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तृतीयशाखा-धर्मध्यान. २३९ ... एक मनुष्य बन में सूता था, की वहां रात्री कों अचिंत्य दावा नल (आग) लगी, और उस मनुष्य को घेर लिया. उश्नता लगते वो तुर्त जागृत हो, एक वृक्षपे चड बेठा, और चारही तर्फ जंगली जानवरों कों जलते देख, हँस ने लगा. की यह जला. यह मरा! परंतु मुढ यों नहीं समजता है की. यह वृक्ष जाला की मेरीभी येही दिशा होगी. अर्थात-जैसे जगत जीव मरतें है वैसेही एक दिन अपन भी मरेंगे! इस्मे संशयही नहीं!!
बाप, दादे, गये वोभी इस धन, कुटम्ब, कर अपना रक्षण नहीं कर सके, तो तुम को न स्मर्थ बली बच सकोगे.
निश्चय समजीये. सब सज्जन मुह ताकतेही खडे रहेंगे. सब संपती निजस्थान ही षडी रहेगी, और चित मुनी के कहे मुजब, एक दिन सब की दिशा होगी. ___* स्वैया-कंचनके आसन, सुखवासन कंचनके पलंग, सव इनामत घर रहै. हाथी हट शालनमें, घोंड घुडशाल नमें, कपडे जाम दानीमें घडी बंध ही रहे, बेटा और बेटी दोलतका पार नहीं, जवागेंके डब्बेपे ताले ही जडे रहे, देह छोर डिगे जब हो चले दिग़म्बर, कुलके कुटम्ब सब रोतेही खड़े हैं,