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________________ तृतीयशाखा-धर्मध्यान. १९३ द्वितीय पत्र-"निसग्गरुची" २ 'निसग्ग रुची' धर्म ध्यानी पुरुष कों, इस विश्वालय में के सर्व पदार्थ ऐसें भाष होते हैं, की-जा ने मुजे सहौध ही करतें है. श्री आचारांग ज्ञास्त्र के फरमान मुजब ज्ञानी महात्मा आश्रव के स्थान में ही संबर निपजा लेतें हैं. जैसेछनमीराज ऋषिने प्रेमलाओं के चडीओं का अवाज सुना उससे (अन्यकों काम रा. ग बृधी करने का कारण होता है) उनोने वैराग्य प्रा. प्त किया. ऐसे ही झाड, पाहाड, खान, पान, वस्त्र भु. षण, ग्राम, मशाण, रोग, हर्ष, शोग, बादल, विद्युत संयोग. वियोग निर्वती भाव यह सब वैराग्य उत्पन्न करने के कारण होते हैं. इत्यादीसे जिनको वैराग्य उ स्पन्न होवें सो निसर्ग रुची. और कित्नेक जाति स्मरण ज्ञान से अपने पूर्व के ९०० भव (जो सन्नी पचेंद्रीय मिथला नगरी के नमी नरायज़ीके सरीर में दहा ज्वर हुवा, उसवक्त वैदके कहनसे शांती उपचार के लिये १००८ राणीयों बावन चंदन घिस के लगाने लगी, तव उन सबके हाथ की बुडीयों का एक दम शोर मच गया. तब नमोराय बोले मुझे येशब्द अच्छा नहीं लगता है. की उसी वक्त सब प्रेमलाने शोभाग्यके लिये एकक चूड़ी हाथ में रख सबचूड़ीयो उतार डाली. अवाज बंद होने कारण समजने से विंचर हुवा की, बहुत चूडी एक स्थान थी. तबही गडबंड थी और एकरहनसे सबगडबड मिट गइ. वसमेंही सबमें फलाहूं वहांतकही दुःखो हंजो इस वेदनासे मुक्त होवु तो सर्व सेगत्याग. सुखो बनू. इत्ला वित्रारतही. रोग शांत दुधा और वो दिक्षा ले अनंत सुख पाये
SR No.006299
Book TitleDhyan Kalptaru
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherKundanmal Ghummarmal Seth
Publication Year
Total Pages388
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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