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________________ तृतीयशाखा-धर्मध्यान. ममत्वका त्याग करना. और कोइ वक्त अशुभोदय से अशोभनीक संस्थान मय अपना, सरीर यास्त्रीया दिक कुटम्ब संयोग मिलगया. या अमन्योग सयनासनका योग्य बना तो,खेदित न बनें. क्यों कि संस्थान तो फक्त एक व्यवहारिक रूप हैं, इससे अंतःरिक कुछ कार्य की सिद्धी नहीं होती है. जिससे किसी कार्य की सि द्वी न होवे. उसपे रुष्ट तुष्ट होना येही अज्ञानता जा नी जाती है. और भी विचारे की, रे जीव! तूं ज्ञानी बनके भी निकम्मे काममे राग द्वेष कर, कर्म बन्धन करता है, तो तेरे ज्ञानसे तुजे क्या फायदा हुवा. इ. त्यादी विचार, अच्छे या बुरे, संस्थान मय पदार्थोपेसे राग द्वेष कमी करे. और सदा एकही आकारमें रहने । वाले, जो निजात्म गुण तथा परमात्म खरूप है. उस में अपनी प्रणतीको प्रणमावे. * यह धर्म ध्यानके चार पायोंका संक्षेप में स्वरूप कहा धर्मध्यानके ध्याता इन्हीको यथा बुद्धी प्रमाणे विचर के धर्म ध्यानमें अपणी आत्माको स्थिर करें.
SR No.006299
Book TitleDhyan Kalptaru
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherKundanmal Ghummarmal Seth
Publication Year
Total Pages388
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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