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________________ उपशाखा-शुद्धध्यान. ३११ अब वो जीव द्रव्य कैसा हैं, सो सूत्रसे कहे हैं. "मति तत्थण गहिता, ओए अप्पति ठाणस्स खेयन्ने" अर्थात्-सिद्ध भगवंत के रूपका, या गुणका वर्णव करने 'सव्व सरा नियटुंता" अर्थात अव्यक्तव्य हैं. कोइभी शब्दमे वरणव करनेकी शक्ती नहीं है, वो बता सक्ता नहीं है. तैसेही सिद्ध भगवंतको भी “ज्ञानं स्वरूप ममलं प्रवदान्त संतः" अर्थात् संतः पुरुष निर्मल ज्ञानरूप बताते. हैं. (३) और जो रुपी पदार्थ का द्रष्टांत देवें तो मट्टीकी मुशमें मे णका पटळगा' पीतलादी धातूको रस डाल भूषणादी बणाते है वो भूषण उसमेसे निकाले पीछे मूशमे मेण (मौम) का भाष मात्र आकार रहता है. तैसेही सिद्ध भगवंतका अरुपी आकारकी अव घेणा हैं. (४) कांचमै दिखता हूवा प्रतिबिंब फक्त भाष मात्र है. तैसे सिद्धकी अवघेणा. (५) जोती स्वरूपी कहे जाते है. उसका मतलब यह है की जैसे कोटडीमें एक दीवा किया उसका प्रकाश उसमे समाजाता है, और बहुत दीवे कीये तोभी उनका प्रका श उसहो कोठडीमें समाजाता है. परन्तु वो प्रकाश क्षेत्र रोकता नहीं है. (जमीन जाडी होती नहीं हैं ) ऐसेही अनंत सिद्ध मोक्ष मे हैं. और अनंतही हो गये तोभी बिलकूल जागा रोकाती नहीं है. एक दीवेका प्रकाश जित्ने स्थलमे फैला है. वोही उसकी अव. घेणा. तैसे सिद्ध की अवघेणा जाणना. (६) सिद्ध भगवंत छद्मस्त की अपेक्षासे अरुपी हैं. (दिखते नहीं है.) परंतु केवल ज्ञानी तो देख शक्ते हैं. जो केवली देखते हैं. वोही जीव द्रव्यके आत्म प्रदेश है, और उसीकी अवघेणा समजना. इत्यादी द्रष्टांतसे सिद्ध : की अवघेणा समजना चाहीये. . . . .
SR No.006299
Book TitleDhyan Kalptaru
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherKundanmal Ghummarmal Seth
Publication Year
Total Pages388
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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