्म पूतलीके साथ गमन करते अक्रांद करते है. ऐसे दुःखके सागर विषयको सर्व सुख सागर माने वो शाणा कैसा. ७ इश तमाशेपे लक्ष दे, धर्म ध्यानी पंचन्द्रियके विषय भोगकी अभीलाशा रूप अज्ञानताको दूर कर, निर्विषयी-निर्विकारी-बन सुखी होते हैं. 'दया-द्र भावः' श्री सुयगड़ांग सूत्रके द्वितीय श्रत्स्कंधके प्रथम अध्ययन में भगवंतने फरमाया हैं. PNA तत्थ खलु भगवंता छ जीवनिकाय हेउ पणता तंजहा, पुढ़वी काए जाव तसकाUE ए, से जहाणामए मम अस्सायं दंडेणवा का अठीणवा. मुठीणवा, लेलूणवा, कवाले । णवा, आउट्टिज्जमाणसवा, हम्ममाणस्सवा तजिज्जमाणस्सवा. ताडिज्जमाणस्सवा. परियाविज्ज माणस्सवा. किलाविज्जमाणस्सवा. उद्दविज्जमाणरसंवा; जाव लोमुख्वणणमायमवि हिंशाकारगं दुख्खं भयं प * सवैया-दीपक देख पतंग जला. और स्वरशद सुण मृग दुः खदाइ; सुगंधलेइ मरा भ्रमरा और, रसके काजमच्छी घिरलाइ कामके काज खुता गजराज, यह परपंच महा दुःखदाइ; जो अम Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयशाखा-धर्मध्यान १०७ . डिसंवेदेमि; इच्चेवं जाण सव्वेजीवा, सव्वेसमता, सव्वे पाणा, सव्वेसत्ता. दंडेनवा जाव कवालेणवा आउटिजमाणावा. हम्ममाणावा. तज्जिज्जमाणावा, ताडिज्जमाणावा, परियाविज्जमाणावा. किलविज्जमाणावा. उद्द विज्जमाणावा. जाव लोमुख्वणणमायमवि; हिंशाका रगं दुवंभयं पड़िसंवेदेति. एवं नच्चा सव्वेपाणा जाव सत्ता णहंतव्वा.ण अज्जावयब्बा. ण परिघेतब्बा; ण परित्तावे यब्बा; ण उद्दवेयब्वा; ॥श्री॥ से बेमी जेय अतिता. जेय पडुपन्ना. जेय आगमिस्सामि. अरिहंता भगवंता. स ब्वेते एव माइक्वंति. एवं भासंति. एवंपरुति सब्वे पाणा जाव सब्बे सत्ता ण हतब्वा ण अज्जावेयब्वा. ण परिघेतब्वा; ण परितावेयव्वा, ण उद्दवेयव्वा. एसे धम्मे धुवे, णीतिए, सासए. समिच्चलोगं खेयन्नहिं पवे देति. . 'अर्थ, द्वादश जातकी प्रषदामें भगवंत श्री तिर्थकर देवने, निश्चयके साथ फारमाया हैकी; छे जीवकायोंकी हिंशा-कर्मबन्धका कारण है. वो छ जीवका याके नाम कहतेहै, पृथवी. पाणी, अग्नी, वायू, विनस्पति, और त्रस, इनको दुःख देते, जैसा दुःख होताहै वो ह्यां द्रष्टांत करके बतातें है. “जैसे मुजे असाता Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ ध्यानकल्पतरू. देव दंडेसे, हड्डीसे, मुष्टीसे, पत्थरसे, कंकरसे, मुजे मारते. तर्जना,-ताडना करते, परिताप उपजाते, दुःख देदेते, उद्वेग उपजाते, या जीव काया रहित करते, जाव त् सरीरपेका रोम (बाल) मात्रभी उखाडते. इन हिं. शाके कारणोंसे जैसा दुःख और डर मेरेको होता है, ऐसाही जाणो-सब जीव (पचेंद्रीयों) को, सर्व भूत (वि नास्पति) को, सर्व प्राणी (बेंन्द्री तेन्द्री चौरिन्द्री) को और सर्व सत्व(पृथवी,पाणी, अग्नी, वायु)कों दंडेसे मारतें जावत् कंकरसे मारते, अक्रोश, ताडन, तर्जन करते. परिताप उपजाते, किलामणा (दुःख) देतें- उद्वेग उपजाते. जावत् जीवकाया रहित करते रोम मात्र उखेडतेभी, इन हिंशाके कारणोंसे वो जीव दुःख और डर मेरे जैसाही मानते है-अनुभवते हैं.” ऐसा जाणके सब प्राण, भूत, जीव, सत्वको मारना नहीं, दंडसे ताडना नहीं, बलत्कार जब्बर दस्तीकर पकडना नहीं. या किसी काममें लगाना नहीं. सरीरी, मानसीक दुःख उपजाके परिताप देना नहीं. किंचितही उपद्रब करना नहीं; और जीव काया रहितभी करना नहीं. ऐसा उपदेश गयेकालमें जो अनंत तिर्थकर हये वृतमानमात्र जो विटामान है और वे काळों अ.. Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयशाखा-धर्मध्यान १०९ नंत तिथंकर होयंगे उन सबहीनें ऐसाही फरमाया है, संदेह रहि कहाहै ऐसा परुपा है, ऐसा उपदेश दिया है, की-“सर्व प्राण भूत जीव सत्तवको, मारन ताडन, तरजन परिताप, करना नहीं, बंधनमें डलना नहीं, स रीरी मानसी दुःख उपजाना नहीं, जावत् जीव काया रहित करना नहीं, येही धर्म दया मय निश्चल है. नि त्य है. शाश्वता (सनातन) हैं. इन बचनको विचारनाकी सब जीव बेचारे कर्मोंके वशमें हो दुःख सागरमें पडे है, उनके दुःखको जाणनेवाले खेदज्ञ. ऐसे श्री तिर्थंकर भगवानने फरमाया हैं. की सवकी दया पालो! रक्षा करो!! गाथा कल्लाण कोडिअणणी, दुरंत दुरियाखिग्गठवणी. संसार भवजलतारणी, एगंत होइमिरिजीवदया___ अर्थ-क्रोडो कल्याणको जन्म देने वाली. दुरदंत दुरित (पाप) के नाशकी करनेवाली, संत पुरुषोंके स्थान रूप. संसार महा सागर को तारने नाब स ॐ दीर्घद्रष्टीसे महा दयाल श्री तिर्थंकर भगवानके वचनोंकेतर्फ लक्ष दीजीये! खुद भगवानही फ़रमाते हैकी, छ कायको हिंशा करनेसे उन्हे मेरेही जैसा दुःख होताहै! ऐसे दयाल प्रभूको छही काया की हिंशा कर खुशी करना चहातें है. यह कित्नी जबर माहे दिशा !! स Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० ध्यानकल्पतरू. मान. इत्यादि अनेक सूकार्योंकी करनेवाली श्री जीव दयाही हैं. ____ 'दयाही धर्मका मूल है, सर्वमत मतांतर एक दयाकेही सारेसें चलरहे है. दया-अनुकम्पाही सम्यक्त्वीयो (धर्मात्माओं) का लक्षण है. ऐसी पवित्र द• याको धर्म-ध्यानी आपणी आत्मामें सदा निवास देते है, अर्थात सदा दयाद्र भाव रखते है. दयाल अन्य जीवोंको दुःखीदेख करुणा लाते है. त्रस स्थावर जीवोंको सरीरिक. (रोगादिक) और मानसिक (चिंता)से पीडित देख, करुणा लावे. जैसे अञ्ची कोइ दयवंत किसी बधीर (बैरे) को देख, वि चारते हैं की, इस बेचारेके कैसा पापका उदय है, की यह सुण नहीं शक्ता है. बधीर और अन्धा दोनो दुः खसे पिडित देखनसे विशेष दया आती है. वैसेही किसीको अंगोपांग व अन्न वस्त्र हीन देख, रोग सो * श्रेणीक राजारेसुत, हाथी भवदया पाली; मेघराथ दयकाज, माडदीयो मरणो, धर्मरुचीदयाधार, करगयाखेवापार; श्रेणिक पड हवनायो, सूत्रमें निरणो; नेम ने दया पाली, छोडदी गज लनारी; मेतारजदयापाल मेठ दियोमरणों; तेवीसमां जिनराय, तापसके पासजाय, जीवने वचायदीयो-नवकारकोसरणो; सवैयोसवायो कीयो घनाश्रीनामदीयो; जीवदया धर्मपालो, जो ये --... me. minी narr: Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयशाखा-धर्मध्यान. -१११ गसे पीडाते देख, बहुत दया आती है, तैसेही बेचारे तिर्यंच (पशु) अन्न वस्त्र गृह रहित निराधार है, परा धीनता से क्षुधा त्रषा-शति - ताप आदी अनेक दुःख भोगवते है, तिर्यच पचेंद्रीसे चौरिंद्रीकों दुःख ज्यादा है क्यों कि वो एक इन्द्रि रहित है. चौरेिंद्रीसें तेंद्री में, सेंद्रीसे, बेंद्री. बेंद्रसेि एकेंद्री में और एकेंद्रीसे निगोद (कंदमूलआदी) में दुःख अधिक है. क्यों कि ये एक सरीरमें अनंत जीव एकत्र रहते है. एक महोर्त ( ४८ मिनट) में ६५५३६ जन्म मरण करते है. इत्नी वे बसी है की, दुःखसे छूटने का उपाय करनेकी शक्ती दूर रही, परन्तु अपना दुः ख दूसरेको दरसाभी नही शक्ते हैं! वेचारे कृर्तकर्मके फल भुक्ततें है. और उनकी घात करनेवाले वैसेही नवे कर्मोंका बंध करते है; वो भोगवते उनके भी ऐसेही हाल होते है. ऐसा ज्ञानसे जाणनेवाले, फक्त एक श्रीजिनेश्वरके अनुयायीयों अहै. वोही सब जीवोंको अभय देते हैं, नहीं तो सब स्थान घमशाण मच * एकेंद्रीकी हिंशा सें बेंद्रीकी हिंशामें पाप ज्यादा वेदसि तंत्रीकी, तेंद्र से चोरिंद्रीकीमें, और चोरिंद्रांसे पचेद्रीकी हिंसा पर प ज्यादा इसका मतलब यह है की, जो उस स्थिती को प ये है वो अनंतानंत पुन्यकी बृत्री होने जैसे गरीबको गाली Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ ध्यानकल्पतरू. रहा हैं. मेरे जब्बर पुन्य है, की श्री जैन धर्मका ज्ञान मुजे प्राप्त हुवा. सुयगडायंग सूत्रमें फरमाया है की “एयं खु गाणीणो सारं, जन हिंसइ किंचणं" अर्थात् निश्चय से ज्ञान प्राप्त करनेका सार येही है की, किंचित मात्र जीवकी हिंशा नहींज करना! इस लिये अब मै, सब जीवोको त्रिजोगकी विशुद्धी से अभय दानका दाता बनू. सबके वैर विरोधसे निवृतं के फिर मुजे मोक्षमे जाते कोइभी किसीप्र कार की हरकत करनें समर्थ न होय, दयाही मोक्ष का सच्चा हेतू हैं. "बन्ध, कर्म बन्धनसे छूटनेसेही जीव को मोक्ष मिलता है, इस लिये मुमुक्षू को बन्धका स्वरूप जाणने की आवश्यकता हैं वह बन्ध के कारण सुत्रमें ४ बताये हैं. सो-“पयइ ठिइ'रस'पएसा" अर्थात् १ प्रकृती बन्ध, २ स्थिती बन्ध, ३ अनुभाग बन्ध, ४ प्रदेश बन्ध, देनेसे कोइ गिनतीमें नहीं लाता है, औरवडेको गाली देने से बड संकटमें पड़ जाता है, तैसे. तथा जिनी उच्च स्थितीको प्राम हुव है, उत्नेहो आत्म कल्याण के नजीक आये. उनको, मारनेसे उन के आत्म कल्याण का जब्बर नुकशान करना है, तथा Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयशाखा-धर्मध्यान ११३ यह ४ बन्धका का स्वरूप मोदक (लड) के द्रष्टांत से कहते हैं. (१) 'प्रकृतीबन्ध' का स्वभाव-जैसे सूठादिक से निपजें मौदकका स्वभाव होता है की; वायुनामें रोगका नाश करना; तैसे ज्ञानावरणी कर्मका स्व. भाव है की; ज्ञानकू ढकना. २ दर्शनावरणी कर्मका दर्शनको ढकना, ३वेदनीसे निराबाध-सुखकी हानी, ४मोहणीसे सम्यक्त्वकी हानी, ५ आयुष्यसे अजरा मर पदकी हानी. ६ नाम कर्मसे अरूपी पदकी हानी, ७ गोत्रकर्मसें अखोडकी हानी, और ८ अंतराय कर्मसें अनंत शक्तीकी हानी होती है. (२) 'स्थिती बंध'का स्वभाव, जैसे वो मोदक महीनादी काल तक टिकतें हैं. तैसे ज्ञानावरणी, दर्श. नावरणी, वेदनी, अंतराय, यह उत्कृष्ट ३० क्रोडाकोड सागर. मोहक ७० क्रोडाकोडी सागर आयुष्यकी ३३ सागर और नाम तथा गोत्र कर्मकी उत्कृष्ट तिथी२० क्रोडाक्रोड सागरकी हैं. (३) 'अनुभाग बन्ध' का स्व भाव, जैसे उन मोदकमें कोइ कडूवा होवे, कोइ मीठा होवे. तैसें ज्ञानावरणी, सूर्यको बद्दल ढके जैसा. दर्शनावरणी-आँखका पट्टा बन्धे जैसा. वेदनी-मद्य(सेहत ) भरी तरवार चाटे जैसा, मोहनी-मदिरा Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानकल्पतरू. के नशेके जैसा. आयूष्यखोडे जैसा. नाम-कुम्भार जैसा गौत्र-चित्रकार जैसा; और अंतराय पहरायत जैसा है. (४) 'प्रदेशबन्ध'का स्वभाव, जैसे वह मोदक कोइ दु गणी, और कोइ तिगुणी सक्करके होते हैं, तैसे किले क कर्मका बन्ध स्थिल (ढीला) और किनेका निवड (मजबूत) होता है, कोइ हश थोडी स्थितीवाले, और कोइ दीर्घ (लाम्बी) स्थितीवाले. होते हैं... ___ इन चार बन्धमेंसे, प्रकृती और प्रदेश बंध तो योगोंसे होता है. तथा स्थिती और अनुभाग बन्ध कषायोंसे होता हैं. इन बन्धनसे जीव आनादीसे बन्धा है. किसीको तिबरसोदय, और किसीको भंद रसोदय हुवा है. ऐसे जगतवासी जीवोंके देखते हैं की कोइ क्ररुर प्रकृती वाले, और कोइ शांत प्रकृतीवाले, कोइ दीर्घायुषी तो कोइ अल्पायुषी, कोई सूसंयोगी तो कोइ दूसंयोगी, और कोई सूवर्ण सूसंस्थानी तो कोइ दुवर्ण दुसंस्थानी. इत्यादीके प्रसंगसे अच्छेपे रा ग और बुरेपे द्वेश नहीं करना, क्यों कि वो बेचारे क्या करें, जैसा २ जिनकें बन्धोदय हुवा है. वैसा वैसा संयोग बना है, इसे पलटानेकी उनमें सत्ता है, जो अपन उनको खोडीले कहै! इत्यादि विचारसे, स्वस श्री नागो An in resी Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयशाखा-धर्मध्यान. समभाव रक्खे; जिससे सदा परमानंदी, परम सुखी बनें रहैं. - "मोक्षगमना" पहले जो बन्धका वर्णन किया, उस बंधसे मु क्त होवें (छूटे) उसेही मोक्ष कहते हैं. जैसे बन्धनकें योगसे तुम्बा पाणीमें डूबा रहता है और वह बन्धन टूटतेही उस तुम्बेका पाणी उपर आके ठेहरनेका स्व भाव हैं. तैसेही जीव कर्म बन्धनसे छूटतेही, मोक्षस्थानमें जा ठेहरनेका स्वभाव हैं. वह मोक्ष स्थान लोकके मध्याभागमें जो त्रस नाल १४ राजू लम्बी है उसके उपर अग्रभागमें, एक सिद्ध शिल्ला, ४५ लक्ष योजनकी लम्बीचौडी (गोलपतासे जैसी) मध्यमें ८ जोजन जाडी, कम-होती २ किनारेपे अत्यंत पतली है. श्वेत सुवर्णकी हैं. उसपे एकही जोजन लोक हैं. उस जोजनके उपरके छट्टे विभागमें सिद्ध स्थान मोक्षस्थान हैं. वहां मोक्ष प्राप्त हुये जीवके विशुद्ध निजात्म प्रदेश संस्थित (रहें) हैं. अलोकको लगे हैं. वो सिद्ध भगवंत कैसे हैं. * जैसे पाणीके आधार विन तुम्वा आगे जाता नही हैं. तैसे हा धर्मास्तिके आधार विन जीव मोक्ष (लोकाग्र) के आगे (पा. - - --- - -- *. Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानकल्पतरू. सारा आत्मो पादानमिद्धं स्वयं मतिशय व हीत बाधं विशालं वृद्धी हास व्यापेतं विषयविरहित-निष्प्रति द्वन्द्व भावम्. अन्यद्रव्या न पेक्षं निरूपं मामितं शाश्वतं सर्वकाल मुत्कृष्ठा नन्तसारं परम,सुख मतस्तस्य सिद्धस्य जातम् १ ___ अस्यार्थ-श्री सिद्वप्रमात्मा, निजात्म स्वरूप संस्थित. स्वय अतिशय युक्त, अव्वबाध (सर्व व्याधा निर्मुक्त) हानी बृद्धी रहित. प्रतिपक्षिकता बर्जित. अनौपम-किसीभी द्रव्यकी औपमारहित. ज्ञानादीकी अपेक्षा अपार. नित्य, सर्व काल उत्तम. परम सा रयुक्त इत्यादी अनंत सुख सिद्ध परमात्मा विलसतें हैं. औरभी सिद्ध परमात्मा अतिन्द्रिय सुखके भुते हैं. क्यों कि इन्द्रि जनित सुखतो फक्त कहने रूपही हैं. परिणाम उनका दुःख रूप इन्द्री के विषय को पोषणमें दुःखही होता है, सो पहीले बताइ दिया. इस लिये सिद्ध भगवंत अनंत सुख के भुक्ता है. सिद्ध परमात्मा ज्ञाना वर्णिय कर्मके नष्ट हो नेसे, अनंत केवल ज्ञानवंत हुये, दर्शावर्णियके नाश होनेसे अनंत केवल दर्शनवंत हुये. वेदनिय क* द्वारा निगवाध सखके भक्ता हवे मोहतिय Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयशाखा-धर्मध्यान. ११७ कर्म से शुद्ध क्षायिक सम्यक्त्वी हुये. आयुष्य कर्मके नष्ट होनेसे अजरामर हुये. नाम कर्मके नाशसे, अरूपी हुये, गौत्र कर्मके नाशसें खोड (अप लक्षण) रहित हुये. और अंत्राय कर्मके क्षयसे, अनंत दानलब्धी, लाभलब्धी, भोग लब्धी, उपभोग लब्धी और अनंत बलविर्य लब्धी, के धरन हार हुये. ऐसे अनंत गुण सिद्ध भगवंतके हैं. उनका ध्यान ध्यानी करें. "गति गमना" पांच गतिमे गमन करनेके २० कारण- १ म हारंभ = सदा बस स्थावर जीवोंका आरंभ (घमशाण) हो, ऐसा कारखाना चलावे. २ महा परिग्रह = महा अनर्थ से द्रव्योपारजन करता अचके नहीं. और "चमडी जावो पण दमडी मत जावो" ऐसा लालची. ३ " कुणिमाहारी” मांस मदिरादी अभक्षका भक्षक ४ पंचेंद्रिय बधक = मनुष्य पशुका घातिक. इन चार कर्मोसे नर्क में जाय. ५ माया = दगाबाज. ६ मिबड़ मा या मीठा ठग, धुर्त. ७ मच्छरी-गुणीका द्वेषी. ८ कुड माणे-खोटे तोले मापे रक्खे. इन ४ कर्मोंसे तिर्यंच (पशु) गतिमे जाय. ९ भद्रिक - सरल (बगा Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ ध्यानकल्पतरू. रहित.) १० विनीत-नन कोमल स्वभावी मिलापु ११ दयाल-दुःखी देख करुणा करे, यथा शक्त सुख देवे. १२ 'अमच्छरी'---गुणानुरली शुभउन्नती इच्छक. इन ४ कर्मोंसे मनुष्य मलि पावे. १८, सराग संयमी' शरीर शिष्य, उपग्रहण ममल रखने वाले साध. १४ 'संयमा संयम' श्रावक. १५ 'पालतपस्वी' हिंशा युक्त तप करने वाले (कंद भक्षादी) १६ 'अकाम नि जरा' परवशम दुःख सहके मरने वाले, इन ४ कामो से देवता होय. १७ ज्ञान-जीवादी ९ पदार्थ जाणे. १८ दर्शन-यथार्थ श्रद्धावंत. १९ चारित्र-शुद्ध संयमी [साधू] और २० तप-ज्ञान युक्त तपश्चर्या करने वाले. इन चार कामोंसे मोक्ष में जावे. इन २० कामों में से धर्म ध्यानी ४ गति के १६ कामोंको छोड मोक्ष गमन जाने के ४ कामोंका साधन करे. "हेत. संसार के हेतू ५७ हैं- २५ कशाय. १५ योग १२ अवृत. ५ मिथ्यात्व. यह ५७ हुये. इनका विस्तार २५ कषाय- १ अंन्तान बन्धी क्रोधः पत्थर की तराड जैसा. (कधी मिले नहीं) २ अंन्तान बन्धी मान-पत्थर के स्थंभ जैसा (कधी नही नमें) ३ अंन्-. Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयशाखा-धर्मध्यान ११९ तान बन्धी माया = वांशकी जड जैसी (गांठमैं गांठ) ४ अन्तानबन्धी लोभ = किरमजी रंग जैसा ( जले तो भी न जाय ) [ ये मिथ्यात्वी नर्क में जाय ] ५ अप्रत्याख्यानी क्रोध = धरती की तराड (बर्षाद सें मिळे) ६ अप्रत्याख्यानी मान = काष्ट स्थंभ (मेह - नत से नसें ) ७ अप्रत्याख्यानी माया - मीढाका शृंग ( आंटे दिखे ) ८ अप्रत्या ख्यानी लोभ = खंज्जरका रंग ( क्षार से निकले ) ९ [ ये देशवृत घाती. तियंच में जाय] प्रत्या ख्यानी क्रोध = रेती की लकीर, हवा से मिले. १० प्रत्याख्यानी मान = बेंत स्थंभ ( नमाये नमें ) ११ प्रत्याख्यानी माया -- चलते बेले का मुत्र (बांक साफ दिखे ) प्रत्याख्यानी लोभ - कादवका रंग (सूखनें से अलग हो ) [ यह सर्व वृत धातिक मनुष्य होय. ]१३ संज्जलका क्रोध - पाणी की लकीर. १४ 'संज्जलकामान - वणस्थंभ १५ संज्वलकी माया - बांशकी छूती. १६ सज्जलका लोभ - पंतगका रंग ( यह केवल ज्ञानका घातीक, देवता होय) १७ 'हांस' - हँसे, १८' रती' खुशी, १९ 'अरती' - उदासी. १० 'भय' - डर. २१ 'शोक' चिन्ता, २२ दुगंच्छा. २३ स्त्रीवेद. २४ पुरुष वेद. २५ नपुंशक वेद, यह पच्चीसही कषाय कर्मके रसको आ* १ गाडीके पइडेका ओंगन. Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० - ध्यानकल्पतरू, मापे जमाती हैं... १५ जोग-१ सत्यमन, २ असत्यमन, ३मिध मन, [साचा झूटा भेला] ४ व्यवहार मन, ५ सत्य (साचाभी नहीं झूटाभी नहीं) भाषा ६ असत्य भाषा, ७ मिश्र भाषा, ८ व्यवहार भाषा. ९उदारिक-सप्त धातु मय, मनुष्य, तिर्यंच, का सरीर, १० उदारिक मिश्र-उदारिक उत्पन्न होते, या वेक्रय करते वक्त मिशता रहें. ११ वेकशुनाशुभ पुद्गलोंसें बना, नर्क, देव, का सरीर १२ मिश्र वेक्रय उपजे तब, या उत्तर वेक्रय करे तब निक्षत रहे, १३ अहारिक-पूर्वधारी मुनी संशय निवारले आस्म प्रदेशका पूसला निकाले सो. १४ आरिफ मिश्र-- पूतला निकालते व समावते वक्त मिश्रता रहै. १५ कारमाण जोग प्रथम सरीरको छोड दूसरे सरीरमे जाती वक्त बलावू रूप साथ रहे सो. यह १५ योग कर्मोका अकर्षण करते है. __१२ “अवृत” (१-६) पृथवी, पाणी, अग्नी, वायू वनस्पति और ऋत. [इन छे कायका जिला आरंभ] (७-१२) श्रत, चक्षु, घण, रस, स्पर्य और मन [इन - + जैसे जलता तो तेल बत्ती और कहें दीना अले जाते सो आप हैं. और कहे ग्राम आया. Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयशाखा-धर्मध्यान. १२१ छ इंद्रियोंके पोषणे लिये जक्तमें होता है. उन ) की अवृत समय २ अपञ्चखाणीके अती है. और कर्मका ब न्ध करतीहै. देखीये इंद्रीयों पोषणे अनेक पचेंद्रीय. का कट्टा कर चमडा लाते हैं. और बाजिंत्र मंडाते हैं, धातू गलाके कशाल. भंभा प्रमुख बनाते है. अनेक मनहर स्थान वस्त्र, भुषण. भोजनादी सामुग्रही अनेक आरंभ कर निपजाते हैं. मद्रा, मांस अभक्षका अहार, परस्त्री वैश्यागमन, इत्यादी एकेक कर्म के पाप के सामे जो दीर्घद्रष्टी से विचारते हैं तो वेचारे पृथवीयादी जीवोंका घमशाण द्रष्टी पडता हैं. (१) एक वस्त्र निपजाणे. पृथवी का पेट हलसें चीरना. और खेती में खात न्हाख उसमें असंख्य त्रसस्थावर कट्टा. निदाणी प्रमुख अनेक खेती के पाप से झाड होवे. कपास लगे उसे चूट भेलाकरे. फिर गिरनी पेलोडावे, जावत वस्त्र तैयार होवें वहां तक असंख्य त्रस स्थावरों का घमशाण हो जाय. फिर रंगण कर्म वगैरे होवे वहां का पाप विचारीये. ऐसे महा अनर्थं से एक वस्त्र निपजता हैं. तैसेही भुषण को देखीये. धातूर वादी धातू से मट्टी अलग कर, सोनार उसे गला घाट घड उज्व लादी क्रियामें किला आरंभ होता है. ऐसे भोजन म कान वगैरे संसारके अनेक कार्योंको. अला २ साली Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ ध्यानकल्पतरू. से उपयोग में आवे वहां तक के पापोंके तर्फ द्रष्ट लगाने से रोमांच होते हैं. ऐसा महा पाप करके यह संसार भरा हैं और एकेक वैपारमें द्रष्ट लगाके देखो किना जुलम निपजता हैं. कित्येक पापतो अपने जाण में होते है. और कित्नेक महा घोर जगतके पातकोंसे अपन वाकेफ भी नहीं हैं. तो भी उनकी अवृत्त (पापका हिस्सा) अपञ्चखाणी सब जीवोंको लग रहा हैं. जैसे घरके किमाड न लगाये तो विना जाणे देखे, और विना मनभी कचरा घरमें घुस जाता है. तैसे वि. न पच्चखाण किये पाप आत्माको लगता हैं. ऐसा जाण मुमुक्षु जीवोंको बारेही अवृत्त रोकना चाहीये. ५“मिथ्यात्व" इस जीवने इस संसारमें अनंत परिभ्रमण किया उसका हेतू मिथ्यात्व ही हैं, यह छू. टना बहुतही मुशकिल है. क्योंकि अनादी कालका सोबती हैं. और इसके छूटे बिन मोक्ष नहीं मिले, इ. सके लिये मुमुक्षु को इन की पहचान जरूरही करना चाहीये. इनके मुख्य ५ भेद हैं. १ "अभिग्रह मिथ्यात्व" खोटा पक्ष पक्का धार ण करे, अर्थात् जो अज्ञान मद, क्रोध, मान, माया, लोभ, रति, अरति, निद्रा, शोक, झूट, चोरी, मत्सर, भय,हिंशा,प्रेम,क्रिडा, हांस यह १८ दोष युक्त होवे उ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयशाखा-धर्मध्यान १२३ न्हे सत्देव माने, और इन१८ दोष रहित अरिहंत देव हैं उन्हे कूदेव माने. ऐसेही हिंशा, झूट, चोरी, मैथुन, परिग्रह, पचेंद्रीके विषय भोगी चार कषायमें उनमत्त इन दुर्गुण युक्त ज्ञान दर्शक चारित्र तप विर्य[पचाचार इर्या, भाषा, एषणा अदान निक्षेपना, परिठावणिया (यह सुमती) मन, बचन, काय, की गुप्ती इन सद्गुणो रहित उनको गुरु माने. हिंशा, झूट, चोरी, मैथुन, परिग्रह कोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, क्लेश, चुगली निंदा हर्ष; शोक रात्री भोजन मिथ्यात् यह अठा रह कामोंमें धर्म माने, और इससे सुलट जो हैं उसे अ धर्म माने. ऐसे तीनही कुतत्वका पक्का कदाग्रह धारण किया पूछे से कहे हमारी पीडीयों से यह धर्म चला आता है. इसे हम कदापि नहीं छोड़ेंगे. ऐसा हठ ग्राही होवे सो अभिग्रह मिथ्यात्वी. २ “अनाभिग्रह मिथ्यात्व”=सूदेव. कुदेव सुगुरु कूगुरू, सुधर्म, कुधर्म सबको एकसा (सरीखा) समजे के वंदे पूजे सत्यासत्य का निर्णय नहीं करे, कोइ समजाय तो कहेकी अपनको इस झगडेसे क्या मतलब, सव महजबमें बडे २ विद्वान गुणवान बैठे हैं. तो किसे झुटा कहे सब अच्छे हैं. ३ “अभिनिवेशिक मिथ्यात्व” कूदेव, गुरु, धर्म Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ . ध्यानकल्पतरू.. ओर शास्त्रका किसी सत्संग करके यथार्थ समज जाय की यह खोटा है परंतु लोकोंकी कूलगुरूओंकी शरम मे पड उन्हे छोडे नहीं; बिचारे की जो में इसे छोड देबुंगा तो मेरे गुरु और मित्रों स्वजनो मुजे ठपका देंगे, निंदा करेंगे, और इस महजब के तो ह्यां बहुत लोक हैं, मुजे आगेवानी कर रखा है. सबमेर हुकम में चलते है. मेरा मान महात्म खूब बडा है. जो मै इसे छोड, देवू तो सब बदलके निंदा अपमान करेंगे. इत्यादि वि चार से खोटे को खोटा जाणता हुवा ही छोडे नहीं; अपना जन्म काली धार डुब रहा है, उसका उसे विलकुल फिकर नहीं ऐसे भारी कर्मी जीवको अभिनिवेशिक मिथ्यात्वी कहना. ... ४ “संशय मिथ्यात्व' किनेक अल्पज्ञ जीव, तथा अज्ञानी, किसी पुण्य योग्यसे जैन धर्म तो पागये, जैन के शास्त्र सुणे, क्रिया करे, परंतु किलीक गहन बातों नहीं जचनेसे शंका करे की, सुइकी अप्रजित्नी ज. गामें अनंत जीव, पाणीकी बुंदमें असंख्याते जीव, पूर्व पल्योपम और सागरोपम का आयुष्य, हजारों, लाखो धनुष्यकी अवगहना, नगरीयोंका प्रमाण और वस्ती, चक्रवतीकी ऋधि और प्राक्रम, लब्धीयों, भूगोल खगों ल का हिंशाब तथा अरूषी जीवराशी, सुक्ष्म जीवों, Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयशाखा-धर्मध्याम. १२५ और मोक्षके सुख तथा आस्तित्व वगैरे २ बातोंमे वैम लावे, के यह असंभव बातों सच्ची कैसे मानी जाय. प. रंतु यों नहीं विचारे की यह अनंत ज्ञानीके समुद्र जैसे बचन मेरी लोटे जैती बुद्धीमें कैसे समावे. वितराग पुरुष मिथ्यालाप कदापि न करनेके, केवल ज्ञा नमें जैसा द्रष्टी आया वैसा फरमाया. और सच है अब्बी १ जो क्रोड औषधी के चूर्ण का राइ जित्ने विभागमें भी क्रोड औषधी का अंश समजते है,यह तो करतबी है, तो कुदरती कंदमूलके टुकडेमें अनंत जीव होवे उसमें क्या अश्चर्य ? २ अब्बी भी हाथीका बड़ा और कुंथवेका छोटा सरीर होता हैं. वैसे ही गत कालमें मनुष्यादी की ज्या दा अवघेणा और ज्यादा आयुष्य होवे उसमें क्या आ श्चर्य? ३ तथा हाथी बहुत दूरसे दिखता है और कू थवा नजिककाही मुशीबत से दिखता है. उससेभी ज्यादा सुक्षम पृथव्या दिकके जीव होवे और वो द्रष्टी न आवे इसमें क्या आश्चर्य? ४ अब्बी भी अन्यस्थानोंमे बडे २ शेहर हैं तो प्राचीन कालमें १२ योजनके नगर शेहर होवे उसमे क्या आश्चर्य? ५क्षेत्र फलावट से कोटी घर और मनुष्योंकी वस्तीसें शंका लाते हैं; परंतु कोटी शब्दका अर्थ एक कोडही होय ऐसा न समजीये अव्बी भी क Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __१२६ ध्यानकल्पतरू. हीं ६ को और कहीं २० को क्रोडी कहते हैं. ऐसे ही उस वक्तभी किसी बड़ी संख्याकों क्रोडी कहते होंगे. ६ अम्बी भी एकेक मिनिटमें हजारो का व्याज आवे, ऐसे श्रीमंत बेठे हैं. तो उस वक्त इभ पति आदी होवे उसमें क्या हरकत ? ७ अब्बी भी लोहेकी शांकल तोडने वाले मनुष्य हैं, तो गत कालमें अ. नंत बली होवे उसमे क्या अश्चर्य? ८ और पृथ्वी का अंतः किन्ने देखा है, जो केवलीके बचनको उत्थापके अमुक संख्यामें ही द्वीप समुद्र बताते हैं; और जो द्विप समुद्र असंख्य हैं. तो उन्हमें प्रकाश करने वाले चन्द्र सूर्य भी असंख्य हुये चा हीये. ९ आँखसे विन देखे शब्द गन्ध आदी से ग्रही वस्तुकों कबूल करे, तो फिर अरूपी पदार्थ कों बिन देखे क्यों नहीं माने. १० घत भोगव करके भी उसका स्वाद नहीं कह सक्ते हो, तो मोक्षके सुखका वर्णन मुखसे कैसे हो सके, भोगवे सोही जाने. इत्या दि स्थुल विचारोंसे कित्नेक स्थुल बातोंका निर्णय हो सके, और किनेक अग्रह्य बातोंका निर्णय नहीं भी हो सके तो भी सम्यक्त्व द्रष्टी वितरागके बचनोपे आस ता रखते हैं. जैसे जबैरीके कहनेसे लाख रुपैके हीरे को लाखहीका मानते है. और मिथ्यात्वी शंशय में Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयशाखा-धर्मध्यान. १२७ पड सम्यक्त्व गमा देते है. सो संशयिक मिथ्यात्वी. ५"अनाभोग मिथ्यात्व'=ऐकांत जड मुढ, न कुछ समजे और न कुछ करे, धर्माधर्म के नामकों भी नहीं पहचाने, जैसे एकेंद्रीयादी जीव अव्यक्तव्य (अजाण) पणे मे है. सो अनाभोग मिथ्यात्वी. मिथ्याका अर्थ झूटा होता है. अर्थात् सत्यको असत्य. और असत्यको सत्य श्रधे, सोही मिथ्यात्व है इसे बुद्धिको भ्रष्ट बना के आत्म हितका नाश करने वाला जानके ध्यानी त्यागते है. यह धर्म ध्यानका आज्ञा विचय नामे प्रथम पायेका फक्त एकही गाथा का सविस्तर अर्थ यत्किंचित वरणव किया. इसमें से ज्ञेय (जाणने योग्य) को जाणे. हेय ( छोडने योग्य को) छोडे. उपादेय (आदर ने योग्यकों) आदरे अङ्गीकार करें. औरभी भगवानकी आज्ञाका चिंतवन करेकी बहुतसे शास्त्रमें साधुओंके लिये फरमाया है. “संयमेणं तवसा अप्पाणं भाव माणे विहरइ " अर्थात् पांच स्थावर तीन बिक्वेंद्री; पचेंद्री, और अजीव(वस्त्र पात्र) इनकी यत्ना करे. मनादी त्रीयोग वसमें करे, सबके साथ प्रिती (मैत्री भाव) रक्वे सदा उपयोग युक्त प्रवृ ते दिनको द्रष्टीसे और रात्री को रजूहरणसें पूंज(झाडे) Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ ध्यानकल्पतरू. के हरेक वस्तु काममें ले. अयोग्य वस्तु यत्नासें एकांत परिठावे (डालदे) यह १७ प्रकारके संयम और असण दो घडी, या जाव जीव अहार त्यागे. २ उणोदरी उपाधी और कषाय कमी करे. ३ भिक्षाचारीसे उपजीवे. ४ रस (विगय) का परित्याग करे. ५ कायाको लोचादी क्लेश दे, ६ प्रतिसलिनता-इन्द्रीयों कषाय योग, को प्रवृत्ती घटावें ७ लगे पापका प्रायाछत ले शुद्ध हावे ८-१२ विनय वयवच्च, सझाय, ध्यान, का उत्सर्ग करें, यह १२ प्रकारका तप ज्ञान युक्त करके अपणी. आत्माको भावते (आत्मामें रमण करते) हुवे विचरे प्रवृत्तै. और भी भगवानने श्री उत्तराध्ययनजी सूत्र में फरमाया है की “समय गोमय म पम्माय" अर्थात् हे गौतुम तथा मुमुक्षु जीवों अतम साधन मोक्ष प्राप्त करने के उपाय के कार्य में किंचित समय (वक्त) भी प्रमाद मत करो! _ “पांच प्रमाद." . मद विषय कषाय,निंदा विकहा पंच भणीया. गाथा HAL एए पंच पम्माया,जीवा पड्डुति संसारे. . १मद जाति, कुल, बल, रूप, लाभ, ज्ञान Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयशाखा-धर्मध्यान १२९ तप और ऐश्वर्य (मालकी) यह ८ प्रकारकी उत्तमता जीवोंकों पुण्योदयसे होती हैं, और इनका मद अभी मान करके जो संयम वृत ब्रम्हचार्य परोपकारादी में नहीं लगाते हैं; तथा कुछेक अच्छे कार्यके प्रभावसे यत्किंचित कीर्तीवंत हो, विचारते है की में पण्डित हूं. शुद्धाचारी हूं. वक्ता हूं सब जन मुजे सरकार सन्मान देते हैं. मैं जगत्प्रसिद्ध हूं. सरस्वति कंठा भरण, वादी विजय, वगैरे उपाधियों मुजे मिली है. किंबहूमें एक अद्वितिय महात्मा हूं. ऐसे विचारसे जो भरा हो. या स्वमुखसे कहता हो, वो ज्ञानादी गुणसे नष्ट हो भ्रष्ट बनता है. अभीमानी अपने किंचित् सगुणको मेरु तुल्य देखता हैं, और अन्यके अपार गुणको तथा अपने अपार दुर्गुणोको राइ तुल्य किंचित समजता है, इस लिये वो अपना उद्वारा नहीं कर सक्ता है. इत्या दी दुर्गुणोंसे मद भरा है. इस लिये इसे मद-मदिरा (दारू) के नाम से बोलाया है. " २ "विषय " = शब्द, रूप, गंध, रस और स्पर्य इन पांचही की पूर्णता पुण्योदयसे होती है. इने जो गुणी गुण उच्चार, साधू दर्शन, तप वगैरे सत्कार्य में नहीं लगा. ते विभत्सशब्दोचार, रूप अवलोकन, गंधग्रहण, अभक्ष भक्षण, और भोग विलाशमें लगाके नष्ट करते हैं Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० ध्यानकल्पतरू. अमृत समान इन ५ गुणोंको विषयमें लगा, विष (जेहर) रूप बना, दोनो भव में दुःखके भुक्ता होते है; इस लिये इसे विषय ( जेहर) के नामसे बोलाये है. ३ " कषाय " = क्रोध, मान, माया, और लोभ, यह चारही कषाय महा पापका मूल है. इनके वशमें हो जीव आपा ( भान) भूल जाता है. आत्मघात, द्रव्यनाश, यशकी क्ष्वारी, कुलका संहार, अयोग्य कार्य करते बिलकूल अचकाते नहीं है. निबल अनाथ को स्व प्रक्राम से और बलिष्टोको दगासें नष्ट कर महा पापोंसे अपणी आत्माको मलीन कर, दोनो लोक में दुःखके भुक्ता होते हैं. इस लिये इन्हें कषाय, ( कर्म का रस आय) या कसाई (घातकी) नामसे बोलाते हैं. ४ “निंदा " = इस शहके दो अर्थ होतें है. (१) निंदा ( निंद्या) इसे दशवैकालिक शास्त्रमें कहा है की, "पीठं मासं न खाइज्जा " अर्थात् किसीके पीछे निंदा ( दुर्गुण प्रगट) करना है. उसे मांस भक्षण जैसा बता या है. निंदक ज्ञानी शुद्धाचारी, प्रभावक, धर्मोन्नती कर्ता, तपस्वी, क्षमाशील, वगैरे के गुणानुवाद श्रवण कर सहन नहीं कर सका हैं, और उन्हे ढांकने उनकी निंदा करता है, अच्छते आल बजा देता है. कूतर्कोसें उनकी भक्तीपे भोले लोकों के भव उतारता है. ऐसी Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयशाखा-धर्मध्यान. नीच निंदा ही निंदा पात्र है. (२) निद्रा (नींद) ये भी सत्कार्यमें विधान करने वाला जब्बर शन है, इसकी धर्म स्थानमें विशेषता द्रष्टी आती है. कित्येक मुनीवृत धारण कर, पापी श्रवण (साधु) बनते हैं, अर्थात् विना मेहनतसे अहार, वस्त्र, उपश्रयादी सामग्री के प्राप्त हो ने से, बेफिकर हो, बहुत काल निद्रामें गुजारते हैं. यह निद्रा प्रमाद भी दोनो भवमें दुःख प्रद हैं. __ ५विकहा-देशकथा, राजकथा, स्वीकथा, भक्तकथा, यह चार प्रकारकी वी (खोटी) कथा कहीये. औ र भी चोरोकी धन की, धर्म खंडनकी, वैर विरोधकी, गुणवधक, कामोतेजक कलेद कारणी, परपीडा कारणी ग्लानी उत्पन्न करने वाली, इत्यादी अनेक प्रकार की वी कथा हैं. उसमें जो अमुल्य मनुष्य जन्मका आयुष्य क्षय करते हैं, वो अन्याय करते हैं. किनेक विद्वानो पर्षादा को खुश करने अनेक कपोल कल्पित बातों. कल्पित विषयिक ढालो. हांस शृंगार, ___* सवैया, नर्क निगोदभमें निंदा का करणहार, चड्डाल स. मान ज्यांकी संगत न कामकी; आपकी बडाइ पर हाणीमें मगन . मुढ, ताकत पराये छिद्र नीत है हरामकी. वाकी निंदा कान सुण, खुशी नहीं होणा कधीं, पीछे से करेगा नर, तेरी बद नाम की. तिलोक कहेत तेरे दोष हैं निंदक माई, ह्यासे मर जाय. आ. गेगी यमधाप की. Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ ध्यानकल्पतरू. विभत्सादी रसमें लीन बनाते हैं+ वो फुटी नाव के संगाती भक्त जनो सहित पातालमें बैठते है. . यह पांचही प्रमाद बडे दुरुधर हैं. श्री भगवती जीके ८ में शतकमें फरमाया है की, चार ज्ञानी, चउदे पूर्वी, अहारिक सरीर, ऐसे मुनीराज इन पंच प्रमादकें बलमें पड आयुष्य पूर्ण करे तो अधोगति पावें, ऐसे दुष्ट प्रमादों को जान भगवंत ने फरमाया हैं के “समय मात्र भी इसका सहवास मत करो.” क्यों कि इसकी किंचित् संगतही ऐसी असर करती हैं. की फिर प्राणांत होते भी छटना मुशकिल हैं. इस वक्त जैन जैसे पवित्र धर्मकी दुर्दशा हो रही है, वो इन्हीका प्रताप समजना. जो महात्मा पंच प्रमाद से बचेंगें वो ध्यान सिद्धी प्राप्त कर सकेंगे. .', यह आज्ञा विचय ध्यात अपार अर्थ से भरा है परंतु ह्यां इत्ना कहके अब सबका सारांश थोडेमें कहे यह पूरा करुंगा. " किं बहुणाइह, जहा २ रागदोसा लहू विलज्जति गाथा तह २ पयठियव्वं एपा आणा जिाणदाणं १ __ अर्थ-- ह्यां विशेष कहनेसे क्या प्रयोजन है ! ___ + दुहा दश बोगा दश बोगली, दश चोगाका बच्चा; गुरूजी तो गप्पा पारे, सबही जाणे सञ्चा. .. Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयशाखा-धर्मध्यान. १३३ बस थोडे मेंही समजीये की, जैसे २ राग और द्वेष शिघ्रता (जल्दी) सें कमी होवें. वैसी २ प्रवृत्ती करो ! येही श्री जिनेश्वर भगवानकी आज्ञा है. यह आज्ञा विचय धर्म ध्यानमें प्रवेश करनेसे मिथ्यात्वादी अनादी मलका नाश कर, चैतन्य को प. वित्र बनाने जलवत है. आधी, व्याधी, उपाधी रूप ज्वालासे जलते जीवको शांत करने पुष्करावर्त मेंघव त हैं. अत्यंत गहन संसार समुद्रसे तारने सफरी झाज वत हैं. मोह वनचरो के नाशके लिये केशरीसिंहवत बुद्धी वीवेक बढाने को सर्वतीवत. योगीयोके मनको रमाणे शांत आवास हैं. इत्यादी अनेक गुणोके सागर आज्ञा विचय का चिंतवन धर्म ध्यानी सदा करते हैं. द्वितीय पत्र-“अपाय विचय" - 3 अप्पाणं मेव जुज्झाहिं, किंते जुज्झेण बझ3; HIS अप्पाणे मेव अप्पाणं, जइता सुहमें हए. उत्तराध्ययन. ९ अर्थात-श्री नमीराज पि सकेंद्र से फरमाते है की, सुख इच्छको को अपणी आत्मामें रहे हये दुगुणों का प्राजय करना चाहीये. अन्यके साथ बाह्य (प्रगट) युद्ध करने की क्या जरूर है ज्ञानादी आत्मा Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानकल्पतरू, से कषायादी आत्माके साथ युद्ध करनेसेही आत्मा सुख पाती है. “अपाय विचय" धर्म ध्यान के ध्याता ऐसा वि चारे की, मेरा जीव सदा सुख चाहता है; अनंत भव हुये, सुखके लिये तडफ रहा हूं. अनेक उपाय करते भी अपाय होता हैं, कीहुइ मेहनत निर्फल होती है. इसका क्या कारण? यह मेरे उपाय को नष्ट कर मेरे को प्राप्त होते हुयें, मेरे पास रहे, अनंत अक्षय अव्यावाथ सुखकी व्याघात करने वाला शत्र हे ही कौन ? हां! इला निश्चय तो हुवा की वो शत्रुओं बाहिरका कोइ पदार्थ नहीं हैं. क्योंकि बाहिर होयतो, मुजे दुःख देने आते हुये द्रष्टी आते. मेरे शवओं तो मेरे घरमें ही घर कर बैठे हैं. [ठीक हुवा दुढनेका प्रयास घटा] आश्चर्य के इस्ने दिन मुजे क्यों नहीं दिखे? पर कहां से दिखे, क्योंकि मै तो आजतक इनको देखने स्व घर छोड पर घरमें भटकता फिरा और वो अन्दर रहे, मेरे उपायोंको नष्ट करते रहें. अच्छा अब तो मेरी भूल शू धारू, अंदर रहे बाह्य मित्र और अंतरिक शओंको अ ब्छी तरह पहचानने बाह्य झष्टी बंद करूं. क्योंकि भगचानने फरमाया है "एक समयने दो कार्य न हो।" रिसा विचार आँख मीच अन्दर अवलोके] अहो! यह Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ तृतीयशाखा-धर्मध्यान. १३५ । मेरे शबू तो बडे जब्बर है. इनोने तो बडा ठाठ पाट जमा रक्खा है. "मोहकी ऋद्धि” यह तीन अज्ञान त्रिकोटसे घेरी हुइ प्रक्रती का गरे और चार ग़ति दवज्जे युक्त 'अविद्या' नगरीके मध्यमें 'असंयम' मेहल की 'अधर्म' सभा में भ्रष्ट मति सिंहासणपे अति प्रचंड सरीरका धरणहार, मद मेंछका हुवा “मोहो” नामें महाराजा. अनाज्ञा शिरछत्र, और रति अरति दासीयोंके पास हर्ष शोक चमर दुलाते बेठे हैं; यह पाप पोशाकका भलका. अ. वृत मुकटादी भूषणोका चलका और क्रिया खड्ग मन मुखमली भ्यानमें झलकताहैं, जडता ढाल पीछे ढलकतीहैं. यह इसकी मायारूप पटरागणी, चार सज्ञा दासीयोंसे प्रवरी अधांगना बनीहै. यह काम देव कुँवर (पुत्र) ज्ञानावरणीयादी ७ मांडलिक महाराजा, मिथ्यात्व प्रधान, प्रमाद परोहित, राग द्वेष शंन्यापति, ऋरभाव कोटवाल, व्याक्षेप नगर श्रेष्ठ, कुव्यश्न भंडारी. कुसगदाणी. निंदक पटेल. कूकवीभाट प्रणामदूत. दंभ दुदत. पाखंड द्वारपाल इत्यादी महाजनो कर, सभा एक महाभयंकर रूपकों धारण कररही Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ . ध्यानकल्पतरू.. हैं. नगरमें चौरासी लक्ष चोहटे. अनेक सरीर रूप सदना. विचित्र प्रकृतियों प्रजाका वासहै. प्रजाजनभी विचित्र स्वभावी है; जरा सत्कारसें फुलजाना और जरा अपमानसे रूस जाना. जरा लाभमें हर्ष और जरा नुकशानमे शोक. इत्यादी विचित्रता धरतेहै मानगजाधीश, क्रोध अश्वाधीश, कपटरथाधीश और लोभ पायदलाधीश वगैरे शैन्यभी बिकट हैं हय २ बडा जब्बर शत्र निकला; में इकेला इ. सका कैसे प्रजाय करूं ? और इच्छित सुख वरू; मेरा तो कोइभी नहीं दिखताहै. हे भगवान! अब क्या करूं? "चैतन्यकी ऋद्धि" - उसी वक्त, एक नजीकही रहाहुवा. 'विवेक' नामे चैतन्यका परम मित्र, हो हाथ जोड बोला क्यों चैतन्य महाराजा! क्या फिकरमें पडेहो? शत्र ओं को प्रबल देख सुरमें बणो कायरता तजो ? [इन बचनोंसे चैतन्य में विवेकको आपणा हितेच्छ जाण ] और जवाब दिया, भाइ!विनाशक्ती सुरमाइ क्या कामकी? विवेक-वहा! महाराजा हो यह क्या शहो -1 Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयशाखा-धर्मध्यान. चार करते हो; आरके क्या टोटा हैं! आपकी ऋद्धि तो इस मोहकी ऋद्धिले सर्व तरह अधिक है. परिवार शैन्य पिर और अप्रबल है. परन्तु आप शके ताजे में हो, इस्ले दिनमें कनी हमारे तर्क द्रष्टीही नहीं करी तब हम बेचारे, श्वामीके आदर दिन चुपचाप बैठे. आज आपने जरा सुदृष्टी कर, हमारी तर्फ अवलोकन किया तो सेवक सेवामें उपस्थित हुबा; और अर्ज कर ता हूं की, आपके परिवारकी खबर लीजीये, सब को संभालके हुशार कीजीये, और फिर आप हकम दी जीये. की फिर मोह जैले केइ शत्रुओंको क्षिणमें नष्ट कर आपका इच्छित करें! इना सुणते ही चैतन्य को धैर्य आइ, और के हने लगा, प्यारे मित्र! मेरा परिवार मुजे बता... विवेक-यह देखीये आपका तीन गुप्ती त्रिकोटे से घेरा हुवा दान, सील, तप भाव दरवज्जे युक्तं यह 'अमा' जार के अध्यने संयम मेहलकी धर्मशभामें 'सुतति' सिंडालग, मिनाज्ञा छत्र, और सा लल्वेग चमर कर शोभता हैं. शुभ भाव सेठीये पुण्य दुकानो में ऋधी सिद्धी युक्त बैठे. सुक्रिया वैयार कर रहे हैं. और भी वहूत परिवार आपका है. सो शहरमे प्रवेश किये मिलेगा: परन्त हशारीके साथ प्रवेश करिये. क्यों कि Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ ध्यानकल्पतरू. 