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ध्यानकल्पतरू.
तो चौथा आरा गिणा जाता है. क्यो की उसमें वज्र बृषभनाराचादी संघेन और ध्यान करनेके अनुकुल जो गवाइयोंकी विशेषता थी. जिससे महान (मरणांतिक) संकट सहन करभी, अडोल (स्थिर) रहतेथें. इस पं. चम कालमें संघेणादिककी नुन्यतासे, उस मुजब ध्यान हो नहीं सक्ता हैं. तो भी सर्वथा नास्ती नही समजना, क्यों कि गुण कारक वस्तु तो हमेशा गुणही कर. . ती हैं; चौथे आरेमें सकरमें ज्यादा मिठास होगा, और अब्बी काल प्रभावसे कमी पडगया होगा. तो भी सकर तो नीठीही लगेगी. ऐसेही इस कालमें भी यथा विधी किया हुवा ध्यान, गुणकर्ताही होगा. और भी ध्यान कर्ता पुरुष शीत उष्णादी कालमें अपनी प्रक्रतीके अनुकुल समय विचारे. श्री उत्तराध्येयजी सूत्रमें तो “बीयं ध्यान धीया इह" ऐसा फरमाया हैं, अर्थात् दिनकी और रात्रीकी दूसरी पोरसी (प्रहर) मैं ध्यान धरे, और किनेक ग्रन्थों में पिछली रात्री (रात्रीका चौथा प्रहर.) ध्यानके लिये उत्तम लिखा हैं.
___ यह द्रव्य क्षेत्र और कालके विधी विवक्षा अर्थात् शुभ शुभका विचार, फक्त, अपूर्ण ज्ञानी और अस्थिर चितवालोंके लिये हैं. पूर्ण ज्ञानी और अडोल