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________________ ध्यानकल्पतरू एकेक दाडों साट २ द्विप है. तो आठ दाढोंपे ७५८ -५६ अंतर द्विपमें भी, अक्रम भुमी जैसे मनुष्य रह ते हैं यह १५+३०+५६-१०१ मनुष्यके क्षेत्र हैं, इन में जो मनुष्य होते है. उनके दो भेद अप्रजाप्ता और प्रजाता, यह २०२ हुये, और १०१ अप्रजाप्ता मनुष्य के १४० स्थानमें जो समुत्छिम (खभावसे) उत्पन्न होते है वो अप्रजापतेही मरते हैं. इस लिये. १०१ भेट उनके यो सर्व मिल ३०३ भेद मनुष्य के हुये.. - कर्म भोमी में महा विदेह छोड, बाकी के क्षेत्र में छे आरे की प्रवती मे कभी पुद्गलिक सुखकी बधी और कभी हानी होती है सदा एकसा न रहना वो भी दुःख का कारण है. और महा विदेह मे सदा चतुर्थ कल प्रवृतता है. तो वहां भी विचित्र प्रकार के मनुष्य हैं मतलब की जहां कर्म कर के उपजीका है वहां दुःख ही हैं; अस्सी हथीयारसे उपजीका . * १ उच्चार=भिष्टामें, २पासवण=मुत्रमें, ३ खेल खकारमें, ४ संघेण नाकके मेलसेडामें, ५ उत्ते=उलटीमें ६ पिते-पितमें. ७ सूए= रक्कमें, ८ पुए-रम्सी (पीरु) में, ९ सुके-सुत्र (वीर्य) में, १० सुक्के पुगल परिसरे-शुक्रके सूखे पुद्गल पीछे भीजनेसे ११ मृत्यूकलेवर पचेंद्रीके कलेवरमें, १२ स्त्री पुरुषके संयोगमें, १३ नगरके नालेमें और १४ लोक के सर्व अशुची स्थानमें (शंतल हुये तुर्त असंख्य मनुष्य उत्पन्न होते हैं)
SR No.006299
Book TitleDhyan Kalptaru
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherKundanmal Ghummarmal Seth
Publication Year
Total Pages388
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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