'मोहनप' ने अञ्चलही प्रहरा चौकी का युक्त बंदोबस्त किया हैं. डरीये नहीं. यह ली जी अति तिक्षण 'ज्ञान खड्ग' इस से सर्व कार्य फते होंगे. इतना सुण चैतन्य श्रधा नगरमें प्रवेश करने प्रवृत्त हुवा, की तुर्त निथ्यात्वके मिथ्यामोह, मिश्रमोह, सम्यक्त्व मोह और अनतान बंधका चौक यह सातही जुजार सुभट सन्मुख हो बोले. खबर दार चैतन्य राय, आगे बढने देनेका मोहो महाराज का हुकम नहीं हैं. चैतन्य ज्ञान खड़ले उनके सन्मुख होते ही सा तही मोहके भग गये. चैतन्य उत्साहा के साथ नगर में प्रवेश किया, छटा देख बहुत खुश हुवा. इत्नेमें अबूत के रखे १२ सुभट सन्मुख हो बोले, तुमे संयम मे हल में पेशने देने का हुकम नहीं है. चैतन्यने प्रत्याख्यन भाले से उनको भगा और संयम मेहलमें गये, सुमति सिंहासने जिनाज्ञा छत्र धारण कर लजा और धैर्य दा सीसे सम सम्बेग चमर ढुलाते हुये विराजे, उसी वक्त उनका सब परिवार सहर्ष विनय युक्त हाजिर हुवा, चैतन्य ने सबका यथा योग्य सत्कार किया, तत्व रुची और सुबुद्धी विरहणी पटरागणी योको अंकितमें स्था पन करी, पंच महावृत्तो को मंडलिक पद दिया. सम्य Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयशाखा-धर्मध्यान. १३९ क्व प्रधान, उद्यम-प्रोहित, उपशम शैन्याधीश, शांतभाव-कोतवाल, शुभ भाव-नगर श्रेष्ट, विज्ञान-भंडारी, पर्मायमसे भंडार भरपुर,सत्संग-दाणी, व्यवहार पटेल. गुगीजन-भाट. सत्य दूत. न्याय-द्वारपाल. मन निग्रहअश्वाद्विप, मार्दव-गजाद्वीप, आर्जव-रथाद्वीप,और सं. तोष-पायकाधीप, इत्यादी को यथा योग्य पद पे स्थपन्न कर, चैतन्य माहाराजा आनंद से राजकरने लगे. परन्तु मोह के प्रबल प्रताप रुप छाप उनके हृदय में चमक रही थी. एक दिन सभामें बोले की, मेरे प्यारे मंत्रीसामंत गणो ! में आप के संयोग से बहुत आनंद पायाहू-तथापी जब तक मोह शव नष्ट न होगा. तब तक मूजे रा सुख हुवा नहीं मानता हूं. इस लिये मोह के नष्ट होने का अश्यल प्रयत्ल किया चहाता हूं. इत्न सुगतेही विवेकादी सर्व, नम्रतापुर्वक वाले, नाथ की जीये शिव सजाइ. चलिये अब्बी एक क्षिण में मोह का नाशकर, अयका इष्टितार्थ सिद्ध कर, सर्व सुखी बनीये. चैतन्य का हुकान होतेही सब उभटो मोहके प्राजय की सजाइ करने लगे. यह समाचार प्रणाम रूप सुभट द्वारा मोहो नृपने पयेकी, चैतन्यने श्रवा नगरीको संयम मेहल यु. Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० . . ध्यानकल्पतरू. कता में कर, खूब ठाट जमाया हैं. और आपको प्राजय करनेकी तैयारी कर रहा है. इना सुणतेही, पोहो क्रोधातुर हो वोला, देखो मेरे प्यारे मित्र सामंतो! अनंत वक्त चैतन्य को मना किया की, तूं यह ढोंग मत कर. परंतु वेहया (निरलज्जा) इल्ली २नीती होतेभी नहीं शरमाता है. चलीये उसे जरा स मजा, कैद करें, अपने ताव करें. इला सुणतेही मो. हके पाखंड सेवकने कूबौध भेरी बजाके शैन्याको हुशार करी, सब सेवक चौक उठे, और अपनी २ सजाइ सजी मद मत बाले अभीमान हाथी, चंचल चपल मन अश, रंगीबेरंगी झणणाट करते कपट रथ, और अतिबलिष्ट लोभ पायदलों के समोह से प्रवरे, तमश वक्तर पेहन, कूक्रिया शस्त्र धार, तीन कूलेश्या रूप काले, पीले,हरे, निशाण फरराते कूअलाप बाजिंत्रों के झणकारसे गग न गर्जावते, कर्मोदय मोहूर्त में प्रयाण कर. कर्म रोहण मार्ग आ. मोह महाराजा स परिवार खडे हुये. मोह की शैन्या देख अपयशाय सन्दीपाल. चैतन्य के पास आ के अर्ज करने लगे, की हैवानी! हम दोनो पक्ष का भला चहाते, है और चेताते है की "मोद नप बहुत प्राचीन वृध है. आप जैसे तरण महाराजाको, उनका अपमान करना योग्य नहीं है. आप Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयशाखा-धर्मध्यान १४१ जानते हो, उनकी शैन्यका प्रबल प्रताप की, तीनही लोकको ताबे कर रक्खा है. उनसे आपकी जीत होनी मुशकिल हैं; वक्त ऐसा न हो की, आपकी शैन्य उन में मिल जाने से आपका अपमान होय, और राज भी जाय ! इस लिये आप सन्मुख जाके सज्य कर लीजीये. वृधो की सेवा अपमान न समजीये. यह सुण चैतन्य हँस के बोले मै सब समजता जहां लग सिंह गुफा में निद्रिस्थ रहता है वहां तक ही वनचरो को उन्माद करनेका अवकाश मिलता है. समजे ! बहुत कालके उडते धूलेकों, क्षिणिमें मेघ दवा देता है ! मेरे विन उस मोहको पहचानने वाला दूसरा: हे ही कोन ? इत्ने दिन गम्म खाई, यह मेरी भूल हुइ अन्यायीकी पयमाली करनाही हमारा कर्तव्य हैं !! क्या तुम नहीं जानते हो, मै मोहके ताबेमे था, जब मेरी कैसी फजीती करी हैं. उसका क्षिण २ मुजे स्मरण होता है, अब मैं मूर्ख न रहा की, पीछा उसकें, तावेमें हो, फजीती करावं ! इले दिन मेरे परिवारकी मुजे पहचान नहीं थी. पर विवेक मंत्रीश्वरका भला हो ? इस दुःखसे छोडने, उनोने सुजे युक्ती और सामुग्री व ताइ. मैं मोहके सन्मुख हो, नष्ट करने तैयार था. अ च्छा हुवा की वो सामे आगया. जरा तुम खडे रहो 2 Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ ध्यानकल्पतरू. मेरी शैन्याका पराक्रम देखीये, की त्रिलोक पूज्य मोह महाराजा की क्या दुर्दशा होती हैं. इत्ना कह चैतन्य रायने सारु सुभएके पाससे, सबौध भेरी बजवाके शैन्य सज कराइ. उसी वक्त शांत रसमें भरे हुये मन निग्रह अश्व, वैराग्य मदमें घुमते हुये मार्दव गज, सरलतासे शोभित आर्जव रथ. और सदा त्रप्त संतोष पायदल, च तुरंगगी शैन्य; क्षमा वक्तर, तप रूप अनेक शस्त्रसे सज हो, स्वव्याय रूप नगारे घुर्राते भजन रूप सणणाइयों सणगाते. वैराग्य पंथमें आगे बढते तीन, शुभ लश्या रूप लाल, पीले और श्चैत, निशाण फरीराते, गुणस्थान रोहण रणांगणमें आ खडे हुये. दोनो मालिको का हुकम होतेही संग्राम सुरू हु वा, मोहकी तर्फसे 'मिथ्यात्व मंत्रीश्वर' पञ्चीस उमराव और अनंत सुभटोंके साथ, चैतन्य का सामना कर, कहने लगे, क्यारे चैतन्य! तुजे मेरे त्रीलोक व्यापी प्राक्रम का विस्मरण होगया दिखता है. तेरी अनंत वक्तवारी करी तोभी बेशरम, लडने तैयार हुवाहै. देख अची एक क्षिगो तुने तित्र बाणसे पतन कर पातालमें पहोंचाता हूं. कूदेव कुतुक,कुधर्म,कुशास्त्र,ये मरे सेवकोंके हाथ फजीती कराता हूं. ऐसा बसबकाट करता, वाण खेच खडा रहा. Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयशाखा-धर्मध्यान. १४३ तब चैतन्यसे विवेक-बोला देखीये श्वामी यह मोहका मानेता प्रधान मिथ्यात्व है, यह सम्यक्त्व प्रधान जीकी द्रष्टीमात्रसेही मर जायगा. इसके मरनेसे मोहकी सब शैन्य स्थिल होजायगी, और अपनी श्रधा नगरी निर्विघन होजायगी. यह सुन 'सम्यक्त्व' मंप्रश्वर पांच समकित महा जौधे और शैन्य साथ मिथ्यात्वके सन्मुख हों. तत्वातत्व विचार रूप वाण छोडतेही मिथ्यात्वका सपरिवार नाश होगया. चैतन्यकी शैन्यमें जीत नगारा बजा. और मोह तो अति बलिष्ट मंत्रीके वियोगसे अत्यंत खदित तब 'अवृत्तराय' मोहसे बोले. आप फिकर न कीजीये. अब्बी मै प्रधानजीका बदला लेता हूं. वि. चारा चैतन्य, मेरे आगे क्या करेगा. ऐसा कहे, बारे उमरावोंके साथ चैतन्यके सन्मुख आ कहने लगे. रे! चैतन्य ऐसे तेरे ढोंगोंको मैंने बहुधा नष्ट किये तो भीतूं सामे होता नहीं शरमाया,आ देख मजा. तब चैतन्यसे विवेक बोले इसे जीतने समर्थ अपने सर्व वृतिराय हैं. वो इसका क्षिणमें नाश कर संयम मेहलको निर्विघन कर देंगे. यह सुण 'सर्व वृत राय' तेरे चारित्र और अनेक शुभ प्रणाम सूभठोंसे प्रवरे. वैराग्य बाणके वृष्टीसे अवृत जी काल धर्म Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ મ ध्यानकल्पतरू. प्राप्त हुये, चैतन्यकी जीत हुई, और मोह तो अत्यंत दिलगीर हो कहने लगे की, अबके चैतन्यसे फते पानी मुशकिल हैं. तब 'प्रमाद सिंघजी' हंसते २ बोले. ऐसे ढोंग चैतन्यने केइ वक्त किये है. मैने पूर्वधारी महा मुनीयोंको भी नर्कगामी वना दिये तो इस निवारे की क्या गिनती ! दक्षिणके बदल ज्यों वायू बिखेरता है. त्योंमें अथ्बी चैतन्यकी सब शैन्य भगा देता हूं, ऐसा गरुर करते, पांच उमराव, और केइ शुभटों से परवरे, चैतन्य सन्मुख हो कहने लगे. के अब मेरे आगेसे भगके कहां जाया. तेरे घमंड को अन्धी नष्ट करता हूं. तब विवेक बोले, इनको भगाने उपशम रावजी स्मर्थ हैं, के उपरामराव तुर्त पंच अप्रमादरूप पांच उमराव और केइ सुभटों साथ. प्रमादके सन्मुख हुवे. प्रणाम धारा रूप गोलीको वर्षाद से प्रमादका पतन किया, की चैतन्य ध्यानमें लीन हो सुखी हुवे. मोह, प्रसाद रावका मृत्यु सुन, होंस हवास भूल गये. तब कामदेव बोले, पिताजी मेरे जैसे प्राक भी पुत्र आपके होतें आप फिक्र क्यों करते हो, अबातही बात चैतन्यको कुब्जमें कर लाता कैंसर साक्षेप के at इ -7-7 Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयशाखा-धर्मध्यान. १४५ . शक यह तीनही उमराव खडे हो कहने लगे की हम कुँवर साहेबके मदतमें जाते हैं. चैतन्यका घमंड एक क्षिणमें गमाते हैं. तव अश्वाधिप क्रोधजी, खडे हो धमधामायमान होते बोले. किसने जननी का दूध ८चाया की है की, जो मेरे सन्मुख खडा रहे. क्रोध राग-द्वेष, कलह-चंड, भंड विवाद यह सुभटके सामे टिके तब गजाद्विप अभीमानजी बोले, मैने केइ वक्त चैतन्यको हीन दीन, बना दिया है, क्या अविनय मान मद, दर्प, स्थंभ, उत्कर्ष, गर्व, यह मेरे सुभटोंका प्रा. क्रमी कमी है. तब रथा द्विप कपटजी कहने लगे से ने चैतन्यको केइ वक्त लेंगे, लुगडे, चुडीयों पहनाइ हैं, अब क्या छोड दूंगा. माया, उपाधी, कृती, गहन, कुड वंचन, यह मेरे सुभट कम प्राक्रमी है क्या.? यों यह तीनही स-परवार, कामदेवके साथ हुये, इनसे कामदेवका ठाठ सबसे अधिक हुबा, अनुराग रणसिंग्या बजाते. एकदम चैतन्यपे विषय रागरूप बाणोका बर्षाद सुरू किया, कोधजी ज्वालामय बाण छोडने लगे, अभीमान जी स्थंभन विद्या डाली, दगाजी गुप्तरीत क्षय करने प्रवृत हुये; यह अविमासा एकदम जुलम होता देख, चैतन्यसें विवेक बोले आप घबराइये नहीं; - शांती ढालकी ओटमें विराजे रहो. कामदेवको निर्वेद Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ ध्यानकल्पतरु. राय, क्रोधका क्षमाचंद्र, मानका मार्दव सिंह, दगाका अर्जव प्रसाद, एक क्षिणमें नाश कर डालेंगे. इतना सु णतेही सर्व राजिंद्रो सजहो १८००० सिलांग रथ के झणझणाट करते सन्मुख हुवे. नवबाड संग्घीन शैन्यके कोटसे घेरे हुये, वैराग्य बाणो की मेघ धारा परे वृष्टी होतेही, कामदेव मृत्यु पाये. उनके तीनही उमराव भ ग गये. उदर क्षमाचंद्रने क्रोधका, मार्दव सिंहने मान का, और अर्जव प्रसादने दगाका नाश किया. चैतन्यकी शैन्यमें जय २ कार हुवा. चैतन्य निर्विषयी बन शांत सरल हो पर्मानंद भोगवने लगे. मोह नृप, प्यारे पुत्र और तीनो बलिष्ट उमरावोकी मृत्यु सुन मूर्छा खागये. हाय शहा करने लगे. लाल आँख कर कहने लगे. अब ये खुषही चैतन्य का नाश करूंगा ! तब 'लोभ राय' मोठे आप जैसे महाराजाको, बैलव्य जैसे बच्चे के सामे जाना लाजम नहीं है, मैंने एक उपाय विचारा है, में वह है की चै तन्य को 'उपशम मोह ने देने लोभ दे वो, उसमें गया की उस गुप्त रहे हुये अपने सुभट उसकी सव शैन्यका नाहा कर, आपके सों कर देंगे. यह शला मोहको पसंद पडी और कहा जल्दी करो. की तुर्त लोभचंद्र सज हुये. उन्हके साथ होस, रत्य, Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयशाखा-धर्मध्यान १४७ अरत्य, भय, शोक, दुगछा यह उमरावो सपरिवार सज हो चले. . चैतन्यकी आज्ञा ले विवेक चन्द्र धर्म सभामें अपने सर्व मंडलिक और सामंत सुभटोंकी सभा कर कहने लगे. भाइयों! अपना बहुतला काम फते होगया. और जो कुछ रहा है. वो थोडेमेही पार पडनेकी आशा है. परन्तु मुप्त एलची द्वारा खबर मिली है की उपशम किल्लेमें मोहने गुप्त सुभटो बेठा रखे हैं. इस लिये किसीभी लालचर्सेललया, उस किल्लेमें कोइभी प्रवेश मत करना. रस्ते के सर्व उपसर्ग अडगपणे सहे, क्षिण कषाय कि में प्रवेश करें की, जिससे मोहका एक क्षिणमें प्राजय कर, इच्छित काम फते हो. यह विवेक का बौध सर्दने सहर्ष बधा लिया. और तुर्त स जहो क्षिणमोह किल्लेकी तर्फ भयाण किया. रस्ते में 'लोभचन्द्र' मिल गये. और मधुरतासे कहने लगे, अब क्यों भगते हो, हमारा सत्यानाश तो तुमनें मिलादिया. अब सब तुमाराही हैं, डरो मत! यह 'उपशरद कसाय' विल्ला तुमाराही हैं. इसमें बे फिकर रहो. मोह रायतो बेचारे चुपचाप बैठे हैं. अब तुम्हारा नामही नहीं लवेगे. इन सब दगोसे विवेक ने अव्वलही वाकेफ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ ध्यानकल्पतरू. किये थे. इस लिये लोभके मिठे बचनसे कोइ ठगा ये नहीं, और आगे चलने लगे. तब लोभचन्द्र असुरत्र हो सपरिवार सामे हुया, अरे दुष्टो ! मेरें भाइयोंको मार कहां जाते हो, अब मै तुमें छोडने वाला नहीं !! यों कहे सर्व शैन्य युक्त चैतन्यकी शैन्य पर. इच्छा त्रष्णा मुच्छी,कांक्षा गृधता आशा इत्यादी बाणोंकी वृष्टी कर ने लगे, की उसही वक्त चैतन्यने क्षायिक बाणोका प्रहार कर लोभका सपरिवार नाश कर. बे फिकर हो क्षिण कषाय फिल्में भराके परमानंद पाये. 1 लोभचंद्रका सपरिवार नाश कर क्षिण कषाय किल्ले चैतन्यने निवास किया है. ऐसी मोह कों खबर होतेही सतंगे ढिले पडग़ये. जीतनेकी आशातो दूर रही, परंतु इज्जत और जान बचना मुशीबत हो गया. तो भी मानके मरोडे आप खुद चैतन्यका प्राजय क रने खडे हुये सब ज्ञानावरणं आदी सात महा मंडलिक राजा, अपने असंख्य दल बलले साथ हुये. सबसाथ चैतन्यकी तर्फ चले. यह चैतन्यको खबर होतेही क्षायिक सम्यक्त्व क्षयविक यथाख्यात चारित्र, यह महा पराक्रमी रा जाओ के साथ, करण सत्य, भाव सत्य, योग सत्य, व रक्त से सज हो वितरागी. अकषायी, शस्त्र ले, संपूर्ण * " Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयशाखा-धर्मध्याम. १४९ संबुडता रूप चारो तर्फ बंदोबस्त कर, संपूर्ण भविता त्म रूप मद छक हो. महाज्ञान बार्जित्रोंके झणकार सें, महाध्यान निशाण फररीते, महा तप तेज कर दीपते, अमोह अधिकारी पणे. अपडवाइता द्रढताधार क्षपक श्रेणि रूप चौगानमें सब परिवारसे परघरे खडे हुवे चैतन्यको ऐसे ठाठसे सामे खडा देख, मोह मद छक हो बोला, रे चैतन्य ! तूं मेरे घरमें बडा हुवा, अनंत काल मेरी सेवामें तुजे हुवें, निमक हरामी ! अब मेरे सेही लडने तैयार हुवा, यह तुजे जो ऋधि प्राप्त हुइ हैं. सो सब मेराही पुण्य प्रताप हैं; ऐसी २ ऋद्धि तुजे पहले केइ वक्त मिली, और तूं केइ वक्त मेरा सामना किया. अनंन वक्त तेरी मैने क्ष्वारी करी. तो भी तूं नहीं शरमाय और सब बीती भूल, मेरा सामना कर ता है. लिहाज कर २ शरमा आयतो जरा !! · चैतन्य - हांजी मेरी लाज को गमा, अनंत का लसे मेरी फजीती करनेवाले आपको अब मैने पेछाने, तबही मुजे लिहाज पैदा हुई तबही तुमारे सर्व परिवार का नाश कर तुमरे सामे अडग खडा हूं. तुभे भी मरनेका शोक हुवा हैं. जो सबका नाश देखते ही मेरे सामे आये हो, तो संभालिये. इना कहतेही चैतन्यने मोहके मस्तकों क्षायिक खड्गका प्रहार कर Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० ध्यानकल्पतरू. मोहका नाश किया. उसी वक्त ७ मंडिकोमेंसे ज्ञाना. वरणिय, दर्शनावर्णिय, और अंतराय इन तीनोका स्वभाविक नाश होगया. उसी वक्त आकाशमें सब देवता ओंने जय २ कार किया. श्रेष्ट द्रव्यकी वृष्टी करी. देव धुंदवी बजने लगी. चैतन्य महाराज को कैवल्य ज्ञान कैवल्य दर्शन रूप महा ऋधी की प्राप्ती हुइ. और तीनही लोकमें चैतन्यकी आण दुवाइ फिर गइ. सर्व जक्तके वंदनिय पूज्यानय चैतन्य महाराजा हवे. .. विवेक मंत्रीश्वर की सल्लासे, चैतन्य रायका स ब काम सिद्ध हुघा जाण, सब परिवारसे संयम मेहल में परमानंद भोग लगे, एक दिन विवेकचन्द्रजी बाले स्वामी आपके इष्टितार्थ सिद्धीसे मै बडा खुश हुवा. हूं. और आप सर्वज्ञ सर्व दर्शी हये. इस लिय मै आपको किसी प्रकार सल्ला देनेभी असमर्थ हूं, आप जा नते ही होके आपके चार शत्रू आपसे मिले हुये हैं. उनकाभी कूछ विचार ? .. दैतन्य महाराजा बोले कुछ विचार नही. वो बेचार नीबल होके पडे हैं, और बोलो कुछ करते हैं, सो जगजीव का सला होवे, पैसाही करते हैं. मुजे उनसे कुछ हरकत नहीं हैं. आयुष्य,नाम, गौत्र, और साता वेद निया, ये सब एक आयुज्य के आधार से टिके हैं। Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयशाखा-धर्मध्यान. १५१ और आयुष्य तो बेचारा स्वभाव से ही क्षिण २ में क्षय होता हैं, सर्वथा क्षय हुवा की, बाकी के तीनही उस के सात क्षय होजायेंगे; की फिर अपन सीधे शिव पूर में जाके, अजर, अमर, अबीकार हो; अक्षय, अनंत, परमसुख के भुक्ता बनेंगे. अपाय विचया नामे धर्म ध्यान के दूसरे पाये के ध्याता, अनंतकाल से आपय करने वाले, कर्मशत्रू ओंका नाश करने का विचार, एकाग्रतासे तथा भूतहो चितवनाकरें. और कर्मवृधी के कामोंसे निवृती भाव धारनकर, आत्मा सुख के उपायमें संलग्न बन मोक्ष मार्ग में प्रवृतने सामर्थ्य बने वो कोई कालमें मुखके भुक्ता जरूरही होवेंगें. तृतीय पल-"विपाक विचय" हा! हाः त्या आश्चर्य कारक इल जगतका ब नाथ द्रष्टि आता है. जीव जीव जब एकसे हो, कोइ सुसी हो प्लोइ दुःखी, ऐसही, नीच, ऊंय, मूर्ख विद्वा न, वालिटी श्रीतघगैरे विधि स्वना दिखती है. इसाप्या पारज? जीव जना जारही सो बूरा न करे ! रिये बुरे उजद कराने बाळा, जीवके साथ दूसरा भी कोई है ? दूसरा कौन है ? ( जरा विचार ६ . Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ ध्यानकल्पतरू.. कर ) हां, जो अपाय विचय में विचारसे पैछाना था वोही, अंदर रहा हुवा कर्म रूप शबू हैं. वो दो प्रका रके विपाक उत्पन्न करता है. (१) अशुभ कर्म रूप कडुवा और (२) शुभ तर्क रूप मीठा. शुभ कर्मके फल भोगवते जीव मजा मानता है. जिससे अशुभ बंध होता है. और दुःख भोगवता है. यो अशुभका क्षय होते शुभकी वृधी होती है. ऐसा रात्री दिवसकी तरह यह सिलसिला अनादी काल से चलाही आता है. .. .' .. अब शुभाशुभ कर्मों उपराजन करनेकी रीती शास्त्रानुसार. विचारनेकी आवश्यकता है. की कौनसे कर्मोसे जीव सुख पाता है. और कौनसे से दुःख पाता है. १ प्रश्न-श्रोत इंद्रीकी हीनता कायसे होय? उत्तर-विकथा श्रवण कर खुश होय, सत्य को असत्य और असत्यकों सत्य ठहराय, बधीर. (वैरे) की हांसी करे, चीडावे. अन्यको बधीर बनाने उपचार करे, दीन गरीबोंके करुणा मय शब्दो अजीजीपर ध्यान नहीं दिया, सब्दोध शास्त्र शृवण न करे. इत्यादी कर्मों करनेसे वधीर (वैरा) होवेः कानका रोगिष्ट होवे. तथा चौरि. द्री पना पावें. . Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयशाखा-धर्मध्यान. १५३ ____२ श्रोत इन्द्रिकी प्रबलताकायसे होय? उ.-शास्त्र और सूकथा श्रवण करे. यथातथ्य (जैसा का वैसा) अधान करे, बधीरोंकी दया करे. यथा शक्त सहाय करे, दीनोकी अर्जपे गौर कर मिष्ट बचनसे संतोषे, गुणीयोके गुण सुण हर्षावे, निंदा श्रवण नहीं करे तो श्रोतेंद्री (कान) निरोग्यता सुन्दरता तिब्रश्रुता पावे, तथा पाचेंद्री पणा पावें. . . . ३ प्र...चक्षु इन्द्रिकी हीनता कायसे होय? उ.-- स्त्री पुरुषके सुन्दर रूपको देख विषयानुराग धरे, कू रूपा देख दुर्गच्छा निंदा करे, अन्धोकी हँसी करे, चि डावे, मनुष्य पशूकी आँखोको इजा करे या फोडे. कूशास्त्र व पुस्तक पत्र आदी पढे, नाटकादि अवलोकन करे, नेत्रके विषयमें आशक्त होनेसे या करूर द्रष्टीसे देखनेसे नेत्रकी कुचेष्टा करनेसे अन्धा, काणा, चीवडा वगैरे नेत्रका रोगी होवे, तथा तेंद्री पना पावे. __४ प्र.-चक्षु इन्द्रिकी प्रबलता कायसे पावे.? उ-- साधू साध्वीयोंके दर्शनसे हर्षावे, धर्मानूराग धरे, वि. षय जनक रूप देख तुर्त द्रष्टी फेरले, नेत्रके रोगीयोंकी दया करे, सहायता करे, सत्सास्त्र व पुस्तक पत्रोंका पठ न करे, विषयसे नेत्रवशमे करे, तो निरोगी सतेज, मनहर, दीर्घ विषयी आँखो पावे. Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ ध्यामकल्पतरू. ५ प्र--घणेंद्रीकी हीनता कायसे पावे? उ-सुगन्धी पदार्थोंका अनुराग हो. अत्र पुष्पादी सेवन करे, दुर्गधका द्वेषी हो, नाशिका हीनकी (गुंगेकी नकटेकी) हांसी करे, दुःख दे. अन्य मनुष्य, पशू, पक्षीयादिका नाशिकाका छेदन भेदन करावे, तो गूंगा नकटा, या बेंद्री होवे. ६ प्र-घणेन्द्रिकी निरोगता कायसे पावे? उ--परमात्मा साध्या साध्वी, जेष्ट जन गुणी जनके सन्मुख नाक नामवे, (नमस्कार करे) सुगन्धी पदार्थोंमें गृधन बने, नाशीका हीनकी साहयता करे, तो सुशोभित निरोगी, नाशीका पावें. ७ प्र--जिया इन्द्रिकी हीनता कायसे पावे? उ-मदिरा, मांस, कंद, मूल, आदी अभक्ष खावे, षडूरस पदार्थ में अत्यंत लोलुप्ता धरे, रसना पोषणे हरी काया दीका महारंभ करे, असहौध कूउपदेश कर हिंशा फेलावे, पाखंड बडावे, मर्म मोसे प्रकाशे, कर्कश कठोर भाषा बोले, झूट बोले, मुक्केकी बोबडेकी हांसी करे, संत सती गुणी जनोकी निंदा करे, अन्यकी रसना (जिभ्या) का छेद भेद करे. श्वासोच्छवास रुंधन करे, तो जिभ्याकी हीनता पावे. बोबडा मुक्का होवे, उसके असुहामण बचन लगे. मुख दुर्गन्ध निकले, तथा एकें Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृतीयशाखा-धर्मध्यान. १५५ द्री पणा पावे. ८प्र-रस इन्द्रिकी निरोगता कायसे पावे? उअभक्ष त्यागे, रस अधी नहो. सहौध कर धर्म फेलावे सदा गुणोंकाही उच्चारण करे, सर्वको सुखदाता बोले रसना हीनकी सहायता करे, तो रसनाका निरोगी, मधूर अलापी होवे. ___९ प्र-हस्तकी हीनता कायसे पावे? उ-अन्यके हस्त छेदन करे, खोटे तोले मापे वापरे, खोटे लेख लिखे, कूशास्त्र बणावे. चोरी करे, लूले ( हस्त रहित की) हांसी करे, दूसरेका छेदन, भेदन, मारताड करे पक्षीयोंकी पांख काटे. तो लूला (हाथ रहित) होवे. १० प्र-हस्तकी प्रबलता कायसें होय? उ-दान दे वे, खोटा लेन देन नहीं करे, खोटे लेख नहीं लिखे, अच्छे धर्मिबृधीके लेख लिखे, विनादी वस्तु ग्रहण नहीं करे, हस्त हीनकी सहायता करे, तो निरोगी बलिष्ट हाथ पावे. ११ प्र-पांवकी हीनता कायसे होय? उ--रस्ता छोडके चले, हिंशादी पाप कर्मों में आगे बढे, धर्म कार्य में पीछा हटे, कच्ची मट्टी, पाणी, हरी, कीडीयादीकों पांवसे दाबे, चांफे, अन्य छोटे बडे, जीवोंके पांव तोडे लंगडे पांगले, की हंसी करे' चोरी जारी आदी कू का Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ ध्यानकल्पतरु. र्यमें प्रवृते तो पांव हीन लंगडा पांगला होवे. १२ प्र - पांक्की प्रबलता कायसे पावे? उ-कूरस्ते जावे नहीं, अन्य जातेको बचावे. सजीव पदार्थपे पांव न दे, लंगडे पांगुलेकी सहायता करे, तो निरोगी बलिष्ट पांव पावे. १३ प्र - निर्धन ( दरिद्री ) कायसे होवें ? उ- चोरीसे दगासे, धूर्तासे, ठगाइसे, जुलमसे हिंशकारी कुवैपारसे द्रव्योपारजन करे, ( धन कमावे) धनेश्वरोंपे द्वेष करे, उनको निर्धन बनाना चहावे, मेहनतसे स्वल्प धन कमाया उसे लूटे, घर, अन्न, वस्त्र, सें दुःखी करे, गरीबोंकों वाक्य प्रहार करे, झूटा आल दे फसावे. अ जीवकाका भंग करे, तथा साधू होके धन रक्खे, दूसरेके कमाइमें अंतराय दे, थापण दबावे तो निरधन होवे, और किसीका धन अग्नीमें जलावै तो उसकाभी आग (लाय) में जले, पानी में डूबावे तो झाजादी पाणीमें डूबे. इत्यादी जिस तरह दूसरे के द्रव्यका नाश करे, वैसे ही उसके द्रव्यका नाश होवें. १४ -- धनेश्वरी कायसे होय ? उ-निरधनों (दारि द्रियों) की दया करे, उनकी सहायता करे, अन्यकी seat देख हर्षावें. प्राप्त द्रव्यपे ममत्व कम कर, दान, पुण्य धर्मोन्नती, अनाथोंकी सहाय इत्यादी सूकृ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयशाखा-धर्मध्यान. १५७ त्योंमें द्रव्य लगावे तो धनेश्वरी होवें. - १५ प्र-अपुच्या कायसे होवे ? उ-पशु, पक्षी, औ र मनुष्यादीके अनाथ बच्चोंको या यूका (ज्यूं) लीखों को मारे, अन्डे, फोडे, पुत्रवंतोपें द्वेष करे. गाय, भेंस, आदी बच्चोंको दूध पीते खेंच ले. बेंच दे. बिछोहा पडावे. बीजोंकी मींजी निकाले. तो अपुत्र्य ( पुत्र रहित होवे. १६ प्र-पुत्रवंत कायसे होवें? उ-पशु, पक्षी, मनु ष्यादी के अनाथ बच्चोंका रक्षण, पालण कर, जन्म निर्वाह करने जैसे बनावे तो बहुत पुत्रवत होवे. १७प्र-कुपुत्र कायसे होवे ? उ-अन्यके पुत्रोंको कूबुद्धी दे के माता पिता का अविनय करावें पितापुत्र का झगडा देख खुश होवे. फूट पडावे. अपने माता पिता को संताप देवे, तथा ऋण और थापण ड्रबावे, तो उसके कपूत (अविनीत) पुत्र होवें. १८ प्र-सूपूत्र कायसे होवें ? उ-आप माता पिता की भक्ती करें, अन्यको करनेका बोध करें. ® पुत्रोंको धर्म मार्गमें लगावें, सूपुत्र देख हर्षाये तो सूपुच्या होवें. __* उववाइजी सूत्रमें फरमाया है की माता पिता की भक्ता करनेसे ६४ हजार वर्ष के आयुष्य वाला देव हावे. . Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ ध्यानकल्पतरू. १९ प्र-कू भारज्या कायसे मिले ? स्त्री भरतार के आपमें क्लेश करावें, उनके झगडे देख हर्षावे. स्त्रीको भरमावे, विभचारणी बनावे, सतीयोंकी निंदा करे क लंक चडावे. अन्यकी अच्छी स्त्री देख दुःखी होवे, तो कूत्री मिले. २० प्र - सुभारजा कायसे मिले ? आप सीलवंत रहे विभचारणीके प्रसंग में वृत न भांगे, बिभचारणीको सुधारे सतीयोंकी परसंस्या और सहायता करे. स्त्री भरतार का विरोध मिटावे तो अच्छी स्त्रीका संयोग मिले. २१ प्र - अपमानी (मानहीन) काय से होय ? उ--अन्य का मान खंडन करे, माता पिता गुरू आदी वृधौका विनय न करे. गरीब, निर्बुद्धियोका निरादर करे, शत्र ओंका अपमान सुन खुश होय, अपने मुखसे अपनी परसंस्था करे. अपने गुणका अहंकार करे, गुणवंतो का द्वेष करे, गुणवंतोको वंदना न करे. दूसरेको मना करे, स्वछंदे चले, तो अपमानी होवें. " २२ प्र--सन्मान कायसे पावे? उ-तिर्थंकर, साधू साध्वी, श्रावक, श्राविका, सम्यकद्रष्टी ज्ञानी, गुणी, धर्मदीपक, इत्यादी महाजनो के गुणग्रामकरे, गुणदीपा वें. जेष्टोकाविनय भक्तीकरे, कीर्तीसुणहर्षावें, वंदनाकरे करावे. गुणीजनहो गुणोंको छिपावें, सदानम्ररहे, तो . Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयशाखा-धर्मध्यान १५९ सर्व स्थान सन्मान पावें. २३ प्र - क्लेशी कुटुम्ब कायसे मिले ? कुटम्बमें झग डा करावे. क्लेश देख हर्ष पावे तो, क्लेशी कुटम्व मिले. २४ प्र - अच्छा कुटम्ब कायसे मिले ? कुटम्बमें सम्य करावे. निरद्रव्य कुटम्बोकी सहायता करे. कुटम्बमै संप देख हर्षावे तो सुखदाइ कुटम्ब मिले. २५ प्र - रोगिष्ट कायसे होवे ? उ-रोगीयोंको संता पे, निंदा करे, हँसी करे, औषध दानकी अंतराय दे, रोग बढाने अशाता उपजानेका उपाय करे, साधूवोके वस्त्र मलीन देख दुगंछा करे तो रोगीष्ट ( रोगीला) होवे. २६ प्र - निरोगी कायसे होवें ? उ-दीन दुःखी यों को रोगीष्ट देख दयालावें, सुख उपजावें. साधू साध्वी को, औषध दानदे, से निरोगी होवे. २७ प्रकर स्वभावी कायसे होवे ? उ-कू संगतसे खुश रहे, सत्यसंगसे अलग रहें, बात २ में संतप्तहो, तथा नर्क गती आय हो सो. कर स्वभावी होवे. २८ प्र-मिळापू काय से होवे ? उ--साधू के दर्शन से प्रसन्नहो, कूसंगत्यागे, कूबचन सुन धैर्य धरे, प्राप्त वस्तुपें संतोष धरे. तथा देवगतीसे आय हो. सो सूस्वभावी ( मिलपू) होवे. २९ प्र--पापात्मा कायसे होवे ? उ--लोकोकों धर्म ܬ Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० ध्यानकल्पतरू. से भृष्ट करे, सत्धकी निदा करे, कू धर्म की महीमा करे. अधर्मीयोंकी संगत करनेसे पापात्मा होवे.. ३० प्र-धर्मात्मा कायसे होवे? उ-अधर्मीयों को धर्मी बनावे, धर्मोन्नती तन धनसे करनेसे. ३१ प्र-निर्बल कायस होवे? उ-दनि,गरीबों का सताये. अन्न बस्त्रकी अंतरायदे, निर्बलको दबावे, झगडाकरे. बध. बंधनकरे, अपने बलका अभीमान करे तो निर्बल होवे. - ३२ प्र--बलवंत कायसे होवे ? उ-दीन, अनाथ जीवोंकी दया कर साता उपजावें. संकटमें सहाय करे, अन्न वस्त्रादी प्रदान करे. तो बलवंत होवे. - ३३ प्र-कायर कायसे होवे? उ-अन्य जीवकों भय उपजावें, धस्का पाडे, इज्जतलूंटे, राज, पंच, चोर, सर्प, विष, अग्नी, पाणी, देव. भुत इन भयंकर वस्तुओं के नामलें, दूसरे को भय भीतकरे, पशुओं को त्रासदायक बनावे व चमकावें, उन्हे देखहर्षावे, सो कायर होवें. '. ३४ प्र-सुरवीर कायसे होवे? उ--दीन, दुःखी, अपराधीको अभयदानदे, भयसे बचावें उपद्रव मिटावे, सो सूरवीर होवे. २५ -कपण कायमे हो र-उने दव्य (धन Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृतीयशाखा-धर्मध्यान. १६१ होते) दान नदे, दूसरे को देतां मना करे. देतेको देख दुःखीहोवें, दानकी निंदा करें अत्यंतत्रष्णवता, सो कृ पण होवे. ३६ प्र-दातार कायसे होवे? उ-गरीबी(दरिद्रता) होतेभी दान दे, दूसरेको देते देख खुश होवे, समर्थ हो दीन. दुःखीकी सहायता करे, सदा दान देनेकी अभीलाषा रक्खे धर्मोन्नती सुन हर्षाय, सो श्रीमंत हो, दातार होवे, . ३७ प्र-मूर्ख कायसे होवे ? उ-विद्वानो पंडितोकी हँसी, मस्करी, निंदा, अविनय, अशातना करे, ज्ञान प्रसारकी अंतराय दे, ज्ञानके उपकरण पूस्तकादी ना. श करे, ज्ञानपे अरूची करे. ज्ञान चोरे, सत्य शास्त्र को झूटेबनावे, और झूटको सच्चे बनावे. तो मूर्ख होवे. ... ३८ प्र-पण्डित कायसे होवे? उ-विद्यादान दे। विद्याप्रसार में धन, तन, का व्यय, करे, विद्वानोकी महिमा करे, धर्म पुस्तकोका मुफतमें प्रसार करे, सो पंण्डित होवे. - ३९ प्र-पराधीन कायसे होवे ? उ-अन्यको बंदीखानमें डाले, बहुत मेहनत करा थोडी मजूरी देवे. कर्जदारोका घर लुटे. इजत ले. कुटम्ब को, नौकरो को, अहार की अंतराय दे, जबरदस्तीसे काम करावे, Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ ध्यानकल्पतरू पशु पक्षीको बाडेमें, पिंजरेमें, रोक रक्खे, दूसरेको प राधीन देख खुशी होवे. दूसरे की स्वाधीनता नष्ट करे सो पराधीन होवे.. ४० प्र-स्वाधीन कायसे होवे ? उ-कुटम्बको, नोकरोको संताप न दे; अहार, वस्त्र, स्थानकी साता दे, शक्ती उप्रांत काम नहीं कराय. मनुष्य, पशू, पक्षी, आदीको बंदीखानेसें छोडावे, स्वाधीन करे, अपणा स्वछंदा रोकके गुरूके च्छंदे, (हुकम में) चले, सो स्वाधीन स्वतंत्र होवे. ४१ प्र- कुरूप कायसे होवे ? उ-आप रूपवंत हो अभीमान करे, दूसरे सुरूपर्वतोंकी निंदा करे, कुरूपोंकी हाँसी अपमान करे, आल चडाय शृंगार बहुत सजे, सो कूरूपी होवे. ४२ प्र-सुरूप कायसे पावे? उ- सुन्दर होके भी अभीमान न करे, सुरूपणी स्त्रियादिको विकार द्रष्टी से नहीं देखे, कुरूपोंका निरादर न करे, सील पाले सो सूरूप होय. ४३ प्र -धन विलस क्यों नहीं सके ? उ-अन्यको खान पान वस्त्र भूषणकी अंतराय दे. आप और समर्थ हो अच्छे भोग भोगवें, आश्रितोंको त्रसाय, अन्यको भोगोपभोग भोगवते देख आप दुःखी होय, वो धन प्राप्त होके भी भोगव नहीं सके.. Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयशाखा-धर्मध्यान. १६३ ४४ प्र-सुख विलासी कायसे होय? उ-आपको प्राप्त हये भोगाप भोग भोगवे नहीं. अपने भोगकी वस्तू दान पुण्यमें तथा स्वधर्मीयोंको दे के पोषे, सो इच्छित भोग भोगवे. ____४५ प्र-क्रोधी कायसे होय ? उ--आप क्रोध करे, क्रोधीयोंकी परसंस्या करे, मनुष्य, पशु, देवता ओके जुधकी बातों सुन हर्षावे. शिकार खेले, क्षमवंत को संताप उपजावे, निंदा करे, हाँसी करे सो क्रोधी होवे. ४६ प्र-धूर्त कायसे होय? उ-धर्म करणीमें, दान, पुण्यमें जप, तप, में कपट करे थोडा कर बहुत बतावे पोमावे, सो दगाबाज, धूर्त होवे. ४६ प्र-सरल कायसे होय? उ-सरल भावसे करणी करे, करके पोमावे नहीं, सो सरल स्वभावी होवे. ____४८ प्रचार कायसे होय? उ-चारे कर्मको अच्छा जाने, चोरेको सहाय दे. चारेकी वस्तु ले, चोरकी कला बतावे, चोरकी परसंत्या करे, सो चोर होवे. __ ४९ प्र--साहूकार काय होय ? उ--अवत्तवृत्त धारण करे, चोरका परिचय वळे, सो साहूकार होवे. .. ५० प्र-कसाइ कायसे होय? उ-हिंशाकी परसंस्य। करे, हिंशा करनेकी कला बतावें. हिंशा के शस्त्र बना वे, दया की निंदा करे, सो हिंशक कषाइ होवें. . Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ ध्यानकल्पतरू. _५१ प्र-दयाल कायसे होय ? इ-हिंशक की संगत वर्जे, हिंशक को उपदेश दे दयावंत बनावे, आजीवका दे हिंशा कर्म छोडावे. सो दयावंत होवे. ५२ प्र-अनाचारी कायसें होवे ? विकल भाव रक्खे, अशुद्ध, अभक्ष वस्तु भोगवे, आचारवंतकी निंदा करे, अनाचार सेवनमें आनंद माने. अनाचारीयोंका सहवास करे, अनाचारको भला जाने, सो अनाचारी होवे. - ५३ प्र-शुद्धाचारी कायसे होय? अनाचारीयोंको शुद्धाचारी बनावें. अनाचारकी ग्लानी करे, शुद्धाचा. रीकी सेवा परसंस्था करे, अभक्षको त्यागे. नितीमें प्रवृते, तो शुद्धाचारी होवे. ५४ प्र-भाइयोंमें विरोध क्रायसे होवें? उ-हाथी, घोडे, भेंसे, मेंढे, कुत्ते, मुर्गे, वगैरें जानवरोकों आपस में लडावे. या लढाइ देख हर्षावे, तो भाइयों में विरोध (लडाइ) होवे. __ ५५ प्र-भाययोंमें संप कायसे रहे? मनुष्यों पशूवोके झगडे मिटावे, संप करावे, संप देखके खुश होवें संप रहने उद्यम करे, सो भाइयोंमें स्नेह होवे. __ ५६ प्र-अंत्तरद्वीपेमे किस कर्मसे उपजे ? उ-मिथ्यात्वी साधू आदी को दान देवें, उत्तम साधू ओंको Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयशाखा-धर्मध्यान १६५ कपटसे, फलकी इच्छासे दान देवें, दान दे अभीमान करें, सो अंतरद्विपमें मिथ्यात्वी जुगलिया मनुष्य होवें. __ ५७ प्र-जुगलिया (भोग भूमीये) मनुष्य कायसें होवे ? उ-शुद्वाचारी साधूओं को हुल्लास भावसें शुद्ध आहार, स्थान, वस्त्र, पात्र, देवे, दूसरेके पाससे दिलावे. अन्य को देते देख खुशहोवें सो अकर्म भूमी मे समद्रष्टी जुमलिया होवें. __ ५८ प्र-अनार्य देशमें जन्म कीस कर्मसे लेवे? उखोटा आलचडावे, म्लेच्छो की सुख संपदा अच्छी लगे, म्लेच्छ वेश धारे, म्लेच्छ कामों की परसंस्था करें, आर्यदेश छोड अनार्यमें रहे, सो आनार्य देश में जन्मलें. . ___ ५९ प्र-आर्य देशमें कायसे जन्में ? उ-आर्यों की चाल चलन पसंदकरे. अनार्य रिवाज कामें छोडे, अनार्य को आर्य बनावें, 'मुनी (साधू) की परसंस्था करे, आर्यों को यथा शक्त सहायता करे, तो आर्य देशमें जन्मलेवे. .. ६० प्र-हम्माल कायसे होवे ? मनुष्य, पशु ओं पे गजा (शक्ती) उप्रांत बजन लादे बेगारमें पकडे, ज. बरी से काम लेवें, थोडाकहे बहुत वजन भरें, ज्यादा उठाया देख हर्षावे, तो हम्माल, पोठीया, बेल, घोडे Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यामकल्पतरू. वगैरे होत. ६१ प्र-कू कवी (भाट चारण) कायसे होवे ? उ-कू कथा का प्रेमीबने, लोकीक (मिथ्य) शास्त्रका दान दिया, धर्म कथाका नाम रख विकार उत्पन्न होवें ऐसी कथाकरे, विषय पोषक कवीता रचे, विषय जनराग रागणी सुणे , उनपे प्रेम करे, सो कू, कवी भाट चारण होवें. . ६२ प्र-सूकवी कायसे होवे ? उ-जिनराज मुनी. राजके गुग कीर्तन सुग हर्षलावे, शास्त्रकर्ता गणधरो की आचार्यों की परसंस्या करें. ज्ञानवृधीमें धन लगा वें, धर्म कवीयों को सहाय्यदे, धर्मकवीता की गुप्त रहस्यों से हर्षावे सो, विद्वान कवी होवें. ६३ प्रदीर्घ (लम्बा) आयुष्य कायसे पावे? उमरते जीवोंको द्रव्य दे छोडावे. उन्हे खान, पान,स्था नका सहाय दे, बंदीवान छुडावे, संसारमें उदासीनता धरे, दया भाव रख्खे, दीन अनाथोंको सहाय देवें, तो दीर्घ आयूष वाला होवें. __६४ प्र--ओछा आयुष्य कायसे पावे? उ--जीव घात करे, गर्व गलावे, आजीवका का भंग करे, ज्यूं खटमलादी मारे, शुद्ध लेने वाले साधूको अशुद्ध आहार प्रमुख देवें, अग्नी विष शस्त्रादी से जीव मारे, सो अ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सृतीयशाखा-धर्मध्यान. १६७ ल्पआयुष पावें. ___६५ प्र-सदा चिंता कायसे रहें ? उ-बहुत जीवकों चिंता उत्पन्न होवे, वैसी बात करें, अन्यको उदास देख खुशी होवे. सो सदा चिंता करने वाला होवें. ६६ प्र-निश्चित कायसे रहें ? उ-दूसरे की चिंता का भंग करे, धर्मात्माकों देख खुश होवे, दुःख पीडि तको संतोष उपजावे. सो सदा निश्चित रहें. ६७ प्र-दास कायसे होवें? उ-नौकरोंको बहुत सतावें, बहुत काम लेवें, परिवारका शैन्याका, अभी मान करे, सो बहुत जनोंका दास होवें. ६८ प्र-मालिक कायसे होवें? उ-धर्मी जनोंकी तपस्वियोंकी वयावञ्च करे, धर्मात्मा दुःखी जनोका पोषण करे, अन्यके पास धर्मात्माकी सेवा भक्ती करावे, करते देख खुशी होवे, सो बहुतोंका मालिक होवें. ६९ प्र-नपुशक कायसे हो? उ-नपुशक के नृत्य गायन, ठठे देख खुशी होये. पुरुषको स्त्रीका रूप बना के नृत्य करावें, बैल, घोडे, आदी पशू या मनुष्यका लिंग छेदन करे, नपुंशक से विषय सेवन करे, आप नपुंशक जैसी चेष्टा करे, स्त्री पुरुषके संयोग्य मिलाने की दलाली करें, बेंद्री, तेंद्री, चौरिंद्रीकी हिंशा करे, सो नपुंशक होवें. Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૬૯ ध्यानकल्पतरू. ७० प्र - स्त्री कायसे होवें? उ-स्त्रीयोंके विषयमें अत्यं त लुब्ध होवें, पुरुष हो स्त्रीका रूप बनावें, स्त्रीयोंकी तरह चेष्टा करे या दगाबाजी करे, सो स्त्री होवें. ७१ प्र - निगोदमें कायसे जाय? उ-देव, गुरु, धर्मकी निंदा करनेसे. कंद मूलता भक्षण करनेसे. ७२ प्र- एकेंद्री कायसे होय? उ-पृथवी, पाणी, अग्नी हवा, वनस्पती, कंद-मूल, वृक्ष, घास, फुल, पत्र, का छेदन, भेदन, करें सो एकेंद्री होवें. ७३ प्र - विकेंद्री कायसें होवे ? उ-निर्दयपणें, त्रस - की घात करें, अनाज (दाणे) बहुत दिन संग्रह कर रक्खें, त्रस जीव (कीडे) की उत्पति होवें ऐसी वस्तु का संग्रह कर, उन्हकी घात करें, मच्छर, खटमल, निवारने धूम्रादिक उपचार कर उन्हे मारे, बोर प्रमुख त्रस जीव उत्पन्न होवें, ऐसे फलोंका भक्षण करे, मोरी, गटार में पैशाब करेसो मरके विकेंद्री (बेन्द्री, तेन्द्री, चौरिन्द्री) होवे. ७४ प्र - कलंग ( अंगोपंग रहित ) कायसे होवे ? उ - जीवोकें हाथा, पांव, कान, नाक, अंगुली, यादी अंगोपांगका छेदन भेदन, करे, कान कतरे, बींदे, कंगूरा करे, ऐसा करते देख हर्षाने तो कलंग ( अंगोपांग रहित ) होंवें. Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयशाखा-धर्मध्यान. १६९ ७५ प्र-पूर्ण अंग कायसे होवे ? दूसरेके अंगोपांग का छेदन होता देख रक्षण करें, अपंगीकी करूणा करे, उसे सुधारने उपचार करे, आजीवीका चलावे. सहाय देवो तो पूर्णांगी (संपूर्ण अंगवाला) होवें.. ७६ प्र-नीच जात कायसे पावे? उ-अपणी उच्च जाति कुलका अभीमान करें, उच्च की निंदा करें, नीचका द्वेष करें, नीच कामें करे, सो नीच जाती पावे. ___ ७७ प्र-उंच जात कायसे पावे ? उ-सत्पुरुषोंके गुण की परसंस्था करे, वंदना नमस्कार करे, अपणे दुर्गुण प्रगट करें, चार तीर्थकी भक्ती करें, यह मनुष्य जन्म पाय तो राजादिक कुलमें जन्में और तिर्यंच होय तो राज्यका मानेता हो सुख भोगवे. . ७८ प्र-उंच चातीका दास क्यों बने? उ-उच्च कम कर अभीमान करें, गुरुकी आज्ञाका भंग करें, उंच हो दीनोके शिर आल चडावे, उच्च हो नीच काम करे. सो उंच होनीच (दासके) कर्म करे. ७९ प्र--प्रदेश फिरके आजीका क्यों करें? उ-भि. झूकोंको लालच दे, वारंवार फिराय फिर दान दे. नोकरोंकी नोकरी साय २ दी, धर्म नामसे निकला धन बहुत दिन घरमें रक्खे, काशीदको भटकावे, सो प्रदेश फिर अजीवीका करें. Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यामकल्पतरू. ८० प्र-सुखे अजीव का कायले मिले? उ-भस्मा को स्वस्थान रहे, अहार, वहाही पाहा यदे, उनके पास धर्म वृद्धी करावे. आमिर किन से धर्म ध्यान करे, स्थिर स्वभावीकी कीर्ती कर, सो घर बेठे सुखे अजीवीका कमावे. ८१ प्र-दगाकर अजीवका क्यों चलावे? कपट भावसे दीन जनोंको दान दे. मुनीको भक्ती रहित दान दे, चोरादिक कु कर्मियोंसे आजीवीका चलावे, उनकी परसस्या करे, सत्यवृती निर्वाह करने वालेपे कलंक चडावे. सो महा मुशीबत से दगाकर अजीबी का चलावे. ८२ प्र-सञ्चावटसे आजीवका कोन करे ? उ-सरल भावसे, विनय सहित, धर्मात्मा को अहार देवें, दीन की रक्षा करें, निर्दोष आजीवका न मिलनेसे क्षुद्यादी परिसह सहे परंतु कू वैषार नहीं करे, सो सरलपणे सुखे अजीवीका उपारजन करे. ८३ उ-मनुष्य पशु बजारमें क्योंबिके ? उ--मनुष्य व पशू को बेंचे (मोलदेवें) कंन्या विक्रय पुत्र विक्रय करें या मोल दिलाने की दलाली करें सो मनुष्य हो दास (मुलाम) पणे या पशू हो विके बंधाय. ८४ प्र-सामुदानी कर्म काक्से बन्धे? उ-मनुष्य यापशु Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बतीयशाखा-धर्मध्यान. १७१ का बध होता होय. वहां देखने बहुत ज़न खडे रहें, मनमें भाय की इसे किती वेग मारे अपन अपने घरजावे, उनके. तथा बहुत मतांतरी यों एकत्र हो सत्य देव गुरु धर्म की निंदा करे, उन्हके सामुदानी कर्म बंधते हैं. वो पाणी मे डूब. आगमें जल, या मारी प्लेगा दी के सपाटे में आ एकदम बहुत मनुष्य मारे जाते हैं. ८५ प्र--एक दम बहुत जीव स्वर्ग में कैसे नावे ? उ- धर्म मौत्सब. दिक्षा औत्सष. केवल औत्सव धर्म सभा बायखनीदमें बहुत जन मिल हर्षावें. वैराग्य भाव लावें. उसकी परसंस्या करे. सो एक दम बहुत जीव स्वर्ग या मोक्ष जावें. ___ ८६ प्र-कोइ बिना काम द्वेष करे इसका क्या सबव ? उ- परभव में किसी को दुःख दिया होय, उस का नुकशान किया होय तो बो बिना दोष ही देष धर ता हैं. ८७ प्र-विना स्नेही स्नेह जगे सो क्या सबब ? उ-- दुःख छोडाया होय. साता उपजाइ हो बन में पहाडमें या समानमें, निराधार हुये को आधार देनेसे. वो पीछा अचिंत्य दुःस्व में आके सहाय करे. विना कारण प्रेन करे. ८८ प्र--व्यंतरादी व्याधी से मुक्त न होवे सो क्या Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ ध्यानकल्पतरू. कारण ? उ-वेद (हकीम) हो. अनेक जीवों के साथ विश्वास घात करे, जानता हुवा खराब औषध दे. रोग बढाय. और जोतषी हो ग्रह, नक्षेत्र भूत व्यादी आदी डर बताय. दूसरे को लूटे. देव देवी की मानता कराय; तथा विष शास्त्र अग्नी से आप घात करे सो अत्यंत उपचार करतेंही रोग बिमारी और व्यंतरादी व्याधीसे छूटे नहीं. . ८९ प्र-धनेश्वरीका धन धर्म काममें नहीं लगे उ. सका क्या कारण? उ-अन्यको कूशिक्षा दे, उसका, द्रव्य, वैश्या नृत्यादी कूव्यसन में खरचाय, अन्यका नुकसान सुन खुशी होवें. जुगार सष्टेके वैपारादीमें द्र व्य गमाय, वो धनेश्वरी होके कूमार्ग धनका व्यय कर सके, परंतु धर्म काममें धन नहीं लगा सके. ९० प्र-गर्भमेंही मृत्यु क्यों पावे? उ--शोकोका या स्वता पोता का औषधोपचार या मंत्रादीसे गर्भ गलावे, पाडे, पडावे, सो गर्भमेंही मृत्यु पावे. ९१ प्र-हित शिक्षा खराब क्यों लगे? उ-अन्यको कूशिक्षा दे कूमार्ग चलावे. गुरूके पिताके, हित वचनही सुने, शिक्षककी हँसी करे, उसे हित शिक्षा अहित कारी हो प्रगमें. ९२ प्र-जाती स्मर्ण और अवधी ज्ञान कायसे होय? Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयशाखा-धर्मध्यान. १७३ उ-तप संयम पाला हो ज्ञानीयोंकी ववावञ्च करी हो, ज्ञान की महिमा, बहुमान किया हो उन्हे जाति स्म रण, अवधीज्ञान, उपजे. ९३ प्र-वृत-पञ्चखाण क्यों नहीं कर सके? उ-अन्यके वृत भंग कराय. शुद्धवृत्तीके दोष लगाया, अन्यके वृत भंगा देख खुशी हो. पोते वृत ले प्रणामोंमें सक ल्प विकल्प करे, वार २ वृत भांगे, उससे वृत पञ्चखा ण न हो. .९४ प्र-कसाइयों के हाथसे कटे सो कोनसा पाप? उ-कषाइयों से वैपार करे. कषाइयों को जानवर दिया. कषाइके कृत्य करें, दगासें घात करे, बनचरों. की सिकार करें, मांस खाय, सो पशु हो गयाइयों के हाथसे कटे. ९५ प्र--पाप कर धर्म माननेका क्या सबब? उभ्रष्टाचारीकी संगत करे. पाप कार्यमे धर्म कहे, सत्य देव, गुरू, धर्मकी निंदा करे, वो पापमेंही धर्म मानने. ९६ प्र-बिभ चारी क्यों होवे ? उ-वैश्या के कीशव कमाय. या वैश्या का संग करे. कुसीलीये की परसंस्था करें तिर्यंच तिर्यंचणी का संयोग मिलावें, संयोग देख हर्षाय सो बिभचारी होवें. ९७ प्र-सीलवंत काय से होवें ? उ--शीलपाले. Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ ध्यानंकल्पतरू.. शीलवंत की महिमा करें. सीलवंत की सहायता करें. कुशीलीयों का संग छोडे. सो शीलवान होवें ॐ ९८ प्र-ऋद्धिबंत कायसे होवे? उ-सूपात्रमें दानसे ९९ प्र--मांगनेसे ही चस्सू क्यों नहीं मिले ? उधनवंत हो दान नदेवे आश्रितो को प्रसानेसे. - १०० प्र-भिक्यारी कौन होवे? उ-छिद्री और निंदक. १०१ स्त्रीयों क्यों मरें ? उ-बहुत स्त्रीयों का पति हो उन्हे मारेन से. १०२ प्र-भ्रमित चित क्या रहे ? उन्मदिरा भांग, अफीमादी केफी वस्तु सेवन करनेसे. . ... १०३ प्र-दहाज्वर कायसे होवे ? मनुष्य पशुपे ज्यादा बजन लादनेसे.. १०४ प्र-बाल विश्वा क्यों होवें ? उ-पतिकी घात कर बिभचार सेवनसे. पतिका आपमान करनेसे. १०५ प्र-मृत्यु बांझा क्यों होवे? उ-पशु पक्षी के बच्चे, अन्डे मारनेसे. या लीखों फोडनेसे. १०६ प्र-ज्यादा पुत्री क्यों होवे? पाणी पीतें पशु ओंको रोकके मारनेसे. बहु पुत्रीयेकी निंदा करनेसे. १०७ प्र-विध्वा पुत्री क्यों होवे ? उ-धर्म का धन खाय तो. धर्म के उप करण चोराय तो. * यह ९७ बोल मुद्रष्ट तरंगणी दिगाम्बर ग्रन्थों के है. Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयशाखा-धर्मध्यान १७५ १०८ प्र-मेंद कायसे होबें? उ-मदिरा मांसके भोगवनेसे. मेंद वालेकी हँसी करनेसे. १०९ प्र-अपञ्चाका रोग कायसे होवे? उ-साधू को खराब अहार देनेसे. .. ११० प्र-क्षयनरोग कायसे होवे ? हकीका वैपार करे, सेहत (मद्य) झाडे तो. १११ प्र-कुरूप बेडोल मुख कायसे होवे? उ-दा नेश्वरीकी निंदा करनेसे. मुखका बहुत शृंगार करनेसे. . ११२ प्र-छोड कायले रहे? उ-गर्भपात करनेसे. ११३ प्र-स्थानभ्रष्ट कायसे होवे? रस्ते परके झाड काटनेले. आश्रितों का आसारा छोडानसे. ११४.प्र-श्वेत कुष्ट कायसे होवे? गौवध, कंन्या विक्रय, करनेसे तथा साधू हो वृत भंग करनेसे. ११५ प्र-पुत्र वियोग कायसे होवे? उ--गाय, भेंस के बच्चेको दृध न पानसे. पशु पक्षीके पुत्र मारनेसे. ११६ प्र-बचपणमें मात पिता क्यों मरे ? सरण आयेकी घात करनेसे. मात पितका अपमान करनेसे. ११७ प्र--जलौंद्र कायसे होवे ? अमक्ष भक्षणेसे. ११८ प्र--दांत कायसै दुखे? अत्यंत रसनाकी लु ब्धतासे. अभक्ष भक्षणेसे. ११९ प्र- लम्बे दांत क्यों होवें? उ-घरोघर निंदा Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ करने से चहाडी चूगली करनेसे. १२० प्र-मुत्र कच्छ फत्ररी कामसे होवें ? उ-राणीयों या परस्त्रीयों से गमन करनेसे. ध्यानकल्पतरू. १२१ प्र - गुंगा कायसे होवें ? उ-झूटी साक्षी दे गुरु को गाली देनेसे, १२२ प्र - सूलरोग कायसे होवें ? उ-पशु पक्षी कों बाण से मारने से सूल काँटे आर चूबानेसे. १२३ प्र - उत्तम जाती का भीख क्यों मांगे ? उमाता, पिता, गुरु को मारें या अपमान करनेसे. १२४ प्र - गुंबडे मस्से ज्यादा क्यों होवें ? उ-पशू पक्षी को पत्थर से मारने से १२५ प्र - चमडी फटे तथा दाद क्यों होवे ? उसांप, बिच्छू, गो खटमल ज्यूं लीख को मारे तो. १२६ प्र - सदा बीमार क्यों रहे ? उ-धर्मादा का खाके धर्म न करेतो. १२७ प्र - पीनस रोग क्यो होवे ? उ-चीडीयो, मयुर, तोते आदी पक्षी मारनेसे. १२८ प्र-कुष्ट रोग कायसे होय ? साधूको संताप देनसे. १२९ - सरीर कायसे धूजे ? उ-रस्ते चलते, वृक्ष त्रण, तोडेतो. Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयशाखा-धर्मध्यान १७७ १३० प्र - अर्धांगरोग क्यों होवे ? स्त्रीयोंकी हित्यासे १३१ प्र - नासूर कायसें होवे ? पशु पक्षी मनुष्य की नाकमे नाथ डालनेसे. १३२ प्र-गलिज कुष्टी कायसे होवे ? उ-पशु पक्षी मनुष्य को फासीदे मारने से. १३३ प्र- हरस (मस्सा) कायसे होवे ? उ-नदी तलाक का पाणी सोशनसे. और जलचर जीव मारने से. १३४ प्र - रातअन्ध कायसे होवे ? उ-त्री सध्या ( कजर दोपहर शाम) को भोजन कारनेसे. १३५ प्र-- रांधन वायू कायसे होवे ? उ-घोडे. ऊट. बेल बकरे गाडे आदी भाडे देनेसे. १३६ भगंदर कायसे होवे ? उ-अन्डेका रस पीनेसे. १३७ प्र-उल्लू (घुघु) कायसे होवे ? उ-- रात्री भोजन करनेसे. तथा त्रिन देखी वस्तु खानेसे. १३८ प्र सिंह सर्प कायसे होवे ? उ-क्रोध. क्लेशमें संतप्त हो आत्मघात करनेसे. १३९ प्र- गध्धा कुत्रा कायसे होवे ? उ--अभीमान करके वशहो अकार्य कर मरने से. १४० प्र- बिल्ली कायसे होयें ? उदगा करनेसे. १४१ प्र--नवल सर्प कायसे होवे ? लोभ करनेसे. १४२ प्र-- बाला ( नारू) काय से निकले ? बिना छा • Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ ध्यामकल्पतरू । णा पाणी पीवे, जीवाणीका जल न करेतो. . १४३ प्र-मनुष्य कायसे होवे? क्षमा दया, नम्रतासे १४४ प्र--स्त्री मरके पुरुष कायसे होवे? उ-सत्य, . शील, संतोष विनय आदी गुण धारन करनेसे. १४५ प्र--देवता कौन होवे ? उ-साधु, श्रावक, तापस और अकाम (मन विन) निर्जरा करनेसे. __१४६ प्र-लक्ष्मी स्थिर कायसे रहे ? उ-दान देके पश्चाताप नहीं करे तो. १४७ प्र-काणा कायसे होवे? उ-वीज, फल, फुल छेदे, हार गजरे वगैरे बनानेसे. १४८ प्र-गलित कुष्टि कायसे होवे? सुवर्ण चांदी. लोहा तांबा वगैरे की खानो खोदनेसे. १४९ प्र-यश करते अपयश क्यों होवे ? उ-सचित औषधी करनेसे. अन्यकृत उपकार न माननेले. १५० आँखमें बामणी कायसे होवे? निमक(लुण के आगर खोदनसे. १५१ प्र-कांख मंजरी कायसे होवे ? सम्यक द्रष्टी हो मिथ्यात्वी का अनार्योंका काम करनेसे. . १५२ रुंड मुंड सरीर कायसे होवे ? उ-न्यायाधिश हो कठण दंड देनेसे. १५३ प्र-कंठमाल कायसे होवे? उ-मच्छीका Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७९ तृतीयशाखा धर्मध्यान. • अहार करनेसें. १५४ निरोगी दिखे, और रोगिष्ट होवे सो क्या कारण ? उ--लांच ले झूटा न्याय करनेसे. १५५ प्र - संयोग मिल वियोग क्यों होवे ? उ-कृस्घनता, मित्र द्रोहो और विश्वास घात करनेसे. १५६ प्र--डरकण स्वभाव कायसे होवे ? उ-कंठोर दंडी कोटवाल होवे सो. तथा अन्यको डरावे सो. १५७ प्र - खुजली कायसे चले ? उ-तेंद्री ज्यू लीख खटमल पिस्सू उदाइ दी मारेनेसे. १५८ प्र - ज्यूंवो ज्यादा क्यों पडे ? उ--मच्छ अहारी करनेसे. ज्यूंगा अभी आदीमें डाल मारे तो. १५९ प्र तपस्या क्यों नहीं बने ? उ-तप जपका अभीमान करे तो. तप करते अवाय देवे तो. · १६० प्र असुहा मणी भाषा क्यों लगे ? उ-वाक्य चातुरीका अभीमान करे तो कठोर बचन बोले तो. १६१ प्र - अपयशी क्यों होवे ? उ-सासू, नणंद, देराणी, जेठाणी, भाइ भो जाइ का ईर्षा करे तो. १६२ प्र-- तरुणपणे स्त्री क्यों मरे ? उ-भोगकी faa अभीलाषा रखे. अमर्याद विषय सेवे तो. १६४ प्र -छमुहिम मनुष्य कौन होवे ? उ-नील, गुलीके कुंड करे छमछमकी घात करे सो. Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० ध्यानकल्पतरू. १६५ प्र-भूख ज्यादा क्यों लगे? उ-खेतीके कर्म करनेसे. ससक्त आश्रितोंको भूखे मारनेसे. १६६ प्र-मृगी झोला क्यों आवे? लोहारकी धम ण धमे, मृगी, आने वालेको सतावेतो. १६७ प्र-बोलते वगासी क्यों आवे? उ--रंगार के कर्म करनेसे. तोतले को चीडानेसे. १६८ प्र-बोलते थुक क्यों उडे ? उ-गोबर सडानेसे. .....१६९ प्र-झाज कायसे डबे? उ-पाखानेमें झाडे जा. ३. मुत्रमें मुत्र करे, सर्व रात्र मुत्रका संग्रह करनेसे. १७० प्र-खोजा क्यों हो? उ-बहुत बन कटाइ करनेसे. खोजोंके साथ क्रिडा करनेसे. १७१ प्र-योवन अवस्थामें दाँत पडजाय श्वेत बाल होवेसो क्या कारण? कोमल विनस्पति का छेदन, भेदन, चटनी कचुमर करनेसे. ... १७४ प्र-भरा नीगल (गुम्बडा) कायसे होवे? उ. फलोको चीर मसाला भरनेसे. ... १७३ प्र--सरीरमें कीडें कायसे पडे ? उ--दूसरेपेघो डेका पिशाब छिटकनेसे. सडी वस्तु खानेसे. .. १७४ प्र-साथही साले रोग कायसे होवे ? उ-- ग्रामोंको उजाड करे लूटे धाडा, पाडनेसे. १७५ प्र-पाले हुवे मनुष्य क्यों बदले? रसोइका Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयशाखा-धर्मध्यान. १८१ वैपार करनेसे. अच्छी वस्तु दिखा खोटी खिलानेसे. १७६ प्र-१२ बर्ष का छोड कायसे रहे? उ-पेशा व भेला कर सर्व रात्री रखनेसे. १७७ प्र-२४ बर्षका छोड कायसे रहे ? उ-तिब्र भाव विषय सेवनसे. गर्भ गलानेसे. १७८ प्र-सदा सरीर क्यों जले? उ-फूलोंका मर्दन करनेले. बहोत अत्तर उगटणे लगानसे. १७९ प्र-वंझा स्त्री कायसे होवे? उ--फूलका अत्त र निकालनेसे. मनुष्य पशुके बच्चे मारनेसे. १८० प्र-मृतबांझा कायसे होवे ? उ-उगती विनास्प ति, कूपल चुटनेसे. ___ १८१ प्र-बहुत स्त्री होके भी पुन क्यों न होवे ? उ-बहुत विनास्पतीका रस निकालनेसे. १८२ प्र-हलालखोर कायसे होवे? उ-जलचर जीव बहुत मारनेसे. कसाईके कर्म करनेसे.. १८३ प्र-सशक्त धर्म क्यों नहीं बने? उ-ममइ (मनुष्यका रक्त) बहुत निकाला होवेसो. १८४ प्र-सरीर भारी कायसे होवे? उ-आसा सराप दारू बहुत पिया होयतो. . १८५ प्र-साधुके सिर आल देवे, शुद्ध आहार लेने वाले साधू को अशुद्ध देवे. तो गर्भमें आडा आके. Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨ ध्यानकल्पतरू. १८६ प्र - नर्क तियंच गतिमें अकाम निर्जरा कर मनुष्य हुवा वो पहले दुःखी हो पीछे सुख पावे, कूलीन के सिर कलंक आवे. शक्त सजा पावे, फिर इ न्साफ होनेसें निर्दोष ठेहरे छुट जावे. मिले ? १८७ प्र - मोक्ष कायसे चारित्र और तपकी सम्यक स्फर्शन करनेसे. इति उ - ज्ञान दर्शन प्रकारे आराधन पालन इत्यादी कर्म बन्ध करनेके, और भुक्तनेके, अनेक कारण शास्त्र ग्रन्थमें बतायें हैं. कित्नेक कर्म, इस भवके किये इसही भवमें भोगवते हैं. और किनेक आगे के जन्ममे भोगवते हैं. अनंत ज्ञानी सर्वज्ञ भग वंतने संसारी जीवोंकी कर्म विपाकसे होती हुइ दिशा को अवलोकन करी, परन्तु वाणी द्वारा सम्पूर्ण वर्णन कर सके नहीं, क्यों कि सम्पूर्ण विश्व अनंत जीवों कर भरा हैं. और एकेक जीवके अनंत कर्म वर्गणाके पुद्गल लगे है. और एकेक वर्गणाके वर्णादी पर्यायकी अनंत व्याख्या होती हैं. ऐसा अपरम्पार विपाक वि चय का वर्णन, भाषा द्वारा कदापी न होसके, तथा + ९६ के उप के बोल गौतम प्रच्छा और धर्म ज्ञान प्रकाशके अनुासर से कुछ बढा के लिखे हैं. Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयशाखा-धर्मध्यान. पि धर्म ध्यानी, ज्ञानी की अज्ञानुसार, विपाक विषय का यथा शक्त विचार करते हुये कर्मों की विचित्रता से बाकेफ होतें हैं; वो कर्म बन्ध के कारण से बचके. कर्मक्षय करनेके मार्गमें प्रवृतन हो, अनंत अध्यात्मिक सुख प्राप्त करतें हैं. चतुर्थ पत्र “संस्थान-विचय" संस्थान नाम आकार का हैं. सोजगत का तथा जगत में रहे हुये पदार्थोंका, आकार का विचार करे. सो संस्थान विचय धर्म ध्यान. अनंत अकाश (पोलार) रुप अनंत क्षेत्र है. की जिसका अंतः पारही नहीं. उसे अलोक कहतें हैं, इस अलोक के मध्य भा ग में, ३४३ राजू घनाकार लम्बी चौडी जित्नी जगा में, जीवाजीव व रुपी अरुपी पदार्थ रुप एक पिंड हैं, उसे 'लोक' कहते हैं, यह लोक नीचे सातमी नर्क के तल ७ राजू का चौडा हैं, और उपर सात राजू आवें वहां मूल से घटता २, मध्य लोक के स्थान एक राज का चौढा है, और वहां से उपर चढते चौडास में बढते २, चार राजु (पांचमें देवलोक तक) आवे, वहां ५ राजू का चौडा है, और चौडास मे घटते २ तीन Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૦૦ सिद्ध लोककार सिद्ध FHEE उंचा लोक १०१९ ५ ४ | ३ २।१ जोतषी *@ 9 २ ३ ४ ५ ६ नर्क ७ ध्यानकल्पतरू राज लोकाग्र (मोक्षस्थान ) आवे वहाँ एक राजूका चौडा है. नी च उलटा उसपे सुलटा और उसपे एक उलटा यों तीन दीवे रखे, तथा पांव पसार कम्मरकों हाथ लगा मनुष्य खड़ा रहे, इत्यादी संस्थान (आकार) मय लोक हैं. ऐसा कथन भगवति आदी शास्त्रमें लिखा है, इस मध्यलोक लोकके मध्य भागमें एक निसर णी जैसी एक राजू चौडी और सातभी नर्कले मोक्ष तक १४ राजू लम्बी लस नाल हैं. उस के अन्दर त्रस और स्थावर दोनों प्रकारके जीव है. वाकी सर्व लोकमें एक स्थावरही जीव भरे है, त्रस नलके नीचेका विभाग नांगोद स्थान सात राजू जिल्ली (उलटे दींवे जैसी ) जगामें सात नर्कस्थान है, वहां पापकी अधिकता होती है, वो जी व उपजके कृत कर्मके असुभ फल दुःखी हो भृक्कते है. मध्यमें दोनों दीवेकी संधी मिलती है, वहां गोळाकार Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयशाखा-धर्मध्यान १८५ १८०० जोजन उंची जगा है. उसे मध्य (तिरछा) लोक कहते है. वहां मध्यमें तो एक लक्ष जोजन का उंचा और नीचे दश हजार जोजनका चौडा उपर एक हजार जोजन चौडा (मलस्थंभ जैसा) मेरु पर्वत है, उसके चारही तर्फ फिरता (चूडी जैसा) एक लक्ष जोजनका लम्बा चौडा (गोळ) 'जंबुद्विप हैं, उसके बाहिर चारही तर्फ ( चूडी जैसा ) फिरता दो लक्ष जोजनका चौडा 'लवण समुद्र' है. उसके चारही त. फै वैसाही फिरता चार लक्ष जोजन चौडा 'धातकी खंडद्विप' हैं. उसके चौगिर्दा ८ लक्ष जोजन चौडा 'कालोदधी समुद्र है। उसके चौगिर्दा १६ लक्ष जोजन चौडा 'पुष्कराद्वीप' हैं. यों एकेकको चौगिरदा फिरते और चौडासमें एकेकसे दुगणे, असंख्यात द्विप, और असंख्यात समुद्र, सब चूडी (बंगडी) के संस्थान में हैं. मेंरु पर्वतके जड में समभूमी हैं, वहांसे ७९० योजन उपर तारा मंडल, वहां से १० जोज उपर * सूर्य का + पुष्कर द्विपके मध्य भागमे गोळाकार (चुड़ा जैसा ) मानु : क्षेत्र पर्वत हैं. उसके अन्दरही मनुष्य की वस्ती हैं जंबुद्धिप धातकी खंड द्विप और आधा पुष्कराध द्विप यो अढाइ द्विप कहते हैं * चन्द्रमा का विमान सामान्य पणे १८०० कोश चौडा हैं सूर्यका १६०० कोशे चौडा. और ग्रह. नक्षेत्र. तारा के विमान जघन्य १२५ कोश. उत्कट ५०० कोश मोरे है ओर : ------- Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ प्यामकल्पतरू विमान, वहां से ८० जोजन उपर चन्द्रमाका विमान हैं. और उपर २० जोजन के अन्दर सब जोतषीयों के विमान आगये हैं. अढाइ द्विप के अन्दर के जो. तषी के विमान आधे कबीठके संस्थान हैं. और बा. हिर के इंट जैसे है. आगे उपर (मृदंग के संस्थान) सात राजू मठेरा कुछ कम लोक है, उसे उंचा लोक कहते है. वहां १२ देवलोक, ९ लोकांतिक ९ ग्रीवेक ५ अनुत्र विमान आगये है. इनमें सर्व विमान८४९७०२३ है. किल्नेक चौखूणे-कित्नेक तीखूणे और कित्नेक गोळाकार है. वहां पुण्य की अधिकता होती है वो जीव उपज के कृत कर्म के शुभ फल सुख मय भुक्तते है. सर्वार्थसिद्व विमान के उपर १२ जोजन सिद्ध सिल्ला है सो चित्ते छत्र के जैसी ४५ लक्ष जोजन की लम्बी चोडी (गोळ) है. उसके उपर एक जोज के छठे भाग में अनंत सिद्व भगवंत. अरुपी अवस्था में अलोक से अड (लग) के विराज मान हैं. यह संक्षमें लोक का और लोक में रहे स्थुल पदा थों के संस्थानका वरणन किया. जीवके ६ संस्थात-१ जिसका चारही तर्फ बरोतथा १७ लाख ३० हजार कोशे चंद्रमा पृथ्वीसे उंचा है. ऐसा - मिल्यामंडन सूत्र में लिखा है. Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयशाखा-धर्मध्यान. १८७ बर अंग होय-अर्थात् पद्मासन से बेठ के दोनो घुटने के बिचमें की डोर और दोनो खन्धे के बिच की डोरी बरोबर आवे. तैसे वोही डोरी वांहा खन्धा और वाये घुटनेके बिच, और डावे खन्धा और ढावे घुटने के विच बरोवर आवे. जैसे अब्बी कित्नीक जैन मी का बनाते है. सो 'समच उरस संस्थान' २ जैसे बट (बड) का झाड. नीचे तो फक्त लक्कड का ठूठ रंढ मुंढ दिखता है, और उपर शाखा प्रतिशाखासें शोभे तैसेही कम्मर के नीचे का सरीर अशोभनीक, और उपरका सरीर शोभनीक होवें, सो 'निगोह परिमंडल' संस्थान.३ जैसे खुरशाणी अम्बली, उपरको तो टुंठा नि कल जाय,और नीचे शाखा प्रतिशाखा कर शोभे. तैसेही उपरका सरीरतो अशोभनीक, और कम्मरके नीचेका सरीर शोभनीक लगे, सो 'सादी संठाण' ४बावन ठिगना (छोटा) सरीर होयसो 'बावना संस्थान' ५ पीठषे तथा छातीपे कुबड निकले सो 'कुवडा संठाण' ६ आधा जला मुर्दाका जैसा सब सरीर खराब होय, सो 'हुंड संठाण'. इन ६ संस्थान मेंसे नर्क पांच स्थावर तीन बिक्लेंद्री और असन्नी तिर्यंच पचेंद्री मे फक्त १ हुंड सं. स्थान पावे. सन्नी मनुष्य और सन्नी तिर्यंचमें ६ ही संस्था न पावे. और सब देवता तिर्थकर, चक्रवृति, बलदेव, Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ ध्यानकल्पतरू. . वासुदेव आदी उत्तम पुरुषोंका एक समच उरस संस्था न होता हे. __ अजीवके ५ संठाण-१बट्टे गोळ (8) लड्ड जैसा २ तंसे तीखुणा सिंघोडे जैसा. ३ चौरंसे–चौखुणा [] चौकी (बाजोट) जैसा. ४ परिमंडल-गोल ० चूडी जैसा और पांचमां आइतंस-लम्बा | लकडी जैसा. इन पांचही संस्थानमय, इस चगतमें अनेक अजीव पदार्थ हैं. बट्टे तो बाटले बेताडादिक, तंसे और चौरसे सो किनेक देवताके विमाण वगैरे. तथा परिमंडल द्विय समुद्रादिक ऐसे औरभी अनेक पदार्थ जानना. ___ यह संठाण-संस्थानो का जो वर्णव किया इन आकारके सर्व पदार्थोंमें; अपना जीव अनंत वक्त उप जके मर आया है. स्वतः सर्व प्रकारके उंच नीच संस्थान धारण कर आया है. और सर्व सं. स्थान मय वस्तुका मालिक हो आया है. भोगव आ या है. अब्बी ह्यां रे जीव ! तुझे पुण्योदयसे तेरे सरी रका, स्त्रीयादीका, मनोरम्य संस्थान मिलगया. तथा सयनासन, वासन, वस्त्र, भुषण, वाहन, इत्यादी इच्छि त ऋद्धी प्राप्त हुइ देख के, क्यों उसके फंदमें फसता हैं.क्या मरके उसहीमें उत्पन्न होना है? कहते हैं, “आसा वहां वासा" ऐसा जाण, अच्छे संस्थानके पदार्थों से Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयशाखा-धर्मध्यान. ममत्वका त्याग करना. और कोइ वक्त अशुभोदय से अशोभनीक संस्थान मय अपना, सरीर यास्त्रीया दिक कुटम्ब संयोग मिलगया. या अमन्योग सयनासनका योग्य बना तो,खेदित न बनें. क्यों कि संस्थान तो फक्त एक व्यवहारिक रूप हैं, इससे अंतःरिक कुछ कार्य की सिद्धी नहीं होती है. जिससे किसी कार्य की सि द्वी न होवे. उसपे रुष्ट तुष्ट होना येही अज्ञानता जा नी जाती है. और भी विचारे की, रे जीव! तूं ज्ञानी बनके भी निकम्मे काममे राग द्वेष कर, कर्म बन्धन करता है, तो तेरे ज्ञानसे तुजे क्या फायदा हुवा. इ. त्यादी विचार, अच्छे या बुरे, संस्थान मय पदार्थोपेसे राग द्वेष कमी करे. और सदा एकही आकारमें रहने । वाले, जो निजात्म गुण तथा परमात्म खरूप है. उस में अपनी प्रणतीको प्रणमावे. * यह धर्म ध्यानके चार पायोंका संक्षेप में स्वरूप कहा धर्मध्यानके ध्याता इन्हीको यथा बुद्धी प्रमाणे विचर के धर्म ध्यानमें अपणी आत्माको स्थिर करें. Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानकल्पतरू. द्वितीय प्रतिशाखा - " धर्म ध्यानीके लक्षण " धम्म सर्ण झाणस्स चत्तारी लवणा पद्मंता तंज्जहा - आणारुइ, नीसग्गरुइ, उवदेंसरुइ, सुत्तरुइ, अर्थम् — धर्म ध्यानके ध्याता को पहचानने के चार लक्षण है. १ जिनाज्ञापे रूची होयसो अज्ञा रुची. २ जिनज्ञान के अभ्यासपे रुची होय सो निसग्गरुत्री. ३ सोध श्रवण करनेकी रुची सो उपदेश. रुची. ४ जिनागम श्रवण करनेकी रुची सो सूत्र रुची रुची नाम उत्कृष्ट इच्छा का है, जैसे- कामी कों कामकी. दामी को दाम की नामी कों नाम की, क्षु दित को अन्नकी, त्रषित कों जलकी. समुद्रमें पडे को झाज की. रोगी को औषधी की. रस्ता भूले कों साथ की. इत्यादी कार्यार्थिक कों कार्य पूर्ण करने की, स्व भाविक इच्छा होती है; वो कार्य पूर्ण न होवें वहां लग मनमें तलमल लगी रहे, कार्य पूर्ण होणेसें अत्यं Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयशाखा-धर्मध्यान. १९१ त हर्षाय, और वियोग होने से पीछी वैसीही उत्कं. ठा जगे उसी का नाम रुची है. संसारी जीवोंकी जै. सी रुचि व्यवहारिक पुद्गलिक कामोंकी होती हैं, धर्म ध्यानी की वैसी रुची आत्म साधन के कामों में होती है. यह आस्म साधन के परमार्थिक कामो के मु. ख्या चार भेद किये है. प्रथम पत्र-अज्ञा रुची १ आज्ञा रुची; अनादी काल से यह जीव जिनाज्ञा का उलंघन कर, स्वच्छंदा चारी हो रहे है. जिससेही इत्ने दिन संसार में परिभ्रमण किया. उत्तराध्येयन सूत्रमे फरमाया हैं की "छंदो निरोहण उववेइ मोरकं” अर्थात अपना छांदा (इच्छा) का निरंधन करे जिनाज्ञा में प्रवृतनसे ही मोक्ष मिलती है. इसलिये मुमुक्षु जन को चाहीये की अपनी इच्छा को रोक. वितराग की आज्ञा में प्रवृतने का पर्यत्न करे, अब वितराग की आज्ञा क्या है. उसे विचारिये. वितराग-राग द्वेषके क्षय करने वाले को कहते हैं, जिनोने राग द्वेशके क्षयमें ही फायदा देखा, वो राग द्वेष घठानेकी ही आज्ञा करेंगे Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ ध्यानकल्पतरू. यह निसंदेह हैं. ऐसा जाण वितरागकी आज्ञाके इ. च्छक, सदा मध्यस्त प्रणामी रहै. प्रतिबंध रहित रहे. सो प्रतिवन्ध चार प्रकारके होते है. १ द्रव्यसें=१सजीव सो द्विपद. मनुष्य, पक्षिका. चतुष्यपद, पशुओंका. २ अजीव सो वस्त्र, पात्र, धनादिकका, ३ मिश्र सो दोनो भेले, जैसे, वस्त्रा भुषण, मंडित मनुष्य, पशु, इत्यादी. २ क्षेत्रसे ग्राम, नगर, घर, खेत, इत्यादी. ३ कालसे घडी, प्रहर, दिन, पक्ष, मांस, बर्षादि. ४ और भावसे क्रोधादी कषाय. मोह ममत्व, इन चारही प्रतिबन्ध रहित रहें. ७ क्षुद्या, लषा, शीत तापादी समभाव से सहन करें, मिष्ट कटु बचनकी दरकार न रख्खे. निद्रा प्रमाद अहार कमी करे, सदा ज्ञान ध्या न तप संयममें आत्मा को रमण करते प्रवृतें ( इस आज्ञा रुचीका विस्तार पहले आज्ञा विचयमें विस्तार से होगया है. वहां कहा सो तो विचार समजना और यां कही सो प्रवृतन करनेकी इच्छा समजना.) * यह श्रावक हमारे, यह क्षेत्र हमारे, इस प्रतिबन्धनमें बंधने से ही इसवक्त पितरागके अनुयायों में धर्म ध्यानकी हानी होके क्ले. शको वृद्धी होता हुइ द्रष्टी आता हैं. आत्मार्थीयों को इस झगडेसे बच, अप्रतिबन्ध विहारी होना चाहीये की जिससे धर्म ध्यान भखंड रहे. Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयशाखा-धर्मध्यान. १९३ द्वितीय पत्र-"निसग्गरुची" २ 'निसग्ग रुची' धर्म ध्यानी पुरुष कों, इस विश्वालय में के सर्व पदार्थ ऐसें भाष होते हैं, की-जा ने मुजे सहौध ही करतें है. श्री आचारांग ज्ञास्त्र के फरमान मुजब ज्ञानी महात्मा आश्रव के स्थान में ही संबर निपजा लेतें हैं. जैसेछनमीराज ऋषिने प्रेमलाओं के चडीओं का अवाज सुना उससे (अन्यकों काम रा. ग बृधी करने का कारण होता है) उनोने वैराग्य प्रा. प्त किया. ऐसे ही झाड, पाहाड, खान, पान, वस्त्र भु. षण, ग्राम, मशाण, रोग, हर्ष, शोग, बादल, विद्युत संयोग. वियोग निर्वती भाव यह सब वैराग्य उत्पन्न करने के कारण होते हैं. इत्यादीसे जिनको वैराग्य उ स्पन्न होवें सो निसर्ग रुची. और कित्नेक जाति स्मरण ज्ञान से अपने पूर्व के ९०० भव (जो सन्नी पचेंद्रीय मिथला नगरी के नमी नरायज़ीके सरीर में दहा ज्वर हुवा, उसवक्त वैदके कहनसे शांती उपचार के लिये १००८ राणीयों बावन चंदन घिस के लगाने लगी, तव उन सबके हाथ की बुडीयों का एक दम शोर मच गया. तब नमोराय बोले मुझे येशब्द अच्छा नहीं लगता है. की उसी वक्त सब प्रेमलाने शोभाग्यके लिये एकक चूड़ी हाथ में रख सबचूड़ीयो उतार डाली. अवाज बंद होने कारण समजने से विंचर हुवा की, बहुत चूडी एक स्थान थी. तबही गडबंड थी और एकरहनसे सबगडबड मिट गइ. वसमेंही सबमें फलाहूं वहांतकही दुःखो हंजो इस वेदनासे मुक्त होवु तो सर्व सेगत्याग. सुखो बनू. इत्ला वित्रारतही. रोग शांत दुधा और वो दिक्षा ले अनंत सुख पाये Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४ ध्यामकल्पतरू के लगोलग किये होयँ उन्हे ) जानने सें. जन्मांतर में कृय कर्म के फल भागेवें हुये देख, वैराग्य उत्पन्न होता है. ऐसे २ अनेक कारणो से । जिनकों तत्वज्ञान प्राप्त करने की रुची होती हैं. उसको निसर्ग रुची कहना. तथा अन्य मतावलम्बी अज्ञान तप का कष्ट स. हने सें, अकाम निर्जरा होने से. ज्ञाना वर्णी कर्म का क्षय उपसम होनें से, विभंगज्ञान की प्राप्ती होवें. उस सें जैन मत के साधू की उत्कृष्ट शुद्ध क्रिया देख. अ. नुराग जगने सें, विभंगज्ञान फिट अवधी ज्ञान की प्राती होवें तब तत्व ज्ञान में रुची जगने से सम्यक्त्व की प्राप्ती हुइ, सो निसर्ग रुची. ऐसे किसी भी तरहतत्वज्ञता प्राप्त हों, उसमें प्रणाम स्थिरीभूत होवें वो. ही धर्म ध्यानी की निसर्ग रुची का लक्षण जाणना तृतिय पत्र - " उपदेश रुची " ३ 'उपदेश रुची' श्री तिर्थंकर, केवल ज्ञानी, गणधर महाराज, साधू, साध्वी, श्रावक, श्राविका, सम्यक दृष्टी, इत्यादीजो शुद्ध शास्त्रानुसार उपदेश करें. उसपे धर्म ध्यानी की रुची जगे सो उपदेश रुची. दवै कालिक सूत्र के चौथे अध्येयनमें फर माया है. Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 899999998 तृतीयशाखा-धर्मध्यान. १९५ गाथा सोच्चा जाणइ कल्लाणं. सोचा जाणइ. पावगं, उभयपि जाणाइ सोच्चा. जैसयं तं समायरे. ११ अर्थ-सुनने सेही मालम होती है के. अमुक सुकृत्य करने से अपणी आत्मा का कल्याण (अच्छाभला)होगा और अमुक पाप कृत्य करनेसे बुरा होगा; तथा अमुक काम करने से, अच्छा और बुरा दोनो ऐसा मिश्र काम होगा जैसे की काम भोग में सुख तो थोडा है, और दुःख अनंत है, यह दोनो बात समजे. तथा मिश्र पक्ष जो ग्रस्थ धर्म हैं. जिसे शास्त्र में 'धम्मा धम्मी' तथा 'चरीत्ता चरित्ते' कहे हैं. क्योंकि संसार में बेठे हैं सो विना पाप गुजरान होना मुशकिल ऐसा समज, उदासीन वृति से पश्चाताप युक्त काम पूरता कर्म करते हैं. और आत्म कल्याण का कर्ता धर्म को जाण. जब २ मौका मिलता हैं- तब २ अत्यंत हर्ष युक्त धर्म क्रिया करते है. यह तीनही बातों सुनने से मालम पडती है. उसमें से अच्छी लगे उसे स्विकार के सुखी होतें है. ये सब उपदेश सेही. जाणा जाता है. उपदेश (वाख्यान) में सदा अभीनव तरह २ का सोध श्रवन करने से स्वभाविक तत्व रु ची तत्वज्ञता उत्पन्न होती है. ध्यानस्त हुये वो बोध नग में रमा करता है तब अन्य सर्व वती से चित Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यामकल्पतरू. निवृत हो, एकांत धर्म ध्यान में लग, ध्यान की सिद्धी करता है. इस लिये धर्म ध्यानी उपदेश, श्रवण मनन, निध्यासन, और उसी मुजब प्रवृतन करने म अधिक रुची रखते है. चतुर्थ पत्र-“सूत्र रुची ४ सुत्र रुइ-सुत्र द्वादशांगी भगवंत की वाणी को कहते है. सो १ आचारांग जिसमें, साधू के आचार गोचार वगैरे वर्णव है.. २ सुयगडायंग जिसमें अन्य मता लम्बीयों के मत का श्वरुप बताके उसका निराकरण किया है. ३ ठाणायंगजीमें दशस्थान का अधिकार है. ४ सम वायंगजी में, जीवादी पदार्थ के समोह का संख्या युक्त स. मवेत किया हैं. विवहा पणंती (भगवति) में विवि ध प्रकार का अधिकार है. ६ ज्ञातामें धर्म कथा ओं है. ७ उपाशक दशा में दश श्राव कों का अधिकार है. ८ अंतगड दशांग में, अंतगड केवलीयों का अधि-कार. ९ अणुत्र रोवबाइ में, अणुत्र विमन में उपजे उनका अधिकार, १० प्रश्नव्याकरण में, अश्रव संबर Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयशाखा-धर्मध्यान १९७ कथा और १२ द्रष्टी वादांग में सर्व ज्ञान का समवे श किया था. ... यह द्वादशांगी श्रीजिनेश्वर भगवानकी वाणी. अगाध ज्ञान का सागर है. तत्वज्ञान कर प्रतिपूर्ण भरी हुइ है. ज्ञाता को अपूर्व चमत्कार ह्रदयमें उत्पन्न कर. ती है. आत्म श्वरुप बताने वाली, मिथ्या भर्म मिटाने वाली, मोह पिशाच भगाने वाली, मोक्ष पंथ लगाने वाली, अनंत अक्षय अव्या बाध सुख को चखाने वा ली, एक श्री जिनश्वर भगवंत की वाणीही, गुण खा. णी हैं. जिसे पठन,श्रवन,मनन निध्यासन, करनेमें धर्म ध्यानी महात्मा सदा प्रेमातुर रहते हैं. एकेक शह अत्यंत उत्सुकता से ग्रहण कर उसके रेशमें अंतः करण को प्रवेश कर, एकाग्रता से लीनहो. अपूर्व अनोपम आनंद प्राप्त करतें हैं. तृतीय प्रतिशाखा धमध्यानीके “आलम्बन' सूत्र धम्मरसणं झाणस्स चत्तरी आलंबना पन्नंते तं. जहा. वायणा. पुच्छणा, परियट्टणा, धम्मकहा. .... अर्थ-धर्म ध्यान ध्याने वाले को चार आलम्बन (आधार) फरमायें है, जैसे बृध मनुष्यको मार्ग क्रम Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ ध्यानकल्पतरू. मेहलपे चढने को पंक्तीये या आलम्बम डोरी आधार भूत होती है. वैसेही धर्म ध्यानमें प्रवृत होने वाले महात्माको चार तरहका आधार होता है. सो कहे है:१ वायणा-सुत्रका पठन, २ पुच्छणा-संदेह निवारन गुरूसे प्रच्छना (पूच्छना) ३ परियट्टना पढे ज्ञानको वारम्बार संभारना. (फेरना) और ४ धम्मकहा-धर्म कथा (व्याख्यान) दे प्रगट करना. . प्रथम पत्र-“वायणा" १ 'वाचना' गीतार्थ बहु सूत्री, आचार्य, उपा ध्याय, इत्यादी विद्वरोंके पाससे. ज्ञान ग्रहण करना (पढना) या लिखित सूत्र ग्रन्थादी बांचना (पढना) यह ध्यानी के ध्यानका प्रथम आलंबन आधार हैं. .. अव्वल चतुर्थ (चौथे) आरेमें, प्रबल (तिक्षण) प्रज्ञा (बुद्धि) के सबबसें, शास्त्रादिक लिखने की आवश्यकता बहुतही थोडीथी. वो अपणे गुरुओंके पाससे थोडेही कालमें बहुत ज्ञान कंठाग्रह कर लेतेथें, किनेक तो ऐसी तेज बुद्धि वाले थे की, चउदह पूर्वकी विद्या, जो कदापि लिखे तो १६३८३ हात्थी डूबे इ. ली श्याही लगे, इत्ने ज्ञानको एक मुहूर्त मात्रमें कंठ Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ तृतीयशाखा-धर्मध्यान. १९९ दार्थ, २ विघनेवा=विनाश होने वाले और ३ धुवेवा= ध्रव (स्थिर) रहने वाले पदार्थ, यह तीन पद पढाते जिसमें चउदह पुर्बका ज्ञान समज जातेथे. जैसे कुंडभर पाणीमें एक तेलकी बुंद डालनेसे सब हौदमें फैल जाती हैं; तैसेही उन्हे सिखाया हुवा, साक्षप्त शब्द विस्तार कर प्रगम जाताथा. और चउदे पुर्वका ज्ञान जिसके एक खुणेमें समाजाय,ऐसा द्रष्टी वाद अंगके पाठी (पढे हुये) भी विराजमान थे. इस ज्ञानके प्रमोत्कृष्ट रसमें जब उनकी अनात्मा लीन होजातीथी. तब छे छ महीने जित्ना समय ध्यान में वितिकृत होते भी उनको भूख, प्यास, शीत, उष्णादी पीडा (दुःख) ज नक न मालम होतीथी. ऐसे २ प्रबल बुद्धि बाले थे. तब लेखका कष्ट सहनेकी क्या जरूर पडे! चौथा आरा उतरे लगभग ९७६ वर्ष गये पीछे . 'श्री देवढी गणी क्षमा श्रमण' नामें आचार्य, किसी व्याधीकों निवारने सूठ लायेथे. और आहार किये बाद भोगवणेकों कानमें रखलीथी. सो वक्तसिर खाना भूल गये. और देवसी प्रतिक्रमण की आज्ञा लेती वक्त नमस्कार करते वो संठ कानमेंसे गिर पडी, उसे देख विचार हुवा की अब्बी एक पूर्व जित्ना ज्ञान होतेभी इत्नी बुद्धि मंद रह गई है. तो आगे क्या होगा. जो Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० ध्यानकल्पतरू. ज्ञान नष्ट हो गया तो घोर अन्धारा हो जायगा, इस लिये अब ज्ञान लिखनेकी बहुतही आवश्यकता है. लिखित ज्ञान भव्य जीवोंको आगे बहुतही आधार भत होगा. इत्यादी विचारसें संक्षेपमें सूत्र लिखने सुरू किये. क्यों कि प्रथम आचारांगजीके १८०००० पद थे. अब्बी फक्त मूलके २५०० श्लोकही देखाइ देते हैं. ऐसही द्रष्टी वादांग छोड, इग्यारे अंगादी ७२ सूत्रोंकी लिखाइ संक्षेपमें हुइ, की जिनकी हुन्डी (नामादी) श्री समवायंगजी तथा नंदीजी सूलमें हैं. बाकीका सब ज्ञान उन्हीके साथ गया. - अब इस पंच कालमें तिथंकर केवल गणधर द्वादशांग के पाठी पूर्वधारी वगैरे जो अपार ज्ञानके धारक कोइ नहीं रहे. * गाथा-सोलस सयच उनासा, कोडि तियसीदि लस्कयंचव सत्तसहस्साठसया अठासीदिय पदवणा. ३३६ गोमटसार अर्थ-१६३४८३७८८८ इत्ने बरण (अक्षर) एक पदके होते हैं गाथा-अठारस बतीस बादल अडक्कदी विछप्पणं सचरि अठावीस वाउहाल सोलस सहस्सा ३५५गो०सार अर्ग-आचारांगजीके १८०००, सुयगडांगजीके ३६०००, ठा. जायंगजीके ४२०००, समवायंग़जी १६४०००, भगवतीजीके २२८०००, झाताजीके ५५६०००, उपशकदशांगके ११७००००, अंतगड़ दशांग के २३२८०००, अणुतरोववायजी के ९४४००, प्रश्न व्याकरजीके ९३११६०००, विपाकजीने १८४००० यह ११ भंगको पदकी संख्या जाणमा. Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयशाखा-धर्मध्यान. २०१ श्री उत्तराध्ययन जीके दशमें अध्ययनमें कहा है:in नहू जिणे अज्ज दिस्सइ, बहू मए दिस्सइ मग्गदे Sawana* सिंए, संपइ नेया उए पहे.समय गोयम मा पमा ...... यए ३.१. अर्थात् अब्बी इस पंचम् कालमें, नहीं देखते है निश्चयसे श्री जिन, तिथंकर भगवान् व केवल ज्ञानी परन्तु बहुत हैं. मोक्ष मार्ग के उपदेशनें बताने वाले जिनोक्त सिद्धांत तथा सबौध कर जीवोंको मुक्ती पन्थ मे चलाने बाले, 'सदर' उनके पाससे न्याय मार्गमोक्ष पन्थ प्राप्त करनेमें, हे गोतम (जीव) समय मात्र प्रमाद आळश मत कर! इस गाथानुसार अबी तो भव्य मोक्षार्थि जीवोंको फक्त जिनोक्त शास्त्र, और सोधके सद्रुओंकाही आधार रहा है, मोक्षार्थियोंकी इच्छा सिद्धी करने वाला ज्ञान है. वो इस वक्त सूत्र व ग्रन्थोंमे हैं, और उसकी रहस्य गीतार्थों बहू सूत्रीयों उत्पात बुद्धी और दीर्घ द्रष्टी वालोंके पास है. की जिनोंने अपने गुरुओंके पाससे यथा विधी धारण की है, और वो न्याय मार्गमें लोकीक लोकोत्तर में शुद्ध प्रवृत्तीसें प्रवृत्त रहे, क्षांत, दांत, निरारंभी, निष्परिग्रही हैं. उनके पास शास्त्राभ्यास करना. क्यों कि शास्त्र समुद्र अति गहन गुढार्थों करके भरा है; उसकी यथार्थ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ ध्यामकल्पतरू समज होना है. सोही आत्म कल्याण करने वाली है. . इस वक्त कित्नेक ले भग्गूओं. अभीमान के मारे गुरु गम विन, पुस्तकी विद्या पढ २ पंडितराज बन बैठे हैं, उन्होंने बहुतसे स्थान अर्थका अनर्थ कर शास्त्रका शस्त्र बना दिया है; अनंत भव भ्रमण मिटा ने वाला पवित्र अहिंशा मय परम धर्म को हिंशामय कर अनंत भबका बढ़ाने वाला वना दिया है; इस लि येही चेताना पडता हे की मोक्षार्थियोंको अव्वल. ज्ञान दाता गुरुके गुणोंकी परिक्षा शास्त्रानुसार कर, उनके पाससे ज्ञान ग्रहण करना चाहीये. श्री सुयगडायंगजी सूलके ११ में अध्ययनमें धर्मोपदेशकके लक्षण इस प्रमाणे फरमायें हैं:गाथा आय गुत्ते सया दंते, छिन्न सोए अणासवे. जेधम्मं सुद्ध मइकाति, पडि पुन्न मणालिसं.