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२०, ध्यानकल्पतरू. . ऐसेही पिण्डस्थ ध्यानमें "सप्त भंगीसे आत्मतत्व" विचारे.१ प्रत्येक पदार्थ अपने २ द्रव्य चतुष्टय
हो, द्रढता पूर्वक पहले पृथवी तत्वका विचार करता गोलाकार पृथवी के मध्य क्षीर सागर और उसके मध्यमें जंबुद्विपका कमल ठेरावे मेरु पर्वत को किरणिका ठेहरा उस्में सिंहासनकी कल्पना कर उसपे आप बेठे. फिर दूसरा अग्नी तत्वका विचार करता. हृदयमें १६ पंखडीके कमलपे 'अ' स्वरसे लगा १६ मा अ. श्वरकी स्थापन कर मध्यमें हैं' बीज स्थापे, फ़िर विचार करे की इसमे धुम्र निकलने लगा, और महाज्वला प्रगट हो कमल को भस्म कर भक्षके अभावसे अग्नी शांत हुइ फिर ३ वायूका विचार करे के महा वायु प्रगट हो मेरुको कम्पाने लगा. और पहलेकी भस्म उडा ले गया जिससे वो जगा साफ होगइ. फिर ४ पाणी तत्व विचारे की आकाश मै गारवहो बुंद पडने लगी और महामेघ बर्षके उस स्थानको अत्यंत स्वच्छ कर दीया. और मेघ भगगया. फिर ५ मा आकाश तत्व विचारेकी अब मेरी आत्मा सप्त धातू मय पिंड रहित, पूर्ण चन्द्रके समान प्रकाशित निर्मल सर्वज्ञ देवतुल्य हुइ. यह दृढतासे निश्चयात्मक बननेसे हुबेहू बनाव द्रष्टी आता है.
पा अपने २ द्रव्य चतुष्टयसे सर्व पदार्थ सत्य हैं. जैसे आत्मा ज्ञा नादी गुणका भाजन (आधार) ही हैं. परन्तु ज्ञानादी गुणों में जो समय २ में फेरफार होता है सो पर्याोका होता है, न की स्वभा वोकाः २आत्माके असंख्यात प्रदेशोमें जो ज्ञानादी गुण रहे है सोस्व क्षेत्र है. ३ पर्यायोमे जो उत्पात व्यय क्षिण २ में होता है, सो स्व काल है. और ४ आत्माके गुणोंका और पर्यायोंका जो कार्य धर्म ..हहसास्वभाव