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________________ चतुर्थशाखा-शुक्लध्यान. ३५९ तीसें प्रगमते हैं. जिससे प्रणामोंमें सकल्प विकल्प हो इन वस्तुओंमें प्रेमद्देष उत्पत्र होता है. जिसपे प्रेम उत्पन्न होता है, और जिसपे द्वेष उत्पन्न होता है वह दोनो वस्तुओं उनही पुदलों के प्रमाणु औकी प्रण; मी है. घर, धन, स्त्री, खजन, वस्त्र, भुषण, मिष्टान्न, विष, मलीनता वगैरे सर्व वस्तुओं यही पुदलोंसे प्रण मी है. क्षिण २ मे इनका रूपांतर हुवाही रहता है और उस उस प्रमाणे जीवोंकी प्रणतीमें फेर होता है प्रणतीमें राग द्वेष रूप चमकके भाव उत्पन्न होनेसे उन्ह पुगलौंको अकर्षण कर गुरू (भारी) बनता है, और उस भारी पणनेके योग्यसे उच्च जो मोक्ष गति है उसे प्राप्त नहीं होताहै, यह संसारमें रुलनका मुख्य का रण अनादी अनंत है, यह सब पुदलोंकी प्रणती स्वभावका गुण है, उसमे चैतन्य लीनता (लुब्धता) धारण कर दुःखी हुवा, विप्रयास पाया. ऐसा निश्चयात्म ज्ञान शुक्लध्यानी को होताहैं, जिस से सर्व पुगलों उ. पर से राग द्वेष निर्वृत होने से, ज्ञानादी गुण प्रगट होते हैं, जिस से निजगुण की पहचान हुइ, की मेरे आत्म गुण, अखंड है, अविनाशीहैं, सदाएकही रूपमें रहने वाले चैतनीक गुण युक्त हैं, अगरू लघुहै, न वो कधी आके लगे, न वो कधी विछडे, आनादी से निज
SR No.006299
Book TitleDhyan Kalptaru
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherKundanmal Ghummarmal Seth
Publication Year
Total Pages388
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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