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________________ १८८ ध्यानकल्पतरू. . वासुदेव आदी उत्तम पुरुषोंका एक समच उरस संस्था न होता हे. __ अजीवके ५ संठाण-१बट्टे गोळ (8) लड्ड जैसा २ तंसे तीखुणा सिंघोडे जैसा. ३ चौरंसे–चौखुणा [] चौकी (बाजोट) जैसा. ४ परिमंडल-गोल ० चूडी जैसा और पांचमां आइतंस-लम्बा | लकडी जैसा. इन पांचही संस्थानमय, इस चगतमें अनेक अजीव पदार्थ हैं. बट्टे तो बाटले बेताडादिक, तंसे और चौरसे सो किनेक देवताके विमाण वगैरे. तथा परिमंडल द्विय समुद्रादिक ऐसे औरभी अनेक पदार्थ जानना. ___ यह संठाण-संस्थानो का जो वर्णव किया इन आकारके सर्व पदार्थोंमें; अपना जीव अनंत वक्त उप जके मर आया है. स्वतः सर्व प्रकारके उंच नीच संस्थान धारण कर आया है. और सर्व सं. स्थान मय वस्तुका मालिक हो आया है. भोगव आ या है. अब्बी ह्यां रे जीव ! तुझे पुण्योदयसे तेरे सरी रका, स्त्रीयादीका, मनोरम्य संस्थान मिलगया. तथा सयनासन, वासन, वस्त्र, भुषण, वाहन, इत्यादी इच्छि त ऋद्धी प्राप्त हुइ देख के, क्यों उसके फंदमें फसता हैं.क्या मरके उसहीमें उत्पन्न होना है? कहते हैं, “आसा वहां वासा" ऐसा जाण, अच्छे संस्थानके पदार्थों से
SR No.006299
Book TitleDhyan Kalptaru
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherKundanmal Ghummarmal Seth
Publication Year
Total Pages388
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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