२४ अर्थात् मन, बचन, काया, रूप, आत्माकों पाप मार्गमें जाती हुइ रोक, अपने वशमें करी है कूमार्गमें आत्माको नहीं जाने देते है, सदा पंच इन्द्रि, और मनको, विषय में निवार धर्म ध्यान में लगा रख्खा है. संसारका जो आरंभ परिग्रह रूप प्रवाह हैं, उसे बंद किया है. मिथ्यात्व, अवृत्त, प्रमाद. कषाय, और अशुभ जोग, इन पंच आश्रवों करके रहित हुये हैं, Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयशाखा-धर्मध्यान. २०३ और अहिंशा सत्य दत, ब्रम्हचार्य अममत्व यह पंच महावृत धारन किये, इत्ने गुणके धारक होवें सोही, सत्य, शुद्ध, यथा तथ्य, श्री वितराग प्रणित धर्म फर. मा सक्ते है, वो कैसा धर्म फरमायंगे, तो की प्रतिपूर्ण न्युन्याधिकता रहित. देशवृत्ती (श्रावकका .) या सर्ववृति (साधूका) निरुपम औपमा रहित वैसा धर्म अन्य कोई भी प्रकाश नहीं शक्ते है, ऐसे गुणज्ञोंके पाससे ज्ञाम संपादन करना. अन्न, धन, आदी सामान्य वस्तुभी दातारके पाससे ग्रहण करतें अनेक लनुता करते है. तथा सरो वरमे से भी विना नमन किये पाणी प्राप्त नहीं हो सक्ता है. तो ज्ञान जैसा अत्युत्तम पदार्थ विना लघुता नम्रता किये कहांसे प्राप्त होगा. इस लिये, ज्ञान प्राप्त करनेकी श्री उत्तराध्ययनजीके पहले अध्यायमें यह रीती फरमाइ है:गाथा आसण गउन पुच्छेज्जा,नेव सिज्जागउ कयाइवि आगमुकुडु उ संतो, पुच्छेज्जा पंज्जलि उडो २२ एवं विणय जुत्तस्स सुत्त अत्थंच तदुभयं पुछ माणस्स सीसरस वागरेज्जं जहा सुये २३ अर्थात्-अपने आसण (विछोन) पे बेठा हुवा तथा सेजामें सूता हुवा कदापि प्रश्नादिक नहीं पूछे Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ ध्यान कल्पतरू. क्यों कि आसण यह अभीमान जनक हैं, और अभिमान ज्ञानका शत्रु हैं. और सूता हुवा ज्ञान ग्रहण कर से. अविनय और प्रमाद होता है. यह ज्ञानके नाश करनेवाले हैं, इस लिये जब प्रश्न पूछनेकी या ज्ञान ग्रहण करनेकी इच्छा होय, तब, आसन अविनय मान और प्रमादको छोडके जहां गुरू महाराज विराजे होयँ उनके सन्मुख नम्रता युक्त आवे, और दोनो घुटने जमीको लगा, दोनो हाथ जोड मस्तकपे चडा, तीन बक्त (उठ बेठ) नमस्कार करें, और दोनो घुटनें जमीनको लगाये, दोनो हाथ जोडे, नमा हुवा सन्मुख रहके, उच्च बहुमान बचनोसे प्रश्नोत्ल करें, सूत्र अर्थादिक दिल चायसो पूछे और क्या उत्तर मिलता है. ऐसी उत्कंठा युक्त एकाग्र उनके सन्मुख द्रष्टी रख, वो फरमावे सो, जी तहत, बचनसें ग्रहण करे, जिल्ला अपनको याद रहे, उनाही ग्रहण करे. ज्यादा लोभ नहीं करे. ऐसी तरह विनय युक्त पूछनेसे, गुरु महारा जनें अपने गुरू के पास से जैसा ज्ञान धारन किया. वैसाही उसे देवेंगे ( पढायेंगे). जो सद्गुरुके पाससे ज्ञान गृहण किया है, उसकी पुनरावृत्ती करते (फेंरते) किसी तरह की शंका उ त्पन्न होवें, या कोई शब्द विस्मरण हो गया ( भूल Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयशाखा-धर्मध्यान २०५ गये) हो. तथा किसीने प्रश्न पूछा, उसका उतर नहीं आया हो. तब पूर्वोक्त विधीसे गुरू महाराजके सन्मुख आके द्वितीयपत्र-"पुच्छणा” २ 'पूछणा'.अर्थात् पूछा करें. कीन्हें कृपाल आ. पने अनुग्रह कर. मुजे अमुक पढाया था. उसमें इस प्रकार संशय उत्पन्न होता हैं. सो है पुज्य, उसका निराकरणा- निवारण करने आपको तकलिफ देतां हु सो माफ किजीये. और मुजे मार्ग बताइ ये, इत्यादी नम्रता युक्त, अपने मन की शंका खुल्ली २ गुरुजी के सन्मुख प्रकाश करे, और गुरु महाराज उत्तर देवें, वो आंप एकाग्रता सें- उत्सुकता से. जी। तहत इत्यादी सकोमल-मीठे बचनो से बधाता हुवा ग्रहण करें. जहां तक अपने चितका पूरा समाधान न होवें, वहां तक तर्क उठा २ के पूछताही जाय, शरमाय नहीं; डरे नहीं, घबराय नहीं निश्चल चित से पूरा निराकरण-करछसं. देह रहित होवें, की कोइ भी उस बात कों पूछे ते आप उसके हृदय सचोट ठसा सके, ऐसा निश्चय करे ____ * चोयणा प्रति चायणो करनेसे ज्ञानी बहुत खुशी होते है. और . शांतपणे उसका खुलासा करते हैं. Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ ध्यानकल्पतरू. और जो अभ्यास कर निश्चय कर निसंदेह ज्ञान किया है उसे तृतिय पत्र-“परियट्टणा" ३ 'परियट्टणा' अर्थात् वारंवार फेरता (याद करता) रहे. क्यों कि अब्बी इत्नी तिव्र बुद्धि नहीं है की. जो एक वक्त पढ, पीछा याद नहीं करे, तो विस्मरण (भूल) नहीं होवें, और वारंवार फेरनेमें बहुत फायदा है....... श्री उत्तराध्ययन जी सूत्रके २९ में अध्यायमें भगवंतने फरमाया हैं. “परियट्टणं या एणं वंजण लद्वि च उप्पाएइ" अर्थात् ज्ञानको वारंवार फेरनेसे अक्षरानुसारणी लब्धी उत्पन्न होती है. जिससे एक अक्षर, व पदके अनुसा रेसे, दूसरे आगे पीछे के अक्षरोंका ज्ञात होता है, अपनी विना पढी ही विद्या में काही अन्यके भूले हुये अक्षरोंकों, आप बता सके, ऐसी शक्ती उपजे. और जो ज्ञान फेरे, वो ऐसा नहीं फेरे की, जैसे बच्चे 'गुणनी' करते हैं, की पढे है वो कह दे, परंतु उसके मतलबमे आप नहीं समजे, 'तूं चल, मै आया' Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयशाखा-धर्मध्यान. २०७ ऐसी 'गडबढ' भी नहीं करें, ज्ञान फेरती वक्त 'अणु प्पेहा' अर्थात् उपयोग रक्खे. जो जो अक्षरोंका मुख से उच्चार होवें. उसका अर्थ अपने मनमें, विचारता जाय उसपे, द्रष्टी फेलाता जाय, इसमें बहुत्न गुणं हैं: "अणुप्पेहापणं, आउयवज्जाउ सत्र कस्म पगडीउ धणीय बंधाउ, सिढिल बंधण ब. 'द्धा उपकरेइ, दिह काल ठिइयाउ, रहस्स उ काल ठिइयाउपकरेइ; बहु पएस गाउ, अप्प पएस गाउपकरेइ, आउयं चणं कम्मं, सियबंधइ, सियनोबंधइ असायावेयणि जंचणं कम्म, नो भुजो २ उवचिणाइ, अणाइयंचणं, अणवगदगं, दीह, मद्धं, चउरंत संसार कंतारं, खिप्पा मेव वीइ वयइ' ३२ उत्तरा० अ० २९ अर्थात्-उपयोग युक्त ज्ञान फेरनेसे, या शब्द क अर्थ परमार्थ दीर्घ द्रष्टीसे विचारनेसे जीव आठ कर्म मेंसे आयुष्य कर्म छोड बाकीके ७ कर्मकी प्रकृति यों जो पहले निबड (मजबूत) बांधी होय, उसे स्थिल (ढीली) करे, ( जलदी छूट जाय ऐसी) बहुत काल तक भोगवणा पडे, ऐसा बंध बांधा होय तो; थोडेही कालमें छुटका होजाय ऐसी करे. तिब्र भाव (बीकट रससे उदय आने) की होवें, उसे मंद भाव (सरलपणे) Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ ध्यामकल्पतरू. भोग वाय ऐसी करें. आयुष्य कर्म कदाचीत कोइ बंधे, कोइ नही बांधे. असाता वेदनी (रोग दुःख देने वाले) कर्म वारंवार नहीं बांधे; और चार गती रुप संसार कंतार (जंगल) का पन्थ-मार्ग आदी रहीत है. और मुशकिल से पार होय ऐसा हैं. उसे क्षिप्र (शिघ्र) अतिक्रमें (उल्लंघे)-अर्थात जल्दी पार पावें मोक्ष प्राप्त करें देखयें श्री महाबीर वृधमान श्वामीने खुद, शास्त्र द्वारा विचार ना (ध्यान) का कित्ने विस्तारसे गुणा नुबाद किया हैं. ऐसी उत्तम विचार शक्ती है, ऐसा जाण खब उपयोग युक्त ज्ञान को वारंवार फेरना चाहीये. जो ज्ञान फेर कर पका किया उस का रस हूबेहु प्रगमा उसका लाभ दूसरे को देणें के लिये चतुर्थ पत्र “धम्मकहा' __४ 'धम्मकहा' अर्थात् धर्मकथा (बाख्यान) करें. धर्म कथा श्री ठाणायंग सूत्र में ४ प्रकार की कहके; एकेक के चार २ भेद करनें सें १६ प्रकार होते हैं, सो [२]अखेवणी-अर्थात् अक्षेपनी. जो बोधश्रोताकों सुणावे उसकी असर श्रोताके मनमें हुबेहू होवें, पीछा वमन न होवे. ऐसा पक्का ठसजाय. रुचजाय, फ्चजाय; * आयुष्य कर्म का बन्ध एक भवमें दोवक्त नहीं पड़ता हैं. Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - तृतीयशाखा-धर्मध्यान. २०९ उसे अपनी कथा कहनी. इसके ४ भेद [१] प्रथम साधूका धर्म ५ महावृत, ५ सुमती, ३ गुप्ती, (यह १३ चारित्र) आदी कहे, जो साधू होने समर्थ न होवें. उनके लिये श्रावकके १२ वृतछ आदी कहे, के यथा शक्त धारन करनेकी सूचना करे. [२] निश्चय में, और व्यवहारमें, प्रवृतनेकी रीती सद्वाद शैलीसे कहे, की निश्चय में मोक्ष ज्ञानादी त्रय रत्नकी आराधनासें और व्यवहार में रजुहरण मुहपति आदी साधूके चि. न्ह व शुद्ध क्रियासे, निश्चय विना व्यवहार, और व्यवहार विन निश्चय की सिद्धी होनी मुशकिल है, व्यवहारमे शुद्ध प्रवृत्ती कर, निश्चय सिद्धीकी क्षप करनेसें सर्व सिद्धी होती है, [३] श्रोताओंको शंशयका उ. च्छेदन करनेको अपने मनसेही प्रश्न उठाके, आपही उसका समाधान करें की जिससे इष्टार्थ सिद्ध होवे, तथा प्रश्नका उत्तर मर्मिक शब्दमे दे समाधान करें [४] सत्य सरल सबकों रुचें ऐसा सहौध करे. परन्तु - * १ त्रस जोवकी हिंशा नहीं करें, स्थावरकी मर्याद करे. २ बड़ा झूट नहीं बोले. ३ बडी चोरी न करे. ४ परस्त्रीका त्याग करे. परिग्रह की मर्याद करे. ६ दिशाकी मर्याद करे, ७ उपभोग परिभोगकी मर्याद करे,. ८ अन दंड त्यारो, ९. सामायिक करे, १० दिशावकाशी करे, नेम चितारे, ११ पोषा करे, १२ मुनीराज को १४ प्रकारका सुज्ञता दान उलट भावले देवे. Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० ध्यानकल्पतरू. पक्षपात राग द्वेष बडे, या आत्मश्लाघा, परनिंदा होवे ऐसा उपदेश नहीं करें. “पापकी निंदा करें परंतु पापी नहीं." - २ "विखवणी" अर्थात विक्षेपनी. संयम या श्रधासे चलित प्रणामी कॉ. पुनः सबौध कर आत्मा स्थिर करे, सो विक्षेपनी धर्म-कथा. इसके ४ भेद[१] अन्य मत्त के परिचय सें. तथा ग्रन्थावालोकन से. किसी की श्रधा भष्ट हुइ होय तो. उसे जैन मत का गहन सुक्ष्म ज्ञान बता के, अन्य मत की बातों से मिला के, प्रत्यक्ष फरक बतावे; कि जिसकी अक्कल तुर्त ठिकाणे आजावें. एसा बौध करें. [२] एकांत अन्यमतमें ही, किप्ती का मन लगा होय तो. उसे उसी के मत के शास्त्रों में जो साधू ओं की कठिण क्रिया, तथा जैन मत से मिलती बातों, होवे. सो बता के उनसे पूछे की ऐसे चलने वाले जैन है, या अन्य ? यो सत्यता द्रष्टीसे बता के जैन का द्रढ श्नधालू करें. [३] जब उनकी श्रधा जैन मत पे जमी देखें. तब उसके हृदय का मिथ्या कंद निकंद करने. न्याय प्रमाण के शास्त्रों में खुल्लम खुल्ला मिथ्यात्व व का स्वरुप बता शल्योधार कर निर्मळ करे. [४[जिन का निर्मळ ह्रदय होगया हो. उनके हृदय में पीछा मिथ्यात्व प्रवेश Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयशाखा-धर्मध्यान २११ न कर ऐंसा सम्यक्त्व का विस्तारसे यथा तथ्य रुची कारक स्वरुप बता के तथा अनेक प्रश्नोतर कर- पका करे, की वो किसी का डगाया डगे नहीं. .. ३ “संवेगणी" अर्थात सं-सीधे, वेग-रस्ते च लावे सो संवेगणी कथा. इसके ४ भेद (१) जिन २ वस्तवापे संसारी जीवोंका प्रेम है, उनकी अनित्यता बतावे की देखो! देखते २ वस्तूवोंके स्वभावमें, स्वरुपमें कैसा फरक पडता है. ताजी वस्तु और बासी वस्तुकों देखनेसे मालम होता है. वस्तूका स्वभाव क्षिण भंग्गू र हैं, अर्थात क्षिण २ में पलटता हे. क्यों कि जो गुण और जो स्वाद गरममें था, वो ठन्डी हुये पीछे न रहा; पेसेही इस शरीर को देखो. उत्पन्न हुये पीछे जवानी तक, कैसी सुन्दर तामें वृधी होती है. फिर वृधवस्था में कैसी हीनता होती है, और सरीर नष्ट हो जाता है. ऐसे सर्व जगत्के सर्व पदार्थ जानना. क्षिण २ में नवे २ पुद्गल उत्पन्न होते हैं; और ज्युने विनाश होते है. सब पदार्थों में कुछ एकही दम फरक नहीं पडता है; परन्तु पडता २ ही पड़ता है, और ए. कदम पानीके परोटे जैसे. विनाशको प्राप्त होते हैं. ऐसा पूद्रलोका स्वभाव जाण, ममत्व निवारे. फिर मनुष्य जन्मादी सामुग्रही प्राप्त हुइ है. उसकी दुर्ल Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ ध्यानकल्पतरू. भता बतानेकी चोरासी लक्ष जीवा योनीमें अनंत परिम्रमण करते महा पुण्योदय से सब भवभ्रमणका नाशका करने वाले, मनुष्य जन्म, शास्त्र श्रवण, शुद्ध श्रधा और धर्म स्पीनेकी समग्री, महा मुशीबतसे मि ली है. इसे व्यर्थ गमा देगा, उसे किना पश्चताप क. रना पडेगा? और ऐसी वक्त जो काम करनेका है. वो कर लिया तो कैसा आनंद पावेगा? इत्यादी बात से बैराग्य प्राप्त कर धर्ममें संलग्न करे. [२] अल्पज्ञ जीवोंकों लालच लगने से धर्म बृधी करेंगे, ऐसे अवस रं पे देवादिक की ऋधि की भोगकी, वैक्रयादी शक्ती दीर्घ आयुष्य, निरोगता, अहार वगैरे की वरणन करे. जो विशेष, और निर्दोष, धर्म करते हैं, उनको उत्तमो त्तम सुख मिलते हैं. और जो संसारकी काम भोगमें लुब्ध रहते हैं. पापरंभ करते है. वो नर्कमें जाके दुःख ....णिञ्चेदर धाउ सत्तय, तरुदश वेय लिंदिया सु छब्बेव. सुरणिरय तिरियच उरो, चउदश मगुये सु सद सहस्सा. अर्थ--७ लक्ष नित्य नांगोद. ७ लक्ष इतर निगोद. ७ लक्ष .. पृथवी. ७ लक्ष पाणी, ७ अग्नी. ५ लक्ष वायु. : १० लक्ष प्रत्येक . विसास्तति. २ लक्ष केंद्रीः २. लक्ष तेंद्री २ लक्ष चौरिद्री, ४ लक्ष न ४ लक्ष देव ४ लक्ष तिर्यंच पचेंद्री; १४ लक्ष जात मनुष्य को यह ८४ लक्ष सब जाती है Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयशाखा-धर्मध्यान. २१३ भोगवते है. क्षेत्र वेदना परमाधामीकी वेदना वगैरे वरणन करें, क्षिणिक सुखके लिये. सागरोपमका दुःख पावे. इत्यादी रीत समजाणे से वो पापको छोड धर्म मार्गमें उधमवंत होवे. [३] "न पेम रागो परमत्थी बन्धा" अर्थात जगतमें प्रेमराग (स्नेह फास) जैसा और वन्धन नहीं है, प्रेम रागरूप फासमें फसे जीव अपना सुख दुःख, भले बुरेका विचार नहीं करते. स्व जन मित्रका पोषण करने. अनेक आरंभ करते है, प. रन्तु उनकी स्वार्थता को नहीं पहचानते हैं. देखीये, जब 'कुंकू पत्री देते हैं. तब कित्ना परिवार भेला हो ता है, ऐसेही संकट पडे तब, स्वजनकी सहायता लेने 'संकट पत्री' देवो तो किल्ने स्वजन आयंगे* अजी! आने तो दूर रहे, परंतु माल खाने वाले ही कहेंगे की क्या लड्ड किये विन नाक जाता था ? इ. त्यादी कह उलटा अपमान करते है, ऐसे मतलबीयों को पोष, पापका भारा अपने सिरले, नर्क तिर्यचादी गति में किये, कर्म के फल एकलेही * एक मराठी कवीने कहा हैः-संपदा बहु आलीयावरी, सोयरे जमा होती त्या घरी । गेलीयास ती रुष्ट होउनी, बंधू सोयरे . . . जाती सोडूनी.. Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ ध्यानकल्पतरू. मुक्तते है.+ पापका हिस्सा कोई भी ले नहीं शक्का ह्यांही देखीये, चोर को ही शिक्षा होती हैं- उसके कुटम्ब (माल खाने वाले) को नहीं. ऐसा जाण कर्म बन्ध से डरे, धर्म करे. सो सुखी होवें. इत्यादी समजने से उसका मोह कम हो. वो धर्म में संलग्न करे. [४] कुटंब से ममत्व कमी हुयें पीछे-सर्व पुद्गलों पर से ममत्व कमी कराने बोध करे. की-यह जीव अनाद काल से नशेमे बेशुद्ध हो, अपना निज स्वरुप को भुल, पर पुदलों के विषय त्री योग की रमणता कर रहे है, परन्तु यों नहीं बिचारते हैं की. 'पराये अपने कब होंगे.' इस संसार व्यवहार में अब्बी जो कोइ एक वक्त दगा देदेवें तो सुज्ञ मनुष्य दूसरी वक्त उ. सकी छांह में भी खडा नहीं रहता हैं. और इन पुद्ग + दो भाइयों के आपसमें बहुत प्रेम था- एकके नारु (वाले) का रोग हुवा. दुसरेने जमीकंद और ह.र काय के औफ्ध किये. वो मरके नर्क में नेरीया हुवा और दुमरे भाइने रोग कष्ट सहा, सो अ काम कष्ट से परमा धामी देव हुवा; और अपने भाइ के जीव को मारने लगा और कहा की तेने मेरे प्रेममें लूब्ध हो, बहुत जमी कंद का आरंभ किया उसके फळ भोगव. नेगया वोला भाइ मेने तेरे लियेही पाप किया और तुही मुजे मरता है यह कैसा अन्याय यम बोला-हम न्यायान्याय कुछ नहीं समज तें है तेरे किय कर्म के फल तुझेही भोगवणे पडेंगे “ करता सो. सुगंता." Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयशाखा-धर्मध्यान. २१५ लों ने अपने साथ अनंत वक्त दगा किया कभी शुभ संयोग मिल हंसा दिया. तो कभी अशुभ संयोग मिला रोवा दिया. कभी नवग्रयवेक तक उंचा चडाया और कभी सातमी नर्क के तले नीगोद में दबाया. कभी सब के मनको रमणीक बनाया, और कभी भिष्टा रुप बना, अपने उपर सब को थुकाय. ऐसी २ अनंत विटंबना इन पूगलो ने अपनी अनंत वक्त करी हैं ? और भी जहां तक इन की संग नहीं छूटेगा वहां त क पुद्गलों का जो स्वभाव है की पु=पूरे (मिले) औ. र गलगले (बिछडे). वो कादापि नहीं छोडने के फिर कौन मुर्ख बने की उनकी संगत में लुब्ध हो, अपनी फजीती करावें. ऐसा जान, जो अपनी आत्मा कों सुख चाहवो तो. पुद्गलों का ममत्व त्यागो. और ज्ञान दर्शन चारित्र यह रत्न त्रय हैं. इन्के स्वभावमें कभी बी फरक (फेर) नहीं पड़ता है, ऐसे स्थिर स्वभावी निजात्म गुण हैं. उनको पहचान, अखंड प्रिती करे! की वो अपने रूप चैतन्य को बना, अनंत अक्षय अव्या बाध सुखका भुक्ता बनावे, इस बौद्धसे मोक्ष के तर्फ श्रोताओंका मन खेंचे. . ४ निव्वेगणी-अर्थात निवृतनी संवेंगणी में सं. सारका यथार्थ स्वरूप दर्शाया. और निव्वेगणी में, Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २.१.६ ध्यानकल्पतरू. संसारसे निवृत्तनेका स्वरूद दर्शावें. संसारमें रोकने वाले कर्म है. की इस भव के किये, इसही भवमें भोगवे, जैसे हिंशा से सूली (फासी) झूटसे अप्रतीत, काराग्रह, चोरीसे कैद, खोडा बेडी, बिभचारसे फजी ती व गर्मियादी रोगसे सडके मरना. ममत्वसें कूटम्बा दिकके निर्वाहाका महाकष्ट सहना, वगैरे २, और भी जगत्वासी जीव जित्ने कर्म करते है, वे सब सुखके लिये करतें है, परन्तु सुखी बहुतही थोडे दिखते हैं, इससे प्रतक्ष समज होती है की जिस उपाय से सुख होता है. वो नहीं जानते हैं, और दुःखका उपाय कर सुख चहाते हैं, सो कहांसें होय; अग्नीसे शीतलता कदापी न मिल सकेगी! तैसे जो धनसे सुख चहाते है. तो धन में सुख कहां है, विचारीये धन उत्पन्न करते ( कमाते) शीत, ताप, क्षूद्या, त्रषा, वगैरे, अनेक . कष्ट सह संग्रह करते हैं. और ज्यों ज्यों लक्ष्मीकी अ. ,धिकता होती है, त्यों त्यों तृष्णाभी अधिक बढती जाती हैं, और " तृष्णायां परमं दुःखं " अर्थात त्रष्णांही * श्लोक - वितं मार्जितानां दुःखं मार्जितानां च रक्षणं, आय दुःखं व्यय दुःखं किमर्थ दुःख साधनं. अर्थ - धन कमाते दुःख, कमाये पीछे रक्षण करनेका दुःख, और चला जाय तो भी दुःख फिर दुःखका साधन क्यों करते हो ? Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयशाखा-धर्मध्यान. २१७ परम उत्कृष्ट दुःख हैं. अब अंतराय टूटनेसे द्रव्यको बृधी हुइ तो उसके स्वरक्षण करनेका दुःख, रखे मेरा धन राजा, चोर, अग्नी, पाणी, पृथ्वी, कुटम्ब, देवतादिकसे नष्ट हो जाय, व्यय (खरच) होजाय और रोकड में एक पाइभी घट जाय तो सेठ जी को चेन नहीपडे तो फिर पूर्ण नष्ट हये तो उनके दुःखका कहनाही क्या? इत्यादी विचार से धन दुःख काही साधन दि. खता हैं. और कित्नेक स्त्री से सुख मानते है, पतिवृता स्त्री तो इस कालमें मिलनी मुशकिल हैं, और कूभारजा तो अनेक दिखती हैं. उत्तम जातीयों मे भी पतीका अपमान करती है पतिके सन्मुख अनाचार कर सीहें पतीको अपने हुकममे चलातीहें और इत्ले परभी पर घरमे भराके. पतीके नामको और कुलको बट्टा ल गातीहैं. येही स्त्री से सुख समजतेहो क्या ? ओरकिने क पुत्र से सुख समजतेहैं, पुत्र के लिये सम्यक्त्व रत्न में भी बट्टा लगा के. कूदेवोंके. और ढेड, चमारोके पांव पडते है धर्म भ्रष्ट होते हैं, पुत्र हुवातो भी इस कालमें सपूत निकलना मुशकिल है. परन्तु कूपूत बहुत दिखते है, वृध मात पिताकों, बचन और लठी के प्रहार करते है, घर, धन, अपनी मुक्त्यारी कर राजमें झगडा कर फजीत करते हैं. पुत्रका सुख भी Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ ध्यानकल्पतरू. दिख रहा है. इत्यादी किस २ का बयान करूं "संसार मी दुरक पउरय" अर्थात संसार दुःख करके प्रती पूर्ण भरा हैं. यह पापके फल बताय. [२] अब देखीये पुण्य फल, जो किसीको दुःख नहीं देतें हैं. वे हमेशा निश्चित आराम करते है, और वकपे - सब "मिल, उनकी सहाय्यता करते है. शूट नहीं बोलते है तो उनकी इज्जत, पंचायती में, तथा राज सभा में करते है, चोरी नहीं करते है वो बड़े विश्वासु होते है. भंडारमें जातेभी उन्हें कोई नहीं अटकाता हैं, ब्रम्हचारी है, उनका तेज, बल, बुद्धि, निरोगता, सर्वाधिक है, ममत्व तृष्ण रहित हैं. वे सदा सुखी है, " संतोषं नंदनं वनं " अर्थात संतोष 'नंदन वन' समान सुखदाता है. देखीये, साधूजी बिना धन ही, बडे २ महाराजाके पूज्य हों, निश्चित ज्ञानमें अपनी आत्माको रमण करते, सीधे अन्न वस्त्रसे निर्वाह करते, सदा आनंदमें रहते है, यह सुभ कृत्यका फल इसही भवमें प्रतक्ष दिखता है, [[३] किल्नेक कर्म ऐसे है की इस भवमें किये, आगे फलप्राप्त होते है, ह्यां कित्नेक जन, पाप कर्म करते भी सुखी दिखते है, वो सुख उनको पूर्वोपारजित, शुभ कृत्यों का फल समजना चाहीये, आगे पापकृतके फल ५ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयशाखा-धर्मध्यान २१९ www.ammer-murarmium जरूर भोगवेंगे, यथा द्रष्टांत-अव्वल पक्कान. भोगव.. फिर कांदा (प्याज) भोगवे तो. उसे पहले पक्कानकी डकार आयगी, और फिर कांदेकी. दूसरा प्रत्यक्ष देखते है. एक पालखीमें बेठा और चार उठाके चलते है. पालखी वाला उतर गादीपे लोटता है. और उठाने वाले पांव दाब (चांप) ते है, वो पांचही मनुष्य एक से होके प्रत्यक्ष पुण्य पापके फल भोगवते हैं, और जो कर्म फिर जाय तो उठाने वाले पालखीमें बैठ जाय. और बैठने वाले पालखी उठाने लग जाय, यह प्रतः क्ष पाप पुण्यकी विचित्र रचना परभव के इस भबमें भोगवते इष्टी आते हैं, [४] ऐसेही किलेक ऐसे कर्म, है की, इन भवके शुभ कृत्य के फल आगेके जन्म में भोगवेगे, जले किने वाला ओंको दुःखी देखतें है. तब मन में शंका लाते है की, जो धर्मसे सुख होंता होता तो, यह दुःखी क्यों? परंतु वैम लानेका कुछ कारण नहीं है, प्रत्यक्ष देखीये, अबी कोइ औषध लेते है, वो लेतेही एकदम गुण नहीं कर देती हैं. परन्तु मुदतपे, पथ्य पालन से गुण कर्ता होती है. जहां तक पहलेका विकार क्षय नहीं होगा. वहां तक पहले औषधीका गुण दर्शना मुशकिल है, तैसेही गत अशुभ कर्मका जोर कमी न होवे, वहांतक धर्म करणीका Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्या कल्पतरू. फल दर्शना मुशकिल हैं, परंतु इत्ना तो निश्चय समजी ये की, “करणी तणा फल जाणजो, कदीय न निर्फल होय" जो जन्मतेही सुखी द्रष्टी आते हैं. वो पापारजित पुण्यकाही फल हैं. ऐसेही ह्यांकी करणीभी आ गे फल देगी. निर्वेगनी कथाका मुख्य हेतु यह है की “कड्डाण कम्मा न मोरक अस्थी.” अर्थात् कृत कर्मकें फल अवश्य मेव भोगवनेही पडते है; फिर इस जन्म में देवो, या आगे के जन्ममें ऐसा समज कर्म बन्धसे बचने प्रयत्न हमेशा करते रहीये. बांचना, पूछना, और परियट्टणा कर, जो ज्ञान पक्का किया हैं, उसे इन चारही प्रकारकी धर्म कथा कर उसका लाभ दूसरे को देना चाहीये. यह धर्म ध्यानके चार आलम्बन आधार कहे। है, इन चारही काममें धर्म ध्यानी मनको रमण कर इन्द्रीयोको विकार मार्गले निवार. आत्म साधन अ- . च्छी तरह कर, इष्टितार्थ सिद्ध कर सक्ते है. चतुर्थ प्रतिशाखा-धर्मध्यानस्य अनुप्रेक्षा' सूत्र धम्मस्सणं झाणरम चत्तारीअणुप्पेहा पन्नंतातंज्ाहा अणिञ्चाणुप्पेहा, असरणाणुष्पेहा, एगत्ताणुप्पेहा, संसाराणुप्पहा. Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ तृतीयशाखा-धर्मध्यान. २२१ . अर्थात्-धर्म ध्यानीकी चार अनुप्रेक्षा भगवंतने फरमाइ सो कहे हैं, धर्म ध्यान ध्याता महात्मा चार प्रकार अनुप्रेक्षा उयोग युक्त विचार करते है. सो ९ अनित्यानुप्रेक्षा. २ असरणाणूप्रेक्षा. ३ एकत्वानुप्रेक्षा. और ४ संसारानुप्रेक्षा. प्रथम पत्र-“अनित्यानुप्रेक्षा" धर्मास्ति यादी छ षट द्रव्य रूप लोक का, द्रव्य द्रष्टिसे अवलोकन करने से छहो द्रव्य, अपने २ गुण में. व स्वरुप. शाश्वत (नित्य) हैं. परंतु इन्की पर्याय (अवस्था) स्वभाव विभाव रुप. उत्पन्न होती हैं, नाम धर्मास्ति अधमास्तिमाकास्ति कालास्ति जोयास्ति पुलारिस्त एक । एक एक | अनंत | अनंत अनंन । असंख्यप्रदेशा असंख्यप्रदेशी अनंत प्रदशा असंख्यपदेशामध्यप्रदेशाअनंत प्रदेश ... क्षेत्रसे लोक प्रमाणे लोक प्रमाणे लोका लोक प्र. अढाइ द्विप प्र. लोक प्रमाणे | लोक प्रमाण कालसे अनादी अनंत अ. अनंत | अ. अनंत | अ. अनंत | अ. अनंत [अ. अनंत भावसे, अरूपी | अरूपी | अरूपी | अरूपी | अरूपी | । चितन्य, अचैतन्य, अअवतन्य, अतन्य गुणसे | क्रिय. गात क्रिय, स्थिती क्रिय, अवगा तिक्रिया अवगा अवतन्य, दर्शन चारी अनत शान सक्रिय पूर्ण सहाय | महाय । हादान यवतमान त्र, वीर्य । गलन Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___२२२ ध्यानकल्पतरू. और विनाशपाती हैं. इस लिये यह अनित्य हैं. बहुत से संसारी जीवों को. वस्तुके गुण का ज्ञान बिल कुल न हाने से. और पर्याय का पलटा प्रत्यक्ष दिखने में, पर्यायों परही नित्या नित्य की बुद्दी कर- ममत्व भाव कर. राग द्वेष को प्राप्त होते हैं. उसइ बुद्वी कों स्थिर करने ह्यां स्पष्टता से खुल्ला विचार करते है. मोह निद्रा ग्रस्त जीवों को जाने, घटिका (घडीयाल) कट २ शब्द कर चेताती हैं. की तुम १ ब. जी. दो बजी. यों क्या कहते हो? जैसे कटने से बस्तु कमी होती है. तैसेही घटि २ (घडि २ घट) कर. सर्व वस्तू का आयुष्य कमी होता है. और सर्वायुष क्षय हुये. वस्तु का नाश हो जाता है. अर्थात् अब्बल के रुप के परमाणुओं बिखर (अलग २ सुक्ष्म रुप से हों) रुपांत्र को प्रात हो, अन्य रुप अन्य स्वभाव कों प्राप्त होते है. यह अवस्था देख, जीवों विभाव को प्राप्त होते है. की, वो मेरा अमुक मरगया! यह मेरा नहीं हैं ! हाय हाय !! यह कैसा हुवा !! तब ज्ञानी चेतातें है की' है चैतन्य ! यह जगत् की दिशा देख चेतो ! जैसे तुमारी गत काल की सब घटिका ओं गइ और तुमारे सरीर व संपती का रुपांत्र किया. रम्या को अरम्य और अरण्य को रम्य बनाया, तैसेही आगे Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयशाखा-धर्मध्यान. २२३ की रही हुइ घटिका पुर्ण होने से क्षिण मात्र में सरीर संपती का क्षय हो जायगा! फिर तुम कोट्यान उपाय कर, गइ घटि को बुलावोगे तो वो नहीं आने की और पस्तावोंगे तो भी कुछ नहीं होने का. ऐसा जाण है हितार्थी ! जो बाकी आयुष्य रहा हैं. उसे व्यर्थ मत गमावों. यह चिंता मणी रत्न तुल्य घटि का, कू.कर्म में व्यय (खर्च) मत करों, इस क्षिणक संसार की क्षिणिक स्थिती को प्राप्त हो रही क्षिण में सुधारा करने का हो सो कर घडी को लेखे लगावों.; और जो तुम.शरीरको नित्य मानते होवोतो यहभी नित्य नहीं है, क्षिण २ में इसके स्वभावमें, रूपादी गुणोंमें फरक पड़ता हुवा. परोक्ष और प्रत्यक्ष भाष होता है, देखीये, अव्वल जब जीव मनुष्य. पर्या य रूप गर्भमें आ उत्पन्न होता है. तब माताका रुद्र, और पिता का. शुक्रका, अहार कर..मांड (चांववलोके. धोवण) जैसा सरीरकों प्राप्त होता है. फिर काल * गाथा-जाजा बच्चइ रयणी, नसा पडि नियत्तइ, - अहम्म कुण माणस्स, अफला जति राइ उ.. . अर्थ-जो जो दिन रात्री जाते है, वो पीछे नहीं आते हैं, अधीके निष्फल जाते है. और इसके आगेकी गाथा कहा है, धर्मीके दिन रात सफल जाते है.. . . . Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ ध्यानकल्पतरू. स्वभावसे फरक पडते २ उन पुद्गलोंमे कठिणता प्राप्त होते २ सेडा (नाकका मैल) बोर, अम्बा, रूप बन, अंगोपांग के अंकूर फूट इन्द्रियों क छिद्र पड, बाला दीका आगम हो, संपुर्ण सरीरके अव्यववों को प्राप्त होता है, जन्म समय पून्योदयसे साधाही बाहिर पड, अज्ञान अस्मर्थ अवस्थाके पराधीनता के अनेक कष्ट सह, ज्ञानावस्थामें, विद्याभ्यासमे; तरुणपणा प्राप्त होते विषय पोषणकी समग्रीयों का संयोग मिलाने, तरुणीयों के प्यारे बनने, कुटंबके भरण पोषण करने, वृधावस्था प्राप्त होते, काया नगर की खराबी होने लगी, शिर थर्राराया, कर्ण कम सुने, चक्षुका तेज घटा, घ्राण झरने लगा. दंतावली नष्ठ होनेसे मुख उ. जाड हुवा, जिभ्या लथडाने लगी, स्वर मंद पडा, जठराग्नी मंद होनेसे, पचन शक्ती घटी, जिससे अनेक व्याधीयों उठने लगी, कम्मर झुकी, गोडे थके, पांव धूजने लगे, इत्यादी सरीर की शक्ती हीन निकम्मी होतें. जिनकों प्यारे लगतेथें उनको ही खार (खराब) लगने लगे. और एक दिन सर्वायुष्य क्षय होने से सब सज्जन मिलके उसे ही सरिर कों चितामें जला + कित्नेक गर्व में आडे आके कटक निकलते हैं. Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयशाखा-धर्मध्यान. २२५ भस्म करदीया, यह इस सरीरकी दिशा क्षिण २ में पलटती हुइ दिखती है. यह सरीर नित्य (सदा) अभीनव रूप धारण कर्ता है, समय २ में पलटता हैं, बालवस्थाकों तरुणपण गिलता है, तरुण पणेंको बृधपणा और बृधपणेंका काल भक्षण कर जाता है, यह मच्छ गलांगल लगी है। परन्तु ऐसा नहीं समजीये की बालका तरुण और तरुणका वृध, जरूर होगा. यह भरोसा नहीं है. कालको बाल युवा बृध का. कुछभी विचार नहीं है. कालरूप घट्टीको तो हमेशा चन्द्र सू ये फिरा रहें है, जैसे घटीके दो पट होते है, तैसे कालरूप घटीका, भूत कालरूप तो स्थिर पट है, और भविष्य कालरूप चल पट है, अयुष्य रूप खोले से. अडके जो रहे हैं, वो बचे हैं, 'खूटा छुटा के आटा हुवा', अपने देखते बहुतेका हो गया, और बाकी रहे उनका भी एक दिन होनेवाला; ऐसी इस सरीर की दिशा देखते जो इस सरीरको नित्य जाण. मोह .: * उपय-मनुष्य तणो अवतार बर्ष चाली से मीठो. क. डबो होय पञ्चास साठे. क्रोध पइठो. सित्तर सगो. न कोय. अस्सी ये नाही सगाइ. नव्वे नग्गो होय. हसे सर्व लोक लुगाइ..वर्ष आ या जब सेंकडा. तन हुवा सब खोंकरा. . पतिवृता पावे को कहे अब मरे न छूटे डोकरा. १ Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___२२६ ध्यानकल्पतरू. मे गर्क हो रहे है, यह बड़ा आश्चर्य है. इस सरीरका नाम उदारिक है. इसके दो अर्थ करते हैं. (१) उदार, प्रधान, और (२) उदारा मांगके लिया, जैसे पंचायती जगा, क्रिया वर करने के लिये, पंचोंसे मांगके थोडे कालके लिये उदारी लेते: हैं, और उसे सिणगार के उस्में जो क्रियावर करनेका है वो कर लेते है, तो उनको वो जगा छोडती वक्त पश्चाताप नहीं होता है, और जो क्रियावर हुये पहले मुद्दत पूरी हुये, पंचोंके सिपाइ मकान खाली करते है. तब रोना पडता है की, कुछ नहीं किया, ऐसेही यह सरीर (पंच भूत वादी के कथनानुसार) पृथव्यादी पंच भूतोका बना हुवा सरीर रूप बाडा क्रियावर (अच्छी क्रिया धर्म करणी) करने को मिला. जो धर्म करणी कर लेते हैं, उनको मरती वक्त पश्चाताप नहीं. होता है. और करणी नहीं करी है, उनके सरीर को , काल छोडावेगा, तब पश्चाताप साथ छोडना पडेगा. ऐसा जाण इस क्षिण भंगूर सरीरसे. धर्म करणी बने ___ + पिता ने खुशी में आके पुत्रीसे कहा की लक्ष्मी इधर आ तब पुत्री गुस्सेमें कहने लगी पिता श्री इसनामसे मुजे कदापी न बुलाइये. में लक्ष्मी जैसी नीच नही हुवी एक निदमें अनेक मालक (पती)वनावू. Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयशाखा-धर्मध्यान २२७ जित्नी शिघ्र करलीजीये, की इसे छोडती वक्त पश्चाताप नहीं करना पडे... जैसी सरीरकी अनित्यता है, वैसींही कुटंबकी भी समजीये, क्यों कि मात पितादी स्वजन भी, उदा रिकही सरीरके धरण हार है, अपने पहले आये, माता, पिता, काका, मामा, वगैरे, अपने बरोबर आये, भाइ, बेन, स्त्री, मित्र, वगैरें अपने पीछे आये, पुत्र, पौत्रादिक और भी जक्त वासी जन, देखते २ आय खुटे चल गये हैं, चल रहे है, और रहे सो एक दिन सब चले जायँगे, “जो जन्मा है, सो अवस्व मरेगा" इस लिये कूटंव परिवार को भी अनित्य समजीये.. ... जैसा कुटम्ब अनिता है, तैसे धनभी अनित्य है, इसे 'दोलत' कहते हैं, अर्थात आना और जाना ऐसी दो लत (आदत) इसमें हैं, तथा पोशकको क्षिण में हसाना और क्षिगनें रूलाना ऐसी दो आदतें हैं. यह किसीके पास स्थिर नहीं रहती है। . "जर जोरु और जमीन, किनकी न हुइ यह तीन” जरमनि तीजोरीयोंमें, खब उंडे खड्डेमें या नग्गी समशेरोंके पहरेभी, खूब बंदो * पृथवी की हड्डी आदी-पाणी का रक्त मुत्रा दी-अग्नी का जठाराग्नीयादी वायूका श्वाशोश्वास और आकास रुप पोलार एपंच भूत Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ . थ्यामकल्पतरू. बस्तके साथ रक्खी, तोभी नहीं रहनेकी, पुण्य खूटेसे हाथसे रक्खा हुवा धन रूपांत्र पाके कंकर कोयले पाणी या साँप, बिच्छू जैसा दिखने लगता है, ऐसी लक्ष्मी -अनित्य है....... - तैसें घर भी अनित्य लकड मट्टी के संयोगसे बना उसे अपना मानके बैठे है, येही जीर्ण होनेसे बिखर जायगा, केइ घर या ग्रामादी नवीन वसते है. केइ उजड़ होते हैं, विनशते हैं, यह प्रतक्ष अनित्यता दिखती है. ऐसेही उपभोग, ( एक वक्त भोमवने में आवे अन्न पुष्पादी) और परिभोग (वारंवार भोगवने में आवे वस्त्र भुषणादी) यह भी अनित्य हैं, क्षिाणक है. सर्व वस्तु उत्पन्न हुइ के उनकी पर्यायमें फरक पडना सुरू होता है; विनाश कालतक फरक पडते २ उसका स्वरूप ही और हो जाता हैं. यह अनित्यता की प्रतक्षता हैं. प्रतक्ष देखते है की, जीव आता है, तब वह रूपमें कुछभी साथ लेके नहीं आता है, उत्पन्न हुये पीछेही सरीर संपत्ती आदी संजोग मिलता है, और फिर वोभी 'पंच समवाय' प्रमाणे हीम होते२, सब ... * काल-स्वभावः भव्यतव्य-कर्म-और उद्यम, इन समवाय के संयोगसे सर्व कार्य होते हैं. Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयशाखा-धर्मध्यान. २२९ चांहीज प्रलय पाता है, या रह जाता है, और आंप आया था वैसाही, इकेला जीव आगेंको चला जाता है, ऐसा तमाशा एकही वक्तमें पूरा नहीं होता हैं; परन्तु अनंत काल से येही रीत चली आती है, और चली जायगा, मिलना और विछडना, येही पुगलोंका धर्म हैं, सोही वना रहगा ! अच्छा का बुरा और बुरा का अच्छा; नवा का ज्यूंना और ज्यूंनाका नवा; कोइ प्रतक्षताले और कोइ परोक्षता (छुपी रीत ) सें, पूनलों का रूपांत्र होनेका जो स्वभाव है, वो होयाही करता है, यह तमाशा देखते हुये भी इसे नित्य मान लुब्ध हो रहे है, इससे ज्यादा अश्चर्य और कोनसा होय ? . मुढ प्राणी का आयुष्य ज्यों ज्यों हीन स्थिती को प्राप्त होता है, त्यों त्यों ममत्व और पापकी वृद्धी करता हैं, और उनके फल भुक्तने आपभी रूप पा के रौरव नर्कमें गिरता है. तब असाझ दुःखसे घबरा कर रोता है. . शीतलता, और विष तैसेही आत्म घाती जन पुद्गल के संगसें सुख चहाते हैं. इन अज्ञको कैसे समजावे. भाइ ! अनी स्नानसे भक्षणसे अमरत्व चहाते हैं, Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० ध्यानकल्पतरू. . औरभी अनित्यताके दर्शाने लिये देखीये (१) हमेशा श्यासकों वृक्षोंपे पक्षीयोंका समोह आ जमता है, जिस डालपे आंप बैठे. वहां दूसरे पक्षीको बेठने नहीं देते है, क्यों कि उस वृक्षकों अपना मान लिया है. परन्तु वोही पक्षीयों सूर्यका प्रकाश होते दिशोदिश उड जाते है, तब उस झाडका पत्ताभी उन्हके साथ नहीं जाता हैं. तैसे ही देह वृक्षपे जीव पक्षीयों चार गतियों में से आबैठे है. कालरूप सूर्योदय होते • सब जायंगे, देह ह्यांइ रह जायगा. ... .. (२) वादीगर (ईन्द्र जालीया) की डुमडुमीका शब्द सुणतेही चहुदिशासें मनुष्य बृंद उलट आते हैं, 'बाजी समेटी के सब दिशेोदिश भग जाते है. और इकेला बाजीगर दंड भंड ले आपने रस्ते लगता हैं. तैसेही जीव बाजीगरकी, पुन्य सामग्री देखने कुटम्बादी मिले है. पुण्य खुटे सब रस्ते लगेंगे, और जीव इकेला चला जायगा. 3(३) मेल-यात्रा दी में चौदिशा से मनुष्यों का समागम होता हैं बांही समयानंतर, सुन्य अरण्य (जंगल) रह जाता है. (४) लग्नादी उत्सबके प्रसंगमें, स्वजानादी स मोह जमता है; और उत्सव निवृतते घर धणीही रह Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयशाखा-धर्मध्यान. २३१ जाते हैं. .. (५) संध्या [श्याम] की वक्त बहुदा आकाशमें संध्याराग [विचित्र रंग] का दर्शाव होता है, और क्षि णत्रमें अन्धकार फेलजाता है.. ... इत्यादी अनित्यता दर्शानेके अनेक बनाव हमेशा बनते हैं. और देखते है, परं मोहकी धुन्धी मै मुग्ध बने,.. कौन विचार करें !! ............ एक समय राज्यारूढ महोत्सव की धामधूमः लग्नका उत्सहा द्रष्टी पडता है; और उसी स्थल उसही समय, पुद्गलोंका रूपांतर होनेसे मृत्युआदी निपजनेसे हाहाकार मच जाता है स्मशान गमनकी तैयारी होती कों, क्या नहीं देखते हैं ? ऐसे २ अनित्यता ब.. तानेके जक्त में थोडे साधन हैं क्या? . ..... ..... ज्यादा क्या कहूं, जिन २ प्रमाणुंओ पदार्थों कर तेरे सरीरकी रचना हुइ, और पोषणता.होती हैं, वेही. प्रमाणुं गये कालमें तेरे शत्रु बन तेरे धारण किये हुये अनंत सरीरोंका नाश किया था, की उनके साथ तूं अत्यंत प्रेम करता है. और वक्त पडे, येही तेरे सरीर के घातक बन जायँगे मतलबकी पुद्गल संयोगसेही ससम्बन्ध जुडता हैं. और संयोगसेही विखरता है. .. श्री भगवतीजी सूत्रमें 'अविचय' मरण कहा Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ ध्यानकल्पतरू, है, की जो जगत्के सर्व पदार्थका आयुष्य क्षिण २ में क्षय करता है, जैसे अंजली [ हाथके खोबे] में लिया हुना पाणी बुंद २ कर कमी होता हैं, तैसेही सब पदा भोंका आयुष्य घटता है. औरभी जैसे १. खप्नकी सायबी, २. मेघ पट, लों (बादलो) का समोह, ३. विपत (बिजली) का चमत्कार, ४. इन्द्र धनुष्य, ५. मायवी सायबी, वगैरे अनेक पदार्थ क्षिणिकताके सूचक है. उनको आँखोसे देख. हृदयमें विचार सौंच समज मानू ये मेरे सब्दोध कर्ता गुरूही हैं. और समजा रहे हैं, की हे चैतन्य अव चेत! चेत !! मोह धुन्धी उडा, अज्ञानका पडदा दूर कर, और अंतारिक ज्ञान लक्ष लगाके देखकी कपिल केवली ने फरमाया है "अधुव असासयं मी, संसारंमी दूरक पउरए” अर्थात् यह अध्रुव (अनिश्चल) अशाश्वत और दुःखसे पूर्ण भरा हुवा संसार हैं, इसमें रहे जो ममत्व मुरछा करते हैं, वोही दुःखी होते हैं, हरीगीत -बहु पुण्य केरा पुंज्य यी शुभदेह मानव नोमल्यों. तो ए अरे भव चक्र नो भोटो नही एके टल्यो. सुख प्राप्त करता मुख टळेछ, नेक एलक्षे रहो, “क्षिण २ निरंत्र भाव मरमें" का अहो राची रहो. . कवी रायचन्द्र Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयशाखा-धर्मध्यान. २३३ ।। जब जीवोके देखते पदार्थोका नाश होता है, तो जीवकोही पश्चाताप होता है, की हाय मेरे प्राण प्या- . री वस्तु कहां गइ. और पदार्थ छोडके जीव जाता है तवही वोही रोता है, की हाय इस सायवी को छोड अब में चला न की वो पदार्थ रोयंगे. की मेरे मालक कहां गये. क्यों कि उनके मालक वणने वाले अनेक बैठे है. ... ऐसा समज है सुखार्थी धर्मार्थी जीवो! इस अनित्यानुप्रेक्षा के सत्य विचार से अनित्य अशाश्वत वस्तु से ममत्व त्याग, निजात्म गुण ज्ञानादी नीरज नित्य शाश्वत, अक्षय अनंत उनमें रमण कर सुखी बनो. द्वितीय पत्र-“असरणाणु प्रेक्षा' साद्वाद मतमे हरेक तर्फ अनेकांत द्रष्टीसें देखा जाताहैं, निश्चयमें तो कोई किसीकों सरण कादाता आ श्रम का देने वाला नहीं है क्योंकि सर्व द्रव्य अपनीर शक्ती के बलसे ही टिक रह हैं, इस सबबसें कोइ कि सीका कर्ता हर्ता नहीं है, व्यवहार द्रष्टीसें फक्त निमित मात्र यह जीव दुःख, कष्ट उत्पन्न हुथे, अन्यके सरण Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ थ्यामकल्पतरू. की अभीलाषा करते हैं; मेरी वस्तुका नुकशान न होय या मेरेपर किसी प्रकार का दुःख आके नहीपडे, इस लिय कोइ तारण-सरण आश्रय कादाता होय उनका सरण ग्रहण करु, कीजिससे मुजे किसी प्रकारकादुःख नही होय इत्यादी विचार से अन्यन्य अनेक का सरण ग्रहण करता है, परन्तु यों नहीं विचारता है की जिस दुःख से बचने मे आश्रय सरण ग्रहन करता हूं, वो खुदही इस दुख से बचे हैं क्या? क्यों कि जो आप दुःखसे बचे होंगे, तो दुसरेकोभी बचा सकेंगे, और जो आपही की रक्षा नहीं कर सके तो, अन्यकी क्या करेंगे. फिर व्यर्थ उनके सरण ग्रहण करने में क्यासार है, अब विचारिये अपन जिन २ का सरण ग्रहण कर ते हैं. वो योग्य है या अयोग्य, ऐसा प्रथक २ (अलगर) विचारीये. हे जीव! तूं इस सरीर करके तेरा रक्षण च. हाता हैं, तो देख! यह सरीर मुद्गल पिंड क्षिण २ में नष्ट होता है. आधी व्याधी उपाधी कर भरा हुवा है. वारम्वार रोगों कर ग्रासित जरा कर पिडित, और मृत्यूका भक्षक बनता है. यह अपनी रक्षा नहीं कर सक्ता है, तो तेरी क्या करेगा. इस लिये सरीर कों तरण सरण मानना व्यर्थ है, जो तूं तेरे परिवार और Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयशाखा धर्मध्यान. २३५ मित्रको सरण दाता समजता होय तो भी तेरी भूल हैं निर्मोह बुद्धी देख. जो तूं द्रव्योपारजनमें कुशल सबकी इच्छा प्रमाणें चलने वाला हूवा तो माता पिता कहेंगे. हमारा पुत्र रत्न हैं, भाइ कहेंगा मेरी वाहां है, बेहन कहेगी मेरा वीरा हीरा है, स्त्री कहेंगी मेरे भरतार करतार ( परमेश्वर) है. इत्यादी सर्व कुट म्ब हुकम हाजीर रहे, जी ! जी ! करतें हैं. और जो मूर्ख बेकमावू होय तो; मात पित कहे पेटमें पत्थर पडा होता तो नीम ( मकान के पाये) में देने काम आता, भाइ कहे मेरा वैरी है. बेहन कहे किरका भाइ लाइ (गरीब) स्त्री कहे मौल्या ( मोल लिया गुलाम है) इत्यादी सब सज्जनों की तर्फसें अपमान और दुःख प्रा स होता है, स्वार्थ लुब्ध मातानें ब्रम्हदत्त चकृवृत कों मारने का उपाय किया, कन्क रथ राजा जन्मतें पुत्रों. को मारै, भृत बाहुबली दोनो भाइ आपसमें लडे. को णिक कुमरने अपने पिता श्रेणिक राजाको पिंजरे में कब्ज किया, दुर्योधननें सब कूटम्बका संहार किया. और सूरी कंता राणीनें प्यारे पति प्रदेशी राजाके प्राण हरण कर लिये. ऐसे २ प्राचीन अनेक दाखले है. और वृतमान में बणाव वण रहे हैं. ऐसे मतलबी जन सरण भूत कदापि न होने वाले. Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ ध्याभकल्पतरू. .. सरीर, धन, कुटरब इत्यादी जिनको प्राणसे भी अधिक प्यारे समज रहा है, चिंतामणी तुल्य मनुष्य जन्म जिसके लिये गमा रहा है. वो भी तारण सरण 'न होवे तो, अन्यकी क्या कहना. मतलबकी विक्राल काल वेतालकी फांस में फसे हुये उस फास से बचा. ने कोइ समर्थ नहीं है, कालबली बडा जबर है, नरेंद्र चकृवृती यादी राजा, सुरेंद्र श-दादी देव. बड़े २ वलिष्ट दैत्य जैसे शस्त्रधारी क्षत्रीयों, वेद पाठी ब्राम्हणो श्रीमंत साहुकारों जमीदार जागीरदारों, सहश्र विद्या के साधक विद्याधरों ( खेचरों) सिंहादिक बनचरों, सादी उरचरों घर वस्त्र, भुषण, इत्यादी सर्व पदार्थों के पीछे काल बेताल लगा है, कालसे ज्यादा बलिष्ट इस संसारमें कोई भी नहीं हैं, कालसे बचाने जैसी कोइ घर, झंवारा, गुफा पहाडादी कोइ स्थान नहीं. की जहां छिप जाय, अमृत और अमर वेल, वगैरे ना मधारी बूंटी औषधीये, भी काल रोग मिटाने समर्थ नहीं, तो अन्यका क्या ? रोहणी प्रज्ञाप्ती यादी विद्या, घंटा करणादी संत्र, विजय प्रतापादी यंत्र, रस सिद्ध यादी तंत्र, में भी कालसे बचाने की शक्ती नहीं, सघनी यादी कोइशस्त्रभी नहीं, जिससे कालको डरावे बन्ध गणो! काल अजब शक्ती वाला है, पाणीमें गल Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयशाखा-धर्मध्याम २३७ ता नहीं, अग्नीमें जलता नहीं, हवामें उडता नहीं, बज्रमय भीतसे भी रुकता नहीं, यम जैसे प्राक्रमीसे ही दबता-डरता नहीं है, काल बडावे विचार है, बाल, वृध, तरुण, नव-प्रणेत, धनाढ्य, गरीब, सुखी, दुःस्वी अनेको के पालने वाले और अनेकोंके संहारने वाले ऐसे २ मनुष्योंको, पशुवोंको, दिपवाली यादी तेंहवारोंको उच्च नीच ग्रहका, काम पूरा नहीं हुवा, उनका, रात्री दिन भोगमें मशगुल उनका, इत्यादी किसीका भी जरा विचार नहीं है, कैसा ही हो झपाटेमें आयाही चाहीये, की तुर्त गट काया, अनंत प्रा. णीयोका अनंत वस्तुओंका भक्षण अनंत वक्त किया, तोभी कालका पेट नहीं भराया, साक्षात् अग्नी सेंभी अधिक सदा अनती महा विशाल राक्षसही हैं, महा प्रतापी है, बडे २ सुरेन्द्र, नरेंद्र, इसकी द्रष्टी मात्र से अत्यंत त्रास. पाते है. भान भूल जाते हैं, आर्त, रौद्र, ध्यान ध्याने लगते है, उनका भी मुलायजा कालकों नहीं हैं यह तो फक्त अपने मतलव साधनेंकी तर्फही द्रष्टी रखता है. ऐसे निर्दयी निर्लज्ज, काल बेतालके फास में पडे जीव जो अन्यके सरण से सुख चहाते है, वो मृगजल से प्यास बुजाना चहाते हैं, वांझा का पुत्र खिलाना चहाते हैं, या आकाश पुष्पोंसे श्रृंगार सज: Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ ध्यानकल्पतरू. ना चहाते हैं, तैसा निष्फल काम हैं." इस काल की रचनाका तो जरा विचार करो, यह काल हरेक वस्तुका एक वक्त अहार कर, पीछा तुर्त निहार कर देता है, और तुर्त पीछा उसके भक्षणका लोलपी हो, उसके पीछे पडता हैं. सो दूसरी वक्त उसका पूरा भक्षण नहीं करें, वहां तक उसका क्षिण २ में क्षय करताही रहता है, और अचिंत्य खा जाता है, और पीछे वोके वोही हाल, ऐसे अहार निहार करते २ अनंतानंत समयवीत गया, तो भी यह त्रप्त न हुवा और न होगा. अपने स्वजनका मत्यू देख, मूर्ख फिकर कर. ता हैं. परन्तु यों नहीं समजता है की. मेभी काल की दाढ में बेठा हूं. अराक मस्का लगने की देर हैं. की इस जैले हाल मेरे भी होंगे!! ... .. काल के विचार मात्र सेंही, बडे इन्द्र नरेन्द्र निजस्थान चुत हो नीचे पड़ते हैं. तो बेचारे मनुष्य जैसे कीडे की क्या कथा. * गाया-जस्तत्थी मच्चूणं सखं, जस्सन्थो पल्लाइणं, जा जाणे न मरीसामी, सोहं कर सुहेसय. उतराध्येयन, अर्थ-जिसकी कालसे प्रीती होय, भग जाणकी शक्ती होय, अथवा भरोसा होय के भै नहीं मरूंगा, बोही सुखसे सूता रहे. - - Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Ama - m - - -- -- -- तृतीयशाखा-धर्मध्यान. २३९ ... एक मनुष्य बन में सूता था, की वहां रात्री कों अचिंत्य दावा नल (आग) लगी, और उस मनुष्य को घेर लिया. उश्नता लगते वो तुर्त जागृत हो, एक वृक्षपे चड बेठा, और चारही तर्फ जंगली जानवरों कों जलते देख, हँस ने लगा. की यह जला. यह मरा! परंतु मुढ यों नहीं समजता है की. यह वृक्ष जाला की मेरीभी येही दिशा होगी. अर्थात-जैसे जगत जीव मरतें है वैसेही एक दिन अपन भी मरेंगे! इस्मे संशयही नहीं!! बाप, दादे, गये वोभी इस धन, कुटम्ब, कर अपना रक्षण नहीं कर सके, तो तुम को न स्मर्थ बली बच सकोगे. निश्चय समजीये. सब सज्जन मुह ताकतेही खडे रहेंगे. सब संपती निजस्थान ही षडी रहेगी, और चित मुनी के कहे मुजब, एक दिन सब की दिशा होगी. ___* स्वैया-कंचनके आसन, सुखवासन कंचनके पलंग, सव इनामत घर रहै. हाथी हट शालनमें, घोंड घुडशाल नमें, कपडे जाम दानीमें घडी बंध ही रहे, बेटा और बेटी दोलतका पार नहीं, जवागेंके डब्बेपे ताले ही जडे रहे, देह छोर डिगे जब हो चले दिग़म्बर, कुलके कुटम्ब सब रोतेही खड़े हैं, Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० ध्यानकल्पतरू. . जहेह सिंहो व मियं गहाय, मच्चु नरं नेइहू अंत कालेन तस्स माया व पियाव भाया,कालंमि तस्स सहग भवंति११ उत्तरा• १३ _ अर्थात्-जैसे बनमें फिरते हुये मृग (हिरण) के जुन्थ मे सें. सिंह (शेहर) एक मृग को पकड के ले जाता है, तब सब हिरणे थर्र २ कांपते, अपनी २ जान बचातें भग जाते हैं. तैसे ही कुटंबो के बूंद में, रहे हुये मनुष्य को, काल सिंह ले जायगा. तब सब मुह ताकते ही खडे रहेंगे. परं कोई भी बचा नहीं सकेगा. तैसेही आगे की तुम्हरी सहाय करने तुम्हरी संपती में से कुछ भी साथ न आवगा. कहा हैं2 श्लोक धनश्च भौमो पशु वाश्व गोष्टी, कान्ता घर द्वार जनस्य मशाणं देह श्वेता थां परलोक मार्गे, कर्माणगो गच्छति जीव एका. अर्थात्, धन, जमीन, पशु, घर संपती, यह सब निजस्थान रह जायगी, कान्ता प्रिय पत्नी. कों दारा कहते है, वो दरवाजे तक आयगी, और कुटम्ब परिवार सब स्मशाण तक (देह) को पहोंचा ने आयंगे, यह सरीर चितामें जल जायगा. आगे, अपने किये हुये शु. भाशुभ कर्मोकों साथ ले चैतन्य इकेला जायगा. Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयशाखा-धर्मध्यान. २४१ एसा निश्चय कर, है सुखार्थी जनो, इस दुर्लभ मनुष्य जन्मादी समग्री को अन्यके सरण के ला. लच में पड मत गमावो निश्चय करो की,, इस जगक्तका कोई भी पदार्थ मेरा रक्षक नहीं हैं; सब भक्षक है, एसा जान उनपेसे ममत्व त्याग -तरण तारण, दुःख निवारण, निराधार के आधार गरीबनिवाज, महा कृपाळु, करूणा सागर, अनंत दुःखा से उधार के कर्ता विक्राल काल व्याल के दुःख के हरता. अनंत अक्ष अजर अमर अविन्याशी अतुल्य सुख रूप मोक्ष स्थानके दाता व्यवहारमे तो श्री अहंत सिद्ध आचार्य उपध्या और साधू यह पंच प्रमैष्टी हैं. और निश्चय में अपने आत्मा गुण ज्ञानादी त्री रत्न की शु. द्धता हैं जिनका अश्रय-सरण ग्रहण कर है, अजरामर आत्मा परमानंदी परम सुखी बन!! तृतीय पत्र-"एकत्वानुप्रेक्षा" जैसे सुवर्णका और मट्ठीका अनादी सम्बन्ध होनेसें दोनो एकही रुपमे दिखते है अर्थात् सुवर्णभी लाल मट्टि जैसा दिखता हैं परन्तु है दानो अलग २, जो दोनो एकही होय तो मट्टी मेंसे सुवर्ण जुदा निकले नही.. Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ . ध्यानकल्पतरू. ... परन्तु अनादी सम्बधंसे एक रुप दिखते है. जैस सुवर्ण से मट्टी को अलग कर निजरुप में प्राप्त करनेके वास्ते सुवर्णकार, मूश, अग्नी, सोहागीक्षार, और द्रव्य क्षेत्र, काल, भाव, की अनुकुलता, इत्यादी योग्य मि. लनेसे सुवर्ण मट्टीसे अलग हो निजरूषको प्राप्त होता है, तैसेही जीव कर्मका अनादी सन्बन्ध तोडाने-छोडाने चार वस्तुकी आवश्यकता है.. ... १ 'ज्ञान' रूप सुवर्णकार ज्यों सुवर्णकार मट्टी से सुवर्ण निकालने का जाण होता है, और यथा वि धी कर्म कर कार्य साधता है. तैसेही जीव ज्ञान कर कर्मसे अलग होनेकी विधीका जाण होता है. कृतव्य प्रायण होणेकी शक्ती आती है. २ 'दर्शन' श्रधा रूप मूश, क्यों कि श्रधाही सगुणोंके रहने का स्थान हैं, ३ 'चारित्र' संयम रूप 'क्षार' क्योंकि चारित्रही कर्म मेलको फाडनेवाला है और ४ 'तप' रूप अग्नी. क्यों कि तपही कर्म मेल जलाने समर्थ है, यह चारही पदार्थोंका योग मिले उदारिक सरीर रूप द्रव्य आर्य क्षेत्र, चतुर्थ आरादी काल, और भव्यात्म भाव का संयोग मिले यथा विधी साधन करनेसे अनादी कर्म दुहा-मुशी पावक सोहगी, फुक्यातणो उपाय, रामचरण चर्स मिल्यो, मेल कन्कका जाय .१ Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयशाखा-धर्मध्यान २४३ रूप मेलको दूरकर चैतन्य निजात्म रूपको प्राप्त होता है. ऐसेही दूध में घी मिला होता है, और उसे निकालने खटाइ, रवाइ, भाजन, मथक (मथन करने वाला) का संयोग होनेसे छाछ रूप मेलको छोड घृत अपने रूपको प्राप्त होता है, तैसेही अतर और पुष्प लोह और चमक, वगैरे अनेक द्रष्टांत कर जीवका औ र कर्मका अनादी सम्बन्ध समजना. और सुवर्या की तरह इन पदार्थोंको अनादी सम्बन्ध छडाके, निजरूप में प्राप्त करनेके, अनेक उपाय समजनें. तैसेही जीवकोभी अनादी कर्म सम्बन्धसे छडाके, निजरूपमें प्राप्त, करने के, वरोक्त ज्ञानादी चार साहित्योंका संयोग अक्षीर (पुक्त भक्कम) उपाय हैं. बडा विद्वान और सदा शुची पवित्र रहने वाला वारुणी (मदिरा) के नशे में गर्क हो, अशुची से भरे उकरडेपे लोटनेमें गादीपे लोटने जैसा मजा मानने लगताहै. और गटरोंकी हवाको बगीचेकी सहल समजने लगता है, उसे अशुचीसे निवृतनेके बोधकको मूर्ख जाण गाली प्रदान करने लगता है. वोही जीव नशेसे निवृते बाद, अपनी कूदिशा देख, शरमाने लगता है, और किसीके विना कहेही उकरडेको त्याग, (छोड) चला जाता है. ऐसेही जीव रूप पवित्र पुरुष, मोह Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___२४४ . ध्यानकल्पतरू. .. मद रूप मदिराके नाशमें छक्क हो. कर्म रूप उकरडा भोग (विषय) रूप अशुचीसे भरे हुयेपे लोटता हुया आनंद मानता है, और विषय विरक्त सब्दोधकको मूर्ख जान, उनके उपदेशका अनादर करता है, और वोही जीव सत्संगतादी प्रसंगसे मोह नशा उतरनेसे शुद्धी में आ, अज्ञा दिशामें कृत कर्मका पश्चाताप कर, तुर्त विषय विरक्त हो एकी भाव को अङ्गीकार करता हैं. जैसे बचपनसे बकरीयोंमे उछरा हुवा सिंहका बच्चा, अपनी जाती को भूल, अपन को बकराही मान रहाथा. और बनमें सच्चे सिंहके दर्शन और सहाधसें बकरीयों का सङ्ग छोड. स्वच्छारी एकला हुवा, ऐसेही जीव अनादी कर्म सम्बन्ध में अपना निज स्वरूप भल कर्म जनित पदार्थ सरीर संपत्ती आदीको अपनी समज रहा है, जब सदर के सहौध का सम्बन्ध में अपना आत्म भान प्राप्त हुवा, तब जानने लगा की, मै चैतन्य, आधी व्याधी, उपाधी, करके रहित हूं, यह सरीर, संपत्ती, तीनही दुःखोसें व्यास हैं, मै निराकार हूं, यह साकार हैं, मै शुद्ध शुची हुं. यह अशुची अ. शुद्ध है, मै अजरा मर हूं. यह क्षणिक विन्याशी है. मै अनंत ज्ञानादी गुण युक्त चैतन्य हूं. यह जड है. इत्यादी किसी भी प्रकारसे इनका मेरा सम्बन्ध नहीं Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयशाखा-धर्मध्यान. २४५ मिले, इनके प्रसंग कर मैने ४ गत २४ दंडक ८४लक्ष जीवा योनीमें, उच्च नीच जाती स्थानमें, अनंत विटंबना भुक्ती है. अब इनका संङ्ग छोड मुजे एकत्वता धारण करनी योग्य हैं. ऐसे विचार से सर्व सम्बन्ध परित्याग कर, वितराग दिशाको अवलम्बे. जैसे बदलो के फटने सें, सूर्य स्व प्रकाश को प्राप्त होता है, तैसेही कर्म पड्डल दूर होने से आत्मके निजगुण झानादी प्रकासित होते हैं, और चैतन्य अपना स्वरुप पहचानता हैं. एक स्वानु प्रेक्षक, विचार करे की, में कौन हूं. एक हूं या अनेक हूं, दीखने रुपतो एकही सरीर का धारक हूं. परन्तु जो एक मानू तो. मातंपिता कहै मेरा पुत्र, क्या में पुत्र हु ? बेहन कहे मेरा भाइ. तो क्या में भाइ हूं? स्त्री कहै भरतार. तो क्या में भरतार हूं ? पुत्र पुत्री कहे पिता तो क्या में पिता हूं, यों कोइ काका, कोइ बाबा, कोइ मामा माशा, व्याइ, जमाइ ऐसे २ सब मेरा २ कर मुजे बोलाते हैं, अब विचार होता हैं कि में कौन हू, और किसका हू, हा, ! अश्चर्य; मेरा पत्ता लगना हीं, मुजे मुशकिल हुवा. में एक हो कित्ने नाम धारी. किरने का हुवा, परंतु जो निश्चयात्मक हो विचारता हूं तो, यह सब कर्मोके चाले हैं; Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ . ध्यानकल्पतरू. में न पुत्र हूं, नपिता हूं, न कोइ अन्य हूं. न मेरा कोइ हैं, और न में किसीका हूं. जो में इन नाम रुप होता तो. सदा इसही रुप में बन रहता, जो में पुरुष हूं? ऐसा निश्चय करंतो. अन्य जन्म में स्त्री हो पुरुष सं. भोगकी क्यों इच्छा करी. और जो स्त्री हूं ऐसा निश्चय करंतो अन्यज में पुरुष हो स्त्री भोग को क्यों चाहू. इत्यादी विचार से यह सब मिथ्या भाव विदित होता हैं, में मोह नशमें बेशुद्ध हो, कर्म संयोग से बिकल हो. भूल राह हूं, जैसे नाटकिया नाटक शाळामें स्त्री पुरुषा दी नाना रुप धर नाचता हैं. जैसा रुप बनाता है वैसही भाव हवाहू भजता हैं, परन्तु जो अंतर द्रष्टी, सें,देखतो, वोनट वैसा नही है, राजा नहीं, राणी न गाथा-एगया खत्तीय होइ, तउ चंडाल बुकस्स. तड कीडे पयं गया तउ कुंयु.पिंपलीया १ एव मडव जोणी मुं पाणीणो कम्म किं विसं नाना विजंती संसार संवठे मुत्र खत्तिय उतरा. अ ३ अर्थ-जैसे क्षत्री राजा महा परिश्रम सेभी पूरा राज्य मिलांके त्रप्त नहीं होता है. तैसे जीवभी कोइ वक्त क्षत्री हुवा. कोइ वक्त चंडाल ( मंगी) हुवा. कोइ वक्त बुऊस (वर्ण शंकर) हुवा. कभी कीडा तो कभी पतंगीषा. इत्यादी यांनी कोंके वस हो प्राणी परिभ्रमण करते. नाना - (अनेक) प्रकार के रूप धरतभी सर्व अर्थ प्राप्त करने समर्थ न हुवा. - इति खेदाश्चर्य. Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयशाखा-धर्मध्यान. २४७ हीं, संयोगी नहीं, वियोगी नहीं, इन सब भावौ से अलग ही हैं, फक्त प्रेक्षक को देखाने हँसाने. फसाने. रुलाने, अनेक भाव दर्शाता हैं. और अंतर में वो सब से अलग हैं, तैसेही संसार रुप नाटक शाळामें चैतन्य नट कर्म संयोग अनेक उंच नीच. एकेंद्री से पचेंद्री तक चंडाल से चकृ. वृती तक, रुप धारण कर. उस रुप प्रमाणे अनेक योग्या कर्म किये. औ र अखीर एकही कायम नहीं राह ! सब निज २ स्थान रहगये. और चैतन्य अलग ही राह. यह देखीयें कर्मो का तमाशा. अब जरा कर्म रुप नशाका उतार आया दिखता है, जिस सें थोडा भान आया, और ऐसा विचार होने से कर्मों की विचित्रता समज भेद विज्ञानी बना हैं, तो अब विभाव को त्याग स्वभाव में रमण करः देख ! जब तूं आया (माताकी योनीसे बाहिर पडा) था तव इकेलाही था. और तेरे देखते २ अनेक गये, वो इकेलाही गये. वैसे तूं भी इकेलाही जायगा अशुभ कर्म के फल भोगवने नर्कमें, और शुभ कर्मकें फल भोगवने स्वर्गमें,गया, तो इकेलाही गया! धन, वस्त्र, मकान, भोजन, भुषण, वगैरे का हिस्सा (पांती) लेने वाले अनेक स्वजन हैं. परन्तु कृत कर्म के फलों फल भोगवने का भुषण, वगैरे काम के फलों Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ ध्यानकल्पतरू. का हिस्सा लेने वाला कोई नहीं है. इस जक्तमें परिभ्रमण करते हुते अनंत जीवों. मेंसे रस्ते चलते २ थोडे दिनोके लिये कोई स्त्री बन जाता है- कोई पुत्र हो जाता है, ऐसे २ अनेक सम्बन्ध करते हुये. पुद्गल परावृतनके फेरेमें किदर के किदर ही चले जाते है. फिर उनका पताभी लगना मुशकि. ल होता है. ऐसेही हे जीव ! तूं भी केइका पिता, केइ का पुत्र, केइकी स्त्री, इत्यादी बन आया, और छोड आया वो तुजे पहचाने नहीं, तू उन्हें पहचाने नहीं, ऐसे २ विचार भी तेरे समक्ष रजु होते. तेरा एकत्व. पणा तुजे भाष (मालम) नहीं होता हैं. यह अश्चर्य है. हे आत्मन् ! सर्व जगत के पदार्थ तेरेसें भिन्न (अलग) हैं. और तूं उनसे भिन्न है. तेरे उनके कुछभी सम्बन्ध नहीं है, इस लिये अब तूं तेरे निज स्वरूप कों पहचान की तूं शुद्ध है. सत्या है, चिदानंद है, सिद्ध समान है. हमेशा इसही ध्यान में लीन हो की, इस रूप बने. चतुर्थ पत्र-“संसारानुप्रेक्षा” के खरूपको विचारे, सो संसारानुप्रेक्षा, Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयशाखा-धर्मध्यान. २४९ 'संसरति इति संसारः" जिसमें परिभ्रमण करना पडे, सो संसार, चार तरह का है. उन्हे चार गति कहते है गतागत (आवा गमन) करे सो गति चार. १ नर्क गति न नहीं+अर्क-सूर्य. अर्थात् अन्ध कारसे भरी हुइ अन्धकार भय सो तम+ गति या नर्क गतिके ७ स्थान अधो (नीचे) लोकमें एकेक के नीचे है, (१)® रत्न प्रभा श्याम वर्णके रत्नमय भयंकर सर्व स्थान. २ शर्कर प्रभा-तरवारसेभी अति तिक्षण सर्व स्थान हैं. (३) 'बालू प्रभा=भाड भूजके भाडकी बालू (रेती) से भी अत्यंत उष्ण र्सव स्थान (४) पंक प्रभा रक्त, मांस, पीरू के कीचड मय सर्व स्थान (५) धुस्म प्रभा, राइ मिरची के धूम(धूवे) से भी अधिक तिक्षण धुम्रमय सर्व स्थान (६) तम प्रभा भाद्रव की घटा छाइ अम्मावस्या की रात्री से भी अत्यंत अन्धकार मय सर्व स्थान (७) तम तमा प्रभा; घोरानघोर अन्धारे मय सर्व स्थान यो सातही नर्क के गुण निष्पन्न नाम (गोत्र) हैं इन ७ नर्क में ४२ आंतरे (खाली जगा) ४९ पांथडे नेरी ये रहने की जगा, ८४ + बहुत शास्त्रमें नर्कका तम गति भी नाम हैं. ____* गम्भा, वंशा, सीला, अंजना, रिट्टा, मग्धा, माघवाइ यह ७ मर्क के नाम. Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० ध्यानकल्पतरू - लक्ष नर्का वासे (उत्पति स्थान) हैं. इनमें रहे समद्रष्टी जीव तो स्वकृत कर्मोदय जाण, सम भाव से दुःख भोगवते हैं, और मिथा द्रष्ठी हाय त्रहा कर दुःख भो गवते हैं नर्क मे तीन तरह की वेदन १प्रमाधामी (य मदेव) क्रत २आपस की ३क्षत्र वेदना १ प्रमा धामी १५ जातके हैं १ 'अम्बे नेरीये को आमकी तरह मशलते हैं, २ अम्बरसे आम का रस निकाले त्योरक्त मांस हड्डी अलग २ करते हैं. ३ 'शाम' प्रहार करते हैं. ४ 'सबल' मांस निकालते हैं. ५ 'रुद्र' शस्त्रसे भेदते हैं. ६ 'महारुद्र' कलाइ की तरह टुकडे २ करते है. ७ 'काल'=अग्नीमें पचाते है. ८ 'महाकाल' चिमटेसे चर्म मांस तोडते है. ९ 'असि पत्र' शस्त्रसे काटते हैं. १० धनुष्य' शिकारी की माफिक धनुष्य बाणसे भेदते है. ११ 'कुंभ' कुभीमे पचाते है. १२ वाल-भाड मुंजे माफिक उष्ण रेतीमें भुंजते है. १३ वेतरणी अत्यंत उष्ण रससे भरी वेतरणी नामक नदीमे डालते है. १४ 'खरसर' शस्त्रसेभी अति तिक्षण पत्रवाला शामली वृक्षके नीचे बैठा पत्ते डालते है. १५ 'महाघोष' अन्धेरी कोटडीमें ठसोठस भरते है. यह नाम गुण कहे. परंतु इन शिवाय औरभी अनेक तरहके दुःख, कृत कर्मके Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयशाखा-धर्मध्यान २५१ वैसेही फल देते है. जैसे मांस भक्षीको उसीका मांस तोडके खिलाते है. मदिरा पानीको तरु आ गर्म कर पि लाते हैं. पर स्त्री भोगी को लोहकी उष्ण पुतली से संगम कराते है. हिंशक जैशी तरह हिंशा करे, वैसी. ही तरह उसे मारते है. इत्यादी अनेक कष्ट दुःख नैरीये को देते है. वो बेचारे प्राधीन हो अक्रांद करते सहते है. २ आपसकी वेदना-तीसरी नर्कके आगे, यम (परमाधामी) नहीं जा शक्ते है. वो नेरीये अनेक वि. क्राल भयंकर खराब जंगली रूप बनाके, आपस में ल डते है. मरते है, हाय त्राहा करते है, ज्यों नवा कु. त्ता आनेसे दूसरे कुत्ते उस पे टूट पडते है वैसा. ३ क्षेत्र वेदना=१० प्रकारकी हैं. १ अनंत क्षुद्या-नर्कके एक जीवको सर्व भक्ष पदार्थ खिला देवे तो भी बृप्ती नहीं आय, और ताचे उम्मर खाने एक दाणा नहीं मिले. २अनंत त्रषा-सर्व जगतका पाणी पीनेसे प्यास नहीं मिटे, और पीने एक बुंदभी नहीं मिले. ३ अनंत शीत' लक्षमनका लोहेका गोला विखर जाय ऐसी ठन्ड शीत ज्योनी स्थानमें हैं. ४ 1 पहलेको ४ नर्क उग ज्योनी है Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ ध्यानकल्पतरू. अनंत उष्ण लक्षमण लोहेका गोला गलके पाणी हो जाय ऐसी गर्मी उष्ण योनी स्थानमें हैं. ५ अनंत दहा वर. ६ अनंत रोग सब रोगोसे नेरीये का सरीर व्याप्त है. ७ अनंत खाज (खुजली). ८ अनंत विशधार. ९ अनंत शोक (चिंता) १० अनंत भय. सदा भयभीत रहे. यह १० प्रकारकी वेदना स्वभावसेही है. ऐसे दुःख मय नर्क स्थानमें, अपना जीव अनंत वक्त उपजके दुःख भोगव आया है. २ "तिथंच गति” तिरछे बहुत बडनेसे तिर्यंच (पशु) कहे जाते है. ४८ भेद पृथवी काय, आप काय तेउ काय, वायू काय, इन एकेकके सुक्ष्म का प्रजाला, अप्रजाप्ता, और वादरका प्रजाप्ता, अप्रजाता, यो ४४४१६ हुयें. विनाश पतिके सुक्षम साधारण प्र. त्येक इन तीन के प्रजाप्ता, अप्रजाप्ता, दो भेद करने से. ३४२६ हुये. बेंद्री, तेंद्री, चौरिंद्री इन तीनके प्रजाता अप्रजाप्ता यो ३४२-६ भेद हुये. जलचर', 2 पंचमीसे ७ मी तक शीत ज्योनी है. 3 द्रष्टी न आवे. 4 जिस जगे जित्नी प्रजा हे, उत्नी पूरी बांधे सो प्रजाप्ता. 5 अधुरी बांधे सो, अप्रजाप्ता- 6 द्रष्टी आवसो 7 एक सरीरमे अनंत जीव वाले, 8 एक सर रमें एक जीवः 9 पाणी में रहे मच्छादिक, . Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयशाखा-धर्मध्यान. २५३ थलचर", खेंचर", उरपर", भुजपर", यह पांच सन्नी' और पांच असन्नी". इन १० के प्रजाता अ.. प्रजाता, यों १०४२=२० यह सब मिल ४८ भेद तियंच के हुये. . यह बेचारे कर्मा धीन हो परवस में पडे हैं. मट्टी को खोदते हैं. फोडते हैं. गोबरादिक मिला के निर्जीव करते हैं. पाणी को गर्म करते हैं. न्हावण, धो वण वगैरे गृह कार्यमें ढोलते हैं. क्षरादी मिलाके निजीव करते हैं. अमी को प्रजालते हैं. बुजाते हैं. पाणी मही यादी से मारते हैं. वायू पङ्खा, झाडू, खांडन. झहक, फटक, उधाडे मुख बोलना, वगैरेसे मारते है, विनशपति को छेदन, भेदन, पचन, पीलन, गालन अली मशाला वगैरे से निर्जीव करते है. बेंद्री, तेंद्री, चौरीद्री, मट्टीके पानीके हरी-लीलोत्रीके इंधनके, अना जके. वस्त्र पात्र आदीके आश्रय रहे, गमनागमन करते, आरंभ सम् भारंभ करते. धुम्रादिक प्रयोग से शीत, उश्न. वृष्टी, सें आदी अनेक तरह उपजते भी है. और मरते भी है. जलचर पाणी खुटनेसें. नवा पाणी आणे से या धीवरा दिक मारतें हैं. स्थल चर-या वनचर 10 पृथवी चले, गायादिक. 11 आकाशमेंउडे पक्षीयादि. 12 पेट रगड चले सादिक. 13. भुजसे चले उदादिक. Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ ध्यानकल्पतरू. पशु ओं बेचारे शीत, ताप, वृष्टी, भूख, प्यास सहन करतें है. काँटे, कंकर, कीचड, कीडे, वाली भोमीमें पडे जन्म पूरा करते है. घर वस्त्र रहित, हीन, दीन, गरीब अनाथ, घास फूस आदी निर्माल्य मिले जित्ला खा के संतोष करते है. ऐसे निपराधी को भी रसमधी निईयी मार डालते है. बन्धनमें डालते है. ऐसेही ग्रामके रह वासी गौ (गाय) महिषा (भैंस) दिकभी निर्माल्य वस्तु देवेंजित्नी खाके रहने वाले, खेतीयादी अनेक कालमें म. दत कर्ता दूध जैसे उत्तम पदार्थके दाता. मालिककी आज्ञामें चलने वाले गरीब बेचारेके उपर, असाह्य बजन भर देते है. कठिण बन्धन से बांधते है. कठोर प्रहार से मारते है. बहुत चलाते है. दुख से, रोग से, या थाक से, मुर्छित हो पडे हुवें को. श्वास रोक के उठातें है. खान पान पूरा नहीं देते है. और काम पूरा लेते है. और मतलब पूरा हुये. कृत्वनी कसाइ यादी कों बेंच देते है. वहां विष शस्त्र से आकले रीबा २ मारे जाते है. इन दीनो की करुणा करने वाला कौन है? ऐसी तिर्यच गति में अपना जीव अनंत वक्त उपजके दुःख भोगवने आया हैं. __३ मनुष्य गति-मनकी इच्छा मुजब साथ Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयशाखा- धर्मध्यान. २५५ कर सके सो मनुष्य के ३०३ भेद, अस्सी', मस्ती', कस्सी, यह तीन कर्म कर उपजीविका करे सो कर्म भूमी मनुष्यकी उत्पति के १५ क्षेत्र, १ भर्त, १ ऐरावत, १ महाविदेह. यह तीन क्षेत्र जंबुद्विप में और यही दो दो होनेसे ६ क्षेत्र घातकी खंडमें और यों ही ६ पुष्करार्ध द्विपमें यों ३+६+६=१५. वरोक्त तीनही प्रकारके कर्म विना दश प्रकारके कल्पवृक्ष से उपजीवका होवे. सो अकर्म भूमी मनुष्यके ३० क्षेत्र १ हेम वय २ अरण वय, ३ हरीवास, ४ रमक वास, ५ देव कुरू. ६ उत्तर कुरू, यह ६ क्षेत्र, जंबुद्विप में, येही दो दो क्षेत्र होनेसे १२ क्षेत्र घातकी खंडमें, और येही १२ क्षेत्र पुष्करार्ध द्विपमें यो ६+१२+१२ - ३०. जंबुद्विप में के चूली हेमवंत और शिखरी प्रवत मेसे आठ दाढों (खुणे) लवण समुद्रमें गइ है. उन्ह 1 हथी यार (शस्त्र) से 2 लिखने का 3 कृषाण (खेती) * १ मतंगा वृक्ष - १ मधुर रस दे २, भिंगा वृक्ष = वरतन दे. ३ तुडी यंगा वृक्ष = बाजिंत्र सुणावें ४ दिव वृक्ष = दिवा जैसा प्रकाश करें. ५ जोइ वृक्ष = सूर्य जैसे प्रकाश करे. ६ चितगा वृक्ष = विचित्र रंग के पुष्प हारदे. ७ चित रसा - इछित भोजन दे. ८ मन वेगा वृक्ष = रत्न जडित भूषण दे. ९ हिं गारा. रहने अच्छा मकान दे. १० अनि याणा वृक्ष= श्रेष्ट वस्त्र दे. ३० अकर्म भोमी और ५६ अंतर द्विप में रहने वाले मनुष्यो की इन १० कल्प वृक्ष से इच्छा पुरी हो ती हैं. Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानकल्पतरू एकेक दाडों साट २ द्विप है. तो आठ दाढोंपे ७५८ -५६ अंतर द्विपमें भी, अक्रम भुमी जैसे मनुष्य रह ते हैं यह १५+३०+५६-१०१ मनुष्यके क्षेत्र हैं, इन में जो मनुष्य होते है. उनके दो भेद अप्रजाप्ता और प्रजाता, यह २०२ हुये, और १०१ अप्रजाप्ता मनुष्य के १४० स्थानमें जो समुत्छिम (खभावसे) उत्पन्न होते है वो अप्रजापतेही मरते हैं. इस लिये. १०१ भेट उनके यो सर्व मिल ३०३ भेद मनुष्य के हुये.. - कर्म भोमी में महा विदेह छोड, बाकी के क्षेत्र में छे आरे की प्रवती मे कभी पुद्गलिक सुखकी बधी और कभी हानी होती है सदा एकसा न रहना वो भी दुःख का कारण है. और महा विदेह मे सदा चतुर्थ कल प्रवृतता है. तो वहां भी विचित्र प्रकार के मनुष्य हैं मतलब की जहां कर्म कर के उपजीका है वहां दुःख ही हैं; अस्सी हथीयारसे उपजीका . * १ उच्चार=भिष्टामें, २पासवण=मुत्रमें, ३ खेल खकारमें, ४ संघेण नाकके मेलसेडामें, ५ उत्ते=उलटीमें ६ पिते-पितमें. ७ सूए= रक्कमें, ८ पुए-रम्सी (पीरु) में, ९ सुके-सुत्र (वीर्य) में, १० सुक्के पुगल परिसरे-शुक्रके सूखे पुद्गल पीछे भीजनेसे ११ मृत्यूकलेवर पचेंद्रीके कलेवरमें, १२ स्त्री पुरुषके संयोगमें, १३ नगरके नालेमें और १४ लोक के सर्व अशुची स्थानमें (शंतल हुये तुर्त असंख्य मनुष्य उत्पन्न होते हैं) Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयशाखा-धर्मध्यान करने वाले, कसाइ होके बेचारे गरीब निरपात्री जी वोंकी घात कर, महा जब्बर पाप असजते हैं, सिपा इयो हो के अपराधी और निरपराधी को विनाकार णभी मारते हैं. किल्लेक राजादिक महो भारत समय म करते हैं, कित्येक स्वकुटुंब का संहारही कर डाल ते हैं. तो बेचारे एकेंद्रियादिकका तो कहनाही क्या? शस्त्र अनर्थकाही कारण है. शस्त्र हाथमें आयाकी प्रणाम हिंसामय हुये. मसी लिखाइ के कर्म कर उपजीविका चलाने वाले वणिकादिक कसाइ, कूजडे, कलाल, दाणेका, लोहेका, धातूका वगैरे अयोग्य वैपार कर गजा उपरांत बजन उठाये, गामडे में भटकते हैं गुलामी करतेहैं, वगैरे महा कष्ट सहतेहै. कस्सी कृषी (खेती) के कर्म में अनेक एकेंद्री से पचेंद्री तक जी. वकी घात करते हैं शीत ताप क्षुद्या तृषादी महा कष्ट सहते हैं. महा मेहनत से तीनही रुतू वितिकृत क रते हैं, अब्बी वृत मान कालकी स्थितीका ख्याल करते मालम होता हे की, द्रव्य (धन) है तो बहुत स्थान कुटंबकी अंतराय रहती है, कुटंब है तो दरिद्रता रहती है. धन कुटंब दोनो है तो संप नहीं. सरीर रोगीला, सदा क्लेश, लेने देनेका इज्जत का, वगैरे अनेक दुःख भु क्त रहे हैं. कित्नेक बेचारे गरीब है, उन को अपने पेट Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ ध्यामकल्पतरू. भरनेकी ही मुशीबत पड रही है. तो अन्य कुटम्बका निर्वाहा तो दूरही रहा, किल्लेक अंगोपांग हीन लूले, लंगडे, अन्धे, बहीरे, वगैरे है, किल्लेक अनार्य म्लेच्छ देशमें उत्पन्न हुवे; फक्त नाम मात्र मनुष्य है, उनके क में पशुसेभी खराब हैं, धर्म के नाममेंभी नहीं समजते हैं, मनुष्यका अहार करते है, वस्त्र रहित रहते है, मा त, भग्नी, पुत्रीयादी से विभचार का कुछ विचार नहीं है. जंगलमें भटक २ जन्म तेर करते है. अक्रम भूमी के क्षेत्रोंमें उत्पन्न हये मनुष्य देव कुरू उत्तर कुरू में सु खकी उत्कृष्टता हैं, हरीवास रम्यकवास में सुखकी मध्यमता है और हेमवय ऐरण्यवयमें सुखकी कनिष्टता है परंतु सर्व धर्मरहित भद्रिक प्रणामी. प्रयाय पशुकी तरह पूवे पुण्यसे प्राप्त हुये, दशकल्प वृक्षो के योग्य से सुख भोगवते है और मर जाते है. अतर द्विपमे रहने वाले मनुष्य नाम मात्र हैं पानी पे ड्रगरीयोंमें वनमे रहते हैं सरीर मनुष्य जैसा होके. किल्नेकके मुख हाथी घोडेसिंह गाय जैसे होतेहैं. यह मिथ्यात्व द्रष्टी हैं कुछ पुण्योदयसे इन्की भीइच्छा कल्प वृक्ष पूरतेहैं. समुत्छिम मनुष्य, फक्त मनुष्य अंग के पदार्थ भिषा पत्र रक्तादी में होते हैं. जिससे वो मनुष्य कहे Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीपशाखा-धर्मध्यान. २५९ जाते है परंतु द्रष्ठी नहीं आते है सुक्ष्म रुप से एक स्थान में भेलंभेल असंख्य उपजतेहै, और तुर्त मरते है. भिष्ठपेभिष्टा, मुत्रमें मुत्र, करने से वगैरे इनकी हिंशा हर वक्त होती है. ऐसें दुःखमय स्थानमें, अपन अनंत विटंबना भोग आये है. [मनुष्य जन्मकी श्रेष्टता गिनने का इलाही प्रयोजन है की, तिथंकर साधू, श्रा वक, वगैरें इसीमें होते है. और मोक्षभी मनुष्य जन्म विन नही मिल शक्ति है.] ४ देवगति-दिव्य उच्चगतिवाले सो देवता के १९८ भेद कहे है. असुर कुँवार, नाग कुँवार, सुवर्ण कँवार, विगत कुँवार. अग्नी कुँवार, उदधी कुँवार, दिशा कुँवार, द्विप कुँवार, पवन कुँवार, स्थ नी कुँवार, यह १० और १५ पहले परमाधामी [यम] देवके नाम कहे, सो २५ ही भवन पतिके जातके देवता हैं. यह पहले नर्कके आंतरे में रहते हैं. और पिशाच, भूत, यक्ष, राक्षस, किन्नर, किंपुरुष, महोरग, गंधर्व, इसीवा, भुइवा, आनपन्नी, पानपन्नी, कंदिय, महाकंदिय, कोहडं और पहं देव यह १६ व्यंतर तथा आन झमक पाणझमक, लेणझमक, सेणझमनः, वत्थ झमक, पत्त झमक, पुष्प झमक, फल झमक, बी. ... Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० ध्यानकल्पतरू. ज झमक, अभी पत्त झमक, यह १० झमक मिल २६ भेद बाण व्यंतरकी जातीमें गिने जातें है. यह पहले नर्क के उपर पृथवी के नीचे रहते हैं. चंद्र, सूर्य, ग्रह नक्षेत्र, तारा, यह.५ अढाइद्विपके अंदर चलते फिरते हैं, और इन्ही नामके ५ अढाइ द्विपके बाहिर स्थिर है. यह १० जोतषी गिने जाते हैं. १ तीन पलिये, २ तीन सागरीय ३ और तेर सागरीये, यह तीन किलमुखी नीच जातके देव हैं. १ सुधर्मा, ६ईशान, सनत कुमार, महेंद्र, ब्रम्ह, लांतक, महाशुक्र, आण, प्रण, अरण, अ. चुत यह १२ देवलोक, साइच, माइच, वरुण, वन्ही, गदतोय तुसीय, अरिठा, अगिच्छा अववाह, यह ९ लोकांतिक उच्च देव है. भद्दे सुभद्दे, सुजाय, सुमाण. से, सुदंसण, पियदंशण, आमोय, सुपडिभद्दे, जसोधर, यह ९ ग्रीवेग हैं. विजय, विजयंत जयंत. अपरजित और सवार्थ सिद्ध यह ५ अनुत्रविमान है. २५+२६+१०+ ३+१२+९+९+५ =९९ हये. इन के अप्रयाप्ता और प्रयाप्ता यह १९८ देवता के भेद हुये. * तीन पल्येकील मुखी देव, जातषी के उपा रहते हैं. तीन सागरीय, दूसर देालोक के उार तीसरेके नीचे होते हैं. तरे सागाये छट देवलोकके पास रहते है. यह विद्रुप और हीन स्थितीवाले हैं. चार तीर्थ का निंदक धर्म ठग निन्हवे इनमें अवतार लेता है. Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयशाखा-धर्मध्यान २६१ अन्यगति करते देवगति में सुखकी अधिकता है. सब वैक्रय सरीर धारी है. दिल चाहे जैसा, और दिलचाह जिले रूप बना सक्ते है. निरोगी, महा दि व्य सदा तरुण, सरीर होता है. आयुष्य जघन्य (थोडासे थोडा) दश हजार, वर्षका, और उत्कृष्ट ३३ सा गरोपम का सेंकडो हजारो वर्षमें क्षुद्या लगी के तुर्त सर्व दिशामेंसे शुभ पूद्गलोंका अहार, रोम २ से ग्रहण कर त्रप्त हो जाते है. इनके विषय सुख अन्योपम सेंकडों हजारों वर्षके होते हैं. इनके सामान्य नाटक में दो हजार वर्ष, और बड़े नाटक में १० हजार बर्ष वितिकृत हो जाते है. उनके वहां रात्री नहीं है. सदा महा प्रकाश बना रहता है. इत्यादिक सुखके देव भुक्ता है तो भी दुःखी है, क्योकि, क्षुद्या वेदनी तो लगी ही हैं. और सब देवता बरोबर एकसे नहीं है, कित्नेक इन्द्र हैं. कित्ने क तायनिक (इन्द्रके गुरुस्थानी) है. कित्नेक सामानिक [इन्द्रके बरोबरीके के] है. कित्नेक आत्म रक्षक. (प्रहरादार) हैं, किनेक प्रषादके देव है. कित्नेक अणिका (शैन्य) के देव है. गंधर्व (गायन करने वाले) देव, नाटकिये (नाचने वाले) देव, अभोगी (नोकर) देव, और प्रकीर्ण (अनेक विमान वासी) देव. ऐसे Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानकल्पतरू. १० प्रकारके देव बारे, देवलोंक लग है, इनमेंसे ज्यादा ऋद्धि धारी देव है. उन्हे देख कमी ऋद्धि वा ला देव शरमाता है. और पश्चाताप करता है, की मै ऐसा क्यो नहीं हुवा, किनेक बेविचारी देव, अन्य दे वोकी सुरूपा देवीका तथा वस्त्र भूषणका हरण करते हैं. उन्हे इन्द्र शिक्षाद्वारा बज प्रहार करते है, जिससे वो छ महिना तक महा वेदना भोगवते हैं. और भी सबसे ज्यादा दुःख मरणका है. लोभी उन्ह छोड ता नहीं है. मृत्यूके छे मांस पहले उन्हे आलस आ ने लगता है. मेहल, वस्त्र, भुषणकी ज्योती मंद भाष होती है, अच्छे नहीं लगते हे. चित्तमें भ्रम पड़ने लगता है पुष्फमाल कूमलावे. इत्याही चिन्हसे देवता अपना मृत्यू जाण, फिकरमें पड़ जाते है. की हाय ऐसे सुख को छोड अशुची स्थानमें उपजना पडेगा. इत्यादी महा शोक सागरमें डूबे हुये आयुष्य समाप्त करते है. बारे देव लोकसे उपरके देवता अहमेंद्र [स्वता मालक] है. वोभी क्षुद्रा मृत्यूकी पीडा वगैरे मानसिक दुःख भोगवते है. पांच अनुत्र विमान छोड बाकी सब स्था नमें अपना जीव अनंत वक्त उपजके मर आया है, सब तरहकी विटंबना भोगव आये हैं. ___ यह चार गतिके दुःख का संक्षेप में वरणन Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयशाखा-धर्मध्यान. किया. नर्क निगाद दुःख अपार है; एसा यह संसार दुःख से भराहै. वो सर्व दुःख अपने जीवने अं. नंत वक्त सहन किये हैं गाथा धीधी धी संसारे, देव मरिउण तिरिय होइ; assems मरिउणं राय राया,परि पश्चइ निरिय जालाए पराग्य शतक जैन. अर्थात्-किसी को एक वक्त किसी को दो वक्त धिक्कार दी जाती हैं. परंतु इस संसार को तीन वक्त धिक्कार हैं. क्यों की देवता जैसे महा ऋद्वी, म, हा सौख्य के, भुक्ता मरके; पृथवी, पाणी, विनाशपति, यादी तिर्यंच योनी में उत्पन्न होते है. और रा. जा ओं के राजा चकृवृती महाराजा मरके. नर्क में चले जाते हैं. जरा अश्चर्य तो देखीये, जो चक्रवृती मरके उ. नका जीव नर्कमें गया हैं. और उनका सरीर ह्यां पडा हैं. उसका संस्कार (स्मशाण मे लेजाणे की) क्रिया अर्चना, श्रृंगार वगैरे करते है. और नर्क में उनके जी व यम देव ताड मार करते हैं. देखीये क्या सरीर के हाल! और क्या जीव के हाल!! महान पुन्योदय से मनुष्य जन्मदी सामग्री का दुर्लभ लाभ को तूं प्राप्त हो. भव भ्रमण से छू: Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ ध्यानकल्पतरू. टने का उपाय कर. अनंत अक्षय अव्यबाध मोक्ष सुखं को प्राप्त कर. यह धर्म ध्यान ध्याता की चार अनुप्रेक्षा (विचारना) का स्वरूप कहा. इस में रमण करने से धर्म ध्यान में एकाग्रता प्राप्त होती हैं. धर्म ध्यानस्य-पुष्यफलम्. इस धर्म ध्यान में एकांतता न होने से. अर्थात् पुद्गल प्रणती की मिश्रता युक्त विचार और प्रवृती होने से. संपूर्ण कर्म की निर्जरा न होते. पुन्यकी अधिकता होती हैं. उस पुन्य फल कों भोगवने के लिये ज्यों ज्यों ध्यान की अधिकता होय त्यों त्यों उच्च स्वर्ग में निवास मिलता हैं. __ स्वर्ग (देव) लोक में उत्पन्न होने की सेज्या (पलंग) है उसपे एक देवदुष्य नामे वस्त्र ढका हुवा होता है, यांसे सरीर छोड पीछे धर्म ध्यानी का जीव उस सेज्या में जाके उत्पन्न होता हैं. और एक मु. हुर्त पीछे पूरी प्रजा बांधके उसवस्त्रकों ओढ (सरीरकों ढक) के बहेठा होजाते हैं; उसी वक्त उनके अज्ञाकित Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयशाखा-धर्मध्यान. २६५ देव देवीयों + वहां अत्यत हर्षउत्सहाके साथ एकत्रहो हाथ जोड, अंत्यत नम्रता से पूछते है; आपने क्या कर नी करी, जिससे हमारे नाथ हुये. तब वो देवछ अव धी ज्ञान से पूर्व भवका हाल जान, और देवलोककी ऋद्धिसे चकित हो, अपने पुर्वले सम्बधीयोंको चेताने उत्सुक होते हैं; तब वहां के देव कहते हैं, एक महूर्त मात्र हमारा नाटक देखके, फिर इच्छित कीजीये. वो सामान्य नाटक करते हैं, उसमें ह्यांके दो हजार वर्ष बीत जाते हैं, ह्यांके सम्बधीयों मरक्षप जाते है, और वो भी प्राप्त सुखमें लुब्ध हो जाता हैं. १ बारे देवलोकके उपरके सर्व देव अहमेंद्र है, अर्थात् सब बरोबरीके है. छोटा बडा कोइ नहीं हैं. इस लिये वहां नाटक चेटक करनेवाला कोई नहीं है. और बारमें स्वर्गके उपर जैन शुद्धाचारी विपूल ज्ञानी साधू ही जाते है. वो पहलेसेही अल्प मोही होते है. इस लिये ज्ञान ध्यान सिवाय अन्य तर्फ रुचीही मंद होती है, वो सावधान होतेही पूर्व सम्पादन किये हुये ज्ञान के ध्यानमें मशगुल हो जाते है. जिससे जिनोका उत्कृ. ष्ट ३३ सागरोपम का आयुष्य परमानंद परम सुखमें + दूसरे देवलोक के उपर देवी नहीं हैं. * देवता अवधी ज्ञान जन्मसे स्वभाविकही होता है. Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ ध्यानकाल्पतरू.. वितित हो जाता है. __ वहांसे आयुष्य पूर्ण कर मनुष्य होते हैं की जहां दशबोलका जोग होता है. ऐसे मनुष्य देवताके जघन्य ३ और उत्कृष्ट १५ भव या संख्यात भव कर सुक्ल यानी हो मोक्ष प्राप्त करते हैं. परम पूज्य श्री कहानजी ऋषिजी महाराजके सम्प्रदायके बाल ब्रम्हचारी मुनी श्री अमोलख ... ऋषिजी रचित ध्यान कल्पतरुस्य धर्मध्यान नामक तृतीय-शाखा समारं. ऋषिजी से *क्षेत्रघर, धन, पशू गौवादी, नोकर, २,३ मित्र औरन्यती बहूत होय' । उच गोत्र ५ सुन्दर सरीर रोग रहित, ७बुद्धी तिवृ८ यशवंत ९ विनयवंत (मिलापु) १० प्राक्रमी बलवंत यह १० बोलका जोग जिस जगह होय वहांपुन्यान्मा अवतार लेते है. Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपशाखा-“शुभयान” श्लोक गुप्तेन्द्रिय मनोध्याता, ध्येयं वस्तु यथास्थितम् * एकाग्रचिन्तनं ध्यानं, फल सम्वर निर्जरौ १ · अर्थ-शुद्ध ध्यानके करने वाले, पंच इन्द्रिय और मनको स्ववश अपने आधीन कर, शुद्ध वस्तुकी तर्फ एकाग्रता अभिन्नता लगाके अखंडित रह ध्यान ध्याते है. इसका फल सम्बर (आगामक पापका निलं. धन) और निर्जरा (पूर्वोपार्जित पापका क्षय) होता है; यो सर्व पापका क्षय-नाश होनेसें मोक्षके अनंत अक्षय अव्याबाध सुखकी प्राप्ती होती हैं; इस लिये मुमुक्षु ओंको शुद्धध्यान की विशेष अवश्यकता है. सोही कहता हूं. बरोक्त श्लोकमें शुद्धध्यान करनेके लिये इन्द्रि यों और मनको निग्रह करनेकी जरूर बताइ, सो इ. न्द्रियोंभी सनके स्वाधीन है, उत्तराध्ययन सूत्रमें कहा है-" एग जीय जीय पंच" अर्थात् एक मलको जीतने से पंच इन्द्रियों व हो जाती है. और भी कहा है, Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ ध्यानकल्पतरू. की "मनएव मनुष्याणाम् कारणं बन्ध मोक्षयो" अर्थात कर्मसे बन्धने वाला और छोडने वाला मनही है. ®प्रसन्नचंद्र राज ऋषिकी तरह. इस लिये मनको जीतने की अवश्यकता है *राज ग्रही नगरीके श्रेणिक महाराजा. गुणसिल बागविराजते पाणक महान हुवे श्रीमहा वीरभगवन्त के दर्शन करने लियेजातेहुवे मार्गमें एक एक प्रसन चन्द्र नामे राम ऋषि को सूर्य के महातापमे अडोल ध्याना रुर देख, अर्थयचकित होश्रीमहावीरधामी को नमस्कार कर प्रश्न पुछा की महारान दुष्कर तपके करने वाले साधुजी आयुष्यपुर्ण कर कहो जायेंगे, भगवंत-अभी मरे तो पहली नर्कमें, श्रेणिक है. पहली नर्क. भगवंत-नहीं दुसरी नर्क में, श्रणि-है दुसरी! भ.. नहीं तिपरी यों श्रेणिक अश्चर्य में आ प्रश्न करता गया और भगवंत चौथी पांचवी छट्टी जाव सातमी नर्क तक फरमा दिया. श्रेनिक ने फिर अश्चर्य हो पूछा ऐसे महा मुनी सातमी नर्कमें जाय! तब भगवंतने फरमाया नहीं छटी. थों श्रेणिक अश्चर्य घर पूछता गया और भगवंत पांचपी, चौथी, तीसरी, दूसरी, पहली भवनपति, व्यंतर जोतषी, देवलोक श्रीवके, और अनुना विमान, का नाम फरमातेही देवधुंदीका शब्द सुनाया, तब श्रेणिकने पृछा महाराज! यह धुंदवी क्यों बजी? भगवंतने फरमाया की उन प्रश्न चन्द्र राजमापीको कैवल ज्ञान की प्राप्ती हुइ! यह मुण श्रेणिक गजा अति ही अब पति हो पूछने लगा महागजनी बढी ताजुबकी बात है की, अबी को तमा नर्क फरमातथे और अबी कैवल ज्ञान प्राप्त हो गया इni कारण क्या? भगवंत-तुमारे सार्थक एक मूभटने उन मुनीको देखके का की, यह साधू Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपशाखा-शुभध्यान. २६९ असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम् । अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च ग्रह्यते भगवद्गीता अर्थ-श्री कृष्ण कहते हैं की हे अर्जुन! मनको वश करना बहुतही मुशकिल है. क्यों कि मन अती चपल है। परन्तु निरंतर अभ्याससे और वैराग्यसें मन वश में हो सकता हैं: किसीसे भी पूछ देखो की भाइ तुम मनको बडा निर्दयी है छोटेले बच्चेपे राजभर दाल आप साधू बन गया और बेचारे उस बच्चेको परचक्री सता रहा है. यह सुणतेही राजऋषि क्रोधातुर हो उस परचक्रीके साथ मनामय संग्राम करने लगे उस वक्त तेने पूछना सुरु कियाथा) अनेक शैन्यका संहार का शत्रुको मारने चक्र लेनेके लिये शिरपे हाथ डाला के ( उस वक्त साती नर्क के दलीय भेले किये थे.) रुंद मुंड मस्तक पाया! उसी वक्त चौंक ..ये भा। अ.या के अरे! मेने साधू होके यह क्या जुलम किया ? यों पश्चाताप करने लगे. (उस वक्त सं चित कमे के दलिये क्षपन लगे) त्यों त्यों उच चडती गये और शुद्ध विचारमें एकाग्र होनेसे धन घातिक कर्म नष्ट हो गये तब कैवल ज्ञान दर्शनकी प्राप्ती होगइ (शुद्ध ध्यान में इत्नी प्रबलता है। यह सुण श्रणिक राजा वडे खुशहो गये भगतको और उन राजऋषि वगैरें साधुवों को नमस्कार कर निजस्थान गये. ___+'अतिचंचल मतिमुक्ष्म सुर्दुलभ वेगवतया चतः' हेमचंद्रान अर्थात—यहमन् अती हाचंचल होके अतीमुक्ष्म हैं इस लिय इसकी गतीको रोकना मुशकिल हैं Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० ७० ध्यानकल्पतरू. वश कर सक्ते हो? तो वो येही कहेगाकी वहोतही उपाय करते हैं, परन्तु पापी मन वशमें नहीं रहता है क्या करें! ऐसे मनको वशमें करनेका सहज उपाय इस श्लोकमें कहा है की, निरंतर अभ्यास से जो वै राग्य प्राप्त करता है. वो मन वशमें कर सकेगा. पंच इन्द्रियोंके छिद्रों कर जो शब्दादी पुद्गलका प्रवेश होता है. उन्हे ग्रहण कर मन राग द्वेषमय प्रणम, सुखी दुःखी बनता है. उस राग द्वेषमें प्रणमते हुये मनको रोकना उसीका नाम वैराग्य. राग द्वेष प्रणतीमें प्रणमनेका मनका अनंत कालका स्वभाव पड रहा है. उससे एकाएक मन रुकना बहुतही मुशकिल है. इस लिये मनको रोकनेका अभ्यास करना चाहीये जैसे जोशमय आते नदीके पूरको कोइ एकदम रोकना चाहे तो कदापी नहीं रुक सकेगा! परन्तु उसे पलटानेका जो प्रयत्न करे तो हो सके. बस तैसेही म नके वेगको पलटानेके प्रयत्नकी अभ्यास की आवश्यकता हैं. वो अभ्यास ऐसा चाहीये की, जिन २ शब्दा. दी विषय मय पुगलोमें मन प्रणमें उसीही वक्त उन पुद्गलोंके स्वभाव गुण और फलके तर्फ मनको फिरा ना की यह क्षिणिक और कट्ट फलद्रप हैं. ऐसा हरव Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपशाखा - शुभध्यान. २७१ क्त अभ्यास रखनेसे मन किसी कालमें इन्द्रियों के वि षय से वृत्ती कर सकेगा. और फिर ध्यानमें मनको स्थिर करने एकाग्र ता का अभ्यास करना एकाएक मन एकाग्रहोना मुशकिलहैं परन्तु अभ्यास से वोभी हो सक्त हैं; जो जो काम अपने नित्य नियमिक हैं अवलतो उन्ही में एकाग्रता करना चाहीय प्रतिक्रमण करते होय तो उस प्रतिक्रमणके शब्दार्थादी मेही मनको गडा देना उस विचारको छोड अन्यतर्फ नहीं जाने देना एसेही सझ्या य-स्वध्याय करती वक्त स्वध्याय में व्याख्यान देती दक्त व्याख्यानमें गौचरी व आहार करती वक्त अहार. में इत्यादी सर्व दिवस रात्री सम्बधी कार्यमें सदा स. र्वकाल क्षिणंत्र रहित, मनकी एकाग्रता का अभ्यास रखना. यों कित्नेक कालतक करते २ वो सहजही एक वस्तुपे टिकने लग जाता है, फिर हरेक इष्ट पदार्थपे मनकी एकाग्रता हो सक्ती है. यों अभ्यास युक्त वैरा ग्य मनको अडोल ध्यानी बनाता है. " अब वो एकाग्रता तथा ध्यान किस वस्तुका करना सो कहता हूं. Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ ध्यामकल्पतरू. प्रथम प्रतिशाखा-"आत्मा" सूत्र “जे एगं जाणइ से सव्वं जाणेइ; जे सव्वं Nameer जाणेइ, से एगं जाणइ. आचारांग अ ३ सूत्र २०९ अर्थ-जो एकको जाणेगा, वो सबको जाणेगा और जो सबको जाणेगा वोही एकको जाणेगा! ® वो एक पदार्थ कौनसा है? और कैसा है ? की जिसको जाणने से सर्वज्ञता प्राप्त होवे! उसका स्वरूप मां दर्शाते है. वो "आत्मा" है. आत्माके ३ भेद किये हैं. १ बाहिर आत्मा, २ अंतर आत्मा, और ३ परमात्मा. प्रथम पत्र-“बाहिर आत्मा" . १ बाहिर आत्मा जो यह प्रतक्ष हाडका पिं. जर रक्त मांसादी धातुओंसे भरा हुवा, और रंगीबेरंगी चमडी करके ढका हुवा. ममुष्य या तिथंच (पशुवों) ___ *श्लोक-एको भावः सर्वथा येन द्रष्टाः, सर्वे भावाः सर्वथा तेन सष्ठः सर्व भावाः सर्वथा येन द्ष्ठा, एको भाव सर्वथा तेन द्वष्ठाः ___ अ-जिनने एक पदार्थ को प्रति पूर्ण रुपसे देखा, उनने सर्व पदार्थ प्रति पूर्ण रुपसे देखा और जिसने सर्व पदार्थ पूर्ण से देखा. ज़िनने एक पदार्थ पूर्णस देखा. हुहा-निज रूपे निज वस्तु है. पर हपे परवस्त. जिसने जाणी पैंच यह डसने जाणा समस्त. Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपशाखा-शुद्धध्यान. २७३ का सरीर; तथा अन्य अशुभ पुद्गलों (वस्तुओं) से ब. ना, नर्क निवासी जीवोंका सरीर; और शुभ पुद्गलोंसे बनाइवा, देव लोक निवासी जीवोंका सरीर, उसे वा हिर आत्माकहते हैं. अज्ञानी जीव-उसेही आत्मा मान बेठे हैं, और अपने सरीर को हाथलगा कहते हैं. मैंगोरा हूं. कालाहू, लम्बाहू, छोटा हूं, जाडाई पतलाहूं. मेरा छेदन भेदन होता है मेरे अंगोपांग दुःखते हैं, रखेमे री आत्माका विनाश होवे, और वो इन्द्रीयोंके शब्दादी विषयों के पोषण में मजा मानते हैं, में स्त्री हूं, पुरूष हं, नपुंशक हूं इत्यादी विचारसें पस्परं भोगमें आनंद मानतेहैं, हा हा करतेहैं. मतलबकीजो सरीरको आत्मा माने, सरीरके सुख दुःखसे अपना सुखदुःख मानें. सरीर की पुष्टाइसे हर्ष, और कष्टासे दुःख मानते हैं; वहीबा हिर आत्माको आत्मा मानने वाले अज्ञानी जानना शुद्ध ध्यान के ध्याता, इस अनादी भाव को मिटाने देहा ध्यास छोडने, प्रणामोकी निशुद्धी करने, विचार * श्लोक-देहात्म बुद्धिजपाप, नतदगौवध कोटीभीः आत्मा अहंबुद्धिजं, पुण्य नभूतो नभविष्यति ___अर्थ- सरीर हीको जो आत्मा मानते हैं उन्हे क्रोडो गाइयों के वध करनेवालेसेंभी अधिक पाप लगता है और मैं आत्माही हूं ऐसे विचारवालेको जित्ना पुण्य होता है वो पुण्य निकालके पुण्यसें : भी अधिकहै. Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - २७४ ज्यानकल्पतरू. करें की यह सरीर पुद्गलो के संयोग से निपजा हैं. श्री उत्तराध्ययनजी में फरमाया है की गाथा नो इंदिये गिझं अमुत्त भावा, अमुत्त भा " वा विय होइ निच्चो अझत्थ हेउ निययं सं बंधो, संसार हे उंच वयंति बंधं १९ - अर्थ-जो मूर्ती पदार्थ हैं वोही इन्द्रियों संग्रहण किये जाते हैं. और जो पदार्थ इन्द्रियोंसे ग्रहण किया जाते हैं वो जड़ होते हैं और चैतन्य तो अमूर्ती (अरूपी) हैं. उसको इन्द्रियों ग्रहण नहीं कर सक्तीहैं इसलिये वो अजड अविन्यासी नित्यहैं, अनादी देहा ध्यासके कारण से जड और चैत्यन्य सम्बंध से एकत्र रुपहो रहाहै, जैसे दूध और घृत. यह जो जडका औं र चैतन्य का सबन्ध है, सोही संसार का हेतूहैं. इस अनादी सबन्ध का निकंद करने, श्री आचारांग सूत्र मे फरमाया, "जेएग णामे, से बहुणामें; जेबहुणामेंसे एगणामे,” अर्थात्जो एक मोह (ममत्व)को नमावे सो बहूतो को नमावे, अर्थात सर्व कर्मोकों नमावे, और जो बहुत (सर्व)को नमावेगा सोही एक (ममत्व)को नमा वेगा और जेएगं विगिंचमाणे पुढोगिचइ पूढो विगिचमा णे एग विगिंचइ'अर्थात् जो एग मोहकों खपाते हैं वोसब (कर्मों)को खपातें है; और जोसर्वको खपते है. वोही Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . उपशाखा-शुद्धध्यान. २७५ एक को खपाते है-क्षय करते है. इत्यादी विचार से सरीरसे आत्म बुद्धिका त्याग कर. ममत्व उतार अंतर आत्माकी तर्फ लक्ष लगावें. द्वितीय पत्र-“अंतरात्मा". २ अंतर आत्मा अंतर आत्मा में रमण करते हये ध्यानी विचारतें हैं, में जिसे सम्बोधन करताहूं,सो फक्त लोकीक व्यवहार से करता हूं. क्यों कि आत्मा तो निष्कलंक हैं, इसे कौन संबौध सक्ता हैं. आत्मा तो आत्ममय पदार्थ को ही ग्रहण करता है. अन्यको नहीं, अन्यको तो अन्यही ग्रहण करते हैं. ऐसा भेद विज्ञान (पुद्गल और नैतन्यकी भिन्नताका जिन्हे होवे. अंतर (निजात्म स्वरूप) की तर्फ लक्ष लगे. वो अंतरा मी. जैसे अन्धकार में स्थंभका मनुष्य भाष होता है, और अन्धकारके नाश होनेसे वो यथातथ्य स्थंभका स्थंभही दिखता है. तव प्रथमका भर्म नाश होता है तैसेही भेद विज्ञान अनस्त सूर्यके प्रकाश होनेसे सरीर और आत्माका यथार्थ भाष होता है. "अंतर आत्म विज्ञानीका विचार" १ जो स्त्री पुरुषादिक की प्रयाय है, वो कर्मो Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानकल्पतरू. २७६ का स्वभाव है; चैतन्यका नहीं. चैतन्य तो निर्वेदी, निर्बिकारी है. तो फिर बीकारीक वस्तुओंकों देख. बिकारी क्यों होता है २ जो शत्रुता, मित्रता, के प्रणाम होतें है, सोही कर्म स्वभाव है. निश्चयमें तो "अप्पा मितंममितं 'च " जो अकृतसे निवृते तो अपनी आत्मज मित्र है, नहीं तो शत्रुताका साधन तो होताही है. इस विचारसे शत्रु मित्र पर व अच्छी बुरी वस्तुपर सम प्रणामी बने. राग द्वेष न करे. ३ इत्ने दिन में तो बालककी तरह अनेक चे. ष्टा करता सो अन्यका प्रेरा हुवा करताथा, न की चै तन्का क्यों कि चैतन्य तो अनंत ज्ञानादी शक्तीका धारक है. वो किसी प्रकार चेष्टा ( ख्याल समाशा ) करेइ नहीं. ४ इतने दिन अन्य पदार्थ सच्चे मालम पडतेथे, अब वोही स्वप्न और इन्द्र जाल जैसे मालम पडने लगे. फिर इसकी प्रतीत कां रही. और असत्य को सत्य माने सोही मिथ्यात्व. ५ जो परमात्माको अविन्यासी कहते है. वो मैही हूं. फिर जंगम और स्थावर से मेरा विनाश हो वे यह वैमही खोटा है. "मरे सो और, और में और' Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपशाखा-शुद्धध्यान. इस विचार से निडर बने. ६ हा! हा! अश्चर्य की, जिन्ह कामोंसे, या कारणोंसे, अज्ञानीयों कर्म का बन्ध करते हैं. उन्ही कामोंसै ज्ञानी कर्म बन्ध तोड निर्मुक्त होते है. इस विचार से सबसे ममत्व घटावें......... ७ इत्ने दिन संसारमें जो मैं रूपोकी विचित्रता पाया, सों'भेद विज्ञान के अभावलेही. पाया, अब वैसा नहीं बनूं. .. .. . . ... ... ... ८ यह जग तारक वाहण (झाज-स्टिमर) सब के सन्मुख से चले जाते हुयेभी, अनंत जीवों डूब रहे हैं. इसका एक मुख्य कारण, "भेद विज्ञानकी अज्ञान ता ही हैं.” अब मै तो उससे छूटा होवू! . ९ क्या मजा है! यह आत्मा आत्माके द्वाग. ही पहचानी जाती हैं. इसे चशमें या दुर्बीन की कुछ जरूरही नहीं यो आत्मा देखे. १० विशेष आश्चर्य तो यह हैं की-जो विषय मय पदार्थ अज्ञानियो को प्रिती उत्पन्न करने वाले होते है. वोही ज्ञानीयोंको अप्रिय दुःख दायक लगते है; और संयम तपादिक, अज्ञानीयों को अप्रिती दुःख उ स्पन्न करने बाले भाष होते है. वोही ज्ञानीयों को सुखानंद दाता भाष होते है. . . Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानकल्पतरू. ११ वोही हूं में, वोही में हूं, ऐसी एकांत भा वमा कर्ता हुवा यह आत्मा उसी पदको प्राप्त होता है, "अप्पासो परमप्पा" अर्थात आस्मा है सोही पर मात्मा है? ® उसी पदको प्राप्त होता है. और इससे ज्यादा सद्बोध कौनसा. १२ मैने मेरीही उपासना करनी सुरु करी, तो फिर मुजे अन्य उपासनाकी क्या जरूर, क्यो कि जैसे परमात्मा है, बैसाही में हूं. . १३ भेद विज्ञानी महात्माको दूक्कर तप, और महान उपसर्गसेभी किंचित मात्र क्षिन्न नहीं कर सक्ते हैं, चला नहीं सक्ते है. १४ अंतर आत्माका ध्यान रागादि शत्रुके क्षयसेही होता है. - १५ जो भ्रम रहित हो, जीव और देंहको अलग २ समजेगा, वोही कर्म बन्धन से छूट मोक्ष प्राप्त करेगा. रागादी शत्रु दूर हुये की आत्मा दिखी. १६ अज्ञान और विभमेक दूर होनेसेही आत्म तत्व भाष होता है. - १७ जिस कायाको प्राण प्यारी कर रक्खी थी, अज्ञान दूर होनेसे उसीही कायको तप संयमादी में *अन्य मती मी कहते हैं-आत्माचीनेसो परमात्मा' Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपशाखा-शुद्धध्यान. ३७९ गालने लगते है. __१८ आत्म ज्ञान विन कोरे तप करनेसे, दुःख मुक्त नहीं होता है. १९ वाहिर आत्मा वाला, रुप धन, बल सुख, इत्यादी का अहों निश ध्यान करता है. और अंतर आत्मिक इस से विरक्त हैं. _____ २० अज्ञानी फक्त बाह्य त्यागसे सिद्धी मानते हैं, और ज्ञानी बाह्य अभ्यंतर दोनो उपाधीयों त्याग नेसे सिद्धी मानते हैं, २१ अध्यात्म ज्ञानी व्यवहार साधने बचन और कायासे अन्यन्य कार्य करते भी मनसे एकांत अंतर आत्मामें ही लीन रहते हैं. २२ आत्म साधन करती वक्त, जो उपसर्ग, व. दुःख होता है. उसे अध्यात्मी दुःख नहीं समजते हैं बल्के सुखही समजते है, जैसे रोगी कटू औषधीके स्वादको न देखता गुणहीका गवेक्षी होता है. *श्लोक-नैव छिदति शास्त्राणि, नैनं दहतिपावकः . नचैनलदयं तपो, नशोषयति मारुतः ॥१॥ अर्थ- इस आत्माको तिक्षण शस्त्र छेद शक्ता नहीं है, प्रचन्ड अग्नी जलासक्तानही है, पागलासक्ता नही है औरवायू (पवन) सुकासक्ता नेहा है। तो फिर भय (डर) किसका Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० ध्यानकल्पतरू. २३ ज्ञानीको आत्म साधन सिवाय अन्य कामकी फुरसतही नहीं मिलती... ____२४ परमानन्द आत्मामें ही है. बाहिर क्या ढुं ढते हो! . २५ इच्छा है सोही संसार है, इच्छा त्यागसे संसार सहज छटता है. . ... २६ जैसे पहरे हुये वस्त्र जीर्ण होते, बेरंगी होते या नष्ट होते सरीर जीर्ण, बेरंगी, और नष्ट नहीं होता है, तैसेही सरीर और जीव जानो. . २७ अज्ञानी, मंद बुद्धीके कारणसे पर वस्तुमें मजा मानते हैं, और ज्ञानी भ्रम नष्ट होनेसे अन्तर आत्मा मेंही अनन्द मानते हैं. २८ स्थिर स्वभावीज मोक्ष पाते हैं, स्थिरता ही सम्यग दर्शनकी ऋद्धी. हैं, २९ लोकीक प्रेमसे वचनालाप, . बचना लापसे चित्त विभ्रम चित विमृम से विकलता विकलतासे चं चलता यों एक से एक दुर्गुणोकी बृधी जान, लोकीक प्रेम छोड,लोकोत्रसे लगावे. ३० जब ज्ञान होता है; तब जक्त बावला (गहले) सा दिखता है. और जब ध्यान होता है, तब वस्तुका यथार्थ स्वभाव भाषने लगता है उससे जैसा Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपशाखा-शुद्धध्यान. २८१ है. वैसाही दिखता है. अर्थात राग द्वेष नष्ट होजाता है. ३१ आत्मा आत्माके द्वारा ऐसा विचार करेकी मै आत्माही हूं. सरीरसे भिन्न हूं. ऐसा. द्रढ निश्चय होने से फिर स्वपनेमेंभी सरीर भावको प्राप्त न हो, जिस से आत्म सिद्धी होगा. ३२ जाती और लिंगकी अहंता त्यागनेसेही सिद्धी होती है. २३ जैसे बत्ती दीपकको प्राप्त हो दीपक रूप बनती है. तैसेही आत्मा सिद्धका अनुभव करनेसे सिद्ध रूप होती है. ३४ आत्माकों आराधने योग्य आत्माही है। अन्य नहीं. आत्मा आत्माका आराधन करनसेही परमात्म बने है. जैसे काष्ठसे काष्ट घसनेसे अग्नी होवे. ३५ अपन मर गये, ऐसा स्वपन आनेसेअपन मरते नहीं है, तेसही जागृत अवस्थामेंभी, आप के मरनेसे आत्मा मरती नहीं है. ३६ ज्ञानी अवसर (वक्त), शक्ती, विभाग, अभ्यास समय, विनय, स्वसमय (स्वमत) परसमय, अभीप्राय,इत्यादी विचार कर इच्छा रहित हो प्रकृतते हैं. ३७ सरीर जैसा बाहिर असार है, वैसा अंदरही है. ३८ जहां ममत्व नहीं है. वोही मुक्ती मार्ग है. Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ ध्यावकल्पतरू. ३९लोकका स्वरूप जाण,लोक सज्ञासे दूर रहना. ४० परमार्थ दर्शी, मोक्ष मार्ग शिवाय, अन्य स्थानमें रती (सुख) नहीं मानते है, वोही मोक्ष पाते हैं, . ४१ केवली भगवानको, न बन्ध है नमाक्ष में ४२ परमार्थी दर्शीको, कुछभी जोखम नहीं है. ४३ अज्ञानी सदा निद्रिस्थ है, परमार्थी सदा जाग्रत हैं. ४४ जो शब्द, रूप, गंध, रस, स्पीकी सुन्द रता असुन्दरतामें सम प्रणाम रखते है. वो ज्ञान औ र ब्रह्म (निर्विकल्प सुख) को जाण सक्ते है, ओर वोही लोकालोक को जाणते है. . ४५ कर्मको तोडने सेही, पवित्र आत्माके द. र्शन होते है.. ४६ जो अपनी तर्फ देखता हैं, वोही सर्व तर्फ देखता है. ४७ जो क्रोधको छोडेंगे, वो मानको छोडेंगे, जो मानको छोडेंगे वो मायाको छोडेंगे, जो मायाको छोडेंगे, वे लोभको छोडेगे, जो लोभको छोडेंगे, वे रागको छोडेंगे, जो रागको छोडेंगे वे देषको छोडेंगे जो द्वेषको छोडेंगे, वे मोहको छोडेंगे, जो मोहको --- . Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपशाखा-शुद्धध्यान. २८३ छोडेंगे, वे गर्भसे छूटेंगे, जो गर्भसे छूटेंगे, वे जन्मसे छूटेंगे, जो जन्मसे छूटेंगे, वे मरणसे छूटेंगे, जो मरण से छूटेंगे वे नर्क से छूटेंगे, जो नकसे छूटेंगै, वे तिर्यचसे छूटेंगे, जो तिर्यंचसे छूटेंगे, वो सर्व दुःखसे छुट परम सुखी होवेंगे. ___४८ आत्म ज्ञान विन. शास्त्र ज्ञान निकम्मा है. ४९ इन्द्रियों के सुखका त्यान कर, आत्म ज्ञान प्राप्त करते ऐसा नहीं जानना की, इन्द्रियोंके सुख छूटनेसे दुःखी बन जाता है, क्योंकि आत्म ज्ञानकी सिद्धी होते अमृत मयही संपूर्ण बन जाता है. और उन अमृतपान से जालम जन्म भरणका दुःख दूर हो जाता है. जिससे परम सुखी बन जाता है.. ५० हे आत्मन् आत्माके साथ निश्चय कर, मै अतिन्द्रिय हूं, अर्थात मेरे इन्द्रि नहीं हैं, तथा मै इन्द्रियोंके गोचर आवू ऐसा नहीं हूं. तथा इन्द्रियोका शब्दादी विषय है. सो आत्मामें नहीं है. इससे अति न्द्रिय अर्थात् इंन्द्रियातति हूं. और अनिर्देश हूं. अर्था त् बचन द्वारा मेरा वर्णन नहीं हो सक्का, इस लिये बचनातीत हूं. ऐसही मै अमुर्ती हूं. चैतन्य हूं. आनंदमय हूं. इत्यादी विचारसे.निज वरूपमें निश्चल होवे. ___ . ५१ हे आत्मन् , आत्माके साथ ऐसा विशुद्ध Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ ध्यानकल्पतरू. निर्मळ अनुभव कर की यह आत्मा समस्त लोकके यथार्थ स्वरूप को प्रगट करनें वाला अद्वितिय सूर्य है. विश्वमें सामान्य अग्नीसे दीपकका प्रकाश अधिक गिनते है, दीपकसे मशालका, मशालसे ग्यासका और ग्यास से बिजलीका प्रकाश अधिक पडता है. इन कृतिम प्रकाशसे स्वभाविक चन्द्रमा का प्रकाश अधिक है, और चन्द्रके प्रकाशसे सूर्यका प्रकाश अधिक लगता है. परंतु आत्म ज्ञानके प्रकाश तुल्यतो कोटी सूर्य भी प्रकाश नहीं कर सके हैं, अन्य दीपका दिक के प्रकाशको वायू वगैरे घातिक वस्तुका और चंद्र सूर्य को राहू बद्दल वगैरे के अच्छादन होनेसे तथा अस्त होनेसे प्रकाशका नाश होता है. परंतु आत्म ज्योतीको मेरु पर्वतको हलाने वाला वायूभी नहीं बुज सक्ता है और न बद्दल या राहू, उसे अच्छादन (ढक्कन) देसके हैं. आत्म जोती यथा रूप प्रकाशित होनेसे तीन लोकके सुक्ष्म बादर चराचर सर्व पदार्थ एक वक्त एक ही समय मात्रमें भाष होने लगते हैं, तब आत्मा परमानंदी बनता है. इत्यादी विचार में प्रवृते सो अंतर आत्मावाला जाणना. अंतर आत्माको प्राप्त हुवेही प रमात्मा होते हैं. Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपशाखा-शुद्धध्यान. २८५ तृतीय पत्र-“परमात्मा” ३ “परमात्मा” सर्व कर्म रहित अनंत ज्ञानादी अष्ठ गुण सहित सिद्धी (मुक्ति) स्थानमें संस्थित अजरामर अविकार, सिद्ध परमात्मा है, वोही परमात्मा हें. पुष्पम-फलम् - यह तीनही आत्माका ध्यान, विशेषता से अ. प्रमत मुनी को होता है. क्यों कि अप्रमत पणाही ध्यानकी विशुद्धता, उत्कृष्टता करता है. उसके जोरसे महामुनी आगे गुणस्थान रोहण सुखे २ कर, सर्वक मको क्षपाके सिद्धस्थान प्राप्त कर सक्के है. द्वितीय शाखा-“उपध्यान” चार. श्लोक पिण्डस्थंच पदस्थंच, रुपस्थं रुप वर्जितम्. 'चतुर्दा ध्यान माम्नातं, भव्यरा जीव भास्करैः ज्ञानार्णव भ० ३६. . अर्थ-१ पिण्डस्थ ध्यान. २ पदस्थ ध्यान. ३ रुपस्थध्यान. और ४ रुपातीत ध्यान. इन ४ ध्यानके ध्यानसें भव्य जीवों, कैवल्य ज्ञान रूप भास्कर (सूर्य) को प्राप्त कर सक्ते हैं. अब इनका अर्थ Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ FESSEREE २८६ ध्यानकल्पतरू. श्लोक' पदस्थं मंत्र वाक्यस्थं, पिण्डस्थं स्वात्मचिन्तम् ५ रुपस्थं सर्व चिद्रुपम् , रुपातीतं निरञ्जनम् __ब्रहद्रव्य संग्रह. अर्थ- १ मूल मंत्राक्षरोका स्मरण करना, सो पदस्थ ध्यान. २ स्व आत्मके पर्यायका विचार करना सो पिण्डस्थ ध्यान . ३ चिदृरूप अँत भगवंतका ध्यान करना सो रुपस्थ ध्यान. और ४ निरंजन निराकार सिद्ध परमात्म का ध्यान करना सो रुपातीत ध्यान. प्रथम पत्र-पदस्थ ध्यान. १ "पदस्थ ध्यान" मन्त्र (मनको त्रप्त करे ऐसे पद (वाक्य) सो इस जक्तमें मतांतरो की भिन्नताले इष्ट देवो विषय श्रधा में भी भिन्नता हो गई है. इसी सबब से भिन्न २ मतावलम्बीयों, भिन्न २ देवो के नामसे मंत्र रचना कर, उनका स्मरण करते हैं. जैसे-"उँ नमः शिवाय” “उँ नमो वासुदेवायः वगैरे. तैसे जैन मतमें माननिय, अनादी सिद्ध देवाधी देव, पंच परमेष्ठी हैं. उनका स्मरण सर्वोत्तम हैं, वो स्मरण बहुत प्रकारसे किया जाता है. यथा Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपशाखा-शुद्धध्यान. २८७ JERSEARCH गाथा पणत्तीस सोलड ठप्पण, चउ दुग मेगंच ज वह ज्झाएह, परमेठी वाचयाणं, अण्णं च गुरुवए सेण १ : द्रव्य संग्रह) अर्थात--तीस (३५) सोले (१६) अठ (८) पांच (५) चार (४) दो (२) एक (१) इस प्रमाणे अक्षरों के स्मरण से पंच प्रमैष्टी योंका अप-ध्यान हो सक्ता हैं. और इस सिवाय अन्यभी तरह, मुन्याधिक अक्षरोंके साथ प्रमाणसे पंच प्रमैष्टी का ध्यान होता हैं. सो गुरु गम्मसे धारण कर जाप करना. . ३५ अक्षरका मूल मन्त्र. . . १ २ ३ ४ ५ ६ ७ ८ ९ १० ११ १२ १३ १४ ण मो अ रि हं ता णं, ण मो सिद्धा णं, ण मो १५ १६ १७ १८ १९ २० २१ २२ २३ २४ २५ २६ २७ २८ आ य रि या णं, ण मो उ व ज्झा या णं, ण मो २९ ३० ३१ ३२ ३३ ३४ ३५ लो ए स व्व सा दूणं, षोडस (१६) अक्षरी मन्त्र. १ २ ३ ४ ५ ६ ७ ८ ९ १० ११ १२ १३ १४ 'अ रि हं त, सि द्ध, आ चा र्य, उ पा ज्झा य, १५ १६ सा हू, * इसमें पंच प्रमष्टीके नाम मात्र हैं. Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ ध्यानकल्पतरू. . 'अठ (८) अक्षरी व पंचाक्षरी (५) मन्त्र अरिहं त सिद्ध सा हू॥अ, सि, आ, उ, सा, चार, दो, और एकाक्षरी मन्त्र. सिद्ध साहू, ॥ सिद्ध ॥ ॥ इसमें भारत और सिद्धदो मूल मंत्र के पद कायम रख, पीछे के तीन पद एक साहू शब्द में लिये हैं क्यों कि आचार्य. 'पावाय, और साधू यह तीन साधू ही होते हैं. ' इसमें- 'असे अरिहन्त, 'सि' से सिद्ध. 'आ'से आचार्य 'उ, से उपाजाय. और 'सा, से साहू. योएकेक अक्षरका जाप ___इसमें 'अरिहंत' और 'सिद्ध' इन दोनो को सिद्ध पदमें लियें. क्यों कि अरहन्त भी आगे सिद्ध होने वाले हैं. उन्ह सिद्ध - कानेमें कुछ हरकत नहीं, और आचार्यादि तीन पद साधु पदमें समाये सो तो पीछे कह दिया है. _ 'सिद्ध' पद छोड बाकीके चारही पदकी मुख्य इच्छा सिद्ध पद माप्त करनेकी हैं. इस हेतूसे पांचही पदको एक सिद्ध कहने में कुछ हरकत नहीं है. ___ गाथा-'अरिहंता, असरीरा, आयरिया, उवज्झाय, मु. णिणो पंचख्वर निष्पन्नो कारो पंच पर मिठि" अर्थ-अरिहत की आदीमें 'अ' है. असरीर (सिद्ध) की आदीमें भी 'अ' है. और आचार्य के आदीमें भी 'आ' दीर्घ है. उपाज्झाय की आदीमें 'उ' हैं और मुनी (साधु) की आदीमें 'म' है, यह पांच अक्षर अ-अ-आ-उ-म्. व्याकर्ण सिद्ध. हेमचन्द्रचााये कृत शाकटायन के मुत्रसे तीनो दीर्घ 'अ' मिल एक दीर्घ 'आ' बना; तब 'आउम' ऐसा हुवा. 'आ' कार और 'उ' कार मिलनेसे 'ओ' कार होता है. और मकार विन्दूरु होनेसे ओं (*) कार सिद्ध हुवा. Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपशाखा-शुद्धध्यान. २८९ यह पंच प्रमैष्टी के जाप स्मरण की संक्षेपमें रीत बताइ. और भी इस सिवाय, शास्त्र ग्रन्थमें स्म; रण करने के मन्त्र कहे हैं. उसमे के कुछ यहां दर्शाये जाते हैं. गाथा - मङ्गाल शरणो पदनि, कुरम्बं यस्तु संयमी स्मरति. अविकल मेकाग्रधिया, सचा पवर्ग .. श्रियं श्रयति. अर्थात-मङ्गल, शरण, और उत्तम इनका जो स्मरण करते हैं, वे मुनीराज मोक्षरूप महा लक्ष्मीका आश्रय लेते है सोॐ मन्त्र चात्तारि मङ्गलं, अरहन्ता मङ्गलं, सिद्ध मङ्गलं, साहु मङ्गलं केवाल पण्णतो धम्मो मङ्गलं, चत्तारी-लोगुत्तमा-अरहन्त लोगुत्तमा, सिद्ध लोगुत्तमा, साहु लोगुत्तमा, केवलि पण्णतो धम्मो लोगुत्तमा, चत्तारि सरणं पब्वज्जामी, अरहन्त सरणं पव्वज्जामी, सिद्ध सरणं पवज्जामी साहू सरणं पवज्जामी केवलि पण्तो धम्म सरणं पव्बज्जामी. सूत्र-चउवी सत्थ एणं दसण विसोहिं जणयइ. उत्तरध्ययन. __ अर्थ-चउवी सत्थ (चतुर्वास जिनस्तव) मंत्र. अर्थात्-चौवीस जिन (तिर्थकर) की स्तुती (गुणग्रा. EEEEEE: Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९० ध्यानकल्पतरू म) करनेसे, दर्शन (सम्यक्त्व) की विशुद्धता, निर्मलता, होती हैं. वो चउवी सत्व. यह है. मन्त लोग्गस्स उज्जोयगरे, धम्म तित्थयरे जिणे अरिहंत केतइस, चउवी संपि केवली.१ उसभ माजयंच वंदे संभव माभिनंदण च सुमइंच पउमप्पहं सुपासं, जिणंच चंदुप्पहं वंदे,२ सुविहं च पुष्पदंतं शिअल सिजंच वासु पुजंच मिमल मणंतं च जिणं, धम्मं संतिं च वंदामि ३ कुंथु अरंच मल्लिं, वंदे मुणि सुव्वयं नमि जिणं च वंदामि रिठ्ठ नेमि पासंतह वद्धमाणंच ४ एवं मय अभिथ्थुया, विहुय रयमला, पहीणं जर मरणा, चउवि संपि जिणवंरा, तित्थयरा मे पसियंतु ५ कितिय वंदिय माहिया जे ए लोग्गस्स उत्तमा सिद्धा. आरुग्गं बोहिलाभं सामाहिवर मुत्तमं दितु. ६ चंदे सुनिम्मल यरा, आइच्चेसु अहियं पयास यरा, सागर वर गंभीरा, सिद्धा सिद्धीं मम दिसंतु. सूत्र-थय थुइ मंगलेणं नाण दसणं चरित्त बोहिलाभं जण यइ, नाण दंसण चरित बोहिलाभं संपणेणं जीवे, अंत किरियं कप्पां विमाणो ववत्तियं आराहणे. आराहेइ, अर्थ, थय थुइ [स्तुतीरूप] मंगल सो नमोत्थण रूप मंत्र पढनेसे ज्ञानकी निर्मलता होय. बुद्धिकी वृद्वीहोय. दंशण की निर्मलता होय सम्यक्त्व शुद्ध होए. चारित्रके गुणकी बृद्धी होए. बोद्ध बीज काला Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपशाखा-शुद्धध्यान. २९१ भ होए और ज्ञान, दर्शन, चारित्रकी शुद्धी होनेसे मोक्ष की प्राप्ती होती हैं; कदास पुण्य की बृद्धी हो जाय तो १२ देवलोक ९ ग्रेयवेक ५ अनुत्तर विमान इसमे महारिद्धिक देव होए. . मन्त्र-नमोस्थुणं, अरिहंताणं, भगवंताणं, आइगराणं, तित्थयराणं, सयं सं बुद्धाणं, पुरिसुत्तमाणं, पुरिससि हाणं पुरिसवर पुंडरियाणं, पुरिसवर गंध हत्थीणं, लोगुत्त माणं, लोग माहाणं, लोग हियाणं, लोग पइवाणं, लोगपज्जोयगराणं, अभयदयाणं, चख्खूदयाणं, मग्गदयाणं,सरणद याणं, जीवदयाणं, वोही दयाणं, धम्म दयाणं, धम्म देसियाणं, धम्म नायगाणं, धम्म सारहीणं, धम्म वर चाउरंत च कवटीणं, दीवो ताणं सरण गइ पइठा. अप्पडी हय वरनाण दंसण धराणं, वियदृ छ उमाणं, जिणाणं जावयाणं,तिनाणं तार याणं, बुध्दाणं, बोहियाणं, मुत्ताणं, मोयगाणं, सव्वन्नुणं, सव्वदरिसिणं, सिव-मयल-मरुय-मणंत-मख्खय म-बावाह, मपुणराविति. सिध्दिगइ नाम द्वेयं ठाणं संपताणं नमो जिणाणं, जिय भयाणं. (यह थय थुइ मंगलं) यह नवकार चउवीस्तव (लोरगस्स) और नमो त्थुणं यह तीन स्मरण तो यहां बताये; और इन सिवाय जित्ने जिन भाषित सुत्रों की सज्झाय (मूल पाठका पढना) तथा और भी श्रीजिनस्तव. तथा मुनीस्तव. Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९३ ध्यानकल्पतरू. वैराग्य आत्मज्ञान गार्भत. अध्यात्मिक, शांतादी रस से भरपूर. इत्यादी जो स्वव्याय परियणा रूप ज्ञान फेरना सो सब पदस्थ ध्यान जागना अनुभव युक्त पदस्थध्यान ध्यानेसे जीव परमो त्कष्ट रस में चडाहुवा महा निर्जरा करता है द्वितीय पत्र पिण्उस्थध्यान २ पिण्डस्थध्यान=पिंड=सरी में. स्थरहीहुइजो आत्मा उसकी भिन्नता का चिंतबणा सो पिणुस्थ ध्यान. गार्भत पुद्गल पिण्डमें, अलख अमूर्ती देव. फिरे सहज भव चक्रमें, यह अनादी टेव. अर्थात्-यह पिण्ड [सरीर] सप्त [७] धातूओं करके बना हुवा. महा अशुचीका भंडार, क्षिण २में पर्या यका पलटने वाला. मृगापुत्रके फरमान मुजब “वाही रोगाण आलए" अर्थात्-आधी [चिंता] व्याधीं[रोग] उपाधी [दुःख का घर, ऐसे सरीरमें अलख-जो लक्ष [अकल] में जिसका गुण न आवे. (समावे) ऐसे और अमूर्ती जो देखनेमे न आवे, ऐसे देव विराजमान हैं परन्तु अनादी कालसे जिनका फिरनेकाही स्वभाव "हे" यह पदस्थ ध्यानका बीज मंत्र' है. Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपशाखा-शुद्धध्यान. २९३. देहाध्याससे व कर्म संयोग कर हो रहा है, जिससे संसार चक्रबालमें, अनंत परिभ्रमण कर रहा है. इस का मुख्य हेतू यह है की जो जो पुद्गल की दिशा, ते निजमाने हस. याही भरम विभाव ते, बडे कर्मको वंस, जो जो जगत्में पुद्गली पदार्थ हैं, उनको अपने मान रहा है, और उनका स्वभाविक स्वभावमें पलटा पडनेसे. अर्थात् पुद्गलोंका संयोग वियोग होनेसे आपनाही संयोग वियोग समजता हैं, मतलबकी अपनी अंनत ज्ञानमय जो चैतन्य अवस्था हैं, उसको कर्मों के नशेमे छक हो भूलगया भ्रममें पड़गया; और अपना स्वभाव को छोड विभाव में राच- माच रह्या हैं, जिससे कर्मों की वृधी होती हैं और भव भृमण करणा पडता हैं. कहा है कर्म संग जीव मुढ हैं. पावे नाना रुप, कर्म रुप मलके टले. चैतन्य सिद्ध स्वरूप. यह सब कर्म की संगती काही स्वभाव हैं, न की चैतन्यका क्योंकि चैतन्य तो सिद्ध स्वरूपी परमा त्मा रूप हैं. इसका भव भ्रमणमें पडनेका स्वभाव हैं ही नही. जो होय तो सिद्ध भगवंत को भी पुनर जन्म लेनापडे. परन्तु कर्मों संयागसे मूढ हो एकेंद्रीया Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९४ ध्यानकल्पतरू, दिकयोनी में अनेक प्रकार का रूप धारन करता हैं. और जबकर्म रूप मैल दूर हुवा देहाध्यास छूटा की निजरूपको सिद्ध स्वरूप को प्राप्त होजाता हैं. संसारी जीवों को अनादी कालसे, ज्ञानावरणि यादी कर्मों का सम्बन्ध होने से, आत्मा की अनंत ज्ञानमय चैतन्य शक्ती लुप्त हुइहैं. इस लिये विभाव रूप हो रहाहैं. जैसे कीचड के संयोगसे पाणी की स्व च्छता नष्ट होती हैं, तैसे ही कर्म संयोगसे चैतन्य विभाव रुप हुवाहैं. जब भवस्थिती परिपक्व होतीहैं त ब सम्यक्त्वादी सामग्री प्राप्त होतीहैं. तब कर्म सम्बन्ध नष्ट हो शुद्ध चैतन्यता प्रगट होतीहै, उसीहीवक्त जी व सर्वज्ञाताको प्राप्त हो एक समयमें त्रिकाल के सर्व पदार्थ जानने देखने लगता हैं सिद्धा जैसा जीव हैं, जीव सोही सिद्ध होए. कर्म मैलका अता, बूजेविरला कोए कर्म पुद्गल रुप हैं. जीव रुप हैं ज्ञान. दो मिलके बहुरुप हैं बिछडे पद निर्वान. ... इस लिये यह जीव सिद्ध स्वरुपी हीहैं, क्योंकि जीव ही सिध्द पदको प्राप्तकर शक्ता हैं. अन्य नहीं. दे रइत्नीही हैं की, कर्म और जीव का मूल स्वभाव पह चानना चाहीये; कर्महैं सोपुद्गल जणितहैं, पुद्गल मय Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपशाखा-शुद्धध्यान. रुपी निर्जीव जड पदार्थहैं, और जीव ज्ञान स्वरुप अ. रुपी चेतना वंत हैं. इन दोनोका अनादी सम्बन्ध के सबबसही देहाध्यासके प्रभावसेही भवांतरों में अनेक तरहका कायारूप धारण करता है. ऐसे जानने वाले जक्तमें थोडें है. जो यह जानेंगे. वोही कर्म सम्बध तोड, निर्वाण प्राप्त करनेका उपाय करेंगे. गाथा जीवो उव ओगम ओ, अमुत्ति कत्ता सदेह परिमाणो. भोत्ता संसारत्थो सिद्धो, सो विरस सेड्डगइ. द्रव्य संग्रह. 'जीवा'=यह जीव शुद्ध निश्चयसे आदी मध्य और अंत रहित स्व तथा परका प्रकाशक, उपाधी रहित शुद्ध ज्ञान रूप निश्चय प्राणसें जीता है. तो भी अशुद्ध निश्चय नयसे, अनादी कर्म बन्धके वशसे, अशुद्ध जो द्रव्य प्राण, और भाव प्राण उनसे जीता है. १ त्रीकालमें जीवके चार प्राण होते है, { इंन्द्रियोंके अगो चर शुद्ध चैतन्य प्राण, उसके प्रति पक्षी क्षयोपशमी इन्द्रि प्राण. २ अनंत विर्य रूप बलमाण, उसका अनंत वा हिस्सा. मन 'बल' वचन बल, कायावल, माग है. ३ अनंत शुद्ध चैतन्य प्राण उससे विप्रीत आदी अंत सहित आयुप्राण है. और ४ श्वासोश्वासादि खेद रहित शुद्ध चित प्राण उससे उलठ श्वासोश्वास प्राण हैं यह ४ द्रव्य प्राण और ४ भाव प्राणसे जो जीया है. और जीवेगा वो व्यवहार नयसे जीव हैं. Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ध्यानकल्पतरू. इस लिये जीव है. 'उव ओगम ओ' शुद्ध द्रव्यार्थिक नयसे परिपूर्ण निर्मल दो उपयोग है, वैसाही जीव है; तो भी अशुद्ध नयसे क्षयोपशमिक ज्ञान और दर्शन युक्त हैं. 'अमुति' जीव व्यवहार नयसे, मुर्ती कर्माधी न. होनेसे वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, रूप, मुर्ती दिखता है; तोभी निश्चय नयसे अमूर्ती इंन्द्रियोंके अगोचर शुद्ध स्वभावका धारक है. 'कत्ता' जीव निश्चय नयसें किया रहित निरूपाधी ज्ञायकैक स्वभावका धारक है. तोभी व्यवहार नयसे मन बचन कायाके व्योपारको उत्पन्न करने वाले, कर्मों सहित होनेके सबबसे, शुभा शुभ कर्मोका कर्ता हैं. 'सदेह परिमाणो' जीव नि. श्चयसे स्वभावसे उत्पन्न शुद्ध लोकाकाशके समान असंख्यात प्रदेशका धारक है. तोभी सरीर नामक मौदय से उत्पन्न संकोच विस्तारके स्वाधीन हो. देह प्रमाणे होता हैं. जैसे दीपक भाजन प्रमाणे प्रकाश * केवल ज्ञानी आयुष्य कर्म थोडा रहे, और बेदनी आधिक रहे, तब दोनोको बराबर करने अठ समययें समुत्यात होती है. आत्म प्रदेशका १ समय चउदे राजु लोकमें उंचा नीचा का दंड. २ समय कपाट ३ समय मथन ४ समय अंतर पुरे ( उस वक्त सर्व लोकमें आत्मा व्याप जाती है.) ५ स. अंतर सारे ६ मथन सारे ७ कपाट सारे ८ मदंड सारे.. Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपशाखा-शुद्धध्यान.. २९७ कर्ता है. 'भोत्ता' जीव शुद्ध द्रव्यार्थिक नयसे, रागा दी विकल्प रहित, उपाधी से शुन्य हैं. और आत्म स्वभाव से उत्पन्न हुवा सुख रूपीअमृत को भोगवने बाला है, तोभी अशुद्ध नयसे पूर्वोक्त सुख रुप भोजन के अभावसे शुभा शुभ कर्म से उत्पन्न हुये सुख औ र दुःखका भोगवने वाला है. संसारत्थ' जीव शुद्व नि श्चय नय से संसार रहित, नित्यान्द रुप एक स्वभावका धारक हैं, तोभी अशुद्ध नय से द्रव्य- क्षेत्रकाल- भाव- और भव इन पांच प्रकार के संसार में रहत्ताहैं. सिद्धो जीव व्यवहार नय से निज आत्म की प्राप्ती स्वरूप जो सिद्धत्व हैं, उसके प्रतिपक्षी.कमोदय से असिद्ध हैं तोभी निश्चय नय से अनंत ज्ञानादी गुण के स्वभावका धारक होने से सिद्ध हैं. विस्स सोड़ गइ' जीव व्यवहार से चार गतिमे भ्रमण करने वाले कर्मोदय से उंची नीची तिरछी दीशामें गमन करने वाला हैं. तोभी निश्चय से केवल ज्ञानादी अनंत गुणोंकी प्राप्ती रुप जो मोक्ष हैं. उसमेंजाती वक्त स्वभावसेही उर्ध गमनकर्ता हैं. शुद्ध चैतन्य उज्वल द्रव, रह्यो कर्म मल छाय. तप संयमसे धोवतां, ज्ञान ज्योती बढ जाय. ऐसा जाण मुमुक्षु प्राणीयों को देह पिण्ड कर्म Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९८ ध्यानकल्पतरू. पिण्ड से आत्मा चैतन्य को अलग करने का ज्ञान यु. त तप संयम करो. कि जिससे कर्म रहीत शुद्ध, चैतन्य, ज्ञान श्वरूप बन जाय. क्यों की ज्ञानादी रत्नों का भाजन चैतन्यही है, ज्यों चांदी खटाइ से धोनेसे उज्वलता आतीहैं. तैसे चैन्तय उज्वलहो ___ ज्ञानथकी जाणे सकल, दर्शन श्रधा रूप. .... चारित थी आवत रूके, तपस्या क्षपन स्वरूप.... ज्ञान से चैतन्य की और कर्म की प्रणती पहचाने, द र्शन से उसेजिनोक्त आगम प्रमाणे सत्य श्रधे. चारि. त्रसे जीव और कर्मका अलग करनेके मार्ग लगे. और तप करके जीव और कर्म अलग करे यह उपाय. . जीव कर्म भिन्न २ करो, मनुष्य जन्मको पाय. . ज्ञानात्म वैराग्य से. धैर्य ध्यान जगाय. मनुष्य जन्ममेंही होता है. इस लिये है मोक्षार्थीयों! यह इष्टार्थ सिद्धीका अवसर मनुष्य जन्मा दी सामग्री प्राप्त हुई है तो अब वैराग्य धैर्य युक्त धारण कर ज्ञान युक्त ध्यानस्त बन जीवको कर्मसे अ लग करे.!! * जैसे स्फटिक रत्न स्वभावसेही निर्मल उज्वल होता है. परंतु उसके नीचे अन्य रक्तादी रंगका पदार्थ रखनेसे वो रंगमय दिखता है. तोही आत्मा कर्मोदय प्रमाणेही भासता हैं. परंतु है निर्मल, . Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपशाखा -शुद्ध ध्यान. २९९ यों जीव और कर्मकी भिन्नता जाणनेका, तथा उन्हे भिन्न २ करनेका उपाय संक्षेपमें कहा, औरभी ग्रंथकार कहते हैं. * पिंडस्थ ध्यानमें संस्थित होनेसे आत्माकी ज्ञान जोतीका प्रकाशित करनेका सरल उपाय एक ग्रन्थकार ऐसा कहते है की - शुभध्यानमें करें मुजव, द्रव्यादी शुभ सामुग्री युक्त ध्यानस्त हो, अंतःकरण में विचारे बाहिर श्वास निकल ते की मै स्वस्थान छो ड बाहिर आया, और पुनः अन्दर श्वास जाती वक्त विचारे की, मै अन्दर चला. यों विचारही विचारसे सिरस्थान से कंठस्थान और कंठस्थानसे नाभीकमलस्थान पे जा विराजमान होवे. और वहां स्थिर हो अन्दरको द्रष्टीको खुली कर देखने ऐसा भाषा होगा की मै नाभी कमल पेही संस्थित हूं, यो जब अपनी आ. त्माका सुक्ष्म स्वरूपका भान होवे. तब उस सुक्ष्म स्वरूपकी द्रष्टी खुल्ली कर नाभीके आजु बाजु चारही तर्फ अवलोकन करे, यों धैर्य और द्रढ निश्चयके साथ अवलोकन करनेसे जो अन्धकार देखाय तो, उसी वक्त द्रढ निश्चयसे कल्पना करे, की इस अन्धकारका शिघ्र नाश होवो, और अनंत प्रकाशी सूर्य मंडलका मेरे हृदय - में प्रकाश होवो. यों कहता हुवा सुक्षम रूपसेही आकाशकी तर्फ (उंचा) अवलोकन करे, के उसी वक्त सूर्य जैसा प्रकाश अंतःकरण में दिखने लगेगा, यों हमेशा अभ्यास रखनेसे अंतर आत्मा की ज्ञान ज्योती में दिनो दिन विशुद्धता की अधिकता होती है. और अंतरिक गुप्त वस्तुओं जाणनेमें आने लगती है और अनेक गुप्त शक्तीयों प्रगट होती है. पिण्डस्थ ध्यानमें १ तत्व के विचार करनेसे भी ज्ञान ज्योती प्रकाश होता है, ऐसा भी एक ग्रन्थकार लिखते हैं. सो ध्यानस्त Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०, ध्यानकल्पतरू. . ऐसेही पिण्डस्थ ध्यानमें "सप्त भंगीसे आत्मतत्व" विचारे.१ प्रत्येक पदार्थ अपने २ द्रव्य चतुष्टय हो, द्रढता पूर्वक पहले पृथवी तत्वका विचार करता गोलाकार पृथवी के मध्य क्षीर सागर और उसके मध्यमें जंबुद्विपका कमल ठेरावे मेरु पर्वत को किरणिका ठेहरा उस्में सिंहासनकी कल्पना कर उसपे आप बेठे. फिर दूसरा अग्नी तत्वका विचार करता. हृदयमें १६ पंखडीके कमलपे 'अ' स्वरसे लगा १६ मा अ. श्वरकी स्थापन कर मध्यमें हैं' बीज स्थापे, फ़िर विचार करे की इसमे धुम्र निकलने लगा, और महाज्वला प्रगट हो कमल को भस्म कर भक्षके अभावसे अग्नी शांत हुइ फिर ३ वायूका विचार करे के महा वायु प्रगट हो मेरुको कम्पाने लगा. और पहलेकी भस्म उडा ले गया जिससे वो जगा साफ होगइ. फिर ४ पाणी तत्व विचारे की आकाश मै गारवहो बुंद पडने लगी और महामेघ बर्षके उस स्थानको अत्यंत स्वच्छ कर दीया. और मेघ भगगया. फिर ५ मा आकाश तत्व विचारेकी अब मेरी आत्मा सप्त धातू मय पिंड रहित, पूर्ण चन्द्रके समान प्रकाशित निर्मल सर्वज्ञ देवतुल्य हुइ. यह दृढतासे निश्चयात्मक बननेसे हुबेहू बनाव द्रष्टी आता है. पा अपने २ द्रव्य चतुष्टयसे सर्व पदार्थ सत्य हैं. जैसे आत्मा ज्ञा नादी गुणका भाजन (आधार) ही हैं. परन्तु ज्ञानादी गुणों में जो समय २ में फेरफार होता है सो पर्याोका होता है, न की स्वभा वोकाः २आत्माके असंख्यात प्रदेशोमें जो ज्ञानादी गुण रहे है सोस्व क्षेत्र है. ३ पर्यायोमे जो उत्पात व्यय क्षिण २ में होता है, सो स्व काल है. और ४ आत्माके गुणोंका और पर्यायोंका जो कार्य धर्म ..हहसास्वभाव Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपशाखा-शुद्धध्यान. ३०१ (द्रव्य क्षेत्र काल भव) की अपेक्षा से असति रूपह असे आत्मा में ज्ञानादी गुण का सदा आस्तीत्व होता हैं. इस लिये ® स्यात् आस्ति होय. २ और वो. ही पदार्थ अन्य (पर) द्रव्य चतुष्टय की अपेक्षा से मा स्ति रूप हैं. जैसे आत्मा जडता (अचेतन्यता) रहित हैं, इसलिये स्यात् नास्ति होय. ३ सर्व पदार्थ अपनी २ अपेक्षा से अस्ति रूप हैं. और परकी अपेक्षासे नास्ति रुप हैं. जैसे आत्मा में चैतन्यता की अस्ति और जडता की नास्ति;इस लिये एक ही समय में स्यात् आस्ति नास्ति दोनो होय. ४ पदार्थ का स्वरू प एकांतता से जैसा का बैसा कहा नहीं जाय, क्योंकि जो आस्ति कहेंतो नास्तिका और नास्ति कहै तो आस्ति का अभाव आवे. इसलिये एक ही समय में दोनो भाव प्रकाशे नहीं जाय; केवल ज्ञानी एक समयमें वरोक्त दोनों भावकों जाणतो शक्ते है. परन्तु वाणी द्वारा वागर नहीं शक्तेहैं. तो अन्य की क्या क हना; इसलिये स्यात् अवक्तव्यं, ५ एकही समयमें आ त्मा में सर्वस्व पर्यायों का सद्भाव आस्तित्व हैं और पर पर्यायों का सद्भाव नास्तित्व हैं. और दोनो भाव * स्याद् या स्यात् शद्वका अर्य होगा' अर्थात् हां! ऐसेभी होगा ऐसा होता हैं. Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ ध्यानकल्पतरू. एकही वक्त कहें नहीं जाय, अस्तिक है तो नास्तिका आभाव आवें, मृशा लगे, इसलिये स्याद आस्ति अव क्तव्य होय ६ और इसही तराह जो नास्ति कहै तो आस्तिक अभाव आवे इसलिये स्यात् नास्ति अवक्त होय. ७ आस्ति के कहने से नास्ति का अभाव, नास्तिके कहने से आस्तिका अभाव, और पदार्थ एकही काल.मैं आस्ति नास्ति दोनो तरह हैं परन्तु कहैजाय नहीं क्यों की वाक्या तो कर्म वृती है इसलिये स्यत् आस्ति नास्ति अवक्तव्य होय यह आस्ति नास्ति अश्रिय स्यात् पाद मत से आत्माखरूप दर्शाया. .. एसेही नित्य, अनित्य; सत्य, असत्य; वगैरे अनेक रीतीसे आत्म स्वरूपके विचारमें जो निमग्न हो प्रगल पिण्ड से आत्माकी भिन्नता लेखे, निश्चय आत्मिक बने. . - यह सब पिण्डस्थ ध्यानमें चिंतवन करनेका .मनहर-पाणी हारी कुंभरु, नटवर-वृतमें, कामीको-कन्ता, सती-पती चहाइ; गौ-वच्छ, बालक-मात, लोभी-धन, चकवी-सूर्य, पपैया-मेहाइ; कोकिल-अम्ब, नेसायर-चन्द्र ज्यों, हंसो-दधी, मधू-मालती, ताइ, भयवंत-सरण,. आयकी-औषधी, 'अमोल' निजात्म त्यों नित्य ध्याइ.१ Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपशाखा-शुद्धध्यान. ३०३ मुख्य हेतु, सर्व वस्तुओंमे मन रमण करता है उससे निवार, एक आत्माके तर्फ लगानेके लियेही है. आत्माके तर्फ मन लगनेसे अन्य पुद्गलोंको ग्रहण नहीं करता हैं, जिससे नवीन कर्मका बन्ध नहीं होता है. ज्यूंने कर्म क्षिण २ में अलग हो आत्म ज्योती पूर्ण प्रकाश पाती है. तब सर्व कार्य सिद्ध होते हैं. ऐसे पिण्डस्थ ध्यानका संक्षेपमें विचार इला! ही है की, ज्ञानादी अनंत पर्याय का पिण्ड एकमै आत्मा हूं. और वर्णांदी अनंत पर्यायका पिण्ड, कर्म तथा उससे उत्पन्न हुवा सरीर है. इस लिये दोनो के स्वभाव भिन्न भिन्न होनेसे दोनो अलग २ हैं. ऐ. सा निश्चय होयसो पिण्डस्थ ध्यान. इस ध्यानसे भेद विज्ञान प्राप्त होता है. जिससे आत्म स्वभावमें, अत्यंत स्थिरता भाव युक्त, क्षांत, दांत, आदी गुण स्वभाविक जाग्रत होनेसे, सर्व भयसे निवृत्ती होती है. उन्हे महा भयंकर स्थानमें, क्षुद्र प्राणीयोंके समो. ह में या प्राणांतिक उपसर्गके प्रसंगमेभी किंचितही क्षोभ प्राप्र नहीं होता है, अखंडित ध्यानकी एकाग्रता से वो स्वल्प कालमें इष्टार्थ साधते हैं. Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ ध्यानकल्पतरू. तृतीय पत्र “रूपस्थध्यान" ३ " रुपस्थध्यान" - रुपी परत्माके गुणमें स्थिर होना' सो रूपस्थध्यान, अर्हत पाहुडमें कहा हैजे जाणइ अरिहंते, दव्व गुण पज्जवेहिय; ते जाणइ नियऽप्पा, मोह खलु जाइय लयं. अर्थात् जो अर्हत भगवंतका स्वरूप, द्रव्य, गुण, पर्याय, करके जाणेगा, वोही आत्माके स्वरूप को जाणेगा. और जो आत्माको पहचानेंगा वोही मोह कर्मका नाश करेगा. अर्हत, अरिहंत, और अरूहंत यों ३ शब्द हैं. १ देविन्द्र नरेंद्रादिक के पूज्य, व अतिशयादी ऋद्धी युक्त सो अर्हत. २ कर्म व राग द्वेषरूप शत्रुके नाश करे उन्हे, अरिहंत कहते है, और ३ जन्मांकुर, व रोगादी दुःख के अंकुरके नाश करने वालेको अरुहंत कहते है : श्री अर्हत भगवंत, अनंत-ज्ञान-दर्शनचारित्र, और अनंत तप, यह अनंत चतुष्टय कर युक्त है, समवसरण के मध्य में, अशोक वृक्षके नीचे, मणी रत्नो जडित सिंहासणके उपर, चार अंगुल अधर, छत्र, चमर, प्रभामंडल की विभूती युक्त द्वादश (१२) जात Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपशाखा-शुद्धध्यान. की प्रषदा से प्रवरे, दिव्य ध्वनी प्रकाश करते हैं, जिसका अवाज, भाद्रव के मेघ गर्जारवकी तरह, चार २ कोश में, चारही तर्फ पसरता है, जिसे श्रवण कर, अचूतेंद्र, सकेंद्र, धरणेंद्र, नरेंद्र, (चक्रवर्ती) और वृश्प ति जैसे विद्यामें प्रचूर, षड शास्त्र के परगामी, महा तेजस्वी, वकृत्वकला के धारक, महा प्रवीण प्रभूकी दि व्य ध्वनी श्रवण कर, चमत्कार पाते हैं. की हा हा ! क्या अतुल्य शक्ती ? क्या विद्या सागर, एकेक वाक्य की क्याशुद्धता मधुरता सरलता इत्यादी गुणानुराग में अनुरक्तहो, हा हा कर अत्यन्त आनन्द को प्राप्त होते हैं। जैसे क्षुद्यातुर मिष्टान भोजनकों और त्रषातुर सितो दक को ग्रहण करता हैं. तैसे ही श्रोतगण जिनेश्वर के एकेक शब्द को अत्यंत प्रेमातुरता से ग्रहण कर, हृदय को शांत करते है;परम वैराग्य को प्राप्त होते हैं, वाणी श्रवण करते सर्व काम को भुल एकाग्रता लगाते हैं. और भी भगवंत की सूर्त, मनहर ,शांत, गंभीर, महा तेजस्वी एक हजार आठ उत्तमोत्तम लक्ष णों से विभुक्षित. देदिप्य - झलझाट करती, सर्वोत्तम अत्यंत प्यारी मुद्रा के दर्शनमें लुब्ध होतेहैं. और हृदयमें कहतेहैं की, हा हा, क्या यह स्वरुप संपदा, Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ ध्यानकल्पतरू. और क्या यह अपुर्वं वैराग्यदिशा. निकामी अक्रोधी. आमानी, अमायी, अलोभी, अरागी, अद्वेषी, निर्वीकारी,निअंहकारी महा दयाल, महा मयाल, महङ्गल, म हा रक्षपाल, असरण सरण, अतरण तरण, भव दुःख वारण, जन्म सुधारण, जक्त उधारण, अत्य, अतु ल्य शक्तीके धारक, त्रिदुःख वारक, अक्षोभ, अनंत, नेत्र युक्त, पर्म निर्यामक, पर्म वैद्य, पर्म गारूडी, पर्म ज्योती, पर्म झाज, पर्मशांत, पर्म कांत, पर्म दांत पर्म महंत, पर्म इष्ट, पर्म मिष्ठ, पर्म जेष्ठ, पर्म श्रेष्ट, पर्म पंडित, धर्म मंडित, मिथ्या खंडित, पर्म उपयोगी, अत्म गुण भोगी, पर्म योगी, महा त्यागी, महा वैरागी, अचिंत्य, अगम्य, महारम्य, अनंत दानलब्धी लाभल ब्धी, भोग लब्धी, उपभोगलब्धी, और बलवीर्यलब्धी के धरण हार, क्षयिक सम्यक्त्व' यथा ख्यात चारित्र, कैवल ज्ञान, केवल दर्शण, युक्त अष्टादश (१८) दोष रहित, चौतीस अतिशय, पैंतीस वाणी गुण सहित, पर्म शुक्ल लेशी, पर्म सुक्लध्यानी, अद्वैवत भावी, परम कल्याण रूप, परम शांत रूप, परम पवित्र, विचित्र, दाता-भुक्ता, सर्वज्ञ सर्व दर्शी, सिद्ध, बुद्ध, हितै षी, महाऋषी, निरामय, (निरोग) महाचन्द्र, महासू. र्य, महा सागर, योगिंद्र, मुनिंद्र, देवाधिदेव, अचल, Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपशाखा-शुद्धध्यान. ३०७ विमल, अकलंक, अवंक, त्रिलोकतात, त्रिलोकमात त्रिलोकभ्रात, त्रिलोकइश्वर, त्रिलोकपूज्य, परम प्रतापी, परमात्म, शुद्धात्म, अनन्द कन्द, ध्वन्द निकन्द, लोकालोक, प्रकासिक, मिथ्या तिम्र विनाशिक, सत्य स्वरूपी, सकल सुखदायी, साद्वाद शैली युक्त, महा देश ना फरमाते है की, अहो भव्य ! बजो २ (चेतो २) मोह निद्रा नजो, जागो, जरा ज्ञान द्रष्टी, कर देखो, यह महान् पुन्योदयसे, अत्युत्तम मनुष्य जन्मादी स मग्री, तुमारे को प्राप्त हुई है, उसका लाभ व्यर्थ मत गमावो. ज्ञानादी त्री रत्नोसे भरा हवा अक्षय खजाना तुमारे पास है, उसे संभालो, उसीके रक्षक बनो, इसे लूटने वाले, मोह, मद, विषय, कषाय, रूप ठगारे तुमारे. पीछे लगे है, उनके फंदसे बचो, इनके प्रसंगसे अनंत भव भ्रमणकी श्रेणियों में, जो जो विप्त सही है. उसे यादकर पुनः उस दुःख सागरमें पडनेसे डरो. और बचनेका उपाय करनेकी येही बक्त हैं. जो यह हाथसे छट गइ तो पीछी हाथ लगनी महा मुशकिल है. जो इस वक्त को व्यर्थ गमा देवोगे तो फिर बहुतही पश्चाताप करोगे. यह सच्च समजो. और प्राप्त हुये दुर्लभ्य लाभ को मत गमावो. बनी वक्तमें लाभ लेना होय सो लेलो. मानो! मानो!! और विकाल मायाजाल Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानकल्पतरू. को तोड, जगतका फंद छोड, चलों हमारे साथ, होवो झुशार, हम अपना शाश्वत अविछल मोक्ष नगरमें परमानन्द परम सुख मय शाश्वत स्थान हैवहां जाते हैं. आवो जो तुमारे को आना होय तो; वोही तुमारा घर है, वहां गये पीछे, पुनरावर्तिनही करना पड़ ता है, अनंत अक्षय अव्याबाध सुखमें, अनंत काल बांही रहना होगा. चेतो! चेतो!! चेतो!!! इत्यादी अहंत भगवंतका परमोत्कृष्ट धर्मोपदेश श्रवण कर फ. रसना कर, भूत कालमें अनंत जीव मोक्षछ गये, वृतमान कालमें संख्याते जीव मोक्ष जाते है, और भविष्य कालमें अनंत जीव मोक्ष जायंगे, इस लिये है आत्म अहो! मेरी प्यारी आत्मा! तूं महा भाग्योदयसे श्री जिनेश्वर भगवान का मार्ग पाया हैं, उनके यया तथ्य गुणकी पहचान हुइ हैं. तो उन्ह जैसा होनेके लिये उनके गुणोंमे लव लगा, उन्हीके हुकम प्रमाणे चल, उन्हने किये वोही कृत्य यथा योग्य कर, उन्ही रूप * अविवहार रासीमेसे ६ महीने और ८ समयमें १०८ जीव निकलके नियम कर विवहार रासीमें आते हैं ज्यादा भी नहीं तैसे कमीभी नहीं और इत्नेही जीव विवहार गसीमेंसे निक ल मोक्ष जाते हैं. तभी तीनही कालमें निगोदके एक शरीरमें के जीवोंका एक अंश भी कमी (खाली) नहीं होता है. ऐसा मुद्रष्ट तरंगणी दिगाम्बर ग्रन्थ में लिखा है. Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपशाखा-शुद्धध्यान. ३०९ बन. तन्मय हो लवलीन होजा, जैसे स्वपन अवस्थामें द्रष्ट वस्तुकें ध्यानमें लीन हो, उसही रुप आप बन जाता है. अपनी मूल स्थिती भूल जाता है; वो तो मोह दिशा है. परंतु वैसेही ज्ञान दिशामें लव लीन हो अहंत भगवानके गुणोंमे तन्मय बन, के जिसके प्रशादसे सेरी अनंत आत्म शक्ती प्रगटे और तूही अहंत बने. .. चतुर्थ पत्र "रुपातीतध्यान' ४ 'रूपातीत ध्यान' रूपसे अतीत-रहित (अ रूपी). ऐसे सिद्ध प्रमात्माका ध्यान-चिंतवन करना सो रूपातीतध्यान. गाथा जारिरस सिद्ध सहावो, तारी सहावो सब जीवाणं तम्हा सिद्धत रुइ, कायव्वा, भव्य जीवेही. सिद्ध पाहुड. अर्थात-जैसा सिद्ध भगवंतकी आत्माका स्व रूप हैं, वैसाही सब जीवोंकी आत्माका स्वरूप है, इस लिये भव्य जीवोको सिद्ध स्वरूप में रुची करना अर्थात सिद्ध स्वरूपका ध्यान करना. गाथा जं संठाणं तुइहं, भवं चयं तस्स चरिम समयंमी आसिय पए संघणं, तं संठाण तहिं तस्स. ३ Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानकल्पतरू. दिहवाह न्संवा, जं चरिम भवे हबेज्ज सयणं, तत्तो ती भाग हीणं,सिद्धाणो गाहण भणिया.४ ___ उववाइसूत्र अर्थात्-मनुष्य जन्मके चर्म (छेले ) समयमे जिस आकारसे यहां सरीर रहता हैं; उनके आयुष्य पूर्ण हुये बाद जिवके निजात्म प्रदेश जिस आकारसे उस सरीर के लम्बाइ पणे तृतीयांस हीन ( तीसरा भाग कम, सिद्ध क्षेत्र लोकके अग्रभागमें वो प्रदेश जाके जमते है. उसेही सिद्ध भगतंकी अवगहना कही जाती हैं. __ * नाशीकादी स्थानमें जो छिद्र (खाली जगा है वो भरा-- नेसे घनाकार (निवड) प्रदेश रह जाते है. इसी सबसे तृतियांस अवघेणा कम हो जाती है सिद्धकी अबवेणा जघन्य १ हाथ ४ अंगुल मध्यम ४ हाथ १६ अंगुल, उत्कृष्ट ३३३ धनुश्य ३२ अंगुल. प्रश्न-अरुपी और अवघेणा कैसे? समाधान-(१) अरुपीको अरुपीही द्रष्टांतसे सिद्धी करें तो जैसे अकाश अरुपी है तो भी कहा है. लोकालोक ( लोकका आकाश) सादीसांत ( आदी और अंत सहित ) तथा घटाकाश मठाकाश, वगैरे तो आकाश कूछ पदार्थ हें. तभी आदी अंत होता है, तैसेही सिद्ध की अवघेणा जाणना. फरक इत्नाही की आकाश तो अरुपी अचैतन्य हे, और सिद्ध अरुपी चैतन्य हैं. (२) किसी विद्वानसे पूछा जाय की, आप जित्नी विद्या पढे हो वो हमे हस्तावल (हाथमें आवले के फल की ) माफिक बतावो; परंतु Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपशाखा-शुद्धध्यान. ३११ अब वो जीव द्रव्य कैसा हैं, सो सूत्रसे कहे हैं. "मति तत्थण गहिता, ओए अप्पति ठाणस्स खेयन्ने" अर्थात्-सिद्ध भगवंत के रूपका, या गुणका वर्णव करने 'सव्व सरा नियटुंता" अर्थात अव्यक्तव्य हैं. कोइभी शब्दमे वरणव करनेकी शक्ती नहीं है, वो बता सक्ता नहीं है. तैसेही सिद्ध भगवंतको भी “ज्ञानं स्वरूप ममलं प्रवदान्त संतः" अर्थात् संतः पुरुष निर्मल ज्ञानरूप बताते. हैं. (३) और जो रुपी पदार्थ का द्रष्टांत देवें तो मट्टीकी मुशमें मे णका पटळगा' पीतलादी धातूको रस डाल भूषणादी बणाते है वो भूषण उसमेसे निकाले पीछे मूशमे मेण (मौम) का भाष मात्र आकार रहता है. तैसेही सिद्ध भगवंतका अरुपी आकारकी अव घेणा हैं. (४) कांचमै दिखता हूवा प्रतिबिंब फक्त भाष मात्र है. तैसे सिद्धकी अवघेणा. (५) जोती स्वरूपी कहे जाते है. उसका मतलब यह है की जैसे कोटडीमें एक दीवा किया उसका प्रकाश उसमे समाजाता है, और बहुत दीवे कीये तोभी उनका प्रका श उसहो कोठडीमें समाजाता है. परन्तु वो प्रकाश क्षेत्र रोकता नहीं है. (जमीन जाडी होती नहीं हैं ) ऐसेही अनंत सिद्ध मोक्ष मे हैं. और अनंतही हो गये तोभी बिलकूल जागा रोकाती नहीं है. एक दीवेका प्रकाश जित्ने स्थलमे फैला है. वोही उसकी अव. घेणा. तैसे सिद्ध की अवघेणा जाणना. (६) सिद्ध भगवंत छद्मस्त की अपेक्षासे अरुपी हैं. (दिखते नहीं है.) परंतु केवल ज्ञानी तो देख शक्ते हैं. जो केवली देखते हैं. वोही जीव द्रव्यके आत्म प्रदेश है, और उसीकी अवघेणा समजना. इत्यादी द्रष्टांतसे सिद्ध : की अवघेणा समजना चाहीये. . . . . Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानकल्पतरू. ३१२ क्यों कि वहां तक कल्पना विचारना दोडही नहीं श क्की है. बडे २ ब्रम्हवेता सुर गुरू वृस्पति सर्वं शास्त्रों के पार गामीयों की भी बुझी हाल तक वहां न पहोंची, तो अब क्यो पहोंचेंगी, जो विशेष ही दोड करी तो इतना कह शक्तेहैं, की वहां एकला जीव कर्म कलंक व सर्व संग रहित, तत् सत् चिदात्म, अप ने ही प्रदेश युक्त विराज मान हैं वोसंपूर्ण ज्ञान मये ही हैं. और भी वो जीव कैसे हैं सो सूत्र से कहत है सूत्र - ण दीहे, ण हस्से, ण वट्टे, ण तंसे, ण चउरसे, ण परिमण्डले, ण किण्हे, न णीले, ण लोहीए, ण हळिदे. ण सुकिल्ले, ण सुरहिगंधे, ण दुरहि गंधे, ण तित्ते, ण कडु ए, ण कसाते, ण अंबिले, ण महुरे, ण कक्खडे, ण मउए, ण गुरुए, ण लहुए, ण सिए, ण उण्हे, ण णिद्वे, ण लुक्खे, ण काउ, ण रुहे, ण संगे, ण इत्थि, ण पुरिसे, ण अन्नहा, परिण्णे सण्णे उवमा ण विज्जति, अरूवी सत्ता अ. प्पयरस पयंणत्थि आचारांग सूत्र. अर्थात्-सिद्ध अवस्थाके विषय रहे हुये जीव नहीं लम्बे, नहीं ठिगणे है, नहीं लड्डू जैसे गोल हैं. नहीं तीखुण, नहीं चौखुण, नहीं चूडी जैसे मंडलाकार, नहीं काले, नहीं हरे, नहीं लाल, नहीं पीले, Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपशाखा-शुद्धध्यान. नहीं श्वत, नहीं सुगन्धी, नहीं दुर्गन्धी, नहीं मिरच जैसे तीखे, नहीं कडुवे, नहीं कसयले, नहीं खट्टे, नही मीठे, नहीं कठिण, नहीं नरम (कोमल) नहीं भा+ री (वजनदार) नहीं हलके, नहीं ठन्डे, नहीं उष्ण (ग रम) नहीं स्निगन्ध (चीकणे) नहीं लुरके इत्यादी किसी भी प्रकार के नहीं हैं. अब उनको जन्मनाभी नहीं, मरना भी नहीं, किसीका संग भी नहीं; नहीं है वो स्त्री, नहीं है पुरूष, नहीं है नपुशक, परन्तु स. र्व पदार्थके जाण पिरिज्ञाता = संपूर्ण पणे जाणते हुये, सदा स्थिरभूत विमाराजनहै, उनको ओपमा दी जाय ऐसा पदार्थ एकही जक्त में नहींहैं, क्योंकि वो तो अ रूपीहैं, और ओपमा देने लायक व बचनसे कहे जावें वो पदार्थ रूपी हैं, इस लिये अरूपी को रूपी की ओषमा छाजती नहीं हैं, और उनकी भी अवस्था किसी प्रकारके विशेषण देने लायक हैही नहीं; इस लिये ही कहा जाता कै की, उनको जान ने के लिये, बताने के लिये, कोइभी शब्द शक्तीवंत नहीं हैं. फक्त व्यक्ती रूपही गुणोचार न कर सक्तहैं. गाथा-जहा सब काम गुणियं, पुरिसो भोग भोयण कोइ तण्हा छुहा विमुक्को, अच्छेज जहा अभियोतत्त १८ Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ३१४ ध्यानकल्पतरू. इय सव्व कालातत्ते,आउलं निव्वाण मुवगया सिद्धा सासय मव्वा वाहय, वट्टइ सुही सुहं पत्तो. १९ ऊववाइ सूत्र अर्थात - यथा द्रष्टांत कोइ पुण्यवन्त, श्रीमंत सर्व प्रकार के सुख की समग्री युक्त वो इच्छित -रा गणी यादी श्रवण कर, नाटकादी अवलोकन कर, पु पादी सूंघकर, षड रस भोजन इछित भोगवकर, औ र इछित सर्व सुखों का भोगोपभोग ले कर त्रप्त हो, निश्चिंत्त सुख सेजा मे अनन्द के साथ बेठा हैं, सर्व कामना रहित संतुष्ट हुवाहें, किसी भी तरह की जिसे इच्छा न रही हैं. तैसेही सिद्ध भगवन्त सिद्ध स्थान में सर्व काम भोग से त्रप्त, निरिछित हो; अतुल्य अनोपम, अमिश्र, शाश्वत, अव्याबाध, निरामय, अपा र, सदा सुख से त्रप्त हुये की माफिक, सदा विराज मानहै. उनको कदापी कोइभी काल में, किसी भी प्रकार की, किंचित मात्र इच्छा उत्पन्न होती ही नहीं हैं, ऐसे पर्मानन्द परमसुख में अनंत काल संस्थत र. हते हैं. ऐसे २ अनेक सिद्ध परमात्माके गुण, रटन मनन निध्यासन, एकाग्रतासे लवलीन हो ध्यान करे, उस व क्त अन्य कल्पना को किंचित मात्र अपने हृदय में Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपशाखा-शुद्धध्यान. ३१५ प्रवेशही नहीं करनेदे, जिधर द्रष्ट करे, उधर वोही वो द्रष्ठ गत होए. ऐसा लव लीन हुवा जीव द्रढाभ्यास से, उसही स्वरूप को, ज्ञान द्रष्ठी कर देखने लगे, तब सिद्ध स्वरूपकी और अपने श्वरूप की तुल्यता करे, की इनमे और मेरेमें क्याफरक हैं. कुछ नहीं, जो रू. प यह है वोही यह है. मेरा निजश्वरूप ही परमात्मा जैसा है. सर्वज्ञ सर्व शक्ती वान निष्कलङ्क, निराबाध चैतन्य मात्र सिद्ध बुद्ध प्रमात्मा में ही हूं. ऐसे भेद रहित बुद्वि की निश्चलता स्थिरता होय, अपको आप सरीर रहित या कर्म कलंक रहित शुद्ध चित्त, अनन्द मय जानने लगे. ऐकांतताको प्राप्त होबे फिर द्वितिय पन बिलकुल रहे नहीं. उस समय ध्याता और ध्येय. का एकही रूप बन जाता है. __ ऐसे जिनके सर्व विकल्प दूर हो गये हैं. रागा दी दोषोंका क्षय हो गया है, जानने योग्य सर्व पदा. र्थको यथा तथ्य जानने लगे. सर्व प्रपंचोसे विमुक्त हो गये. मोक्ष स्वरूप होगये. सर्व लोकका नाथपणा जिनकी आत्मामें भाष होने लगा, ऐसे परम पुरुषको रुपातीत ध्यानके ध्याता कहीए. . . इस ध्यानके प्रभावसे, अनादी जकड बन्ध जो कर्म का बन्ध है, उसे क्षिण मात्रमे छेद, भेद, तरिक्ष Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६ . ध्यानकल्पतरू. ण केवल ज्ञान और केवल दर्शनको संपादन कर, निश्चय से मोक्ष सुख पावे. (यह ध्यान आगे कहेंगे उस सुक्लध्यान के पेटे में हैं.) ऐसे शुद्ध ध्यानके प्रभावसे ध्याता पुरुषकी आत्मा निर्मल होते अष्टऋद्धी आठ प्रकारकी आत्म शक्ती प्रगट होती है सो - १ "ज्ञान ऋद्धि” के १८ भेद-१ केवल ज्ञान, २ मय पर्यव ज्ञान, ३ अवधी ज्ञान, ४ चउदे पूर्वी, '५ दश पूर्वी, ६७ अष्टांग निमित, ७ 'बीजपुन्ही' शुद्ध क्षेत्रमें योग्य वृष्ठीसे धान्यकी बृधी होय, त्यों सहजा . नंदी आत्ममे ज्ञानकी वृधी होय. ८ 'कोष्टक बुद्धि'= ज्यो कोठारमें वस्तु विणशे नहीं, त्यो ज्ञानविणशे नहीं. तथा राजाका भंडारी भंडारमेसे वक्तोवक्त यथा योग्य * निमित के ८ अंग-१ अंतरिक्ष अकाशमें चंद्र सूर्य ग्रह नक्षत्र बादल आदी देखके, २ भूम-पृथ्वी कंपनसे (आदीसे पृथ्वी गत निध्यान जाने), ३ अंग-मनुष्यादीके अंग फरकनेसे, ४ स्वर दुर्गादी पक्षीके शब्दसे, ५ लक्षणमनुष्य पशु के लक्षण देख, ६ व्यंजन तिल मरतादी व्यंजन देख, ७ उत्पात रक्त दिशादी देख, ८ खपन-स्वपनसे, इन आठ कामोंसे होते हुये शुभाशुभ हो तब - ... को जाणे परंतु प्रकाशे, नहीं. Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपशाखा-शुद्धध्यान. ३१७ माल देवे त्यों ज्ञान देवे, ९ ६ पदानुसारणी-एक पद के अनुसारसे सर्व ग्रन्थ समज जाय. १० सभिन्न श्रुत सुक्ष्म शब्दभी सुणले, तथा एक वक्त में अनेक शब्द सुणे, ११ दुरास्वाद-भिन्न २ स्वादको एकही वक्त में जाणले, तथा दूर रहा हुवा रसको स्वादले, १२१६ श्रवण, दर्शन, घाण, स्वाद, स्पर्य, इन ५ ही इन्द्री की तिब शक्ती होवे, १७ प्रत्येक बुद्ध-उपदेशविन अन्य संयोगसे वैराग्य आवे, १८ वादीत्व श. क्ती इन्द्रादी देवका भी चरचामें पराजय करे. २ 'क्रिया ऋद्धि' के ९ भेद-१ जलचर-पाणी पें चले पर डुबे नहीं, २ अग्नी चरण अग्नीपे चले पर जले नहीं, ३-६ पुफचरक-फुलपे, पतचरण-पत्तेपे, बीजचरण-बीजपे, और तंतू चरण मकडीके जालेके तंतूपे चले पर वो बिलकुल दबे नहीं, ७ श्रेणी चरण पक्षीके तरह उडे, ८ जंघा चरण जंघाके हाथ लगानेसे और ९ विद्याचर-विद्याके प्रभावसे क्षिण मालमे अ. पदानु सारणी के तीन भेद-प्रती सारी पहले पद मिला. वे, अनुसारी-छेले पद मिलावे, उभयासारी-विचके पद मिला ग्रन्थ पूर्ण करे . " १२ जोजन तकका शब्द सुणले. पंच इंन्दीके विषयको ९ जाजनके अंतरसेही पेछान ले. Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८ ध्यानकल्पतरू. नेक योजन चले जाय. ___३ 'वेक्रय ऋद्धिके' ११ भेद-१ अणिमा-सुक्ष मसरीर बनावे. २ महिमा-चक्रवृतीकी ऋद्धि बनावे. ३ लघिमा-हवा के जैसा हलका सरीर करे, ४ गरिमा“बन जैसा भारी सरीर करे, ५प्राप्ती--पृथवीपे रहे मेरुचूल काका स्पश्यं करले. ६ प्राकाम्य:-पाणीपे पृथवीकी तरह -चले, और पाणी में डूबे. जैसे पृथवीमें डूबे, ७ ईशत्व तीर्थकरकी तरह समवसरणादी ऋद्धि बनावे, ८ वश स्व-सबको प्यारा लगे, ९ अप्रतिघात-पर्वतके अन्दर से भेदके निकल जाय. १० अन्तर्धान=अद्रश (गुप्त) हो जाय, और ११ कामरूप-इच्छित रूप बनावे. ४ तप ऋद्धि के ७ भेद-१ उग्रतप-एक उपवा स का पारणा कर दो उपवास करे दो के पारणे तीन उपवास यों जावजीव लग चडाता जया सो उ. ग्रतप, और जीवतव्यकीआशा छोड तपकरे सो उग्रोग्र तप, तथा एकांत्र उपवास करे उसमे अंतराय आ जाय तो बेले २ पारणा करे, यों चडाते जाय सो 'अ वस्थितोग्रतप' २ 'दीत्ततवे' तप करके सरीर तो दुर्बल * पारणाका जोग नहीं बने तथा अन्य कारणसे उपवासमें अंतराय भाजाय तोफिर बेले २ पारणा करे, फ़िर अंतराय आवेतो तेले २ करे यो जाबजीव चडात जाय, राय भाजाय तोकि Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपशाखा-शुद्धध्यान. . ३१९ हो जाय, परंतु सरीरसे सुगन्ध आवे. कान्ती बडे. ३ 'तत्ततवे' ज्यों तपे लोहेपे पडा हुवा पाणी सुख जाय तैसे तिव्रशूद्या लगने से थोडा अहार करे जिससे लघु नीत बडीनीत की बाधा न होवे, और देवतासे भी ज्यादा सरीरमें बल आवे. तथा अनेक लब्धीओं प्राप्त होवे. ४ 'महातप' मास क्षमण जावत् छमासी तप करे, क्षिणंतर रहित श्रुतज्ञान में तल्लीन बने रहे, जिससे परम श्रुत, अवधी, मन पर्यव ज्ञानकी प्राप्ती होवे, ५ 'घोरतप' महा वेदना उत्पन्न हुये भी किंचित ही कायरता न करे, औषध न लेवे, ग्रहण किया तप न छोडे, उग्रह (बीकट) अभिग्रह धारण करे, सरीरकी संभाल न करे, ममत्व रहित विचरे, ६ घोर पराक्रम' स्वशक्ती तप संयमके अतीशयसे जगत् त्रयको भयभ्रं त कर सके, समुद्र शोक शके और पृथवी उलटी कर शर्के इत्यादी महाशक्तीवंत होवे. ७ 'घोरगुण ब्रम्हचारी' नवबाड विशुद्ध नव कोटी युक्त शुद्ध शील वृतादीके प्रसाद से त्रण जगतके महारोगको उपशमा के शांती वरता सके, सर्व भये निवार सके, व्यंतरभय, जंगम, स्थावर विष, वगैरे उपसर्ग उनपे किंचितही असर पराभव न कर सके, यह रहे वहां मार मारी दुर्भिक्षा दी उपद्रव न होवे. इत्यादी महा प्रभाव वंत होके. Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___३२० . ध्यानकल्पतरू. ५ 'बल ऋद्धि' के ३ भेद १ मन बलीये राग द्वेष सकल्प विकल्प परिणाम रहित मन रहे, २ बचन बलीये-अन्तर महुर्तमें द्वादशांगी का अभ्यास करे, बहुत काल पढते भी श्नम पैदा न होवे, ३ 'काया बकीये--मास वर्ष पर्यंत कायुत्सर्ग करे तो भी थके नहीं। ऐसे महाशक्तीवंत. ६. औषध ऋद्धि' के ८ भेद १ आमोसही-चरण रज पग(धूल) धूलके स्पर्य से, २ खेलोसही-श्ले षम थूक आदी स्पश्यं से, ३ जलोसही-सरीरके पसी ने के स्पर्श्य से, ४ मलोसही-कर्ण चक्षु नाशीकादी सरीरके मैलके स्पर्श्य से ५ विपासही-भिष्ट मूत्रके स्प र्य से और ६ सम्बोसही-सर्व स्पर्यसे (इन ६ का स्प र्य रोगीके होनेसे उसका)सर्व रोग नाश होवे, ७ अ सीबिष-विष अमृत रूप प्रगमें तथा वचन श्रवण मात्रसे सर्व विष विरला जाय. ८ 'द्रष्टी विष'--कृपा द्रष्टी मात्रसे विष अमृत मय हो जाय और कोप कर देखे तो अभत विषमय होजाय, महा विकारी निर्विकारी ब-. ने ऐसे महा शक्तीवंत. ७ 'रस ऋद्धि' के ६ भेद-१ अस्सी विषा'कोप वंत बचन मात्र से और २ द्रष्टि विषा'-- द्रष्टी मात्र से दुसरे के शाण नाश करशके.३ खीरासवी नि Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपशाखा-शुद्धध्यान. ३२१ रस अहार हस्त स्पर्य से क्षीर जैसा होजाय, तथा बचन मत्र से निर्बल को पुष्ठ बनादे. ४ महरासवी-कटू अहार स्पर्य से मधूर होजाय, तथा बचन मधुर मद्य (सेहत) जैसे प्रगमे, (सप्पिरासवी)लुक्खा अहार स्पर्य से घ्रतसे संस्कारा जैसा होजाय, तथा बधन से रोग गमाशके, ६ अमइसवी-विष स्पर्य से अम्रत जैसा होजाय तथा बचन से जेहर उ. तार शके. ८ क्षेत्र ऋद्धि' के २ भेद अखीण माणसी अल्प अहार स्पर्य से अखट हो जाय. चक्रवृतीकी शैन्यभी जीम जाय तो खुटे नहीं, २ अखीण महालय स्पर्य मात्रसे भोजन वस्त्र पात्र सर्व अखट होय. ये सर्व १८+१+११+७+३++६+२=६४ भेद लब्धी-ऋद्धिके हुये. महातप और शुद्ध-ध्यानके प्रभावे, ऐसी २ लब्धीयों आत्म शक्तीयों, मुनीराजके प्रगट होती है, परंतु वे कदापी इनके फल की इच्छा नहीं करते है, तो फोडना-करना तो कहा रहा! श्लोक-अहो अनन्त वीर्यो अय, मात्मा विश्वप्रकाशकः त्रैलोक्यं चलायत्वे, ध्यान शक्ति प्रभावतः अर्थ-अहो ! सम्पूर्ण विश्व (जगत्) को प्रका Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ ध्यानकल्पतरू. शित करने वाली आत्मा! तेरी शक्तीका कोण वरणन कर शक्ते हैं ? तूं अनंत अपार शक्तीवंत है. जो तूं सच्चे; मनसे ध्यानमे तनमय हो कदापी अपना प्राक्रम अज मावे, तो एक क्षिणमात्रमें अधो मध्य उर्ध तीनही लो. कको हला शक्ती है!! यह तो द्रबे गुण कहे, और भा वे गुणतो अनंत अक्षय मोक्ष सुखकी प्राप्तीका करनेवाला शुद्ध ध्यान है! परम पूज्य श्रीकहानजी ऋषिजी महाराज की सम्प्रदायके बाल ब्रह्मचारी मुमी - श्री अमोलख ऋषिजी रचित ध्यान कल्पतरू ग्रन्थका शुद्ध ध्यान नामे उपशाखा समाप्त. Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थशाखा-“शुकृध्यान." सूत्र “सुक्के झाणे चउविहे चउ प्वडोयारे पन्नते तंज्जहाण अर्थांत= सुक्ल ध्यान के चार पाये, चार. लक्ष .ण, चार आलंबन, और चार अनुप्रेक्षा यो१६ भेद भ गवंतने फरमाये हैं, वो जैसे है वैसे कहते हैं. धर्म ध्यान की योग्यता से, शुद्ध ध्यान ध्याते, मुनी, अधिक गुणोकों प्राप्त होते हैं. अत्यंत शुद्धता को प्राप्त होते हैं; वह धीर, वीर मुनीस्वर शुक्ल ध्यान को ध्याते हैं. शुक्ल ध्यानीके गुण. शुक्ल ध्यानकी योग्यता जिनको प्राप्त होती है. उनकी आत्मामें स्वभाविकता से सद्गुणोंका उद्भव हो ता है वह गुण 'सागार धर्मामृत' ग्रन्थकी टीकामे इस तन्हे कहा है Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ ध्यानकल्पतरू. श्लोक-यस्यैन्द्रियाणी विषवषु निवृतत्तानि, सङ्कल्प मप्य विकल्प विकार दोषैः योगै सदा विभिहर निशितान्तरात्मा, ध्यानं तु शुक्ल मिति तत्प्रवदन्ति तज्ञः यस्यार्थम्-१ जो इन्द्रियातीत होय अर्थात् पंच इन्द्रियोंकी २३७ विषय और २४० विकार, से निवृत हो शांत बन कूमार्गमे प्रवेश करनेसे अटक गइ. २ इच्छातित-अर्थात उनका मन सर्व प्रकारकी इच्छा चहासे निवृत गया. जिससे उनके चितमें किसीभी प्र ____* पांच इन्द्रिके २३ विषय और २४० विकार-१ भूर्तेन्द्री के जीव शब्द अजीव शब्द और मिश्र शब्द यह ३ विषय. यह ३ शुभ और ३ अशुभ यों ६. इन ६ पेराग और द्वेष ये १२ विकार. २ चक्षु इन्द्रीके काला, हरा, लाल, पीला, श्वेत, यह ५ विषय. यह ५ सचित, ५ अचित, और ६ मिश्र यों १५ शुभ और १५ अशुभ यो ३० पे राग और ३० पे द्वष यह ६० विकार. ३ घणेंद्रीके सु. गंध और दूगंध ये २ विषय. यह सचित अचित और मिश्र यों ६ पे राग और ६ पे द्वेष यह १२ विकार, ४ रसेंद्रो के खट्टा, -मीठा तीखा कड, कषायला ये ५ विषय. यह सचित अचित और मिश्र ५ ये १५ शुभ और १५ अशुभ यो ३० इन ३० पे राग और ३ . पे द्वेष यों रसेंद्री के ६० विकार ५ स्पश्येन्द्री हलका, भारी शीत उष्ण रूक्ष चिक्कण नरम कठिण, ये ८ विषय यह सचित अचित मिश्र यों २४ शुभ और २४ अशुभ यों ४८ पे राग और ४८ पे द्वेष यों ९६. सर्व २३ विषय २४० विकार. Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थशाखा-शुक्लध्यान. ३२५ कार का सकल्प विकल्प (चलविचल) पणा नहीं रहा, एकांत न्याय मार्गके तर्फ लग गया. सुरांगना और सुरेन्द्रकी ऋद्धि भी उनके चित्तको क्षोभ उपजा नहीं शक्ती है, ध्यान से चला नहीं शक्ती है. तथा इस लोकमे पूजा श्लाघा, और परलोकमें देवादिककी ऋद्धि की वांछा न होवे, मेरु समान प्रणाम की धारा स्थिरी भूत हुइ है. ३ योगातीत-अर्थात मन बचन और कायाके योग्यका निरंधन किया, मनको आत्म ज्ञानमें रमा बचनविन मतलब न उचारे और काया का हलन चलन विन प्रयोगन नहीं होवे, 'ठाण ठिया एक स्थान स्थिरी भूत करे, ४ कषायातीत-क्रोधादी कषाय की लाय (अग्न) को बुजाके शांत शीतल बन गये हैं. अपमानादी मरणांतक जैसे घोर उपसर्ग होने सेभी कदापि कम्पित होना तो दूर रहा, परन्तु मनमेंभी दुभाव न लावे. ५७ क्रियातीत-अर्थात का____ *१३ तेरे क्रिया-१ मतलबसे कर्म करेसो अर्था दंड क्रिया. २ विना मतलब करे सो अनर्था दंड क्रिया. ३ जीव घात करे सो हिंशा दंड. ४ अचिंत कर्म हो जाय सो अकस्मात दंड. ५ भरमसे घात करे सो द्रष्टी विपरियासीया दंड. ६ झूट बोले सो मोषवती दंड. ७ चोरी करे सो अदत्त दान दंड. ८ अशुभ ध्यान ध्यावे मो अध्यात्मिक ९ अभीमान करे गो पायात मित्रपे द्वेष करे सो मित्र दोषवति. ११ कपट करे सो मायावति Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ ध्यानकल्पतरू. यिकादिक २५ क्रियासे उनकी निवृती हुइ है. मनदी योगले सर्व वृती बनने से बाह्याभ्यांतर क्रिया आनी सर्वथा बन्द होनेसे निष्क्रिय बने हैं. ६ द्रढ संहन. ७-शुद्ध चरित्र, जिनोक्त क्रिया करने वाले.. विशुध अपवशायी, ८ शौच विकलता रहित. ९निष्कंप--अडोल वृती. इन गुणो युक्त होवे, वे शुक्ल ध्यान कर सक ते हैं. ऐसे गुणवाले शुक्ल ध्यान ध्याते है. जिसका वरणन आगे चार विभाग करके कहते हैं. . . प्रथम प्रति शाखा-"शुक्लध्यानस्य पाय सूत्र-पुहत वीयक्केस बीयारी, एगत्त वीयके अवीयारी, सुहुम किरिय अप्पडिवाइ,समुच्छिन किरिए अणियट्टि अर्थ-१पृथक्त्व-वितर्क, २एकत्व-वितर्क, ३सुक्ष्म किया, अप्रतिपाति, और ४व्युछन्न क्रिया निवृत्ती. यह शुक्लध्यानके ४ पाये. जैसे मकानकी मजबुतीके लिये पाये (नीम) की मजबूती-पक्काइ करते है. तैसेही शुक्ल ध्यानी ध्यानकी स्थिरता रूप चार प्रकारके विचार करते है. १२ और लालच करे सो लोभवति (इन १२ क्रियासे निवृते तब) १३ मी इरिवही सुक्ष्म क्रिया केवल ज्ञानीकी. सुयगडांग द्वितिय. Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थशाखा-शुक्लध्यानः ३२७ प्रथम पत्र-“पृथक्त्व वितर्क" १पृथक्त्व विर्तक ®=जीवाजीव की पर्याय का प्रथकर (अलग२) विचार करे, आर्थात श्रुतज्ञान (शा. स्त्रोक्तरीत) से पहले जीव की पर्याय का विचार करते, अजीव की पर्याय में प्रवेश करे; और फिर अजीव की पयार्य का विचार करते, जीव की प्रायमें प्रवेश करे, नय, निक्षेपे, प्रमाण, स्वभाव, विभाव इत्यादी रीतसे भिन्न २ करके चिंतवन करे-त. था आत्मा द्रवेसे धर्मास्ता का पृथक पणा करे, द्रव्य गुण पायका भी पृथक पणा करे, आत्मा के सा.मान्य और विशेष गुणका पृथक पणा करे, एक पर्याय के भी द्रव्य गुण पर्याय का पृथक पणा चिंतवे, औ र आत्मा के अंसख्य प्ररेशों मे से एक प्रदेश को भी व्यंजन अर्थ योग से भिन्न पणा द्रव्य गुण पर्याय विचारे! योंविविध रूप से एकेक वस्तु का विचार करते उसमें प्रवेश कर, वीतर्क अनेक प्रकार के तर्क वीतर्क * पृथक-विविध प्रकार, वितर्क--श्रुत ज्ञाने विचार. अर्थातव्यंजन संक्रम सो अभिधान, उससे हुवा. २ अर्थ सक्रम अर्थका बोध और वो प्रगम. ३ योग संक्रम मनादी त्रियोगमें रमण येतीन संक्रम इस पायेमें होते है. Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८ ध्यानकल्पतरू. उपजावें, और उसका अपनेही मनसे समाधान करते जाय ऐसे उसमे तल्लीन बन, फिरे अपनी आत्मा की तर्फ लक्ष पहोंचावे, की यह प्रत्यक्ष दिखता पुद्गल पि ण्ड, और अन्दर रही आत्मा की चैतन्यता, दोनो अलग २दिखती हैं प्रत्यक्ष भाष होते हैं. परन्तु अनादी काल की एकत्रताके कारण से, वह्यमें एक रुप दिख. तेहैं, तो भी निज २ गुणमें दोनो अलगर हैं. जैसे क्षी र नीर (दुध पाणी) मिलनेसे एक रूप हो जाता है. तोभी दूध दूध के स्वभावमें है. और पाणी पाणी के स्वभावमें हैं. जो एकत्र होय तो हंसके चुंचके पुद्गल के प्रभाव से अलग २ कैसे हो जाते है. ऐसेही देह (सरीर) और जीव, तथा कर्म और जीव, ऐक्यता रूप दिखते हैं. परन्तु चैतन्य का चैतन्य गुण, और जडका जड [ण, निज २ सत्तामें अलग हैं, सो अब मुजे दोनो की पृथकताका भाष हुवा है. अब अनादी एकत्व वृतीका त्याग कर, निज चैतन्य स्वभावमें स्थि रता होवें, द्वादशांग वाणी के पाणी रूप समुद्र में गोता खावे. यह ध्यान चउदे पूर्वके पाठी कोही होता हैं यह ध्यान मन बचन काय के योगों की द्रढता से होता हैं यह ध्यान ध्याती वक्त योगो का पटला होता ही रहता है एक योगसे दूसरे में और दूसरे से, Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थशाखा-शुक्लध्यान. ३२९ तीसरे में यो योगों का पटला होताही रहताहै. विचा र पटलनेसे ही, पृथक वितर्क ध्यान इसका नाम हैं. ८, ९, १०, ११, इन गुण स्थानमें मुनीको होता हैं. इस ध्यानसे चित शांत होजाताहें, आत्मा अभ्यंत्र द्र ष्ठीको प्राप्त होता हैं, इन्द्रियों निर्वीकार होती हैं, औ र मोह का क्षय तथा उपसम होता हैं.. द्वितीय पत्र-“एकत्व वितर्क, ५एकत्व वितर्क इस का विचार पहले पाये से उलट हैं, अर्थात पहले पाये में पृथकर (अलग२)वीतर्क तर्को कही, और इसमें एकत्व ऐक्यता रूप वित के तर्कों है. यह विचार स्वभावीक होता हैं, इस पाये वाले ध्यानीयों का विचार पटता नही हैं, ए क द्रव्य कों व एक पर्याय को व एक अणुमात्र कों, चिन्तवते, उसीमें एकाग्रता लगावे, मेरू परे स्थिरी भूत हो जावें. यह ध्यान फक्त १२मे गुण स्थान में होता है, इस ध्यान में संलग्न हुये पीछे, क्षिणमात्र में मोह कर्म की प्रकृतियों का नाश करे; उसही के साथ ज्ञान वरणिय, दर्शना वर्णिय, और अंतराय, यह तीनही कर्म प्रलय होजाते हैं. अर्थात चारही घन घाती कर्म क्षपाते हैं, (यहां तेरमा गुण स्थान प्राप्त होता हैं Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० ध्यानकल्पतरू. और दूसरे पाये से आगे बढते हैं.)