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________________ तृतीयशाखा-धर्मध्यान. १३३ बस थोडे मेंही समजीये की, जैसे २ राग और द्वेष शिघ्रता (जल्दी) सें कमी होवें. वैसी २ प्रवृत्ती करो ! येही श्री जिनेश्वर भगवानकी आज्ञा है. यह आज्ञा विचय धर्म ध्यानमें प्रवेश करनेसे मिथ्यात्वादी अनादी मलका नाश कर, चैतन्य को प. वित्र बनाने जलवत है. आधी, व्याधी, उपाधी रूप ज्वालासे जलते जीवको शांत करने पुष्करावर्त मेंघव त हैं. अत्यंत गहन संसार समुद्रसे तारने सफरी झाज वत हैं. मोह वनचरो के नाशके लिये केशरीसिंहवत बुद्धी वीवेक बढाने को सर्वतीवत. योगीयोके मनको रमाणे शांत आवास हैं. इत्यादी अनेक गुणोके सागर आज्ञा विचय का चिंतवन धर्म ध्यानी सदा करते हैं. द्वितीय पत्र-“अपाय विचय" - 3 अप्पाणं मेव जुज्झाहिं, किंते जुज्झेण बझ3; HIS अप्पाणे मेव अप्पाणं, जइता सुहमें हए. उत्तराध्ययन. ९ अर्थात-श्री नमीराज पि सकेंद्र से फरमाते है की, सुख इच्छको को अपणी आत्मामें रहे हये दुगुणों का प्राजय करना चाहीये. अन्यके साथ बाह्य (प्रगट) युद्ध करने की क्या जरूर है ज्ञानादी आत्मा
SR No.006299
Book TitleDhyan Kalptaru
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherKundanmal Ghummarmal Seth
Publication Year
Total Pages388
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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