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________________ १३२ ध्यानकल्पतरू. विभत्सादी रसमें लीन बनाते हैं+ वो फुटी नाव के संगाती भक्त जनो सहित पातालमें बैठते है. . यह पांचही प्रमाद बडे दुरुधर हैं. श्री भगवती जीके ८ में शतकमें फरमाया है की, चार ज्ञानी, चउदे पूर्वी, अहारिक सरीर, ऐसे मुनीराज इन पंच प्रमादकें बलमें पड आयुष्य पूर्ण करे तो अधोगति पावें, ऐसे दुष्ट प्रमादों को जान भगवंत ने फरमाया हैं के “समय मात्र भी इसका सहवास मत करो.” क्यों कि इसकी किंचित् संगतही ऐसी असर करती हैं. की फिर प्राणांत होते भी छटना मुशकिल हैं. इस वक्त जैन जैसे पवित्र धर्मकी दुर्दशा हो रही है, वो इन्हीका प्रताप समजना. जो महात्मा पंच प्रमाद से बचेंगें वो ध्यान सिद्धी प्राप्त कर सकेंगे. .', यह आज्ञा विचय ध्यात अपार अर्थ से भरा है परंतु ह्यां इत्ना कहके अब सबका सारांश थोडेमें कहे यह पूरा करुंगा. " किं बहुणाइह, जहा २ रागदोसा लहू विलज्जति गाथा तह २ पयठियव्वं एपा आणा जिाणदाणं १ __ अर्थ-- ह्यां विशेष कहनेसे क्या प्रयोजन है ! ___ + दुहा दश बोगा दश बोगली, दश चोगाका बच्चा; गुरूजी तो गप्पा पारे, सबही जाणे सञ्चा. ..
SR No.006299
Book TitleDhyan Kalptaru
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherKundanmal Ghummarmal Seth
Publication Year
Total Pages388
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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