के उसी वक्त केव ल ज्ञान और कैवल्य दर्शनकी प्राप्ती होती हैं [कैवल ज्ञान की महिमा] यह केवल ज्ञान अपूर्व है अर्थात पहले कधीही प्राप्त नहीं हुवा, अवलही पायेहै. केवल ज्ञानी सर्वज्ञसर्व दर्शी होते हैं. सर्व लोका लोक, वाह्याभ्यतर; सुक्ष्मबादर, सर्व पदार्थ हस्तावल की तरह जानते देखते हैं, त्रिकाल के होतब को एकही स. मय मात्र में देखलेते हैं, अनंत दान लब्धी भोग लब्धी उपभोगलब्धी, लाभलब्धी, और बल वीर्य (शक्ती) लब्धी, की प्राप्ती होती है. उसी वक्त, देविन्द्र मुनिन्द्र (आचार्य) उनको नमस्कार करते हैं. [और जो उनो ने पहले के तीसरे भवमें, तीर्थंकर गोत्र की उपारज ना करी होय तो] उसीवक्त समव सरण की रचना होती हैं. उसके मध्य भाग में३४ अतिशय करके वि. राजमान होते हैं. और३५गुण युक्त वाणी का प्रका श करते हैं; उस वाणी रूप सूर्य का उदय होने से, मिथ्यत्व तिम्र (अन्धकार) का तरिक्षण नाश होता हैं और भव्य जन रूप कमलो का बन पर फूलित होता हैं, उनके सौध श्रवण से, हलु कर्मी जीव सूपन्थ ल गके भव भ्रमणरूप या संचित पापरूप कचरेको जला . के भस्म करते है और मोक्ष के सन्मुख हो मोक्ष को Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थशाखा-शुक्लध्यान. ३३१ प्राप्त करते हैं. ऐसा परमोपकार का कर्ता केवल ज्ञान हैं, केवल ज्ञानीही तीसरे पायको प्राप्त होते है.. तृतीय पत्र - "सुक्ष्म क्रिया. " ३ सुक्ष्म क्रिया - अप्रतिपाति यह तेरमें गुणस्था नमें प्रवतमे केवल ज्ञानीयों को होता हैं, सुक्ष-थोडी क्रिया-कर्म की रज रहैं, अर्थात् जैसे भुंजा हुवा अनाज खानेसे पेट तो भरा जाता है. परंतु बाया हुवा उगता नहीं हैं, तैसेही अघातीये कर्म की सत्तासें चलनादी क्रिया कर सक्ते हैं, परंतु वो कर्म भवांकुर उ न्न नहीं कर सक्ते है. आयुष्य है वहांतक है. और उनके योगसे सुक्ष्म इर्या वही क्रिया लगती है, अर्थात् मन बचन कायाके शुभ योगकी प्रवृती होते, अहार, विहार, निहारादी करतें सुक्ष्म जीवोंकी विराधना होने से क्रिया लगे, उसे पहले समय बन्धे, दूसरे समय वेदे .. और तीसरे समय निर्जरे, (दूर करे ) जैसे कांचपे लगी. हुइ रज, हवासे दूर होय; त्यों क्रिया दूर हो जाती है.. और अप्रतिपाति कहीये, आया हुवा ज्ञान पीछा जाता नहीं है; अर्थात्, मति आदी चार ज्ञान तो प्रणामों की वृधीसे बढते हैं, और हीनता से चले भी जाते हैं, परंतु केवल ज्ञान आया हुवा पीछा जाता नहीं है, और Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संपूर्णता है. इस लिये हानी बृधीभी नहीं होती है. चतुर्थ पत्र-“समुछिन्न क्रिया.' ४ समुछिन्न क्रिया-अनिवृती यह चौथा पाया चउदमें (छेले) गुणस्थान में होता है, चउदमें गुणस्था नका नाम अयोगी केवली है, अर्थात्-बो मन, बचन, कायाके योग रहित हो जाते हैं, जिससे 'समुछिन्न नित्या अर्थात-सर्व क्रिया नष्ट हो जाती है. जहां योग और लेश्या नहीं वहां क्रियाका कामही नहीं रहता हैं; वो अक्रिय होते हैं, और अनिवृती' सो शैलेसी ( मेरु पर्वत जैसी स्थिर) अवस्थाको प्राप्त होते है, जिससे वो शुद्ध चित पूणानन्द, परम विशुद्धता-निर्मलता होती है, अघातिक कर्मका नाश हो, शुद्ध चैतन्यता प्रगट हो जाती है, फिर वो उस स्वभावसे कदापि निईतत नही हैं. मोक्ष पधारे उसही स्थितीमें अनंत काल कायम बने रहते हैं, यह शुक्लध्यान का चौथा पाया. द्वितीयप्रतिशाखा-“शुक्लध्यानस्यलक्षण' सूत्र-सुक्कसणं झाणस्स चत्तारि लक्खणा पन्नंत तंज्जहा. विवेगे, विउसग्गे, अवठे, असमोहे. अर्थ-शुक्लध्यान ध्याताके चार लक्षण (पहचा Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थशाखा-शुक्लध्यान. ३३३ न) भगवंतने फरमाये सो कहते है. १ विवक्त निवृत्ती भाव, २ विउत्सर्ग-सर्व सङ्ग परित्याग, ३ अवस्थित स्थिरी भूत, और ४ अमोह-मोह ममत्व रहित. प्रथम पत्र "विवक्त' - विवक्त शुक्लध्यानीका सदा यह विचार रहता है गाथा-एगो में सासउ अप्पा, नाण दसण संजउ . सेसामें बाहिरा भावा, सव्वे संजोग लरकणा अर्थ-मै एक हूं. मेरा दूसरा कोई नहीं है. मैं दूसरे किसीका नहीं हूं. अर्थात मुजे किसीभी द्रव्यने उत्पन्न नहीं किया. जीव द्रव्य अनादी अनंत है. इस को उत्पन्न करनेकी या नाश करनेकी शक्ती, किसी भी अन्य द्रव्यमें नहीं है. तैसेही यह कधी उत्पन्नभी नहीं हुवा, क्यों कि अनादी है. और कधी नाश भी नहीं होनेका, क्यों कि अवीन्यासी और अनंत हूं. इस लियेही कहा है की “सासउ अप्पा” अर्थात् आत्मा शाश्वती हैं, जो उपजाता है, उसका नाशभी होता है, आत्मा उत्पन्न नहीं हुइ, इसी लिये इस का नाश भी नहीं है. आत्म शाश्वती है. आत्मा-असंग है. अभंग है, अरंग है, सदा एकही चैतन्यता गुणमें रमण कर्ता है. पर सङ्ग की इसे कुछ जरूरही नहीं है. आ Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ ध्यानकल्पतरू. त्मा का निज गुण ज्ञान और दर्शन है. वो अनादी अनंत है. यह ज्ञान और दर्शन कहने रूप दो है. परन्तु सङ्गत्व से एकही है. क्यों कि इकेला ज्ञान कोइ स्थान विशेष काल ठहर शक्ता नहीं है, ज्ञानके साथ ही दर्शन उत्पन्न होता है. ज्ञानका अर्थ जानना, और दर्शनका अर्थ श्रधना, ऐसा होता है, येही जीवके लक्षण हैं. इन सिवाय और जो कूछ है. सुक्ष्म (अद्रष्ट) पदार्थ, व बादर ( द्रश्य) पदार्थ यह सव चैतन्य द्रव्य से स्वभावमें और गुणमें अलग है क्यों कि “सव संजोग लक्खणं" अर्थात यह पुहल है, इससे इनमें संजोगिक विजोगिक स्वभाव सहजही है, यह इधर उधर से आके मिलभी जाते हैं, और बिछडभी जाते हैं. इनका क्या भरोसा ? ऐसा जान शुक्ल ध्यानी स्वभावसे निवृती भावको प्राप्त होते है, अन्य प्रवृतीको आत्म स्वभावमे प्रवेश करनेका अवकाश ही नहीं मि * पुल ६ प्रकारके होते है, 'बादर बादर जो टुकडे हुये पीछे आपस में नहीं मिल जैसे पत्थर काष्ट वगैरे २वादर = जो टुकडें (अ लग२) हुये पीछे मिलजाय जैसे घृत तेलदूध वगैरे बादर सुक्ष्म= दिखे परन्तु ग्रहण नही किये जाय, जैसे धूप छाया चांदनी वगैरे ४ सुक्ष्म बादर = सरीर को लगे परन्तु दिखे नहीं जैसे हवा सुगन्ध वगैरे १ सुक्ष्म = प्रमाणु ओं जो एकके दो नहीं होये ६ सुक्ष्म सुक्ष्म = कर्म वर्गणा के पुद्गल - गोमट सार Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपशाखा शुद्धध्यान. ३३५ लता है. क्यों कि वो पुद्गलीक स्वभावसे स्वभावेही अलग है. द्वितिय पत्र-"विउत्सर्ग". __ २ विउत्सर्ग-शुक्लध्यानी सदा सर्व सङ्गके त्या गी स्वभावसे ही होते हैं. श्री कपिल केवलीजीने फरमाया हैगाथा-विजहितु पुव्व संजोगं, नसिणेह कहि विकुवेजा, असिणेह सिणेह करेहिं, दोस पदोसेहिं मुच्चए भिल्लू सव्व गंथ कलहंच, विप्प जहे तहा विहं भिख्खू ... सव्वेसु काम जाएसु पास माणो न लिप्पई ताइ. ... अर्थ-सर्व ग्रन्थ-अर्थात् वा संजोग पूर्वात मात पितादिका पश्चात स्वशुर पक्षका;और अभ्यंतरराग द्वेष का तथा कषाय रूप प्रणतीका यह दोनो महा क्लेशका कारण भाष (मालम) हुवा, जिससे विप्य जहितु दो नो प्रकारके सम्बन्ध से स्वभाविकही ममत्व दूर हो गया, सम्बन्ध छूट गया. और शब्दादी सर्व काम. तथा गंधादी सर्व भोग पाश (बन्धन) जैसे मालम हो नेसे, उनसे स्वभाविकही अलिप्त हुये, राग द्वेष रहित हये, (पुव्व संजोग) यह पुवे अनादी अनंत परिभ्रमण कराने वाले सम्बन्धसे पीछा कदापि कोइभी प्रकारसे Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६ ध्यानकल्पतरू. सम्बन्ध नहीं करे, और ( असिणेह सिणेह करेहिं ) अर्थात अस्नहीयोसे वतिराग से स्नेह करे, की जो कः दापि क्लेश और बन्धन का कर्ता नहीं होता है, सदा वाह्याभ्यंतर शांती और मुक्ती का दाता है. ऐसा स. म्बन्ध स्वभाविक होनेसे सर्वथा राग द्वेष की प्रणती रहित हुये, उससे ज्ञानादी त्रि रत्नकी ज्योती स्वभा. विक ही प्रदिप्त हुइ. अनंत ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप रूप चतुष्टय भुक्ता हुये. तृतीय पत्र-"अवस्थित" . ३अवस्थित स्थिरी भूत रहैं, अनंत चतुष्टय की प्राप्ती से सर्वज्ञ, सर्व, दर्शी, निरमोही बने, अनंत शकी प्रगटी जिससे सर्व इच्छा निर मुक्त, “मेरू इव धीरा" अर्थात् ज्यों प्रचन्ड वायू से भी मेरू पर्वत च. लायमान नहीं होता हैं, तैसेही महान प्राणांतिक क. ष्ट प्राप्त हुये भी प्रणामों की धरा कदापि चलबिचल नहीं होती हैं. सदा अचल रहहै. श्री उत्तराध्येयनजी सूत्र के दूसरे अध्याय में कहा हैगाथा-समणं संजयं दंतं, हणीज्ज कोइ कत्थइ. .. नत्थीजीवरस नासति, एवं पेहाज संज्जय. उतराध्येयन, Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थशाखा-शुक्लध्यान. ३३७ अर्थात्-कवाय नष्ट होने से श्रमण हुये, स्वयं आत्मा का सधने से संयती हुये, रागादी रिपुके नष्ट होने से दमित हुये, ऐले ऋषीराज माहाराज धीराज किसीभी कर्मोदय के योग से कोइ किसी प्रकार का दुःख दे, प्राणांत होवें ऐसा उपसर्ग करे, तब वो यह विचार करें की, मेरी आत्मा अनुपसर्ग है. अखंड अविन्यासी नवंछिदनति शस्त्राणी नैवंदहति पावकं"यह आत्मा शस्त्रसे छेद भेद जाती नहीं हैं. अग्नीमे जले नहीं, पा. णी में गले नहीं. इस लिये मुजे किसा भी प्रकार का उपसर्ग कोइ भी उपजाने स्मर्थ नहीं हैं, “नत्थी जीवस्स नासत्ती” जीवका नाश कदापी हेही नहीं, इ. स लिये में अम्मर हूं. यह मनुष्य पशु या देव जिसका नाश कर ने प्रवृत हुये हैं, वो तो नाशिवंतकाही नाश करते हैं. आज कल या किसी भी अगमिक का ल में, इसका नाश जरूर ही होगा. मै ने क्रोडोयत्न किये तो रहे नहीं, ऐसा निश्चय जिन्नकी आत्मा में होने से उन को किसी भी प्रकार की बाधा पीडा दुःख मालुम पड़ताही नहीं हैं.यथा द्रष्टान्त जैसे गज सुकुमल मुनिश्वर के सिर (मस्तक) पे खीरे (अग्नीके अंङ्गारे) रखदिये. जिस से तड२ करती खोपरी जलके Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३८ ध्यानकल्पतरू. भस्म भूत होगइ, परन्तु उनोने नाक में शल्य ही न ही डाला खन्धक ऋषि राज के सर्वं सरीर की त्वचा (चमडी) जैसे मरे पशु क चर्म उदेड तैसे उदे डी (निकाल) डाली, वहां रक्तकी प्रनाल वह गइ परन्तु. उन्होने जरा सी साट (शब्द) भी नहीं किया स्क न्ध ऋषिके५०० शिष्यों कों, तैली तिल कों पीलता हैं त्यों घानी में पोल डाले, परन्तु वो नेत्र में जरालाली भी नहीं लाये, मेहतारज ऋषिवरके सिरपे आला धर्म बान्ध, धूप मे खडे कर दिये. जिससे जिनकी आँखो छिटक पडी; परन्तु मनमें जरामी दुभाव नहीं लाये, ऐसे२ अनेक दाखले शास्त्रमे दिये हुये हैं. ऐसे महान घोर उपसर्ग में प्रणामोंकी धारा जिनोने एकसी बनी रक्खी, यह सहज नहीं है. तो मोक्ष प्राप्त करनाभी सहज नहीं है. उन्ह महात्मा को यही निश्चय होगया था की “नत्थी जीवस्स नासत्थी” जीव अजरामर है. इसका नाश कदापि होताही नहीं हैं. जो जले गले हैं वो अलगही है. और मै अलगही हूं. फक्त द्रष्टा हूं ऐसे प्रणामो की स्थिरी भूत एकत्र धारा प्रवृतनेसे. उन्होने किंचित कालमे अनंत कर्म वर्गणाका क्षय कि या. अनंत, अक्षय, अव्याबाध मोक्षके सुख प्राप्त किये. .. Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थशाखा-शुक्लध्यान. ३३९ चतुर्थ पत्र-“अमोह". .४ अमोह-अर्थात् शुक्लध्यानी स्वभाव सेही मोह रहित निर्मोही होते है. “मोह बन्धति कर्माणी, निर्मोहो वीमुच्यते” अर्थात्-मोह कर्म बन्ध करता हैं और निर्मोहपणा कर्म के बन्धन से छुडाता है, ऐसा निश्चय होनेसे शुक्लध्यानी के निर्मोही अवस्था स्वभाव सेही प्राप्त हो जाती है, मोह उत्पन्न करने जैसा कोइ भी पदार्थ उनको भाष नहीं होता है. उत्तराध्येयनजी सुलमें चितमुनीश्वरने कहा है. गाथा-सव्वं विलं वियं गीय, सव्वं नर्से वीडं वियं; सव्वं आभरण भारा, सव्वे काम दुहा वहा.. अर्थात="सर्व गीत-गायन है सो विलाप जैसे हैं,” क्यों कि विलाप शब्दका और गीत शब्दका उ. त्पन्न होनेका और समाव होनेका स्थान एकही है. [मुख और कान] और दोनोही राग द्वेषकी प्रणतीसे पूर्ण है, गायन भी प्रेम का दर्शक और उदासी का दर्शक दोनो सरहका होता है. तैसेही रूदनभी प्रेम दर्शक और उदासी दर्शक दोनो तरहका होता है, यह भाव मोह गीर्ध जीवके मानने उपर है. गीतों मोह मद से भरे हुये, कर्म वीकार से उद्भवे हुये, चितको Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० - ध्यानकल्पतरू.. विचित्रता उपजाने वाले, इत्यादी अनेक असद्भावका कारण है. ऐसा जाण या कैवल ज्ञानसे प्रत्यक्ष देख, देवता, किन्नर या मनुष्यादी सम्बन्धी गीत श्रवण क रते हुयेभी स्वभावसे किंचित राग द्वेषको प्राप्त नहीं होते हैं. सर्व नृत्य-नाटक हो रहें हैं सो विटंबना मात्र है. जैसी वीटंबना जीवोंकी चतुर्गति परिभ्रमण में हो ती हैं, वैसीही बीटंबना कर्माधीन हो बेचारे करते है. कधी पुरुष, कधी स्त्री, कधी उंच, कधी नीच, ऐसा अनेक विचित्र रूप धारण कर अनेक जनके वृन्दमें या अनेक देवोके वृन्दमें हांस रुदन नृत्य आदी कर बताते है, और भवोंकी विचित्रता को अल दोनो (नतिक और प्रेक्षक) हर्षानन्द में गर्क होते है, जाण चतुरगतिकी विटम्बना सेही त्रत नहीं हुये. सो अब स्वतः नाच या नृत्य देख ऋती करते है, यह विटम्बना जग की देख सर्व जगत्का नाटक ज्ञान कर देख हुयेभी राग द्वेषमय नहीं होते है, “सर्व आभरण-भूषण भार (बजन) भूत हैं" पृथवीसे उत्पन्न कंकर पत्थर लोहदिक सामा न्य धातू और पृथवीसेही उत्पन्न हुये रजत ( चांदी) सुवर्णं या हीरा पन्ना रत्नादी पदार्थ उत्पन्न होते हैं. ऐसे दोनो एक से भार भुत होते भी. सरागी जीवों कंकर पत्थर का वजन देने से दुःख मानते हैं. और Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुयशाखा-शुक्लप्यान. २०९ सुवर्ण रत्नके भूषणों से लदे हुये फिरते हर्ष मानतेहै. वितरागी पुरूष यथार्थ द्रष्टी से देखते हुये विभुषित पे और नग्न पे स्वभाव से ही रागद्वेष रहित मध्यस्थ भवमें रहते हैं. और जित्ने जक्तमें दुःख है, वे सब काम भोग से ही उत्पन्न होते हैं और जो काम भोग का अर्थि हैं वोही अनंत दुःख मय संसार भार को वहाता है-उठाता हैं, काम भोग की अभीलाषा वालाही दुःख पाताहैं यह सर्व तमाशा प्रत्यक्ष जगत् में दिख रहा हैं, ऐसा जाण ज्ञानी महात्मा स्वभा से ही सर्व अभीलाषा रहित हो शांतबनें हैं, सर्वथा मोहका नाश होने से वितरागी बने हैं. तृतीयप्रातशाखा शुक्लध्यानस्यआलम्बन सूत्र-सुक्करसणं झाणस्स चत्तारी आलंबणा पन्नंते तंज्जहा खंत्ती, मुत्ती, अज्जव, मद्दव. अर्थ-शुक्लध्यान ध्याता को चार प्रकारका आधार हैं. १ क्षमका, २ निर्लोभताका, ३सरलताका, और ४ नम्रताका. प्रथम पत्र- 'क्षमा" Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२ ध्यानकल्पतरू. . क्षमा श्रमण क्षमा स्वभावमें, स्वभावसे रमण करते अन्यकी तर्फसे, पर पुनलोंसे, या स्व प्रणतीकी विप्रीतता से, जो चितको क्षोभ उपजे, ऐसे पुद्गलोंका सम्बन्ध मिलनसे निजात्म के, या पर आत्मके, ज्ञान दर्शन चारित्र रूप पर्यायकी, संकल्प विकल्पता कर घात करे नहीं, करावे नहीं, करतेको अच्छा जाने नहीं अपने क्षमा रूप अमुल्य गुणका कदापि नाश होने देवे नहीं, शुभाशुभ संयोगोंमे चित वृतीको स्थिर रक्खे, और पुद्गलोंके स्वभावकी तर्फ द्रष्टी रखके विचारे की जैसा २ जिस २ वक्त, जिन २ पुद्गलोंका जिस तरह प्रणती में प्रगमनका द्रव्यादिक संयोग होता है, वो उसी वक्त प्रगमें विन कभी रहताही नहीं हैं. यह ज गतका अनादी स्वभाव हैं. शुक्लध्यानीकी इस स्वभाव से प्रणति स्वभाविक विरक्त होनेसे वो स्वभाव उनमें नहीं प्रणमता है, ऐसे अनेक प्रणतीयों जक्त में भ्रमण करती हुइ वितरागीकी आत्मका स्पर्य कर खराब न हीं कर शक्ती है. जगत्का जो कार्य है सो तो, अनादी से चला आता हैं, और अनंत काल तक चलाही करेगा. मन, बचन, कायाके, शुभाशुभ पुद्गलोका चक्कर भ्रमताही रहता हैं, मिथ्या भ्रमसे भ्रमित जीव, दुविचार, दुउच्चार, और दुआचार, द्वरा; करना, कराना, Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थशाखा-शुक्लध्यान. ३४३ और अनुमोदना कर ज्यों चीगटा घडा उडती हुइ रज. को अकर्षण करता है, और मलीन होता है. तैसेही वो उन पुगलोंको अकर्षण कर मलीन होते है; जिससे निज स्वभावका अच्छादन हो, पर स्वभावमें रमण कर, विभाको प्राप्त होते है. और ज्ञानी कांचके घडेकी तरह निर्लेप या लक्खे (चिकास रहित ) होने से वो ज. गत में भ्रमते हुये पुल उनके आत्माषे ठेहर नहीं सते हैं. क्यों कि वो मनादी त्रियोगकी अशुभ प्रवृत्तीसें स्वभावेही अलग रहे. निजात्मिक ज्ञानादी गुणमें रमण करते है, मतलब की इस जगत् मे अनेक जीव बोलते हैं, और अनक जीव सुणते हैं. उसने अपन ध्यान नहीं देते हैं, तो वो पुद्गल अपनको राग द्वेषके उत्पन्न कर्ता नहीं होतें है, और उन्ही शब्द को आपन अपनी तर्फ चे की यह गाली मुजेही दी की, तुर्त वो पुद्गल अपनी आत्मा में प्रणम, अपन को द्वेषी बना देते हैं. अब अपन जरा दीर्घ विचार से देखें तो, अपनी निंदा कोइ करताही नहीं हैं; क्योंकि, निंदा होय ऐसा अपना निजात्मा का स्वभाव ही नहीं हैं; आत्मा तो ज्ञानादी अनंत गुणो का सागर है, और ज्ञानादी गुणों की कोइ निंदा करताही नहीं हैं, निंदा तो विषय, कषायादी प्रकृत्ती यों की होती है, सो J Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानकल्पतरू. विषय कषायादी प्रणती कर्म जनित हैं, और कर्म पुदल रुप हैं, आत्मासे उसका स्वभाव विप्रित हैं. और इसीही लिये निन्दा पात्र हैं, उनकी निन्दा तो हो. वेगी. तूं चैतन्य रुप उनसे अलग हो फिर उनकी प्रणती में प्रणम मलीन क्यों होता हैं, बुरा क्यों मानता हैं, जिनको जग बुरा कहते हैं, उन्ही को वो बच न लगो. और उन्ही दुर्गुणोका नाश होवो, की जिस से मेरा भला होवे. ऐसी भलाइ होनेके स्थान, कोण सुज्ञ बुराइ करेगा, अर्थात् कोइ नहीं. ऐसे और इससे भी अत्युत्तम विचार अब्बल सेही शुक्लध्यानी की आ मामें ठसे रहते है, और प्रत्यक्षमें देख रहे है की, क्रो ध विश्वानल रूप हों, जीवोंको छिन्न भिन्न कर रहा है, और मेरी आत्मा उस लायसे अलगहो, ज्ञानादी गुण रूप समद्र के महा ओघमें ड्रब रही है, इसे वो अग्नी स्पर्य करही नहीं सक्ती है. आंच लगही नहीं सक्ती है, सदा संबड, निबुड, शांत शीतली भूत अखन्डानन्द में रमते है. द्वितिय पन-निर्लोभ” २मुत्ती-मुक्त हुये, छूटगये, अर्थात् लोभ त्रष्ण रूपी फासमें सब जगत् फस रहा हैं. उस फास को Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थशाखा-शुक्लध्यान. ३४५ शुक्लध्यानी ने स्वभावसे जडा मूलसे उच्छेदन कर, सं तोषमें संस्थित हुये हैं. ज्ञानी ज्ञानसे प्रत्यक्ष जानते हैं की इस जक्तमें कोइभी ऐसा पदार्थ नहीं है, की जिसकी मालकी अपने जीवनें नहीं करी, या उनका भोगोपभोग नहीं किया, अर्थात् सब पूद्गलकी मालकी अनंत वक्त कर आया है, और सव पुद्गलोंका भोगभी अनंत वक्त ले आया है. अश्चर्य यह है कि, एक वक्त अहार करके निहार करी हुइ वस्तुकों देखते ही, नणा, दुगंच्छा उत्पन्न होती है, और जिन वस्तुओंका अनंत वक्त अहार कर निहार कर आया उन्होंकाही पीछा भो गोपभोग करने बहुतसे जीव तरस रहे है, तडफ रहें है, उनकी त्रष्णामे व्याकुल हो रहें है, त्रप्ती आइही नहीं है, तो अब क्या बिना संतोष किये कदापी त्रप्ती आ वेगी? हा हा! क्या जब्बर मोहकी छटा! के जीवों बिलकूल बे विचार बन रहेहै, और इस वृतमान कालके सरीर के पुद्गल, तथा पहले धारन किये हुये, सब स. रीरके पुद्गल जित्ने जगत्में जीव है, उन सबका भक्ष बना है. सब ने अहार कर के निहार कर दिया है. तैसेही जब जीवोंके धारण किये सरीरके पुद्गलोंका, आपन भी अनंत वक्त भक्षण कर लिया, जगत् की सब ऋद्धिके मालक अपन बने, और जगत्के जीवके Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६ ध्यानकल्पतरू. दास अपन बने, अनंत पर्याय रूप इस संसार में अपन प्रणम आये, और सर्व संसार पर्याय अपन में प्रणमी, सर्व खाद्य खाये, सर्व पेय पीये, सर्व भोग भोगवे, परन्तु गरज कुछ नहीं सरी, आखीर वैसे वै से. इस लिये मै न किसका हुवा, न मेरा कोई हुवा, न मुजे कोइने खाया, और न मैने किसीको खाया. पुनलही पुगलका भक्षण करता है, और छोड़ता है. और वो भाव पुगलोंमें ही प्रगमते हैं. तैसेही निर्गमते है, मुजे उससे जरूरही क्या, मै चैतन्य, यह पुद्गल, ज्यों नाटकिया नाना तरह का रूप धारण कर प्रेक्षक को खुश करने अनेक चरित्र करता है. रोता हैं, हंसता है, वगैरे, परंतु प्रेक्षक को उसके झगडे देख सुख दुःख अनुभवनेकी क्या जरूरत है, तैसेही यह जगत रूप नाटकका में प्रेक्षक हूं. इसका विचित्रता देख मु जे उसके विचारमे लीन हो, दुःखी बनने की कुछ जरूरत नहीं है. यह भाव या इससे भी अत्युत्तम भाव शुल ध्यानीके ह्रदय में स्वभावसेही प्रवृतते है, जिससे सही सर्व सङ्ग परित्यागी हो सिद्ध तुल्य सदा निर्छित भावमें त्रतपणें आत्म स्वभावमें रमण करते है. ed*20 Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थशाखा-शुक्लध्यान. ३४७ . तृतीय पत्र-“आर्यव” २ अजव-आर्जव-सरलता युक्त. प्रवृतनेका स्व. भाव, शुक्लध्यानीका स्वभाविकही होता है. सुयगडांग सूत्र में फरमाया है. की 'अजुधमं गइ तच्चं, अर्थात् आर्य सरल आत्माही धर्म मार्गमें गति प्रवृती कर शक्ती हैं, ज्ञानी समजते हैं, की वक्र आत्माका धणी, अन्यको ठगने जाते अपही ठगाता है, और एक वक्त ठगाया हुवा,प्राणी कर्मानुयोगसे भवांतरोकी श्रेणीयोंमें अनंत वक्त ठगाता है, सर्व पुद्गल परतणी में प्रणमे हुये पदार्थ कुटिलता से भरे हुये हैं. सकर्मि आत्मा उनमें प्रणाम प्रवृताती हुइ, उनमेंसे पुद्गलोंका अकर्षण कर उस रूप बनती हैं उसे 'मायाशल्य' कहते है, मयाशल्य मिथ्या दर्शनका मूल है, मायाशल्यसे आत्माके ज्ञानादी गुणका अच्छादन होता है. ठांकता है, 'शल्य' काँटे को कहते है, जैसा सरीरके अन्द र रहा हुवा काँटा तन्दुरुस्तीकी हरकत करता है, तैसें मायारूप शल्य (काँटा) जिनके हृदय से नहीं निकला हैं, उनके ध्यान में दुरस्ती न रहती है, जैसे सीधे म्यान में बांकी तरवार प्रवेश नहीं करती हैं, तैसेही वकृ प्रक्रतिका धणीके -हदय में शुक्लध्यान प्रवेश नहीं Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८ . ध्यानकल्पतरू. करता है, ऐसा निश्चय होनेसे शुलभ्यानीके -हदयसे माया स्वभावसेही नष्ट होती है. ... और भी शुकन्यानी विचारते हैं, की कपट कि के साथ करे, क्योंकि चैतन्यके निज गुण तो कपटसे वंचित (छलित) नहीं होते हैं, आत्माका निज स्वभा व तो सरल शुद्ध पवित्र हैं, उसे छोड मलिनतामें पड नाही अज्ञान दिशा है. ऐसा जान, शुक्लध्यानी स्वभासेही, परम ज्ञानी, परमध्यानी, निष्कपटि, निर्विकार आत्म गुणमें सदा लीन. वाह्याभ्यांतर शुद्ध सरल प्रवृती रहती है. . चतुर्थ पत्र "मार्दवः” मदव-मार्दव किया हैं, मान का. शुक्ल ध्यानी का, अभिमानका. मर्दन स्वभाव से ही होता हैं, क्यों कि वो जानते हैं, की. इस जक्त में बडा मीठा, और बडा जब्बर शत्र "अभीमान" हैं, उंचा चडा के नीचे डाल देता हैं. देवलोक के मुख में जो गर्क हो रहे है, उन्हे तिथंच गति में डालता हैं, इत्यादी अनेक बिटंबना अभीमान से होती है, और भी बिचारते हैं, की अभीमान किस बात करना, तथा मान यह हैं क्या? देखीये. अब्बी किसी निरक्षर. मुर्ख मनुष्य को Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थशाखा-शुक्लध्यान. 8t कोइ पण्डित कहें. तो वो चिडता हैं. निरधन को श्री मंत कहने से वो बुरा मानता हैं, कहता है क्या हमा री मस्करी करते हो. बस तैसेही ज्ञानी के कोइ गुण ग्राम करे तो वो योंही विचार ते हैं, यह संपूर्ण गुण तो मेरी अत्मा में ही नहीं, तो मुजे उन बचन को सुण अभीमान करने की क्या जरुर हैं. यह मेरी पर. संस्या नहीं करता हैं, परंन्तु मुजे उपदेश करता है, की, सत्य सील, दया, क्षमा, दी गुण तुम स्विकारो! शुक्ल ध्यानी सर्वो तम गुण संपन्न हो के भी, उन्हे गुण का गर्व किंचित मात्र कदापी नहीं होता है, इस लिये वो सदा निर्भीमानी रहते हैं. तथा विचारना चाहीये की, जो गुण ग्राम करते हैं, वो तो गुण के करते हैं, और उसका अभीमान गुणों को तो होताही नहीं हैं, फिर बीच में मुजे करने की क्या जरुर हैं, संसार में सुनते हैं की, अमुक ने अमुक अच्छी वस्तु की सरा. वणा (परलंस्था) करी जिस्स से यह बिगड गइ (नि. जर लग गइ ) बस तैलेही गुणानुवाद करने से तूं पोमायगा तो तेरेइ गुणों का खराबा होगा. ऐसा जान के खराबा क्यों करना. औरभी जो सगुणोंकी प्राप्ती हुइ है, वो आत्म सुधारा करने हुइ है, और उससे बीगाडा करना यह Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ३५० ध्यानकल्पतरू. कैसी जब्बर भूल. इत्यादी निश्चय शुक्लध्यानी पुरुषों को स्वभाविक होनेसे सदा स्वभाविक उनकी आत्मा निर्भिमानी, नम्र भूत हुइ है. ... इन चार वस्तुओंका आलम्बन शुक्लध्यानीको सहज स्वभाविक होनेसे अखंड अप्रति पाती ध्यानमें रहते है. चतुर्थप्रातशाखा “शुक्लध्यानस्यअनुप्रेक्षा" सुक्कसणं झाणस्स, चत्तारी अणुपेहा, पन्नंता तंजंहा अवायाणुप्पेहा, असुभाणुप्पेहा, अ णंतवित्तीयाणुप्पेहा, वीप्परीणामाणुप्पहा. . अर्थात्-शुक्लध्यान ध्याताकी ४ अनुप्रेभा विचारना १ अपायानुप्रेक्षा=दुःखसे निर्वृतनेका बिचार. २ अशुभानुप्रक्षा=अशुभ प्रवृती आदीसे निर्वृतने का विचार. ३ अनंत वृतीयानुप्रेक्षा=अनंत प्रवृतीने निर्व. तने का विचार. और ४ विप्रामाणानुप्रेक्षा=विप्रित प्र णाम सेनिर्वृतनेका विचार. यह ४ प्रकारका विचार शुक्लध्यनीका स्वभाविक होता है. Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थशाखा-शुक्लध्यान. ३५१ प्रथम पत्र “अपयानुप्रेक्षा" १ अपयानुप्रेक्षा-संसारमें परिभ्रमण करते हुये जीवको मिथ्यात्व २ अवृत, ३ प्रमाद, ४ कषाय और ५ योग यह अनंत विटंबना देने वाले है. १ श्री वीतराग दिशा निजात्मके अनुभवमें जो विप्रीत रुची उसमें अभीनिवेश (अग्रह) उत्पन्न करनेवाला तथा बाह्य वि. षय में, पर सम्बन्धी शुद्ध आत्म तत्व से लगाके, संपूर्ण द्रव्योंमें जो विप्रीत अग्रह करे, सो मिथ्यात्व. २ अभ्यंतर मे आत्म प्रमात्मा के स्वरूपकी भावनासे उ. त्पन्न हुवा, जो परम सुख रूप अमृत समान भोजन प्रासन करनेकी रुची होए उसे पलटावे. तथा बाह्य विषय में वृतादी धारन नहीं करने रूप जो प्रवृत्ती सो अवृत. ३ अभ्यंतर में प्रमाद रहित जो शुद्ध आत्मा है उसके अनुभवसे चलाने रूप जो प्रणती, तथा बाह्य विषय मे जो मूल और उत्तर गुणमे अतीचार उत्पन्न करने वाला जो है, सो प्रमाद ४ अभ्यंतर मे परम उपशम मूर्ती केवल ज्ञानादी अनंत गुण स्वभावसेही धारन करने वाला, निजात्म परमात्मके स्वरूपको क्षोभ के करने वाले, तथा बाह्यमें विषयके सम्बन्धसे क्र रता आदी आवेश रूप जो क्रोधादी है, सो कषाय. Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ ध्यानकल्पतरू. और ५ निश्चय में क्रिया रहित आत्माको भी जो व्यः अहार से विर्यान्तराय कर्मके क्षयोपशम से उत्पन्न मन बचन, और कायाके पुद्गल वर्गणाका अवलम्बन करने बाला कर्मोकों ग्रहण करने में कारण भूत आत्माके प्रदे शोका संचलन, सो योग. यह पांच अश्रव संसारी जीवों के अनादी से प्रणातिमें प्रणम रहेहै, जिस से अनंत संसर प्रणति प्रणमने का कार्य होता हैं, शुक्ल ध्यानी ने पंचही आश्रवों का स्वभाव सेही नाश कर १क्षयिक, सम्यकत्व २ यथा ख्यात चारित्र ३ अप्रमादी, ४ क्षिण, कषायी, और स्थिर स्वभावी हैं, इन पंच गुणोंको स्वभावी प्राप्त करतें हैं. द्वितीय पत्र “अशुभानु प्रेक्षा" २ अशुभानु पेक्षा-जीवों का शुभाशुभ होने के दो मार्ग है. १ निश्चय और २ व्यवहार. निश्च सो निजगुण में प्रवृती करने को कहते हैं. और व्यवहार वाह्य प्रवृती को कहते हैं, छद्मस्तों के लिये अव्वल व्यवहार हैं, अर्थात् व्यवहार शुद्ध कार्म कर आत्म सा. धन करते निश्चय की तर्फ द्रष्टी रखते हैं; और सर्वज्ञ निश्चय की प्रव्रती करते हुये भी, व्यवहार को नहीं Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थशाखा-शुक्लध्यान. ३५३ बीगाडते हैं, ऐसेही कर्म सम्बन्ध भी जाना जाता है, व्यवहार में कर्म के कर्ता पुद्गल हैं. जैसे त्रीयोग रहित शुद्ध आत्मा की जो भावना हैं, उस से बे मुख होके, उपचरित असद्भुत व्यवहार से ज्ञाना वर्णियादी द्रव्य कर्मोंका, तथा उदारिक, वेक्रय, और.अहारिक.यह तीन सरीर, अहार, सरीर, इन्द्र, शाश्वोश्वास, मन. और भाषा, यह पर्याय, इत्यादी योग्य से जो पुद्गल पिण्ड नो कर्म है, उनकी तथा उसी प्रकार से, उप चरित असभ्दूत वाह्य विषय, घटपटादी का भी येही कर्ता हैं। यह तो व्यवहार की व्याख्या कही. अत्र निश्चय अपे क्षा से चैतन्य कर्मका कर्ताहैं, सो इस्तरह की-रागादि विकल्प रूप उदासी से रहित, और क्रिया रहित, ऐ से जीव ने जो रागादी उत्पन्न करने वाले कर्मों का उपारजन किया, उन कर्मों का उदय होने से, अक्रिय निर्मल आत्मा ज्ञानी नहीं होता हवा,भाव कर्म का या राग द्वेष का,कर्ता होता हैं. और जब यह जीव, तीनो योग्यके व्यवहार रहित, शुद्ध तत्वज्ञ एक स्वभाव में परिणमता हैं, तब अनंत ज्ञानादी सुख का, शुद्ध भावों का छद्मस्त अवस्था में भावना रूप विविक्षित, - एक देश शुद्ध निश्चय से कर्ता होता हैं, और मुक्त अवस्था में तो, निश्चय से अनंत ज्ञानादी शुद्ध भावों Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४ ध्यानकल्पतरू. का कर्ताहीहैं. इस लिये शुद्धाशुद्ध भावोंकी जो प्रणती है. उसका कर्ता जीव जाणना. क्यों कि नित्य निराकार निष्क्रिय, ऐसी अपनी आत्म स्वरूपकी भावना से र. हित जो जीव है, उसीको कर्मका कर्ता कहा है, पर प्रणितीही शुभाशुभ बन्धका मुख्य कारण है. जिस. से निवृत अपनी आत्मामें ही भावना करे, और व्यव हारकी अपेक्षासे सुख और दुःख रूप पुद्गल कर्मोका भोगवता है. उन कर्म फलोंका भुक्ताभी आत्माही है. और निश्चय नयसे तो, चैतन्य भावका भुक्ता आत्मा हैं, वो चैतन्य भाव किस सन्बन्धी है, ऐसा विचार करीये तो, अपनाही सम्बन्धी है. कैसे है की, निज शुद्ध आत्माको ज्ञानसे उत्पन्न हुवा, जो परमार्थिक सु ख रूप अमृत रस उस भोजनको न प्राप्त होते, जो आत्मा है, वो उपचारित असद्भूत व्यवहारसे इष्ट त था अनिष्ट, पांचो इंद्रिय के विषय से उत्पन्न होते हुये सुख, तथा दुःख भोगवता है, ऐसेही अनुपचरित, अ सद्भूत व्यवहार से अंतरंग में सुख तथा दुःखको उ त्पन्न करने वाला, द्रव्य कर्म सत्ता असत्ता रूप उदय है, उसको भोगवता है, और वोही आत्मा हर्ष तथा शोक को प्राप्त होता है, और शुद्ध निश्चय में तो प्र Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थशाखा -शुक्लध्यान. ३५५ मात्म स्वभावका जो सम्यक श्रधान ज्ञान और किया उससे उत्पन्न अविन्यासी अनन्द रूप एक लक्षणका धारक सुखमृतको भोगवता है. सारांश - जो स्वभावसे उत्पन्न हुये सुखामृत के. भोजनकी अप्राप्ती से, आत्मा इन्द्रिय जनित सुखको भोगवता हुवा, संसारमें परिभ्रमण करता है; और स्व स्वभाव उत्पन्न हुये, इन्द्रियोंके अगोचर सुख है, सो ग्रहण करने योग्य है शुक्लध्यानके ध्याता उन्हे स्वभाव सेही ग्रहण करते है, जिससे संसार रूप वृक्ष शुभाशुभ कटु मधु, उच्चता-नीच्चता, रूप फलोंका दाता पूहल प्रणतीसे प्रणमा हुवा जो स्वभाव है उसका सहजही त्याग हों जाता है. शुद्ध आत्मानंद चैतन्य मय स्व भावमें सदा रमण करतें है. तृतीय पत्र- "अनंतवृतीयानुप्रेक्षा' • ३ अनंत वृतीयानु प्रेक्षा - अनंत संसार मे परि भ्रमण करनेकी जो प्रवृती है. उससे निवृतनेका स्वभाविक ही विचार होवे, की इस संसार में अनंत पुगल प्रावृतन किये, वो ८ प्रकारसे होता है, १ द्रव्यसे बादर पुगल प्रवृतन सो उदारिक वैक्रय, तेजसे, कारमाण मन, बचन, और शाश्वोश्वास यह ७ तरह के है, Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६ . ध्यानकल्पतरू. उनके जित्ने पुदल जक्तमें हैं, उन्ह सबको स्पश्ये. २ द्रव्यसे सुक्ष्म पुद्गल प्रावृतन लो पूर्वोक्त सातही प्रकार के पुद्गलोंमे से प्रथम सर्व जगत्में रहें. उदारिक केसब पुगल अनुक्रमें स्पश्ये, किंचितही नहीं छोडे, फिर वैक य के फिर तेजसके यो ७ ही के अनुक्रमें स्पश्ये. ३ क्षेत्रसे बादर पुद्गल प्रावृतन सो मेरु प्रवृतसें दशही दि शा आकाश की असंख्यात श्रेणी मकडीके जालेके तं तवेंकी तरह फैली है, उन्ह सबपे जन्म मरण, कर स्प श्र्ये, ४ क्षेत्रसे सुक्ष्म पुगल प्रावर्तन सो पूर्वोक्त श्रोणियोंमे से पहले एकही श्लोण ग्रहण कर उसपे अनुक्रमें (मेरुसे अलोक तक) जन्म मरण कर स्पश्र्ये. जराभी नहीं छोडे, फिर दूसरी श्रेणिभी इस तरे यो सब श्रेणि स्पश्ये, ५ कालसे वादर पुक्ल प्रावृतन सो समय आंवालका स्तोक लव महुर्त दिन, पक्ष, मांस, ऋतु, आ यन, वर्ष, युग, पूर्व, पल्य, सागर, सर्पणी, उत्सर्पणी और कालचक्र, इन सबकालमें जन्म मरण कर स्पश्यें, ६ काल से सुक्ष्म पद्दल प्रावर्तन सो, पहले सर्पणी काल बेठा, उ सके पहले समय जन्म के मरे फिर दूसरी वक्त सरप णी लगे तब उसके दूसरे समयमे जन्मके मरे, यों आं वलकाका समय पूरा होवे वहांतक. फिर सरपणी बैठे उसके पहली आंबालिका में जन्मके मरे, फिर दूसरी Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थशाखा-शुक्लध्यान. ३५७ में यो स्तोकका काल पूरा करे. ऐसे अनुक्रमे सब काल जन्म मरण कर स्पइयें. ७ भावसे बादर पुल प्रावर्तन सो ५ वर्ण, २ गंध, ५ रस, ८ स्पश्यं. इन २० ही बोलके सर्व पुगलोंको स्पश्यें, ८ भावसे सुक्ष्म पुगल प्रावृत सो पहले एक गुणे काल वर्णके जगत् में जि. ने पुनल हैं, उन सबको स्पश्यें, फिर दुगणे कालेकों यों त्री गुणों आवत असंख्यात गुणे काले वर्ण के पु. गल स्पश्य यो सर्व काले वर्णके पुद्गल स्पश्यें पीछे, हरे वर्णके पुल कालेकी तराह, अनुक्रमें स्पश्र्ये इसी तरह २० ही तरहके पुलको अनुक्रमें स्पश्ये. . __यह ८तरह पुद्गल प्रावर्तन करे उसे एक पुद्गल प्रावृतन कहना, ऐसे अनंत पुद्गल प्रावर्तन एकेक जीव संसार में करते हैं और अपने जीव ने भी कियेहैं. ऐ सी भव भ्रमणा में भ्रमण करते २अनंतानंत पुण्योदय होने से, मनुष्य जन्म से लगा शुक्लध्यानारूढ होने जित्ने अत्युत्तम समग्रीयों प्राप्ती हुइहै. यह उन्ह पुद्र लों के प्रावृतन सै निमुक्त कर, अखीडत, अचल, निरामय, मोक्षके सुख देने वाली है. ऐसा निश्चय शुक्ल ध्यानी को स्वभावसही होता हैं. और अनंत जीव अनंत पुनलो का प्रावृतन करते विभाव रूप विचित्रता को प्राप्त होते है वो प्रतिछाया उनकी शुद्ध आत्मामें Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८ ध्यानकल्पतरू सद्भावसे पडतीहैं. उसज्ञानके अप्रतििित ध्यानमें सदा मग्न हो रहते हैं. चतुर्थ पत्र-"विप्रमाणु प्रेक्षा" - ४ विप्रमाणु प्रेक्षा-३४३राजात्मक रूप विश्वोदर संपूर्ण सचेतन अचेतन पदार्था कर भरा हैं, उ. नमें के पुदलों क्षिण में विप्रायास पाते हैं, जैसे महि, के पिण्ड के समोह में से कुम्भार अच्छे, बुरे, छोटेबडे' अनेक प्रकार के भाजन बनाते हैं. तैसेही म. नुष्याकार, पशुवाकार, नाना प्रकार के चित्र बनाता है, उन्हे देखके बहुत लोक किनेकको अच्छे कहते हैं, किन्नेक कों बुरे कहते हैं, एकही वस्तु से उत्पन्न होते है, वो कुछ वस्तुका फेर नहीं है. फक्त द्रष्टीकाही फेर है. तैसेही सर्व लोक जीव अंजीव करके भरा है, उन अनंत प्रमाणुओंको समोहसे पंच सम्बायकी प्रेरणासे पुरण गलन, (मिलन विछडन) होते हुये, अ नेक आकार भावमें प्रगमते है. उसमे अनेक पुदलों की सामान्यता विषेशता, अनंत कालसे होतीही रह ती है. और इसही लोकमें राग द्वेषके पुद्गल भी पूर्ण भरें हैं, वो सकर्मी जीवोंकें चमक लोहकी तरह अक र्षण होके लगते है. और मिथ्यात्व तथा मोहकी श Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थशाखा-शुक्लध्यान. ३५९ तीसें प्रगमते हैं. जिससे प्रणामोंमें सकल्प विकल्प हो इन वस्तुओंमें प्रेमद्देष उत्पत्र होता है. जिसपे प्रेम उत्पन्न होता है, और जिसपे द्वेष उत्पन्न होता है वह दोनो वस्तुओं उनही पुदलों के प्रमाणु औकी प्रण; मी है. घर, धन, स्त्री, खजन, वस्त्र, भुषण, मिष्टान्न, विष, मलीनता वगैरे सर्व वस्तुओं यही पुदलोंसे प्रण मी है. क्षिण २ मे इनका रूपांतर हुवाही रहता है और उस उस प्रमाणे जीवोंकी प्रणतीमें फेर होता है प्रणतीमें राग द्वेष रूप चमकके भाव उत्पन्न होनेसे उन्ह पुगलौंको अकर्षण कर गुरू (भारी) बनता है, और उस भारी पणनेके योग्यसे उच्च जो मोक्ष गति है उसे प्राप्त नहीं होताहै, यह संसारमें रुलनका मुख्य का रण अनादी अनंत है, यह सब पुदलोंकी प्रणती स्वभावका गुण है, उसमे चैतन्य लीनता (लुब्धता) धारण कर दुःखी हुवा, विप्रयास पाया. ऐसा निश्चयात्म ज्ञान शुक्लध्यानी को होताहैं, जिस से सर्व पुगलों उ. पर से राग द्वेष निर्वृत होने से, ज्ञानादी गुण प्रगट होते हैं, जिस से निजगुण की पहचान हुइ, की मेरे आत्म गुण, अखंड है, अविनाशीहैं, सदाएकही रूपमें रहने वाले चैतनीक गुण युक्त हैं, अगरू लघुहै, न वो कधी आके लगे, न वो कधी विछडे, आनादी से निज Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० ध्यानकल्पतरू. मेंहीहै. परन्तु पर गुणों से ढके हुयेथे, जिस से इने दिन पैछान में नही आये अब उन्ह पुनलो से विप्रित शक्ति धारण करने वाले. गुणका संयोग होने सें, निजगु ण प्रगटे, जैसे वायु के जोग से बद्दल विखर तें है, और सूर्य का प्रकाश होताहै, तैसे पुल पर्याय रूप बद्दल वैराग्य वायू से दूर होने से अनंत ज्ञान जोती का अम णोदय हुवा जिस से पूर्ण प्रकाश होने का निश्चय हुवा तथा पूर्ण प्रकाश हवा जिस से कालांत्रमें सर्व पुदल परिचय से दुर होवूगा सत्य चित्य आनन्द रूप प्रगटे गा.तब निरामय नित्य अटल सुखका भुक्ता बनूंगा. . पुष्प फल यह चार प्रकार का विचार शुक्ल ध्यानी के हृदय मै स्वभाव से ही सदा प्रणति में प्रणमता रहता हैं, जिस के प्रबल प्रभाव से उनकी आत्मा सर्व विभावों पुनल प्रणती के सम्बन्ध रूप से निवृत, सर्व कर्म में विमुक्त हो अत्यंत शुद्धता. परम पवित्र को प्राप्त होअनंत अक्षय अव्याबाध मोक्ष के सुख में तल्लीन रह यह शुक्लध्यानीके ४ पाये, ४ लक्षण, ४ आलंबन, और ४ अनुप्रेक्षा, यो १६ भेदका वर्णव हुवा. Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानकल्पतरू मै एक अल्पज्ञ विषय कषायका सदन अनेकदुर्गुण करपूरितऐसे गहन ध्यानका यथार्थ वर्णव करने अमसर्थ हूं. क्यों कि शुक्लध्यान मेरे अनुभव के बाहिर है. मैने जो कुछ लिखा है सो जिनोक्त सूत्र व किनेक ग्रंथों के अनुसार और किनेक स्थान सद्भाबिक बौध रूपभी लेख आया है, इस लिये पाठक गणसे नम्र क्षमा याच ता है. और ऐसीही क्षमा इस ग्रन्थकी सर्व अशुद्धीयों के लिये चाहता हूं. परम पूज्य श्री कहानजी ऋषिजी महाराज की स म्प्रदाय के महंत मुनी श्री खुबा ऋषिजी महाराजके शिष्य आर्य मुनी श्री चैना ऋषिजी महाराज और उनके शिष्य बाल ब्रह्मचारी मुनी श्री अमोलख ऋषि जी रचित 'ध्यानकल्पतरू' ग्रन्थका शुक्लध्यान नामक चतुर्थ शाखा समाप्त . ध्यान कल्पतरू समाप्तम् Page #388 -------------------------------------------------------------------------- _